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गा० २१ ]
बारह अनुयोगों से प्रेयो द्वेष-निरूपण
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१०१. णेगमा संगहियस्स वत्तव्वएण वारस अणियोगद्दाराणि पेज्जेहि दोसेहि । १०२. एगजीवेण सामित्त कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ संतपरूवणा दव्यपमाणागमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भागाभागानुगमो अप्पा बहुगागमो चि । १०३ कालजोणी सामित्तं ।
और न किसीपर राग करता है । किन्तु अपने आपमे ही राग और द्वेषरूप आचरण करता है, यह बात सिद्ध हुई |
चूर्णिसू० - असंग्राहिक नैगमनयके वक्तव्य से प्रेय और द्वेषकी अपेक्षा बारह अनुयोगद्वार होते है || १०१॥
विशेषार्थ - नैगमनयके दो भेद हैं- संग्राहिकनैगम और असंग्राहिकनैगम नय । उनमेसे असंग्राहिकनैगमनयकी अपेक्षा प्रेय और द्वेपके अर्थका प्रतिपादन करनेवाले बारह अनुयोगद्वार होते है, जिनके कि नाम आगे के सूत्रमे बतलाये गये है । तथा, संग्राहिकनैगमनय और शेष समस्त नयोकी अपेक्षा पन्द्रह अनुयोगद्वार भी होते हैं, इससे अधिक भी होते है और कम भी होते है, क्योकि, उक्त नयोकी अपेक्षा अनुयोगद्वारोकी संख्याका कोई नियम नही है । जयधवलाकारने अथवा कहकर इस सूत्रका एक और प्रकार से भी अर्थ किया है - असंग्राहिक नैगमनयके वक्तव्य से जो प्रेय और द्वेप चारो कषायोके विषय मे समानरूपसे विभक्त है, अर्थात् क्रोध और मान द्वेषरूप हैं, तथा माया और लोभ प्रेयरूप हैं, उनकी अपेक्षा वक्ष्यमाण बारह अनुयोगद्वार होते है ।
वे बारह अनुयोगद्वार इस प्रकार है
चूर्णिसू०.
० - एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ॥१०२॥
विशेषार्थ - सत्प्ररूपणाको आदिमे न कहकर अनुयोग-द्वारोके मध्यमे क्यो कहा ? इस शंकाका समाधान- यह है कि यदि सत्प्ररूपणाको मध्यमे न कहकर उसे अनुयोगद्वारोके आदिमे कहते, तो वह एक - जीवविषयक ही रहती, क्योकि, आदिमे एक जीव- सम्वन्धी अनुयोगद्वारोका ही नाम - निर्देश किया गया है । किन्तु मध्यमे उल्लेख करनेसे उनका विषय साधारणतः एक और अनेक जीव-सम्बन्धी सत्ताका प्रतिपादन करना वन जाता है । इसलिए उसका अनुयोगद्वारोके मध्यमे नाम-निर्देश किया है ।
चूर्णिसू०-स्वामित्व अनुयोगद्वार कालानुयोगद्वारकी योनि है ॥ १०३॥
विशेषार्थ-स्वामित्वके निरूपण किये विना कालकी प्ररूपणा नहीं हो सकती है । अतएव स्वामित्वानुयोगद्वारको कालानुयोगद्वारकी योनि कहा है ।
स्वामित्वानुयोगद्वारकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | इनमे से पहले ओघ निर्देशकी अपेक्षा द्वेपके स्वामित्वका प्रतिपादन करते हैं