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कसाय पाहुड सुत्त
[१ पेजदोसविहत्ती
समय है । जैसे-कोई उपशमश्रेणीवाला सूक्ष्मसाम्परायसंयत-गुणस्थानवी जीव सर्व जघन्य एक समयमात्र उपशान्तकपाय गुणस्थानमे रहा और मरकर लोभकपायके उदयसे युक्त देव हुआ । इस प्रकार रागका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सिद्ध हो गया। रागका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण है। जैसे कोई एक जीव लोभकषायके तीव्र उदयसे रागभावका सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अनुभव करता रहा । पुनः अन्तमुहूर्त कालके पूरा होनेपर क्रोधकषायका तीव्र उदय हो गया और वह रागभावसे अन्तरको प्राप्त होकर द्वेषभावका वेदक हो गया। सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहूर्तकाल तक द्वेपका अनुभव कर लोभकपायके' उदयसे पुनः रागभावका वेदक हो गया। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर सिद्ध हो गया । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी रागके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको जान लेना चाहिए । विशेष बात यह है कि रागका एक समयप्रमाण जघन्य अन्तर सर्वत्र संभव नहीं है, किन्तु आगमके अविरोधसे उसका यथासंभव निर्णय करना चाहिए । ओघनिर्देशकी अपेक्षा द्वेषका जघन्य
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण है। जैसे-कोई क्रोधकषायके उदयसे द्वेषभावका वेदक जीव अपने कपायका काल समाप्त हो जाने पर अन्तर को प्राप्त हो लोभकषायके उदय. से रागभावका वेदक हो गया । और सर्व-जघन्य अन्तमुहूर्त्तकाल तक रागका अनुभव कर पुनः क्रोधकषायी हो गया । इस प्रकार जघन्य अन्तर लब्ध हुआ । इसी प्रकार उत्कृष्ट अन्तर भी जानना चाहिए । भेद केवल इतना ही है कि द्वेपसे अन्तरको प्राप्त होकर और सर्वोत्कृष्ट अन्तमुहूर्त्तकाल तक रागभावका अनुभवकर पुनः द्वेषको प्राप्त हुए जीवके उत्कृष्ट अन्तर होता है । ओघके समान आदेशमे भी द्वेषका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण होता है, सो यथानिर्दिष्ट रीतिसे सवमे लगा लेना चाहिए। (४) नाना जीवोकी अपेक्षा राग और द्वेषके संभव भंगोका निरूपण करनेवाले अनुयोगद्वारको 'नानाजीवेहि भंगविचयानुगम' कहते है । इस अनुयोगद्वारका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा निर्देश किया गया है। ओघनिर्देशकी अपेक्षा कोई भंग नहीं है, क्योकि, राग नियमसे दशवे गुणस्थान तक पाया जाता है और द्वेष भी नवे गुणस्थान तक पाया जाता है। इसी प्रकार मार्गणाओमे भी नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचयागुगम जानना चाहिए। केवल लव्ध्यपर्याप्त मनुष्य, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी आदि कुछ मार्गणाओमे राग और द्वेप-सम्बन्धी आठ आठ भंग होते हैं । वे आठ भंग ये है-(१) स्यात् राग, (२) स्यात् नोराग, (३) स्यात् अनेक राग, (४) स्यात् अनेक नोराग, (५) स्यात् एक राग और एक नोराग, (६) स्यात् एक राग और अनेक नोराग, (७) स्यात् एक नोराग और अनेक राग, तथा (८) स्यात् अनेक राग और अनेक नोराग । इसी प्रकार स्यात् द्वेप, स्यात् नोवैप इत्यादि क्रमसे द्वेषसम्बन्धी आठ भंग जानना चाहिए । (५) जीवोके अस्तित्वको निरूपण करनेवाली प्ररूपणा सत्प्ररूपणा कहलाती है। इसका भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश किया गया है ओघकी अपेक्षा मिथ्या