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दृशं पवित्रमित
विह विद्यते।
हि ज्ञानेन
मस्या
माणिकचन्द-दिगम्बर-जैनग्रन्धकाला।
जैन शिलालेखसंग्रहः ।
FGHER
CSATTA
CAREERIJASAMANDSIESTER RAHILADI
१2018RS
RECEND
SERIES
againelibrary.org
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माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन-ग्रन्थमालायाः
अष्टाविंशतितमो ग्रन्थः ।
Octo
जैन-शिलालेखसंग्रहः ।
(प्रथमो भागः)
-088-8-880
सम्पादक:अमरावतीस्थ किङ्ग-एडवर्ड-कालेज-संस्कृताध्यापकः एम० ए०, एल्एल्० बी० इत्युपाधिधारी
श्रीहीरालालजैनः ।
प्रकाशिकाश्रीमाणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमालासमितिः ।
मूल्यं रूप्यकद्वयम् ।
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प्रकाशकः---
नाथूराम प्रेमी, मन्त्रीमाणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई ।
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सिर्फ भूमिका और अनुक्रमणिका आदिके मुद्रक - मंगेश नारायण कुळकर्णी, कर्नाटक प्रिंटिंग प्रेस,
३१८ ए, ठाकुद्वार, बम्बई । और शेष संपूर्ण पुस्तक के मुद्रक ए० बोस, इंडियन प्रेस लिमिटेड, बनारस केण्ट ।
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निवेदन
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दिगम्बर जैन सम्प्रदायके शिलालेखों, ताम्रपत्रों, मूर्तिलेखों और ग्रन्थप्रशस्तियोंमें जैनधर्म और जैन समाज के इतिहासकी विपुल सामग्री बिखरी हुई पड़ी है जिसको एकत्रित करने की बहुत है बड़ी आवश्यकता है। जब तक 'जैनहितैषी ' निकलता रहा, तब तक मैं बराबर जैनसमाजके शुभचिन्तकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करता रहा हूँ । परन्तु अभी तक इस ओर कुछ भी प्रयत्न नहीं हुआ है और जो कुछ थोड़ासा इधर उधर से हुआ भी है वह नहीं होनेके बराबर है ।
ast प्रसन्नता की बात है कि बाबू हीरालालजी की कृपा और निस्वार्थ सेवासे आज मेरी एक बहुत पुरानी इच्छा सफल हो रही है और जैन शिलालेख संग्रहका यह प्रथम भाग प्रकाशित हो रहा है । बाबू हीरालालजी इतिहासके प्रेमी और परिश्रमशील विद्वान् हैं । उनके द्वारा मुझे बड़ी बड़ी आशायें हैं । वे संस्कृत के एम० ए० है । इलाहाबाद यूनीवर्सिटीकी ओरसे उन्हें दो वर्ष तक रिसर्च स्कालशिप मिल चुकी है और इस समय अमरावती के किंग एडवर्ड कालेज में वे संस्कृतके प्रोफेसर हैं । कारंजाके जैनशास्त्र भण्डारों का एक अन्वेषणात्मक विस्तृत सूचीपत्र सी० पी० गवर्नमेण्टकी ओरसे आपने ही तैयार किया था, जो मुद्रित हो चुका है । आपकी इच्छा है कि शिलालेखसंग्रहके और भी कई भाग प्रकाशित किये जायँ और उनके सम्पादनका भार भी आप ही लेना चाहते हैं । मुझे आशा है कि माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाकी प्रबन्धकारिणी कमेटी इस भागके समान आगे भागों को भी प्रकाशित करने का श्रेय सम्पादन करेगी । अस्तव्यस्त और जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़े हुए जैन इतिहासके साधनों को अच्छे रूपमें प्रकाशित करना बड़े ही पुण्यका कार्य है ।
निवेदकनाथूराम प्रेमी
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प्राचीन शिलालेख-संग्रह
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श्री मोदी बालचन्द्रजी (लेखक के पिता)
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Sarvamsans-sna
समर्पण
Ebarramuranger-mrembah
पिताजी,
आपने अत्यन्त परिश्रम करके मुझे जो कुछ विद्यादान व धार्मिक ज्ञान दिलाया है,
उसीके फलस्वरूप यह प्रथम भेट आपके करकमलोंमें सादर समर्पित है।
आपका पुत्र,
हीरालाल &am rannsathina h asmes
Pisma-masterstratives
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विषय-सूची
पृ०
Preface प्राथमिक बक्तव्य भूमिका-(श्रवणबेलगोलके स्मारक)
१-१६२ चन्द्रगिरि ... विन्ध्यगिरि ... ... श्रवणबेल्गोल नगर ...
४२-५० श्रवणबेलगोलके आसपासके ग्राम ...
५०-५४ लेखोंकी ऐतिहासिक उपयोगिता व भिन्न २ राजवंश ५४-११२ लेखोंका मूल प्रयोजन ....
११३-१२३ लेखोंसे तत्कालीन दूध के भावका अनुमान
... १२२-१२३ आचार्योंकी वंशावली ... ...
१२५-१४४ संघ, गण, गच्छ और बलि भेद ...
१४४-१४८ आचार्योंकी नामावली ...
१४९-१६२ लेख- ... ... ...
१-४२७ चन्द्रगिरिके शिलालेख ...
१-१५५ विन्ध्य गिरिके शिलालेख ...
१५७-२३२ श्रवणबेलगोल नगर में के लेख
२३३-२९३ श्रवणबेलगोलके आसपासके लेख ...
२९४-२९९ श्रवणबेलगोल और आसपासके ग्रामोंके अवशिष्ट लेख ३०१-४२७
अवशिष्ट लेखोंके समयका अनुमान... ... ३०३-३०५ अनुक्रमणिका १ ...
१-१६ अनुक्रमणिका २ ... ... ... ... १७-३८
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PREFACE The inscriptions at Sravana Belgola were first collected and published by Mr. B. Lewis Rice, C.I.E., M.R.A.S., Director of Archaeological Researches in Mysore, as far back as 1889. A thoroughly revised and enlarged edition of the same was brought out by the late Director of Mysore Archaeological Researches, Práktana Vimarsha Vichakshana Rao Bahadur R. Narsinhachar, M. A., M.R.A.S. While the first edition contained only 144 inscriptions, Rao Bahadur Narsinhachar has brought to light hundreds of other inscriptions from the same locality and his edition contains no less than 500 of them. The site may now be said to be more or less thoroughly explored.
These inscriptions have a peculiar interest for the historian in so far as all of them are associated in one way or another with the Jain Religion. Interest in historical researches has of late been awakened in almost all the important communities of India and it is a happy augury of the times that the Directors of the Manikachandra Digambara Jain Granthamala have decided to include in their distinguished series a set of volumes bringing together in a handy form, all the known inscriptions of the Digambara Jains, thus facilitating the work of the future Jain Historian. It was thought suitable and convenient to start this series with a volume of Sravana Belgola inscriptions and the work was entrusted to me.
The present edition is based upon the above mentioned two editions. It has, thus, nothing new to offer to the scholar; but to the general reader, who is interested in Jain History but who for one reason or another can not go to the previous costly editions in Roman and Kanarese characters, this edition has a few advantages. The text of the inscriptions is here presented for the first time in Devanagari characters, the numbers of the inscriptions in the previous
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two editions have been given and the verses have been numbered to facilitate reference; the substance of the inscriptions having portions of Kanarese in them has been given in Hindi ; all the important information about Sravana Belgola and its surroundings, as contained in the previous two editions is given in the introduction and the historical importance of the inscriptions from the Jain point of view is more thoroughly discussed and the index of the names of Jain monks, poets and works has been separated from the general index.
My sincere thanks are due to the Mysore Government and its distinguished Directors of Archaeology, mentioned above, without whose previous labours this edition would have been impossible and to Pandit Nathuram Premi, the able Secretary of the Manikachandra Digambara Jaina Granthamala without whose initiative and encouragement the work would have never been undertaken,
AMRAOTI, King Edward College,
HIRALAL. March 21st 1928.
