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गा० २१]
नयोंकी अपेक्षा प्रेयोद्वेप-निरूपण ९१. सदस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णो पेज्ज, लोहो सिया पेज्जं । ९२. *दुट्टो व कम्हि दव्ये'त्ति । ९३. णेगमस्स । ९४. दुट्ठो सिया जीवे, सिया णो जीवे । एवमट्ठ भंगेसु ।
चूर्णिसू०-शब्दनयकी अपेक्षा क्रोधकपाय द्वेप है, मानकषाय द्वेप है, मायाकपाय द्वेप है और लोभकषाय भी द्वेष है । तथा, क्रोधकषाय, मानकषाय और मायाकपाय नोप्रेय है, लोभकपाय कथंचित् प्रेय है ॥९१॥ ।
विशेपार्थ-क्रोधादिक सभी कपाय कर्मास्रवके कारण हैं, इस लोक और परलोकका विनाश करनेवाली हैं, इसलिए उन्हे द्वेषरूप कहना उचित ही है । क्रोध, मान और मायाकपायको नोप्रेय कहनेका कारण यह है कि इनसे तत्काल जीवके न तो संतोप ही पाया जाता है, और न परम आनन्द ही । लोभकपायके कथंचित् प्रेयरूप कहनेका अभिप्राय यह है कि रत्नत्रयके साधन-सम्बन्धी लोभसे आगे जाकर स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति भी देखी जाती है। इनके अतिरिक्त सांसारिक वस्तु-विपयक लोभ नोप्रेय ही है, क्योकि, उससे पापोकी उत्पत्ति देखी जाती है।
इस प्रकार उक्त गाथासूत्रके पूर्वार्धकी व्याख्याकर अब उसके तीसरे चरणका अर्थ कहनेके लिये यतिवृषभाचार्य उसका उपन्यास करते है
चूर्णिसू०-'कौन नय किस द्रव्यमे द्वेवको प्राप्त होता है' ? नैगमनयकी अपेक्षा जीव किसी विशिष्ट क्षेत्र और किसी विशिष्ट कालमे एक जीवमे द्वेपको प्राप्त होता है, तथा कचित् कदाचित् एक अजीवमे द्वेषको प्राप्त होता है। इस प्रकार आट भंगोमे ट्रेप-व्यवहार जान लेना चाहिए ॥९२-९४॥
विशेषार्थ-वे आठ भंग इस प्रकार हैं-(१) जीव कभी कही एक जीवमे द्वेष करता है, (२) कभी कही अनेक जीवोमे द्वेप करता है, (३) कभी कही एक अजीवपर द्वेप करता है, (४) कभी कही अनेक अजीवोपर द्वेष करता है, (५) कभी एक जीव और एक अजीवपर, (६) कही अनेक जीव और एक अजीवपर, (७) कभी अनेक अजीव और एक अजीवपर और (८) कही अनेक जीव और अनेक अजीवोमे द्वेप करता है । इन आठो ही भेदोमे क्रोधकी उत्पत्ति अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्षमे ही कभी किसी जीवके दुर्व्यवहारके कारण क्रोध उत्पन्न होता है, तो कभी पैर आदिम कॉटा आदिके लग जानेस अजीव पदार्थके द्वारा भी क्रोधकी उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है । इस प्रकार नैगमनयकी अपेक्षा 'कौन किस द्रव्यम द्वेषभावको प्राप्त होता है' इस चरणसे संबंधित आठ भंगोका निरूपण जानना चाहिए।
ॐ जयधवला-सपादकोंने इसे चूर्णिसूत्र नहीं माना, पर यह चूर्णिसूत्र है, जैसा कि दनी सूत्रकी जयधवलाटीकासे ही स्पष्ट है :-दुट्ठो व कम्हि दब्बे त्ति । एयत्स गाहावयवत्स अत्यो बुञ्चदि त्ति जाणाविदमेदेण सुत्तण । णेद परूवेदव्यं, सुगमत्तादो ? ण एस दोमो, मदमेहजणाणुगह परूविटत्तादो।
जयध० भा० १ ० ३८०।