________________
गा० १३-१४
अर्थाधिकार-निरूपण (१) पेज-दोसविहत्ती द्विदि अणुभागे च बंधगे चेय ।
वेदग उवजोगे वि य चउट्ठाण वियंजणे चेय ॥१३॥ सम्मत्त देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च । दंसण-चरित्तमोहे अदुधापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥
७. अत्थाहियारो पण्णारसत्रिहो अण्णेण पयारेण ।
अब कसायपाहुडके पन्द्रह अर्थाधिकारोके निरूपण करनेके लिए गुणधराचार्य दो सूत्रगाथाएँ कहते हैं
कसायपाहुडमें वर्णन किये जानेवाले पन्द्रह अर्थाधिकारों के नाम इस प्रकार हैं-१ प्रेयोद्वेषविभक्ति, २ स्थितिविभक्ति, ३ अनुभागविभक्ति, ४ अकर्मवन्धकी अपेक्षा बन्धक, ५ कर्मबन्धकी अपेक्षा बन्धक अर्थात् संक्रामक, ६ वेदक, ७ उपयोग, ८ चतुःस्थान, ९ व्यञ्जन, १० दर्शनमोह-उपशामना, ११ दर्शनमोह-क्षपणा, १२ देशविरति, १३ सकलसंयम, १४ चारित्रमोह-उपशामना, और १५ चारित्रमोह-क्षपणा । ये पन्द्रहों अर्थाधिकार दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों मोहकर्मप्रकृतियोंसे ही सम्बन्ध रखते हैं । (शेप सात कर्मोंका इस कसायपाहुडमें कोई प्रयोजन नहीं है । ) अद्धापरिमाण नामका कालप्रतिपादक अर्थाधिकार उक्त पन्द्रहों अर्थाधिकारों में प्रतिवद्ध समझना चाहिए ॥१३-१४॥
विशेषार्थ-ये दोनों सम्बन्ध-गाथाएँ कही जाती हैं। इनको उपयुक्त एक सौ अठहत्तर गाथाओमे मिला देनेपर ( १७८ +२=१८० ) कसायपाहुडकी एक सौ अस्सी गाथाएँ हो जाती हैं, जिनकी कि सूचना गुणधराचार्यने 'गाहासदे असीदे' इस प्रथम प्रतिज्ञा द्वारा की थी। इन एक सौ अस्सी गाथाओके अतिरिक्त बारह अन्य भी सम्बन्ध गाथाएँ हैं । अद्धापरिमाणके निर्देश करनेवाली छह गाथाएँ हैं । तथा, 'संकमउवकमविहीं' इस गाथासे लेकर पैतीस संक्रमवृत्ति-अर्थात् प्रकृतियोका संक्रमण बतानेवाली गाथाएँ कहलाती है। इन सवको पूर्वोक्त एक सौ अस्सी गाथाओंमें मिला देनेपर ( १२+६+ ३५-+१८०२३३ ) दो सौ तेतीस समस्त गाथाओका जोड़ हो जाता है। ये सभी गाथाएँ गुणधराचार्यके मुख-कमलसे विनिर्गत है।
गुणधराचार्यके उपदेशानुसार पन्द्रह अर्थाधिकारोंका निरूपण करके अब यतिवृषभाचार्य अन्य प्रकारसे पन्द्रह अर्थाधिकारोको कहते है
चूर्णिसू०- अन्य प्रकारसे अर्थाधिकारके पन्द्रह भेद है ॥७॥
विशेषार्थ-गुणधराचार्यके द्वारा पन्द्रह अर्थाधिकारोके निरूपण कर दिये जानेपर यतिवृपभाचार्य अन्य प्रकारसे पन्द्रह अर्थाधिकारोको बतलाते हुए क्यो न गुणधराचार्यके विराधक समझे जायं ? इस शंकाका समाधान यह है कि यतिवृपभाचार्य, अन्य प्रकारसे