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प्राथमिक वक्तव्य
श्रवण बेल्गोल के शिलालेख सबसे प्रथम मैसूर सरकार की कृपासे सन् १८८९ में प्रकाशित हुए थे। मैसूर पुरातत्त्वविभाग के तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहब ने उस समय श्रवण बेल्गुल के १४४ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह की भूमिका में राइस साहबने पहले पहल इन लेखों के साहित्य-सौन्दर्य व ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वत्समाज का ध्यान आकर्षित किया व चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु वाले प्रश्न का विस्तृत विवेचन कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि चन्द्रगुप्त ने यथार्थतः भद्रबाहु मुनिसे दीक्षा ली थी व लेख नं. १ उन्ही का स्मारक है। तबसे इस प्रश्न पर विद्वानों में बराबर वादविवाद होता आया है। उक्त संग्रह का दूसरा संस्करण अभी सन् १९२२ इस्वी में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के रचयिता प्राक्तन विमर्षविचक्षण राव बहादुर आर० नरसिंहाचारजी हैं, जिन्होंने श्रवणबेलगोल के सब लेखों की पुनः सूक्ष्मतः जाँच की व परिश्रमपूर्वक खोज काके अन्य सैकड़ों लेखों का पता लगाया। इस संस्करण में उन्होंने पांच सौ लेखों का संग्रह किया है व एक विस्तृत व विशद भूमिका में वहाँ के समस्त स्मारकों का वर्णन व लेखों के ऐतिहासिक महत्त्व का विवेचन किया है।
किन्तु ये संग्रह कनाड़ी व रोमन लिपिमें प्रकाशित किये जाने व बहुमूल्य होनेके कारण बहुतसे इतिहासप्रेमियों को उनसे कुछ लाभ न हो सका और अधिकांश जैन लेखक इनका उपयोग न कर सके । वास्तवमें इन लेखोंका परिशीलन किये बिना आजकल जैन साहित्यिक, धार्मिक व राजनैतिक इतिहास के विषयमें कुछ लिखना एक प्रकारसे अनधिकार चेष्टा है, क्योंकि ये लेख प्रायः समस्त प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यों के कृत्यों के प्राची. नतम ऐतिहासिक प्रमाण हैं। इस प्रकार के समस्त उपलब्ध जैन लेख जब तक संग्रह रूपमें प्रकाशित न हो जायगे तबतक प्रामाणिक जैन इतिहास संतोषजनक रीति से नहीं लिखा जा सकता।
इसी आवश्यकता की भावना से प्रेरित होकर श्रीयुक्त पं० नाथूरामजी प्रेमी ने सन् १९२४ में उक्त लेखोंका देवनागरी संस्करण तैयार करने का मुझसे अनुरोध किया। प्रथमतः कार्य के भार का ध्यान करके मुझे इसे
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स्वीकार करने का साहस न हुआ किन्तु अन्तमें लाचार होकर वह कार्य हाथ में लेना ही पड़ा । सन १९२५ में कार्य प्रारम्भ हुआ। आशा की गई थी कि कुछ मासमें ही कार्य समाप्त हो जावेगा। किन्तु कार्य बड़ा होने व मेरे अलाहाबाद से अमरावती आ जाने के कारण वह आशा पूर्ण न हो सकी। अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हुई और समय बहुत लग गया। किन्तु हर्षका विषय है कि अन्ततः कार्य निर्विन पूर्ण हो गया।
राइस साहब के संग्रह के १४४ लेखों की, श्रीयुक्त बाबू सूरजभानुजी वकील द्वारा कारी की हुई और पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा शुद्ध की हुई एक प्रेस कापी मुझे पं० नाथूरामजी द्वारा प्राप्त हुई। प्रथम यह विचार हुआ कि इन्ही लेखों में नये संस्करण के कुछ चुने हुए लेख सम्मिलित कर प्रथम संग्रह प्रकाशित कर दिया जाय । किन्तु सूक्ष्म विचार करने पर यह उचित न जचा । किसी न किसी दृष्टिले सभी लेख आवश्यक अँचने लगे व लेखों का पाठ नये संस्करण के अनुसार रखना आवश्यक प्रतीत हुआ। प्रस्तुत संग्रह में बड़े परिश्रम से पाठ शुद्ध कर उसे सर्वप्रकार मूलक अनुसार ही रक्खा है। पञ्चमाक्षर भी मूलके अनुसार हैं यद्यपि इससे कहीं कहीं शब्दों के रूप अपरिचित से हो गये हैं। किन्तु छापे की कठिनाई के कारण कनाड़ी भाषा के कुछ वर्गों का भिन्न स्वरूप यहाँ नही दर्शाया जा सका । उदाहरणार्थ, e, é को यहां 'ए',0, 6 को 'ओ' r, r को 'र' व 1, 1, 1. को 'ल' से ही सूचित किया है। प्रूफ-शोधन में यथाशक्ति कसर नही रक्खी गई किन्तु फिर भी कुछ छोटी मोटी अशुद्धियाँ आ ही गई हैं। उल्लेख के सुभीते के लिये लेखों की श्लोक संख्या दे दी गई है। यह बात पूर्व संस्करणों में नहीं है। जहाँ पर प्रथम और द्वितीय संस्करण के पाटोंमें कुछ विचारणीय भिन्नता ज्ञात हुई वहाँ दूसरा पाठ फुटनोटमें दे दिया गया है। बहुत अच्छा होता यदि लेखों का पूरा अनुवाद दिया जा सकता किन्तु इससे ग्रंथका आकार बहुत बढ़ जाता । अतएव जिन लेखों में थोड़ी भी कनाड़ी आई है उनका हिन्दी भावार्थ देकर ही संतोष करना पड़ा है। प्रथम १४४ लेख राइस साहब के क्रमानुसार रखकर पश्चात् का क्रम स्वतंत्रतासे चालू रक्खा गया है। कोष्टक में नये संस्करण के नम्बर दे दिये गये हैं जिससे आवश्यकता होने पर पहले व दूसरे संस्करण से प्रसंगोपयोगी
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लेख का सुगमता से मिलान किया जा सकता है। नये संस्करण के पाँच लेख यहाँ दो ही लेखों ( ७५, ७६ )में आ गये हैं व लेख नं. ३९४ और ४०१-. ४०६ विशेषोपयोगी न होने के कारण छोड़ दिये गये हैं। इस प्रकार दस लेखों की जो बचत हुई उनके स्थान में एपीग्राफिआ कर्नाटिका भाग ५ में से चुनकर दस लेख सम्मिलित कर दिये गये हैं।
भूमिका का वर्णनात्मक भाग सर्वथा रा० ब० नरसिंहाचार के वर्णन के आधार पर ही लिखा गया है किन्तु ऐतिहासिक व आचार्यों के सम्बन्ध का विवेचन बहुत कुछ स्वतंत्रता से किया गया है। गोम्मटेश्वर मूर्ति की स्थापना का समय निर्णय व शिलालेख नं १ का विवेचन नरसिंहाचारजी के मतसे कुछ भिन्न हुआ है। __ अन्त में हम मैसूर सरकार व उनके पुरातत्त्व विभाग के सुयोग्य अधिकारी भूतपूर्व राइस साहब व रा० ब० नरसिंहाचार के बहुत कृतज्ञ हैं। विना उनकी अपूर्व खोजों और अनुपम प्रयास के जैन इतिहास पर यह भारी प्रकाश पड़ना व इस पुस्तक का प्रकाशित होना दुःसाध्य था।हम माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला के मंत्री पं० नाथूरामजी प्रेमी के विशेष रूपसे उपकृत हैं। आपके सस्नेह प्रेरण व अपार उत्साह के विना हमसे यह कार्य होना अशक्य था। आपने असाधारण विलम्ब होने पर भी धैर्य रक्खा जिससे ग्रंथ सुचारुरूपसे सम्पादित हो सका । पुस्तक के-विशेषतः कनाड़ी अंशों के-कम्पोजिंग वप्रूफ शोधन में प्रेसवालों को भारी कठिनाई और विलम्ब का साम्हना करना पड़ा है किन्तु उन्होंने योग्यतापूर्वक इस कार्य को निवाहा। इस हेतु इंडियन प्रेस, अलाहाबाद के मैनेजर हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
भूमिका की अपूर्णताओं और त्रुटियों का ध्यान जितना स्वयं मुझे है उतना कदाचित् हमारे उदार हृदय पाठकों को न होगा; किन्तु विषयकी ओर विद्वानों का लक्ष्य दिलाने के हेतु इन त्रुटियों में पड़ना भी आवश्यक था । यदि इस पुस्तक से जैन ऐतिहासिक प्रश्नों के हल करने में कुछ भी सहायता पहुँची तो मैं अपने को कृतार्थ समझेंगा। यदि पाठकों ने चाहा और भविष्य अनुकूल रहा तो दक्षिण भारत के जैन लेखोंका दूसरा संग्रह भी शीघ्र ही पाठकों की भेंट किया जायगा। किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती, है
हीरालाल फाल्गुन शुक्ला ७, सं० १९८४. "
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पृष्ठ
१००
१
भटत
११२ १२८ १२८ १३९
१५२
शुद्धिपत्र
(भूमिका) पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध बेल्गोल
वेल्गोल सल्लखना
सल्लेखना १६२४
१२४ माघनन्दि आचार्यों माघनन्दि आदि आचार्यों जगदेव के
जगदेव नामक
भरत वीरह
वीर पदावली
पट्टावली दयालपाल
दयापाल पुष्पनान्द
पुष्पनन्दि (लेख) चौड़
चालुक्य विष्णुवर्द्धनद्वारा विष्णुवर्द्धनके मंत्री गंगराज विष्णुवर्द्धन नरेश गंगराज मंत्री [द्वारा पद्यों
