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कसाय पाहुड सुत्त
[ २ प्रकृतिविभक्ति
समझकर चूर्णिकारने उनका व्याख्यान नहीं किया है । किन्तु आज तो उनका ज्ञान दुर्गम है, अतः संक्षेपसे उन अनुयोगद्वारोंका यहाँ व्याख्यान किया जाता है । मोहनीयकर्म की एक एक करके सभी - अट्ठाईस - उत्तरप्रकृतियों के पृथक्-पृथक् स्वामियोंके वर्णन करनेवाले अनुयोगद्वारको स्वामित्वानुगम कहते है । इस स्वामित्वका निर्णय ओघ और आदेश इन दोनो के द्वारा किया जाता है । ओघकी अपेक्षा किये जानेवाले विचारको सामान्य निर्णय कहते हैं | आचार्योंने जिज्ञासुजनों की संक्षेपरुचिको देखकर उनके अनुग्रहार्थ ओयका निर्देश किया है । किन्तु जो जिज्ञासुजन विस्तारसे तत्त्वको जानना चाहते हैं, उनके अनुग्रहार्थं आदेशका निर्देश किया । इसी बात को दूसरे शब्दो में इस प्रकार भी कह सकते है कि तीव्रबुद्धिवाले भव्यजनोके लिए ओघसे वस्तु-निर्णय किया गया है और मन्दबुद्धि भव्योके उपकारार्थ आदेशसे वस्तु - निर्णय किया गया है । यही अर्थ आगे सर्वत्र प्रत्येक अनुयोगद्वार मे किये गये दोनो प्रकार के निर्देशोके विपयमे जानना चाहिए ।
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ओवप्ररूपणाके अनुसार मिध्यात्वप्रकृतिकी विभक्तिका स्वामी कोई भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिध्यादृष्टि जीव है । अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवके और जिस सम्यग्दृष्टि जीवने मिथ्यात्वका क्षय नही किया है, उसके मिध्यात्वविभक्ति होती है । मिथ्यात्वप्रकृतिकी अविभक्तिका स्वामी मिध्यात्वका क्षय करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिका स्वामी कोई एक मिध्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव है । इन्ही दोनो प्रकृतियोकी अविभक्तिके स्वामी क्रमशः सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलन या क्षपण करनेवाले मिध्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव है । अनन्तानुबन्धीकपाय - चतुष्ककी विभक्तिका स्वामी मिध्यादृष्टि, अथवा वह सम्यग्दृष्टि जीव है जिसने कि उसका विसंयोजन नहीं किया है । अनन्तानुबंधीकपायकी विभक्तिका स्वामी अनन्तानुवन्धी - चतुष्कका विसंयोजन करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव होता है । अप्रत्याख्यानावरणादि शेप बारह कषाय और हास्यादि नव नोकषायोकी विभक्तियोका स्वामी कोई एक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव होता है । इन्ही प्रकृतियोकी अविभक्तिका स्वामी उस उस विवक्षित प्रकृति की सत्ताका क्षय करनेवाला कोई एक सम्यग्दृष्टि जीव होता है । यह ओघसे स्वामित्वका निर्णय किया । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त पांचों मनोयोगी, पांचो वचनयोगी, काय - योगी, औदारिककाययोगी चक्षुदर्शनी अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यिक, भव्यसिद्धिक और अनाहारकजीवोके मोहकर्मकी विभक्ति-अविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए । इसी प्रकार आदेश के शेष भेदोकी अपेक्षा भी प्रत्येक प्रकृतिके विभक्ति और अविभक्तिके स्वामित्वका निर्णय कर लेना चाहिए । (२) मोहनीयकर्मकी एक एक उत्तरप्रकृतिके विभक्ति - अविभक्तिसम्बन्धी कालकं प्रतिपादक अनुयोगद्वारको कालानुगम कहते है । ओवसे मिध्यात्व अप्रत्याख्यानावरणादि बारह कषाय और नव नोकपायोकी विभक्तिका काल अभव्योकी अपेक्षा अनादि - अनन्त हैं, तथा भव्य जीवोंकी अपेक्षा अनादि सान्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनो प्रकृतियो की
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