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गा० २२]
उत्तरभकृतिविभक्ति-निरूपण ३६. तदो उत्तरपयडिविहत्ती दुविहा-एगेगउत्तरपयडिविहत्ती चेव पयडिहाणउत्तरपय डिविहत्ती चेव । ३७ तत्थ एगेगउत्तरपयडिविहत्तीए इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-एगजीवेण सामित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो सण्णियासो अप्पावहुए त्ति । ३८. एदेसु अणियोगदारेसु परू विदेसु तदो एगेगउत्तरपयडिविहत्ती समत्ता । यथासम्भव सर्वकाल, क्षुद्रभव, अन्तर्मुहूर्त, पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग आदि काल जानना चाहिए । ( ६ ) ओघसे नानाजीवोकी अपेक्षा मूलप्रकृतिविभक्तिका अन्तर नहीं है । मार्गणाओमे यथासम्भव पदोकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर यथासम्भव जानना चाहिये । जैसे-सामायिक, छेदोपस्थाना आदिमे पल्यका असंख्यातवॉ भाग, सूक्ष्मसाम्परायचारित्रका जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास आदि। (७) ओधकी अपेक्षा मूलप्रकृतिका भागाभागानुगम कहते है-मोहकी विभक्तिवाले जीव सर्वजीवराशिके अनन्त वहुभाग-प्रमाण है, किन्तु अविभक्तिवाले जीव अनन्तवे भाग है। इसी प्रकारसे नरकगति आदिमे अपनी-अपनी जीवराशिके प्रमाणसे सभी मार्गणाओमे भागाभाग जान लेना चाहिए। ध्यान रखनेकी बात यह है कि जिन राशियोका प्रमाण अनन्त है, वहॉपर अमन्तके बहुभाग और एक भागके रूपसे भागाभागका निर्णय करना । और जहॉपर राशिका प्रमाण असंख्यात है, वहॉपर असंख्यातके बहुभाग और एक भागरूपसे यथासंभव भागाभागका निर्णय करना चाहिए । (७) अब मूलप्रकृति-सम्बन्धी अल्पबहुत्वका निर्णय करते है । ओघकी अपेक्षा मूलप्रकृतिकी अविभक्तिवाले जीव सवसे कम है और विभक्तिवाले जीव उनसे अनन्तगुणित है। इसी वीज पदके अनुसार मार्गणाओमे भी अल्पबहुत्वका निर्णय कर लेना चाहिए।
चूर्णिसू०-अब उत्तरप्रकृतिविभक्तिका व्याख्यान करते है। वह दो प्रकारकी होती है-एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति ॥३६॥
विशेपार्थ-मोहनीयकर्म-सम्बन्धी अट्ठाईस प्रकृतियोकी जहॉपर पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की जाती है, उसे एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते है। तथा, जहॉपर अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस आदि सत्त्वस्थानोके द्वारा मोहकर्मके उत्तरप्रकृतियोकी प्ररूपणा की जाती है, उसे प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते है।
चूर्णिसू०-उनमेमे एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिमे ये ( ग्यारह ) अनुयोगद्वार होते हैं । वे इस प्रकार है-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचयानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगस, अन्तरानुगम, मन्निकर्प
और अल्पबहुत्व । इन ग्यारह अनुयोगद्वारोकं प्ररूपण किये जानेपर एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति नामका उत्तरप्रकृतिविभक्तिका प्रथम भेद समाप्त होता है ॥३७-३८॥
विशेपार्थ-एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्तिके उपयुक्त ग्यारह अनुयोगद्वाराको सुगम