पंक्तियों एरडु कट्टे वस्ति एरडुकट्टे वस्तिमें श्रा चामुण्डराज श्रीचामुण्डराज रामचल्ल नृप राचमल्ल नृप कुलो...ङ्ग
कुलोत्तुङ्ग पण्डिताय्यः
पण्डितार्यः अन्तिम नं.(३५४) नं. ४३४ (३५४) १८९
१९८ १९७
१९९ २१९ (१२५) २१९ (११५) २५५ ( ४१३) २५५ (४१४) विजयराज्यय्य विजयराजय्य
४७७ (३८६ ) ४७६ (३८६) १० वीं पंक्तिके पश्चात् लेखांक ४९१ छूट गया है।
१४७
१७५ १९४ २०७ २९२
१२
WWW
३१९
२८५
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भूमिकामें प्रयुक्त संकेताक्षर इ. ए. इंडियन एन्टीक्वेरी। ए. इ. एपीग्राफिआ इंडिका। ए. क.-एपीग्राफिआ कर्नाटिका । मै. आ.रि.-मैसूर आर्किलाजीकल रिपोर्ट । सा. इ. इ. साउथ इंडियन इन्स्क्रिपशन्स।
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உராயANDSNIPUN INITIANISHINI TIR IN TIRAI:IHIRAI ISAI
5 மாயோய.ICINAIRAIMINISHI ICSI TIRUCHI
ஆயாNேISHINISTIANISHI: INCIENTICIAN ICum.ITCHITHIRAIMINISHI. Iயோ பய ேII IRI
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श्री गोम्मटेश (बाहूबलि)
( xans ரன ராசி ) மேயாரோ HIRI IRAIHICuIr uuRan: பாரேயாட மாயேAININாரேயா பாயோ
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Jall Education International
For Private & Personal use
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक समस्त दक्षिण भारत में ऐसे बहुत ही कम स्थान होंगे जो प्राकृतिक सौन्दर्य में, प्राचीन कारीगरी के नमूनों में ब धार्मिक
और ऐतिहासिक स्मृतियों में 'श्रवणबेल्गुल' की बराबरी कर सके। आर्य जाति और विशेषतः जैन जाति की लगभग अढाई हज़ार वर्ष की सभ्यता का इतिहास यहाँ के विशाल और रमणीक मन्दिरों, अत्यन्त प्राचीन गुफाओं, अनुपम उत्कृष्ट मूर्तियों व सैकड़ों शिलालेखों में अङ्कित पाया जाता है। यहाँ की भूमि अनेक मुनि-महात्माओं की तपस्या से पवित्र, अनेक धर्म-निष्ठ यात्रियों की भक्ति से पूजित और अनेक नरेशों और सम्राटों के दान से अलंकृत और इतिहास में प्रसिद्ध हुई है।
यहाँ की धार्मिकता इस स्थान के नाम में ही गर्भित है। 'श्रवण' ( श्रमण ) नाम जैन मुनि का है और 'बेल्गुल' कनाड़ा भाषा के 'बेल' और 'गुल' दो शब्दों से बना है। 'बेल' का अर्थ धवल व श्वेत होता है और 'गुल' (गोल) कोल' का अपभ्रंश है जिसका अर्थ सरोवर है। इस प्रकार श्रवणबेल्गुल का अर्थ जैन मुनियों का धवल-सरोवर होता है। इसका तात्पर्य संभवतः उस रमणीक सरोवर से है जो ग्राम के बीचोंबीच अब भी इस स्थान की शोभा बढ़ा रहा है। सात-आठ सौ
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श्रवणबेलगोल के स्मारक वर्ष पुराने कुछ लेखों में भी इस स्थान का नाम श्वेत सरोवर, धवलसरः व धवलसरोवर पाये जाते हैं ।
'बेल्गोल' नाम लगभग सातवीं शताब्दि के एक लेख में प्राता है, और लगभग आठवीं शताब्दि के एक दूसरे लेख में इसका नाम 'बेल्गोल' पाया जाता है। इनसे पीछे के अनेक लेखों में बेलगुल, बेल्गुल और बेलुगुल नाम पाये जाते हैं। एक लेख में 'देवर बेलगोल' नाम भी पाया जाता है जिसका अर्थ होता है देव का (जिनदेव का ) बेलगोल । श्रवणबेलगोल के आसपास दो और बेलगोल नाम के स्थान हैं जो हले-बेल्गोल और कोडि-बेल्गोल कहलाते हैं। गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति के कारण इसका नाम गोम्मटपुर भी है+ । कुछ अर्वाचीन लेखों में दक्षिण काशी नाम से भी इस तीर्थस्थान का उल्लेख हुआ है ।
श्रवणबेलगोल प्राम मैसूर प्रान्त में हासन ज़िले के चेन्नरायपाटन तालुके में दो सुन्दर पहाड़ियों के बीच बसा हुआ है। इनमें से बड़ी पहाड़ी ( दोडुबेह) जो ग्राम से दक्षिण की ओर है 'विन्ध्यगिरि' कहलाती है। इसी पहाड़ी पर गोम्मटेश्वर की वह विशाल मूर्ति स्थापित है जो कोसों की दूरी से यात्रियों की दृष्टि इस पवित्र स्थान की ओर आकर्षित करती है। इसके
* देखो लेख नं० ५४ और १०८. । देखो लेख नं० १७-१८. * देखो लेख नं० २४. देखो लेख नं. १४०. +देखो लेख नं०.१२८, १३७. x देखो लेख नं. ३५५, ४८१.
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चन्द्र गिरि अतिरिक्त कुछ बस्तियाँ ( जिन-मन्दिर ) भी इस पहाड़ी पर हैं। दूसरी छोटी पहाड़ी ( चिक्क बेट्ट), जो ग्राम से उत्तर की ओर है, चन्द्रगिरि के नाम से प्रख्यात है। अधिकांश और प्राचीनतम लेख और बस्तियाँ इसी पहाड़ी पर हैं। कुछ मन्दिर, लेख आदि ग्राम की सीमा के भीतर हैं और शेष श्रवणबेलगोल के आस-पास के ग्रामों में हैं। अत: यहाँ के समस्त प्राचीन स्मारकों का वर्णन इन चार शीर्षकों में करना ठीक होगा-(१) चन्द्रगिरि, (२) विन्ध्यगिरि, (३) श्रवण बेलगोल ( खास ) और ( ४ ) आस-पास के ग्राम । लेख नं० ३५४ के अनुसार श्रवणबेलगोल के समस्त मन्दिरों की संख्या ३२ है अर्थात् आठ विन्ध्यगिरि पर, सोलह चन्द्रगिरि पर और आठ ग्राम में । पर लेख में इन बस्तियों के नाम नहीं दिये गये।
चन्द्रगिरि चन्द्रगिरि पर्वत समुद्र-तल से ३,०५२ फुट की ऊँचाई पर है। प्राचीनतम लेखों में इस पर्वत का नाम कटवप्र* (संस्कृत) व कल्वप्पु या कल्बप्पु ( कनाड़ी) पाया जाता है। तीर्थगिरि और ऋषि-गिरि नाम से भी यह पहाड़ी प्रसिद्ध रही है। इरुवेब्रह्मदेव मन्दिर को छोड़ इस पर्वत पर के शेष सब
* देखो लेख नं. १, २७, २८, २९, ३३, १५२, १५६, १८६. +देखो लेख नं. ३४, ३५, १६०, १६१. +देखो लेख नं. ३४, ३५,
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श्रवणबेलगोल के स्मारक जिनालय एक दीवाल के घेरे के भीतर प्रतिष्ठित हैं। इस घेरे की उत्कृष्ट लम्बाई ५०० फुट और चौड़ाई २२५ फुट है। सब मन्दिर द्राविड़ी ढङ्ग के बने हुए हैं। इनमें से सबसे प्राचीन मन्दिर ईसा की आठवीं शताब्दि का प्रतीत होता है। घेरे के भीतर के मन्दिरों की संख्या १३ है। सभी मन्दिरों का ढङ्ग प्रायः एक सा ही है। सभी में साधारणतः एक गर्भगृह, एक सुखनासि खुला या घिरा हुआ, और एक नबरङ्ग रहता है। नीचे इस पहाड़ी के सब मन्दिरों व अन्य प्राचीन स्मारकों का सूक्ष्म वर्णन दिया जाता है:
१ पार्श्वनाथ बस्ति-इस सुन्दर और विशाल मन्दिर की लम्बाई-चौड़ाई ५६x२६ फुट है। दरवाजे भारी हैं। नवरङ्ग और सामने के दरवाजे के दोनों ओर बरामदे बने हुए हैं। बाहरी दीवालें स्तम्भों और छोटी-छोटी गुम्मटों से सजी हुई हैं। सप्तफणी नाग की छाया के नीचे भगवान् पार्श्वनाथ की १५ फुट ऊँची मनोज्ञ मूर्ति है। इस पर्वत पर यही मूर्ति सबसे विशाल है। सामने बृहत् और सुन्दर मानस्तम्भ खड़ा हुआ है जिसके चारों मुखों पर यक्ष-यतिणिों की मूर्तियाँ खुदी हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस मन्दिर के निर्माण का ठीक समय क्या है। नवरङ्ग में एक बड़ा भारी लेख खुदा हुआ है ( लेख नं० ५४ ) जिसमें शक सं० १०५० में मल्लिषेण-मलधारि देव के समाधि-मरण का संवाद है। पर मन्दिर के निर्माण के विषय की कोई वार्ता
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चन्द्रगिरि लेख में नहीं पाई जाती। यहाँ के मानस्तम्भ के विषय में अनन्त कवि-कृत कनाड़ी भाषा के 'बेल्गोलद गोम्मटेश्वरचरित' नामक काव्य में कहा गया है कि उक्त मानस्तम्भ मैसूर के चिक्क देव-राज ओडेयर नामक राजा (१६७२-१७०४ ईस्वी ) के समय में पु?य नामक एक सेठ-द्वारा निर्माण कराया गया था। इसी काव्य के अनुसार मन्दिर की बाहरी दीवाल भी इसी सेठ ने बनवाई थी। यह काव्य लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है।
