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कसाय पाहुड सुत्त
[१ पेजदोसविहत्ती किट्टीकयवीचारे संगहणी खीणमोहपट्रवए । सत्तेदा गाहाओ अण्णाओ सभासगाहाओ ॥९॥ संकामण ओवट्टण किट्टीखवणाए एकवीसं तु । एदाओ सुहगाहाओ सुण अण्णा भासगाहाओ' ॥१०॥ पंच य तिणि य दो छक चउक्क तिमि तिणि एका य । चत्तारि य तिणि उभे पंच य एक तह य छकं ॥११॥ तिणिण य चउरो तह दुग चत्तारि य होति तह चउकं च ।
दो पंचव य एका अण्णा एका य दस दो य॥१२॥ -~
कृष्टि-सम्बन्धी ग्यारह गाथाओं से ग्यारहवी वीचार-सम्बन्धी एक गाथा, संग्रहणी-सम्बन्धी एक गाथा, क्षीणमोह-सम्बन्धी एक गाथा और प्रस्थापक-सम्बन्धी चार गाथाएँ; इस प्रकार ये सात गाथाएँ सूत्रगाथाएँ नहीं हैं। इनके सिवाय शेष अन्य सभाष्य गाथाएँ हैं । संक्रामण-सम्बन्धी चार गाथाएँ, अपवर्तना-सम्बन्धी तीन गाथाएँ, कृष्टि-सम्बन्धी दश गाथाएँ और कृष्टि-क्षपणा-सम्बन्धी चार गाथाएँ; ये सब मिलाकर इक्कीस सूत्र-गाथाएँ हैं। अब इन इक्कीस सूत्र-गाथाओंकी जो अन्य भाष्य-गाथाएँ हैं, उन्हें सुनो ।।९-१०॥
विशेषार्थ-पृच्छारूपसे अनेक अर्थोंकी सूचना करनेवाली गाथाओको सूत्रगाथा कहने हैं और उन पृच्छाओका अर्थ-व्याख्यान करनेवाली गाथाओको भाष्यगाथा अथवा असूत्रगाथा कहते हैं। प्रकृतमे उक्त इक्कीस मूल गाथाओके अर्थके व्याख्यान करनेवाली छियासी अन्य भी गाथाएँ पाई जाती है, जिन्हे भाष्यगाथा गाथा कहते हैं ।
वे भाष्य-गाथाएँ कौन-कौन हैं, और किस-किस अर्थम कितनी-कितनी भाष्यगाथाएँ हैं, यह बतलाते हुए भाष्य-गाथाओंके प्ररूपण करनेके लिए आगे की दो सूत्र-गाथाएँ कहते हैं---
चारित्रमोहक्षपणा-सम्बन्धी इक्कीस सूत्र-गाथाओंकी भाष्य-गाथा-संख्या क्रमशः पाँच, 'तीन, दो और छह', चार, तीन, तीन, एक, चार, तीन, दो, 'पाँच, एक और छह', तीन, चार, दो, चार, चार, दो, पाँच, एक, एक, दश और दो है ॥११-१२॥
विशेपार्थ-नवे गुणस्थानमै अन्तरकरण करनेपर जीव संक्रामक कहलाता है, १ तत्थ मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ, पुच्छामेत्तेण सूचिदाणेगत्थाओ। भासगाहा सवपेक्खाओ।
मासगाहामओ चि वा वक्खाणगाहाओ त्ति वा विवरणगाहाओ ति वा एयहो। जयध.