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गा० २१]
वारह अनुयोगोंसे प्रेयोद्वेष-निरूपण १११. *उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । ११२. एवं सव्वाणियोगद्दाराणि अणुगंतव्वाणि । कि कोई तिर्यंच या मनुष्य जीव द्वेपके उत्कृष्टकालमें अन्तमुहूर्त तक रहा। जब उस अन्तमुहूर्तकालमें एक समय शेष रह गया, तब वह मरकर नरकगतिमे उत्पन्न हुआ। इस प्रकार नरकगतिमे नारकियोके द्वेषका जघन्यकाल एक समयप्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार रागके भी जघन्यकालको जान लेना चाहिए।
अब नारकियोके राग और द्वेषका उत्कृष्टकाल कहते हैं
चूर्णिसू०-नरकगतिमे नारकियोके राग और द्वेषका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण है ॥१११॥
विशेषार्थ-यद्यपि नारकियोको द्वेप-बहुल बताया गया है, तथापि-छेदन, भेदन, मारण, ताडन आदि करते हुए भी वे जिन क्रियाओ या व्यापारोमे आनन्दका अनुभव करते है, उनकी अपेक्षा उनमे रागभावकी भी संभावना पाई जाती है । इस प्रकारके रागभावमे अन्तमुहूर्तकाल रह करके पीछे द्वेपमे जानेवाले नारकीके रागका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सिद्ध हो जाता है। यही क्रम द्वैपके उत्कृष्ट कालमे भी लगा लेना चाहिए। जिस प्रकार नरकगतिमे राग और द्वेषके जघन्य तथा उत्कृष्ट कालका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे शेष गतियो और मार्गणाओमे भी राग-द्वेपके जघन्य और उत्कृष्ट कालोको जानना चाहिए । विशेष बात यह कि कषायमार्गणामे राग और द्वेषका जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्रमाण ही होता है क्योकि अन्तमुहूर्त के विना कषायका परिवर्तन नही होता । कार्मणकाययोगी जीवोमे राग और द्वेषका जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय होता है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंमे भी राग और द्वेपका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समयप्रमाण जानना चाहिए ।
अब शेप अनुयोगद्वारोके वतलानेके लिए अर्पणसूत्र कहते है
चूर्णिसू ०-जिस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार और कालानुयोगद्वारका निरूपण किया, उसी प्रकारसे शेप अनुयोगद्वारोको भी जानना चाहिए ॥११२॥
विशेपार्थ-चूर्णिसूत्रकारने शेप अनुयोगद्वारोके अर्थको सुगम समझकर उनका व्याख्यान नहीं किया है। किन्तु विशेष जिज्ञासुओंके लिए यहॉपर जयधवला टीकाके अनुसार उनका कुछ व्याख्यान किया जाता है (३) अन्तरानुगमकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है-ओघनिर्दश और आदेशनिर्देश । इनमेसे ओवनिर्देशकी अपेक्षा रागका जघन्य अन्तर एक
9 जयधवलाके सम्पादकोंने इसे भी चूर्णिसूत्र नहीं माना है, पर यह स्पष्टतः चूर्णिसूत्र है, क्योंकि इसके पूर्व नारकियों के पेज-दोसका केवल जघन्य काल ही कहा है, उत्कृष्ट काल नहीं । अतएव उसका प्रतिपादन होना ही चाहिए। स्वयं जयधवला टीकासे मी इसकी सूत्रता सिद्ध है। यथा-उकस्सेण अंतोमुहत्तं । कुदो, साभावियादो। (देखो-जयध० भा० १, पृ० ३८८)