२ कत्तले बस्ति -चन्द्रगिरि पर्वत पर यह मन्दिर सबसे भारी है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई १२४४४० फुट है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा है। नवरङ्ग से सटा हुआ एक मुखमण्डप ( सभा-भवन ) भी है और एक बाहरी बरामदा भी। सामने के दरवाजे के अतिरिक्त इस सारे विशाल भवन में और कोई खिड़िकियाँ व दरवाजे नहीं हैं। बाहरी ऊँची दीवाल के कारण उस एक सामने के दरवाजे से भी पूरा-पूरा प्रकाश नहीं जाने पाता। इसी से इस मन्दिर का नाम कत्तले बस्ति (अन्धकार का मन्दिर ) पड़ा है। बरामदे में पद्मावती देवी की मूर्ति है। जान पड़ता है, इसी से इस मन्दिर का नाम पद्मावतीबस्ति भी पड़ गया है। मन्दिर पर कोई शिखर नहीं है, पर मठ में इस मन्दिर का जो मान-चित्र है उसमें शिखर दिखाया गया है। इससे जान पड़ता है कि किसी समय यह मन्दिर शिखर-बद्ध रहा है।
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श्रवणबेलगोल के स्मारक मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान की छः फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति बड़ी ही हृदय-ग्राही है। दोनों बाजुओं पर दो चौरीवाहक खड़े हैं। मन्दिर के ऊपर दूसरा खण्ड भी है पर वह जीर्ण अवस्था में होने के कारण बन्द कर दिया गया है। सभा-भवन के बाहरी ईशान कोण पर से ऊपर को सीढ़ियाँ गई हैं। कहा जाता है कि महोत्सव के समय ऊपर प्रतिष्ठित स्त्रियों के बैठने का प्रबन्ध रहता था। आदीश्वर भगवान के सिंहासन पर जो लेख है (नं० ६४ ) उससे ज्ञात होता है कि इस बस्ति को होयसल-नरेश विष्णुवर्द्धन के सेनापति गङ्गराज ने अपनी मातृश्री पोचब्बे के हेतु निर्माण कराया था। इससे इसका निर्माण-काल सन् १११८ के लगभग सिद्ध होता है। सभा-भवन पीछे निर्मापित हुआ जान पड़ता है। इसका जीर्णोद्धार लगभग ७० वर्ष हुए मैसूरराजकुल की दो महिलाओं-देवीरम्मणि और केम्पम्मणि-द्वारा हुआ है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि इस पर्वत पर केवल यही एक मन्दिर है जिसके गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा भी है।
३ चन्द्रगुप्त बस्ति -यह चंद्रगिरि पर्वत पर सबसे छोटा जिनालय है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई केवल २२४१६ फुट है : इसमें लगातार तीन कोठे हैं और सामने बरामदा है। बीच के कोठे में पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति है और दायेंबायें वाले कोठों में क्रमशः पद्मावती और कुष्माण्डिनी देवी की मूर्तियाँ हैं। बरामदे के दाहने छोर पर धरणेन्द्रयक्ष और
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चन्द्रगिरि
बायें छोर पर सर्वाहयक्ष की मूर्तियाँ हैं। सभी मूर्तियाँ पद्मासन हैं। बरामदे के सम्मुख जो बहुत ही सुन्दर प्रताली ( दरवाजा ) है वह पीछे निर्मापित हुआ है । इसकी कारीगरी देखने योग्य है। घेरे के पत्थरों पर जाली का काम, जिस पर श्रुतकेवलि भद्रबाहु और मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के कुछ जीवन-दृश्य खुदे हुए हैं, अपूर्व कौशल का नमूना है । इसी जाली पर एक जगह 'दासेोज:' ऐसा लेख है जो इस प्रताली के बनानेवाले कारीगर का नाम प्रतीत होता है । इसी नाम के एक व्यक्ति ने लेख नं० ५० उत्कीर्ण किया है । यह लेख शक सं० २०६८ का है । यदि ये दोनों व्यक्ति एक ही हों तो यह प्रताली शक सं० २०६८ के लगभग की बनी सिद्ध होती है। उपर्युक्त लेख की लिपि भी इसी समय की ज्ञात होती है । मन्दिर के दोनों बाजुओंों के कोठों पर छोटे खुदावदार शिखर भी हैं । मध्य के कोठे के सम्मुख सभा भवन में क्षेत्रपाल की स्थापना है जिनके सिंहासन पर कुछ लेख भी है । इस मन्दिर का नाम चन्द्रगुप्त- बस्ति पड़ने का कारण यह बतलाया जाता है कि इसे स्वयं महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य ने निर्माण कराया था । इसमें सन्देह नहीं कि इस मन्दिर की इमारत इस पर्वत के प्राचीनतम स्मारकों में से है ।
४ शान्तिनाथ बस्ति - यह छोटा सा जिनालय २४४१६ फुट लम्बा-चौड़ा है । इसकी दीवालों और छत पर अभी तक चित्रकारी के निशान हैं ।
शान्तिनाथ
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक स्वामी की मूर्ति खड्गासन ११ फुट ऊँची है। मन्दिर के बनने का समय ज्ञात नहीं।
५ सुपार्श्वनाथ बस्ति-इस मन्दिर की लम्बाईचौडाई २५४ १४ फुट है। सुपार्श्वनाथ स्वामी की पद्मासन मूर्ति तीन फुट ऊँची है, जिसके ऊपर सप्तफणी नाग की छाया हो रही है। मन्दिर के बनने के विषय की कोई वार्ता विदित नहीं है।
६ चन्द्रप्रभ बस्ति-इस मन्दिर का क्षेत्रफल ४२४ २५ फुट है। चन्द्रप्रभस्वामी की पद्मासन मूर्ति तीन फुट ऊँची है। सुखनासि में उक्त तीर्थकर के यक्ष और यक्षिणी श्याम और ज्वालामालिनि विराजमान हैं। मन्दिर के सामने एक चट्टान पर 'सिबमारन बसदि' (२५६ ) ऐसा लेख है। इस लेख की लिपि से ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः उसमें गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय, श्रीपुरुष के पुत्र, का उल्लेख है। शिवमार के द्वारा जिस 'बस दि' (बस्ति ) के बनने का लेख में उल्लेख है, सम्भव है वह यही चन्द्रप्रभ-बस्ति हो; क्योंकि इसके निकट अन्य और कोई बस्ति नहीं है। यदि यह अनुमान ठीक हो तो यह बस्ति सन् ८०० ईस्वी के लगभग की सिद्ध होती है।
७ चामुण्डराय बस्ति-यह विशाल भवन बनावट और सजावट में इस पर्वत पर सबसे सुन्दर है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई ६८४३६ फुट है। ऊपर दूसरा खण्ड और
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चन्द्रगिरि
एक सुन्दर गुम्मट भी है। इसमें नेमिनाथ स्वामी की पांच फुट ऊँची मनोहर प्रतिमा है। गर्भगृह के दरवाजे पर दोनों बाजुओं पर क्रमशः यक्ष सर्वाह्न और यक्षिणी कुष्माण्डिनी की मूर्त्तियाँ हैं। बाहरी दोवालें स्तम्भों, ग्रालों और उत्कीर्ण या उचेली हुई प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। बाहरी दरवाजे की दोनों बाजुओं पर नीचे की ओर' श्री चामुण्डराजं माडिसिदं' ( २२३ ) ऐसा लेख है। इससे स्पष्ट है कि यह बस्ति स्वयं गङ्गनरेश राचमल के मन्त्री चामुण्डराज ने निर्माण कराई थी और उसका समय ८२ ईस्वी के लगभग होना चाहिये । पर नेमिनाथ स्वामी के सिंहासन पर लेख है (६६) कि गङ्गराज सेनापति के पुत्र 'एच' ने त्रैलोक्यरञ्जन मन्दिर अपरनाम बाप्पाचैत्यालय निर्माण कराया था । यह लेख सन् १९३८ के लगभग का अनुमान किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि एच का निर्माण कराया हुआ चैत्यालय कोई अन्य रहा होगा जो अब ध्वंस हो गया है और यह नेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा वहीं से लाकर इस बस्ति में विराजमान करा दी गई है। मन्दिर के ऊपर के खण्ड में एक पार्श्वनाथ भगवान की तीन फुट ऊँची मूर्ति है। उनके सिंहासन पर लेख है ( नं० ६७ ) कि चामुण्डराज मन्त्रो के पुत्र जिनदेव ने बेलगोल में एक जिनभवन निर्माण कराया । अनुमान किया जाता है कि इस लेख का तात्पर्य मन्दिर के इसी ऊपरी भाग से है जो नीचे के खण्ड से कुछ पीछे बना होगा ।
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श्रवणबेलगोल के स्मारक शासन बस्ति-मन्दिर के दरवाजे पर जो लेख शासन नं० ५६ ) है, जान पड़ता है, उसी से इसका नाम शासनबस्ति पड़ा है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई ५५४ २६ फुट है। गर्भगृह में आदिनाथ भगवान् की पाँच फुट ऊँची मूर्ति है जिसके दोनों ओर चौरी-वाहक खड़े हुए हैं। सुखनासि में यक्ष यक्षिणी गोमुख और चक्रेश्वरी की प्रतिमाएँ हैं। बाहरी दीवालों में स्तम्भों और बालों की सजावट है। बीच-बीच में प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण हैं। आदिनाथ स्वामी के सिंहासन पर लेख है (नं० ६५) कि इस मन्दिर को गङ्गराज सेनापति ने "इन्दिराकुलगृह' नाम से निर्माण कराया। दरवाजे पर के लेख में समाचार है कि शक सं० १०३६ फाल्गुण सुदि ५ को गङ्गराज ने 'परम' नाम के ग्राम का दान दिया। यह ग्राम उन्हें विष्णुवर्द्धन नरेश से मिला था। इसी समय से कुछ पूर्व मन्दिर बना होगा।
