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कसाय पाहुड सुत्त [१ पेजदोसविहत्ती लद्धी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । दोसु वि एका गाहा अटेवुवसामणद्धम्मि ॥६॥ चत्तारि य पट्टवए गाहा संकामए वि चत्तारि।
ओवट्टणाए तिणि दु एकारस होति किट्टीए ॥७॥ मणुस्सेसु' इस गाथा तक पाँच सूत्रगाथाएँ निवद्ध हैं। यहाँ तक समस्त गाथाओका जोड़ पचवन ( ३+४+ ७ + १६ + ५ + १५ + ५=५५ ) होता है ।
कितने ही आचार्य, दर्शनमोहकी उपशामना और दर्शनमोह-क्षपणा, इन दोनो ही अधिकारो को एक सम्यक्त्व अधिकारके अन्तर्गत कहते हैं । उनकी उक्त पक्षके समर्थन मे युक्ति यह है कि यदि इन दोनो अधिकारोको एक न माना जाय, तो 'अद्धापरिमाण' नामके अधिकार के साथ सोलह अधिकार हो जाते हैं । इसपर जयधवलाकारने यह समाधान किया है कि गुणधराचार्यने जिन एक सौ अस्सी गाथाओके द्वारा कसायपाहुड के कहनेकी प्रतिज्ञा की है, उनमे अद्धापरिमाण-अर्थाधिकारसे प्रतिवद्ध गाथाएँ नहीं पाई जाती हैं, इसलिए इसे पृथक अधिकार न मानकर सभी अधिकारोमे साधारणरूपसे व्याप्त अधिकार मानना चाहिए। गुणधराचार्यने यही बात 'अद्धापरिमाण-णिदेसो' इस अन्तदीपक पदके द्वारा सूचित की है।
संयमासंयम-लब्धि नामका बारहवाँ अर्थाधिकार है और चारित्र-लब्धि नामका तेरहवॉ अर्थाधिकार है । इन दोनों ही अर्थाधिकारोंमें एक गाथा निबद्ध है । चारित्रमोह -उपशामना नामका चौदहवाँ अर्थाधिकार है। इसमें आठ सूत्रगाथाएँ सम्बद्ध हैं ॥६॥
विशेषार्थ-देशचारित्रकी प्राप्ति किस प्रकार होती है, इस बातका वर्णन संयमासंयमलब्धि नामक अर्थाधिकारमे किया गया है । सकलचारित्रकी प्राप्ति कैसे होती है, चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम आदि किस प्रकार होता है, इत्यादि वर्णन चारित्रलब्धि नामके तेरहवे अर्थाधिकारमे किया गया है। संयमासंयमलब्धि और चारित्रलब्धि, इन दोनो अर्थाधिकारोमे 'लद्धी य संजमासंजमस्स' यह एक ही गाथा निबद्ध है। यहाँ तक समस्त गाथाओका जोड़ छप्पन ( ५६ ) होता है। चारित्रमोहकर्मका उपशम किस प्रकार होता है, उपशम-श्रेणीमे कहॉपर क्या क्या आवश्यक कार्य होते हैं, इत्यादि वर्णन चारित्रमोह-उपशामना नामक चौदहवें अधिकारमे किया गया है। इस अधिकारमे 'उवसामणा कदिविधा' इस गाथासे लेकर 'उवसामणाखएण दु अंसे बंधदि' इस गाथा तक आठ गाथाएँ निबद्ध हैं । इस अधिकार तक सब गाथाआंका जोड़ चौसठ (३+४+ ७ + १६ + ५ + १५ + ५ + १+८= ६४ ) होता है।
चारित्रमोहकी क्षपणाका जो जीव प्रस्थापक होता है, उसके विषयमें चार