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कसाय पाहुड सुत्त
[१ पेजदोसविहत्ती ९५. 'पियायदे को कहिं वा वि' त्ति एत्थ वि णेगमस्स अट्ठ भंगा। ९६. एवं ववहारणयस्स । ९७. संगहस्स दुट्ठो सव्वदव्येसु । ९८. पियायदे सव्वदव्वेसु । ९९. एवमुजुसुअस्स १००. सदस्स णो सव्वदव्वेहि दुट्ठो, अत्ताणे चेव, अत्ताणम्मि पियायदे ।
अव चूर्णिकार उक्त गाथाके चतुर्थ चरणका अर्थ कहते हैं
चूर्णिस०-'कौन नय किस द्रव्यमें प्रियरूप आचरण करता है', यहाँ पर भी नैगमनयकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं ॥९५॥
जिस प्रकार ऊपर द्वेपको आश्रय करके एक और अनेक जीव तथा अजीव-सम्बन्धी आठ भंग वतलाए गये हैं । उसी प्रकार यहाँ प्रेयको आश्रय करके आठ भंग जान लेना चाहिए । क्योकि, जैसे जीव, कभी किसी समय एक जीव और अनेक जीवोमे प्रेयभावका आचरण करता हुआ देखा जाता है, उसी प्रकार कभी एक अजीव भवनादिमे और अनेक अजीवरूप भोगोपभोगके साधनभूत हिरण्य, सुवर्ण, शय्या, आसन और खान-पानकी वस्तुओमे प्रिय आचरण करता हुआ देखा जाता है। इसी प्रकार शेप भंगोको भी लगा लेना चाहिए । नैगमनयकी अपेक्षा आठ भंग कहनेका कारण यह है कि यह नय संग्रह और असंग्रह-स्वरूप सभी पदार्थोंको विपय करता है। जिससे एक-अनेक, भेद-अभेद आदिके आश्रयसे उत्पन्न होनेवाले भंगोंका इस नयमे समावेश हो जाता है ।
चूर्णिसू-इसी प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षासे द्वेप और प्रेयसम्बन्धी आठ भंग जानना चाहिए । क्योकि, इन उक्त आठो प्रकारके भंगोमे प्रिय और अप्रियरूपसे लोकसंव्यवहार देखा जाता है। संग्रहनयकी अपेक्षा कभी यह जीव सर्व चेतन और अचेतन द्रव्योमे निमित्तविशेषादिके वशसे द्वेषरूप व्यवहार करने लगता है । यहाँ तक कि कचित् कदाचित् प्रिय पदार्थोंमे भी अप्रियपना देखा जाता है। कभी सभी वस्तुओमे प्रिय आचरण करता है । यहाँ तक कि निमित्तविशेष मिलनेपर विषादिक अप्रिय एवं घातक वस्तुओंमें भी प्रिय , आचरण करता हुआ देखा जाता है । संग्रहनयके समान ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा भी यह जीव कभी सर्व द्रव्योमे द्वेषरूप आचरण करता है ॥९६-९९।।
चूर्णिसू०-शब्दनथकी अपेक्षा जीव सर्वद्रव्योके साथ न तो द्वेष-व्यवहार करता है और न प्रिय-व्यवहार ही। किन्तु अपने आपमे ही द्वेष-व्यवहार करता है और अपने आपमे ही प्रिय आचरण करता है।। १००॥
विशेषार्थ-किसी अन्य चेतन या अचेतन पदार्थमे द्वेषभाव रखनेपर उसका फल अन्यको नहीं भोगना पड़ता है किन्तु अपने आपको ही भोगना पड़ता है, क्योकि, किसी पर क्रोध, द्वेप आदि करनेपर तत्काल उत्पन्न होनेवाले अंग-संताप, चित्त-वैकल्य आदि कुफल, और परभवमे उत्पन्न होनेवाले नरकादिकके दुःख जीवको ही भोगना पड़ते हैं। इसी प्रकार अन्यपर किया गया प्रिय आचरण भी अन्यको सुख पहुँचानेकी अपेक्षा अपने आपको ही सुख और शान्ति पहुंचाता है । इसलिए शब्दनयकी अपेक्षा जीव न किसी पर द्वेप करता है