मज्जिगण्णबस्ति-इसकी लम्बाई-चौड़ाई ३२x १६ फुट है। इसमें अनन्तनाथ स्वामी की साढ़े तीन फुट ऊँची प्रतिमा है। बाहरी दीवाल के आसपास फूलदार चित्रकारी के पत्थरों का घेरा है। मन्दिर के नाम से अनुमान होता है कि उसे किसी मज्जिगण्ण नाम के व्यक्ति ने निर्माण कराया होगा। पर समय निश्चित किये जाने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं।
१० एरडुकट्टेबस्ति-इस मन्दिर का नाम उसके दायीं और बायीं बाजू पर की सीढ़ियों पर से पड़ा है। इसकी
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चन्द्रगिरि
११ लम्बाई-चौड़ाई ५५४२६ फुट है। आदिनाथ स्वामी की मूत्ति पाँच फुट ऊँची है और प्रभावली से अलंकृत है। दोनों और चौरी-वाहक खड़े हैं। गर्भगृह के बाहर सुखनासि में यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियाँ हैं। आदिनाथ स्वामी के सिंहासन पर लेख है (नं०६३) कि इस मन्दिर को गङ्गराज सेनापति की भार्या लक्ष्मी ने निर्माण कराया था।
११ सवतिगन्धवारणबस्ति-होयसलनरेश विष्णुवर्द्धन की रानी का नाम शान्तल देवी और उपनाम 'सवतिगन्धवारण' ( सौतों के लिए मत्त हाथी ) था। इसी पर से इस मन्दिर का यह नाम पड़ा है। साधारणत: इसे गन्धवारण-बस्ति कहते हैं। मन्दिर विशाल है जिसकी लम्बाईचौड़ाई ६६४३५ फुट है। शान्तिनाथ स्वामी की मूर्ति प्रभावली-संयुक्त पाँच फुट ऊँची है। दोनों ओर दो चौरीवाहक खड़े हैं। सुखनासि में यक्ष यक्षिणी किम्पुरुष और महामानसि की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह के ऊपर एक अच्छी गुम्मट है। बाहरी दीवालें स्तम्भों से अलंकृत हैं। दरवाजे पर के लेख ( नं० ५६ ) और शान्तिनाथ स्वामी के सिंहासन पर के लेख ( नं० ६२ ) से विदित होता है कि इस बस्ति को विष्णुवर्द्धन नरेश की रानी शान्तल देवी ने शक सं० १०४४ में निर्माण कराया था।
१२ तेरिनबस्ति इस मन्दिर के सम्मुख एक रथ ( तेरु ) के आकार की इमारत बनी हुई है। इसी से इसका
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श्रवणबेलगोल के स्मारक नाम तेरिनवस्ति पड़ा है। इसमें बाहुबलि स्वामी की मूत्ति है। इसी से इसे बाहुबलि बस्ति भी कहते हैं। इसकी लम्बाई चौड़ाई ७०४ २६ फुट है। बाहुबलि स्वामी की मूर्ति पाँच फुट ऊँची है। सन्मुख के रथाकार मन्दिर पर चारों ओर बावन जिन-मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। मन्दिर दो प्रकार के होते हैं नन्दीश्वर और मेरु। उक्त रथाकार मन्दिर नन्दीश्वर प्रकार का कहा जाता है। इस पर के लेख (नं० १३७ शक सं० १०३८) से विदित होता है कि इस मन्दिर और बस्ति को विष्णुवर्द्धन नरेश के समय के पोयसल सेठ की माता माचिकब्बे और नेमि सेठ की माता शान्तिकब्बे ने निर्माण कराया था।
१३ शान्तीश्वर बस्ति-इसकी लम्बाई-चौड़ाई ५६ x ३० फुट है। यह मन्दिर ऊँची सतह पर बना हुआ है। इसकी गुम्मट पर अच्छी कारीगरी है। गर्भगृह के बाहर सुखनासि में यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ हैं। पीछे की दीवाल के मध्य-भाग में एक आला है जिसमें एक खड्गासन जिन-मूत्ति खुदी हुई है। इस मन्दिर को कब और किसने निर्माण कराया, यह निश्चय नहीं हो सका है।
१४ कूगेब्रह्मदेवस्तम्भ-यह विशाल स्तम्भ चन्द्रगिरि पर्वत पर के घेरे के दक्षिणी दरवाजे पर प्रतिष्ठित है। इसके शिखर पर पूर्वमुखी ब्रह्मदेव की छोटी सी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी पीठिका आठों दिशाओं में आठ हस्तियों पर प्रतिष्ठित रही है पर अब केवल थोड़े से ही हाथी
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चन्द्रगिरि रह गये हैं। स्तम्भ के चारों ओर एक लेख है (नं. ३८) (५६) जो गङ्गनरेश मारसिंह द्वितीय की मृत्यु का स्मारक है। इस राजा की मृत्यु सन् ६७४ ईस्वी में हुई थी। अतः यह स्तम्भ इससे पहले का सिद्ध होता है।
१५ महानवमी मण्डप-कत्तले बस्ति के गर्भगृह के दक्षिण की ओर दो सुन्दर पूर्व-मुख चतुस्तम्भ मण्डप बने हुए हैं। दोनों के मध्य में एक एक लेखयुक्त स्तम्भ है। उत्तर की ओर के मण्डप के स्तम्भ की बनावट बहुत सुन्दर है। उसका गुम्मटाकार शिखर बहुत ही दर्शनीय है। उस पर के लेख नं० ४२ (६६) में नयकोत्ति प्राचार्य के समाधि-मरण का संवाद है जो सन् ११७६ में हुआ। यह स्तम्भ उनके एक श्रावक शिष्य नागदेव मन्त्री ने स्थापित कराया था। ऐसे ही अन्य अनेक मण्डप इस पर्वत पर विद्यमान हैं जिनमें लेख-युक्त स्तम्भ प्रतिष्ठित हैं। एक चामुण्डराय बस्ति के दक्षिण की ओर, एक एरडुकट्टे बस्ति से पूर्व की ओर और दो तेरिन बस्ति से दक्षिण की ओर पाये जाते हैं।
१६ भरतेश्वर-महानवमी मण्डप से पश्चिम की ओर एक इमारत है जो अब रसोईघर के काम में आती है। इस इमारत के समीप एक नव फुट ऊँची पश्चिममुख मूर्ति है जो बाहुबलि के भ्राता भरतेश्वर की बतलाई जाती है। मूर्ति एक भारी चट्टान में घुटनों तक खोदी जाकर अपूर्ण छोड़ दी गई है। इस मूत्ति से थोड़ी दूर पर जो शिलालेख नं० २५ ( ६१ ) है
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१४
श्रवणबेलगोल के स्मारक
उससे अनुमान होता है कि वह किसी अरिट्टनेमि नाम के कारीगर की बनाई हुई है । पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि लेख का जितना भाग पढ़ा जाता है उससे केवल इतना ही अर्थ निकलता कि 'गुरु अरिट्टनेमि' ने बनवाया । पर क्या बनवाया यह कुछ स्पष्ट नहीं है । अरिहोनेमि अरिष्टनेमि का अपभ्रंश है। लेख ईसा की नवमी शताब्दि का अनुमान किया जाता है ।
१७ इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर - जैसा कि ऊपर कह आये हैं, केवल यही एक मन्दिर इस पहाड़ी पर ऐसा है जो घेरे के बाहर है । यह घेरे के उत्तर- दरवाजे के उत्तर में प्रतिष्ठित है । यहाँ ब्रह्मदेव की मूर्ति विराजमान है । सम्मुख एक बृहत् चट्टान है जिस पर जिन - प्रतिमाएँ, हाथी, स्तम्भ आदि खुदे हुए हैं। कहीं-कहीं खादनेवालों के नाम भी दिये हुए हैं। मन्दिर के दरवाजे पर जो लेख (नं० २३५ ) है उसकी लिपि से वह दसवीं शताब्दि के मध्य भाग का अनुमान किया जाता है । १८ कचिन दाणे – इरुवेत्रह्मदेवमन्दिर से वायव्य की और एक चौकोर घेरे के भीतर चट्टान में एक कुण्ड है । यही कञ्चन दोणे कहलाता है। 'दोणे' का अर्थ एक प्राकृतिक कुण्ड होता है और 'कश्विन' का एक धातु जिससे घण्टा आदि बनते हैं । कहा नहीं जा सकता कि इस कुण्ड का यह नाम क्यों पड़ा । यहाँ कई छोटे-छोटे लेख हैं । एक लेख है 'मुरुकलंकदम्ब तर सि' (२८२) अर्थात् कदम्ब की आज्ञा
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चन्द्रगिरि से तीन शिलाएँ यहाँ लाई गई। इनमें की दो शिलाएँ अब भी यहाँ विद्यमान हैं और तीसरी शिला टूट-फूट गई है। कुण्ड के भीतर एक स्तम्भ है जिस पर यह लेख है-'मानभ
आनन्द-संवच्छदल्लि कट्टिसिद दोणेयुः (२४४) अर्थात् इस कुण्ड को मानभ ने अानन्द-संवत्सर में बनवाया था। यह संवत् सम्भवतः शक सं० १११६ होगा।
१८ लक्दिोणे-यह दूसरा कुण्ड घेरे से पूर्व की ओर है। सम्भवतः यह किसी लकि नाम की स्त्री-द्वारा निर्माण कराये जाने के कारण लकिदोणं नाम से प्रसिद्ध हुआ है। कुण्ड से पश्चिम की ओर एक चट्टान है जिस पर कोई तीस छोटे-छोटे लेख हैं जिनमें प्राय: यात्रियों के नाम अङ्कित हैं। इनमें कई जैन आचार्यों, कवियों और राजपुरुषों के नाम हैं (नं० २८४-३१४)।
२० भद्रबाहु की गुफा-कहा जाता है कि अन्तिम श्रुत-केवली भद्रबाहु स्वामी ने इसी गुफा में देहोत्सर्ग किया था। उनके चरण इस गुफा में अङ्कित हैं और पूजे जाते हैं। गुफा में एक लेख भी पाया गया था (नं० ७१ (१६६) पर यह लेख अब गुफा में नहीं है। हाल में गुफा के सन्मुख एक भहा सा दरवाजा बनवा दिया गया है।
२१चामुण्डराय की शिला-चन्द्रगिरि पर्वत के नीचे एक चट्टान है जो उक्त नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि चामुण्डराय ने इसी शिला पर खड़े होकर विन्ध्यगिरि पर्वत की
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१६
श्रवणबेलगोल के स्मारक ओर बाण चलाया था जिससे गोम्मटेश्वर की विशालमूर्ति प्रकट हुई थी। शिला पर कई जैन गुरुओं के चित्र हैं जिनके नाम भी अङ्कित हैं।
चन्द्रगिरि पर्वत पर के अधिकांश प्राचीनतम शिलालेख या तो पार्श्वनाथ बस्ति के दक्षिण की शिला पर उत्कीर्ण हैं या उस शिला पर जो शासन बस्ति और चामुण्डराय बस्ति के सन्मुख है।
विन्ध्यगिरि यह पर्वत दोडुबेट अर्थात् बड़ी पहाड़ी के नाम से भी प्रख्यात है। यह समुद्रतल से ३,३४७ फुट और नीचे के मैदान से लगभग ४७० फुट ऊँचा है। कभी-कभी इन्द्रगिरि नाम से भी इस पर्वत का सम्बोधन किया जाता है। पर्वत के शिखर पर पहुँचने के लिये नीचे से लगाकर कोई ५०० सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। ऊपर समतल चौक है जो एक छोटे घेरे से घिरा हुआ है। इस घेरे में बीच-बीच में तलघर हैं जिनमें जिन-प्रतिबिम्ब विराजमान हैं। इस घेरे के चारों ओर कुछ दूरी पर एक भारी दीवाल है जो कहीं-कहीं प्राकृतिक शिलाओं से बनी हुई है। चौक के ठीक बीचो-बीच गोम्मटेश्वर की वह विशाल खड्डासन मूत्ति है, जो अपनी दिव्यता से उस समस्त भूभाग को अलङ्कत और पवित्र कर रही है।
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विन्ध्यगिरि
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१ गोम्मटेश्वर – यह नम, उत्तर-मुख, खड्गासन मूर्त्ति समस्त संसार की आश्चर्यकारी वस्तुओं में से है । सिर के बाल घुँघराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चौड़ा, विशाल बाहु नीचे को लटकते हुए और कटि किश्चित् क्षीण है । मुख पर पूर्व कान्ति और अगाध शान्ति है । घुटनों से कुछ ऊपर तक मीठे दिखाये गये हैं जिनसे सर्प निकल रहे हैं। दोनो पैरो और बाहुओं से माधवी लता लिपट रही है तिस पर भी मुख पर अटल ध्यान-मुद्रा बिराजमान है। मूर्त्ति क्या है मानो तपस्या का अवतार ही है । दृश्य बड़ा ही भव्य और प्रभावोत्पादक हैं। सिंहासन एक प्रफुल्ल कमल के आकार का बनाया गया है । इस कमल पर बायें चरण के नीचे तीन फुट चार इश्व का माप खुदा हुआ है । कहा जाता है कि इसको अठारह से गुणित करने पर मूर्ति की ऊँचाई निकलती है । जो हो, पर मूर्तिकार ने किसी प्रकार के माप के लिये ही इसे खादा होगा । निस्सन्देह मूर्त्तिकार ने अपने इस अपूर्व प्रयास में अनुपम सफलता प्राप्त की है । एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतल का विचरण कर ग्राइये, गोम्मटेश्वर की तुलना करनेवाली मूर्त्ति आपको कचित् ही दृष्टिगोचर होगी । बड़े-बड़े पश्चिमीय विद्वानों के मस्तिष्क इस मूर्त्ति की कारीगरी पर चक्कर खा गये हैं । इतने भारी और प्रबल पाषाण पर सिद्धहस्त कारीगर ने जिस कौशल से अपनी छैनी चलाई है उससे भारत के मूर्त्तिकारों का मस्तकं सदैव गर्व से ऊँचा उठा रहेगा । यह
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श्रवणबेलगोल के स्मारक सम्भव नहीं जान पड़ता कि ५७ फुट की मूर्ति खोद निकालने के योग्य पाषाण कहीं अन्यत्र से लाकर उस ऊँची पहाड़ी पर प्रतिष्ठित किया जा सका होगा। इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थान पर किसी प्रकृतिप्रदत्त स्तम्भाकार चट्टान को काटकर इस मूर्ति का आविष्कार किया गया है। कम से कम एक हज़ार वर्ष से यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवी की अमोघ शक्तियों से बातें कर रही है पर अब तक उसमें किसी प्रकार की थोड़ी भी क्षति नहीं हुई। मानो मूर्तिः कार ने उसे आज ही उद्घाटित की हो।
एक पहाड़ी के ऊपर प्रतिष्ठित इतनी भारी मूर्ति को मापना भी कोई सरल कार्य नहीं है। इसी से उसकी ऊँचाई के सम्बन्ध में मतभेद है। बुचानन साहब ने उसकी ऊँचाई ७० फुट ३ इञ्च और सर अर्थर वेल्सली ने ६० फुट ३ इञ्च दी है। सन् १८६५ में मैसूर के चीफ कमिश्नर मि० बोरिंग ने मूर्ति का ठीक ठीक माप कराकर उसकी ऊँचाई ५७ फुट दर्ज की थी। सन् १८७१ ईस्वी में मस्तकाभिषेक के समय कुछ सरकारी अफसरों ने मूत्ति का माप लिया था जिससे निम्नलिखित माप मिले :
फुट इञ्च चरण से कर्ण के अधोभाग तक ५०-० कर्ण के अधोभाग से मस्तक तक
(लगभग) ६-६
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फुट इञ्च चरण की लम्बाई
६-० चरण के अग्रभाग की चौड़ाई चरण का अंगुष्ठ पादपृष्ठ की ऊपर की गुलाई जंघा की अर्ध गुलाई
१०-० नितम्ब से कर्ण तक
२४-६ पृष्ठ-अस्थि के अधोभाग से कर्ण तक २०-० नाभि के नीचे उदर की चौड़ाई १३-० कटि की चौड़ाई
१०-० कटि और टेहुनी से कर्ण तक बाहुमूल से कर्ण तक वक्षस्थल की चौड़ाई
२६-० ग्रीवा के अधोभाग से कर्ण तक तर्जनी की लम्बाई मध्यमा की लम्बाई अनामिका की लम्बाई कनिष्ठिका की लम्बाई
लगभग एक सौ वर्ष पुराने 'सरसजनचिन्तामणि' काव्य के कर्ता कविचक्रवर्ति शान्तराज पण्डित के बनाये हुए सोलह श्लोक मिले हैं जिनमें गोम्मटेश्वर की मूर्ति के माप हस्त और अंगुलों में दिये हैं। अन्तिम श्लोक से पता चलता है कि
२-६
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मैसूर-नरेश कृष्णराज ओडेयर तृतीय की आज्ञा से कवि ने स्वय ये माप लिये थे। ये श्लोक नीचे उद्धृत किये जाते हैं। जयति बेलुगुल-श्री-गोमटेशोस्य मूर्त:
परिमितमधुनाहं वच्मि सर्वत्र हर्षात् । स्वसमयजनानां भावनादेशनार्थ ।
परसमयजनानामद्भुतार्थ च साक्षात् ॥ १ ॥ पादान्मस्तकमध्यदेशचरम पादार्ध-युङ्गा तु षट्
त्रिंशद्हस्तमितोच्छयोस्ति हि यथा श्रीदोर्बलि-स्वामिनः । पादाद्विंशतिहस्तसन्निभमिति भ्यन्तमस्त्युच्छ्यः
पादार्धान्वितषोडशोच्छ्यभरो नाभेशिशरोन्तं तथा ॥२॥ चुबुकन्मूर्ध-पर्यन्तं श्रीमद्वाहुबलीशिनः। .. अस्त्यङ्गुलि-त्रयी-युक्त-हस्त-षटकप्रमोच्छ्यः ।। ३ ॥ पादत्रयाधिक्ययुक्त-द्विहस्तप्रमितोच्छ्यः । प्रत्येकं कर्णयोरस्ति भगवहोर्बली शिनः ॥ ४ ॥ पश्चाद्भुजबलीशस्य तिर्यग्भागेस्ति कर्णयोः । अष्ट-हस्त-प्रमोच्छायः प्रमाकृद्भिः प्रकीर्तितः ॥ ५ ॥ सौनन्देः परितः कण्ठं तिर्यगस्ति मनोहरम् । पाद-त्रयाधिक-दश-हस्त-प्रमित-दीर्घता ॥ ६ ॥ सुनन्दा तनुजस्यास्ति पुरस्तात्कण्ठ-सूच्छ्न्यः । पाद-त्रयाधिक्य-युक्त हस्त-प्रमिति निश्चित: ।। ७ ।। भगवद्गोमटेशस्यांशयारन्तरमस्य वै । तिर्यगायतिरस्यैव खलु षोडश-हस्त-मा ॥८॥
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२१ वक्षश्चचुक-संलक्ष्य रेखाद्वितय-दीर्घता । नवाङ्गलाधिक्ययुक्तचतुर्हस्तप्रमेशितुः ॥ ६॥ परितो मध्यमेतस्य परीतत्वेन विस्तृतः । अस्ति विंशतिहस्तानां प्रमाणं दोर्बलीशिनः ॥ १० ॥ मध्यमाङ्गलिपर्यन्तं स्कन्धाद्दीर्घत्वमीशितुः । बाहु-युग्मस्य पादाभ्यां युताष्टादशहस्तमा ।। ११ ।। मणिबन्धस्यास्य तिर्यक्परीतत्वात्समन्ततः । द्विपादाधिक-षड्-हस्त-प्रमाण परिगण्यते ।। १२ ।। हस्ताङ्गष्ठोच्छयोस्त्यस्यैकाङ्गष्ठात्पद्विहस्त-मा। लक्ष्यते गोम्मटेशस्य जगदाश्चर्यकारिणः ।। १३ ॥ पादाङ्गष्ठस्यास्य दैर्घ्य द्विपादाधिकता-युजः । चतुष्टयस्य हस्तानां प्रमाणमिति निश्चितम् ॥ १४ ॥ दिव्य-श्रीपाद-दीर्घत्वं भगवद्गोमटेशिनः । सैकाङ्गल-चतुर्हस्त-प्रमाण मिति वर्णितम् ।। १५ ।। श्रीमत्कृष्णनृपालकारितमहासंसेक-पूजोत्सवे
शिष्टया तस्य कटाक्षरोचिरमृतस्नातेन शान्तेन वै । आनीत कविचक्रवत्यु रुतर-श्रोशान्तराजेन तद्
वीक्ष्येत्थं परिमाणलक्षणमिहाकारीदमेतद्विभोः ॥ १६ ॥ इसका निम्नलिखित तात्पर्य निकलता है:
हस्त अंगुल चरण से मातक तक ३६४-० चरण से नामि तक २०-०
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10 m Umpo m
श्रवणबेलगोल के स्मारक
हस्त अंगुल नाभि से मस्तक तक
१६४-० चिबुक से मस्तक तक कर्ण की लम्बाई
२ -० एक कर्ण से दूसरे कर्ण तक ८-० गले की गुलाई
१०१-० गले की लम्बाई एक कन्धे से दूसरे कन्धे तक १६-० स्तन-मुख की गोल रेखा कटि की गुलाई कन्धे से मध्यमा अंगुली तक १८-० कलाई की गुलाई अंगुष्ठ की लम्बाई
२१-० चरण का अंगुष्ठ (?)२३-० चरण की लम्बाई
ये माप उपयुक्त मापों से मिलते हैं। केवल चरण के अंगुष्ठ की लम्बाई में त्रुटि ज्ञात होती है।
गोम्मट स्वामी कौन थे और उनकी मूर्ति यहाँ किसके द्वारा, किस प्रकार, प्रतिष्ठित की गई इसका कुछ विवरण लेख नं०८५ (२३४) में पाया जाता है। यह लेख एक छोटा सा कनाड़ी काव्य है जो सन् ११८० ईस्वी के लगभग बोप्पण कविद्वारा रचा गया है। इसके अनुसार गोम्मट पुरुदेव अपर
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विन्ध्यगिरि नाम ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर के पुत्र थे। इनका नाम बाहुबलि . या भुजबलि भी था। इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेव के दीक्षा धारण करने के पश्चात् भरत और बाहुबलि दोनों भ्राताओं में राज्य के लिये युद्ध हुआ जिसमें बाहुबलि की विजय हुई। पर संसार की गति से विरक्त हो उन्होंने राज्य अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत को दे दिया और आप तपस्या के हेतु वन को चले गये। थोड़े ही काल में घोर तपस्या कर उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया। भरत ने, जो अब चक्रवर्ति राजा हो गये थे, पौदनपुर में उनकी शरीराकृति के अनुरूप ५२५ धनुष की प्रतिमा स्थापित कराई। समयानुसार मूत्ति के आसपास का प्रदेश कुक्कुट-सर्पो से व्याप्त हो गया जिससे उस मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया। धीरे-धोरे वह मूत्ति लुप्त हो गई और उसके दर्शन केवल दीक्षित व्यक्तियों को मंत्रशक्ति से प्राप्य हो गये। चामुण्डराय मंत्री ने इस मूर्ति का वर्णन सुना और उन्हें उसके दर्शन करने की अभिलाषा हुई। पर पोदनपुर की यात्रा अशक्य जान उन्होंने उसी के समान स्वयमूर्ति स्थापित कराने का विचार किया और तदनुसार इस मूर्ति का निर्माण कराया। इस वार्ता के पश्चात् लेख में मूर्ति का वर्णन है। यही वर्णन थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ भुजबलिशतक, भुजबलिचरित, गोम्मटेश्वर-चरित, राजावलिकथा और स्थलपुराण में भी पाया जाता है। इनमें से पहले काव्य को छोड़ शेष सब कनाड़ी भाषा में हैं। ये सब ग्रंथ १६वीं
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श्रवणबेलगोल के स्मारक शताब्दि से लगाकर १८वीं शताब्दि तक के हैं। भुजबलिचरित में वर्णन है कि आदिनाथ के दो पुत्र थे; भरत, रानी यशस्वती से और भुजबलि, रानी सुनन्दा से। भुजबलि का विवाह इच्छा देवी से हुआ था और वे पादनपुर के राजा थे। कुछ मतभेद के कारण दोनों भाइयों में युद्ध हुआ और भरत को पराजय हुई। पर भुजबलि राज्य त्यागकर मुनि हो गये। भरत ने ५२५ मारु* प्रमाण भुजबलि की स्वर्णमूर्ति बनवाकर स्थापित कराई। कुक्कुट सर्पो से व्याप्त हो जाने के कारण केवल देव ही इस मूर्ति के दर्शन कर पाते थे। एक जैनाचार्य जिनसेन दक्षिण मधुरा को गये और उन्होंने इस मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की माता कालल देवी को सुनाया। उसे सुनकर मातश्री ने प्रण किया कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन न कर लँगी, दूध नहीं खाऊँगी। जब अपनी पत्नी अजितादेवी के मुख से यह संवाद चामुण्डराय ने सुना तब वे अपनी माता को लेकर पोदनपुर की यात्रा को निकल पड़े। मार्ग में उन्होंने श्रवणबेलगोल की चन्द्रगुप्त बस्ती में पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन किये
और भद्रबाहु के चरणों की वन्दना की। उसी रात्रि को पद्मावती देवी ने उन्हें स्वप्न दिया कि कुक्कुट सर्पो के कारण पोदनपुर की बन्दना तुम्हारे लिये असम्भव है। पर तुम्हारी
* दोनों बाहुओं को फैलाने से एक हाथ की अंगुली के अग्रभाग से लगाकर दूसरे हाथ की अंगुली के अग्रभाग तक जितना अन्तर होता है उसे 'मारु' कहते हैं।
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विन्ध्यगिरि भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटेश्वर तुम्हें यहीं बड़ी पहाड़ी (विन्ध्यगिरि ) पर दर्शन देंगे। तुम शुद्ध होकर इस छोटी पहाड़ी (चन्द्रगिरि ) पर से एक स्वर्ण बाण छोड़ो, और भगवान् के दर्शन करो। मात श्री को भी ऐसा ही स्वप्न हुआ। दूसरे दिन प्रात:काल ही चामुपडराय ने स्नान-पूजन से शुद्ध हो छोटी पहाड़ी की एक शिला पर अवस्थित होकर, दक्षिण दिशा को मुख करके एक स्वर्ण बाण छोड़ा जो बड़ो पहाड़ी के मस्तक पर की शिला में जाकर लगा। बाण के लगते ही गोम्मट स्वामी का मस्तक दृष्टिगोचर हुआ। फिर जैनगुरु ने हीरे की छैनी और मोती के हथौड़े से ज्योंही शिला पर प्रहार किया त्योंही शिला के पाषाण-खण्ड अलग जा गिरे और गोम्मटेश्वर की पूरी प्रतिमा निकल आई। फिर कारीगरों से चामुण्डराय ने दक्षिण बाजू पर ब्रह्मदेव सहित पाताल गम्ब, सन्मुख ब्रह्मदेवसहित यक्ष-गम्ब, ऊपर का खण्ड; ब्रह्मसहित त्यागद कम्ब, अखण्ड बागिलु नामक दरवाजा और यत्र-तत्र सीढ़ियाँ बनवाई। ____ इसके पश्चात् अभिषेक की तैयारी हुई। पर जितना भी दुग्ध चामुण्डराय ने एकत्रित कराया उससे मूर्ति की जंघा से नीचे के स्नान नहीं हो सके। चामुण्डराय ने घबराकर गुरु से सलाह ली। उन्होंने आदेश दिया कि जो दुग्ध एक वृद्धा स्रो अपनी 'गुल्लकायि' में लाई है उससे स्नान कराओ। आश्चर्य कि उस अत्यल्प दुग्ध की धारा गोम्मटेश के मस्तक पर छोड़ते ही समस्त मूर्ति के स्नान हो गये और सारी पहाड़ी पर दुग्ध
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बह निकला। उस वृद्धा स्त्री का नाम इस समय से 'गुल्लकायजि' पड़ गया। इसके पश्चात् चामुण्डराय ने पहाड़ी के नीचे एक नगर बसाया और मूर्ति के लिये ६६ हजार 'वरह' की आय के गाँव ( ६८ के नाम दिये हुए हैं ) लगा दिये। फिर उन्होंने अपने गुरु अजितसेन से इस नगर के लिये कोई उपयुक्त नाम पूछा। गुरु ने कहा 'क्योंकि उस वृद्धा त्री के गुल्लकायि के दुग्ध से अभिषेक हुआ है, अतः इस नगर का नाम बेल्गोल ठीक होगा। तदनुसार नगर का नाम बेल्गोल रक्खा गया और उस 'गुल्लकायजि' स्त्री की मूर्ति भी स्थापित की गई। इस प्रकार इस अभिनव पोदनपुर की स्थापना कर चामुण्डराय ने कीर्ति प्राप्त की। इस काव्य के कर्ता पञ्चबाण का नाम शक सं० १५५६ के एक लेख नं० ८४ (२५०) में आता है।
अन्य ग्रन्थों में उपर्युक्त विवरण से जो विशेषताएँ हैं वे संक्षेप में इस प्रकार हैं। दोड्डय कवि-कृत 'भुजबलिशतक' में कहा गया है कि सिंहनन्दि आचार्य के शिष्य राजमल्ल द्राविड देश में मधुरा के राजा थे। ब्रह्मक्षत्र-शिखामणि चामुण्डराय, सिंहनन्दि आचार्य के प्रशिष्य व अजितसेन और नेमिचन्द्र के शिष्य, उनके मन्त्री थे। राजमल्ल को किसी व्यापारी द्वारा पोदनपुर में कर्केतन-पाषाण-निर्मात गोम्मटेश्वर की मूर्ति का समाचार मिला। इसे सुनकर चामुण्डराय अपनी माता और गुरु नेमिचन्द्र के साथ राजा की प्राज्ञा ले, यात्रा को
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२७ निकले। जब उन्होंने श्रवणबेलगोल की छोटी पहाड़ी पर से स्वर्ण बाण चलाये तब बड़ी पहाड़ी पर पोदनपुर के गोम्मटेश्वर भगवान् प्रकट हुए। चामुण्डराय ने भगवान के हेतु कई ग्रामों का दान दिया। उनकी धर्म-शीलता से प्रसन्न हो राजमल्ल ने उन्हें राय की उपाधि दी। १८वीं शताब्दि के बने हुए अनन्त कविकृत गोम्मटेश्वरचरित में यह वार्ता है कि चामुण्डराय के स्वर्ण बाण चलाने से गोम्मट की जो मूर्ति प्रकट हुई उसे उन्होंने मूर्तिकारों से सुघटित कराकर अभिषिक्त और प्रतिष्ठित कराई। स्थलपुराण में समाचार है कि पौदनपुर की यात्रा करते समय चामुण्डराय ने सुना कि बेलगोल में अठारह धनुष प्रमाण एक गोम्मटेश्वर की मूर्ति है। उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा कराई और उसे एक लाख छयान्नवे हजार वरह की आय के ग्रामों का दान किया। चामुण्डराय को अपनी अपूर्व सफलता पर जो गर्व हुआ उसे खर्व करने के हेतु पद्मावती देवी गुल्लकाजि नामक वृद्धा स्त्रो के वेष में अभिषेक के अवसर पर उपस्थित हुई थीं। राजावलिकथा के अनुसार गुल्लकाजि कूष्माण्डिनि देवी का अवतार थी। इस ग्रंथ में यह भी कहा गया है कि प्राचीन काल में राम, रावण और रावण की रानी मन्दोदरि ने बेलगोल के गोम्मटेश्वर की वन्दना की थी। सत्रहवीं शताब्दि के चिदानन्दकवि-कृत मुनिबंशाभ्युदय काव्य में कथन है कि गोम्मट और पार्श्वनाथ की मूर्तियों को राम और सीता लङ्का से लाये थे और उन्हें क्रमश: बड़ी और छोटी
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पहाड़ी पर विराजमान कर उनकी पूजन-अर्चन किया करते थे । जाते समय वे इन मूत्तियों को उठाने में असमर्थ हुए, इसी से वे उन्हें उसी स्थान पर छोड़कर चले गये ।
उपर्युल्लिखित प्रमाणों से यह निर्विवादतः सिद्ध होता है कि गोम्मटेश्वर की स्थापना चामुण्डराय द्वारा हुई है। शिलालेख नं० ८५ (२३४ ), १०५ (२५४ ), ७६ (१७५ ) और ७५ ( १७८ ) भी यही बात प्रमाणित करते हैं। शिलालेख नं० ७५, ७६ मूर्त्ति के आस-पास ही खुदे हैं और मूर्ति के निर्माण समय के ही प्रतीत होते हैं । चामुण्डराय कौन थे ? भुजबलिशतक प्रादि ग्रन्थों से विदित होता है कि चामुण्डराय गङ्गनरेश राचमल्ल के मन्त्री थे । शिलालेख नं० १३७ (३४५) से भो यही सिद्ध होता है। राचमल्ल के राज्य की प्रवधि सन् १७४ से ६८४ तक बाँधी गई है । अत: गोम्मटेश्वर की स्थापना इसी समय के लगभग होना चाहिये । चामुण्डराय का बनाया हुआ एक चामुण्डराय पुराण मिलता है। इसमें ग्रंथसमाप्ति का समय शक सं० ८०० (सन् ६७८ ईस्वी) दिया हुआ है। इसमें चामुण्डराय के कृत्यों का वर्णन पाया जाता है पर गोम्मटेश्वर की प्रतिष्ठा का कहीं उल्लेख नहीं है। इससे अनुमान होता है कि उक्त ग्रन्थ की रचना के समय ( सन् -७८ ई०) तक चामुण्डराय को इस महत्कार्य के सम्पादन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था । बाहुबलि - वरित्र में गोम्मदेश्वर की प्रतिष्ठा का समय इस प्रकार दिया है :
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विन्ध्यगिरि "कल्क्यब्दे षटशताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासि चैत्रे
पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे। सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित-भगणे सुप्रशस्तां चकार
श्रीमच्चामुण्डराजो बेल्गुलनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ॥" अर्थात् कल्कि संवत् ६०० में विभव संवत्सर में चैत्र शुक्ल ५ रविवार को कुम्भलग्न, सौभाग्य योग, मस्त ( मृगशिरा) नक्षत्र में चामुण्डराज ने बेल्गुल नगर में गोमटेश की प्रतिष्ठा कराई। विद्याभूषण, काव्यतीर्थ, प्रो० शरच्चन्द्र घोषाल ने इस अनुमान पर कि यह तिथि गङ्गनरेश राचमल्ल के समय में ( सन् ६७४ और ६८४ के बीच ) ही पड़ना चाहिये, उक्त तिथि को तारीख २ अप्रेल १८० ईस्वी के बराबर माना है। उनके कथनानुसार इस तारीख को रविवार चैत्र शुक्ल ५ तिथि थी और कुम्भ लग्न भी पड़ा था। हमने इस तारीख का मि० स्वामी कन्नूपिलाई के 'इंडियन एफेमेरिस से मिलान किया तो २ अप्रेल ८० ईस्वी को दिन शुक्रवार और तिथि १४ पाये। न जाने प्रोफेसर साहब ने किस आधार पर उस तारीख को रविवार और पञ्चमी तिथि मान लिया है। इसके अतिरिक्त प्रोफेसर साहब की तारीख में एक और भारी त्रुटि है। ऊपर उद्धृत श्लोक में संवत्सर का नाम 'विभव' दिया हुआ है। पर सन् १८० ईस्वी (शक सं० २०२ ) 'विभव' नहीं 'विक्रम' संवत्सर था। इन कारणों से प्रो० घोषाल की निश्चित की हुई तिथि में सन्देह होता है।
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उपर्युक्त श्लोक में कल्कि संवत् ६०० में गोमटेश की प्रतिष्ठा होना कहा है । कल्कि कौन था और उसका संवत् कब से चला ? हरिव ंशपुराण, उत्तरपुराण, त्रिलोकसार और त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कल्कि राजा का उल्लेख पाया जाता है । कल्कि का दूसरा नाम चतुर्मुख था । त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कल्कि का समय इस प्रकार दिया है :
व्विाणगदे वीरे चउसदइगिसट्टिवास विच्छेदे ।
३०
जादो च सगपरिन्दो रज्ज वस्सस्स दुसय वादाला ||१३|| दोण्यि सदा पणवण्या गुत्तायं चउमुहस्स वादालं । वस्सं होदि सहस्सं कई एवं परूवंति ॥ ६४॥
अर्थात् -- वीर निर्वाण के ४६१ वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ, और इस वंश के राजाओं ने २४२ वर्ष राज्य किया । उनके पश्चात् गुप्तव ंशी नरेशों का २५५ वर्ष तक राज्य रहा और फिर चतुर्मुख (कल्कि) ने ४२ वर्ष राज्य किया । कोईकोई लोग इस तरह (४६१ + २४२+२५५ + ४२ = १०००) एक हजार वर्ष बतलाते हैं । अन्य ग्रंथों में भी कल्कि का समय महावीर के निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् माना गया है । पर इन ग्रंथों में इस बात पर मतभेद है कि निर्वाण संवत् से १००० वर्ष पीछे कल्कि का जन्म हुआ या मृत्यु । ऊपर हमने जिस मत का उल्लेख किया है उसके अनुसार १००० वर्ष में कल्कि के राज्य के ४२ वर्ष भी सम्मिलित हैं । अतः इस मत के अनुसार निर्वाण सं० १००० कल्कि की मृत्यु
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विन्ध्यगिरि का है। जिन ग्रन्थों में कल्कि का उल्लेख पाया जाता है उन सबके अनुसार निर्वाण का समय शक सं० से ६०५ वर्ष, विक्रम सं० से ४७० वर्ष व ईस्वी सन् से ५२७ वर्ष पूर्व पड़ता है। अतएव कल्कि मृत्यु का समय सन् ४७२ ईस्वी आता है।
संवत् बहुधा राजा के राज्य-काल से प्रारम्भ किये जाते हैं । अतः कल्कि संवत् सन् ४७२-४२ = ४३० ईस्वी से प्रारम्भ हुअा होगा। गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का समय कल्कि संवत् ६०० कहा गया है जो ऊपर की गणना के अनुसार सन् ईस्वी १०३० के बराबर है। हमने स्वामी कन्नूपिलाई के इण्डियन एफेमेरिस से इस संवत् के लगभग उपर्युक्त तिथि, वार, नक्षत्र
आदि का मिलान किया तो २३ मार्च सन् १०२८ को चैत्र सुदि ५ रविवार पाया। इस दिन मृगशिरा नक्षत्र और मौभाग्य योग भो वर्तमान थे, और दक्षिणी गणना के अनुसार यह संवत्सर भी विभव था। इस प्रकार बाहुबलिचरित में दी हुई समस्त बातें इस तिथि में घटित होती हैं, जिससे विश्वास होता है कि गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का ठीक समय सन् १०२८,२३ मार्च (शक सं० १५१ ) है।* ___इस तिथि के विरोध में केवल एक किंवदन्ती का प्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता है। वह किंवदन्ती यह है कि गोम
* उपयुक्त विवेचन लिखे जाने के पश्चात् हमें मैसूर पार्किलाजिकल रिपोर्ट १९२३ देखने को मिली । इसमें डा० शाम शास्त्री ने विस्तृत रूप से इसी बात को प्रमाणित किया है।
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टेश की मूर्त्ति की प्रतिष्ठा राचमल्लनरेश के समय में ही हुई थी और इस नरेश का समय शिलालेखों के आधार पर सन् ६७४ से ६८४ तक निश्चित किया गया है । पर इस किंवदन्ती पर विशेष जोर नहीं दिया जा सकता क्योंकि एक तो इसके लिये कोई शिलालेखों का प्रमाण नहीं है और दूसरे यह कथन केवल भुजबलिशतक में ही पाया जाता है, जिसकी रचना का समय ईसा की सोलहवीं शताब्दि अनुमान किया जाता है। जिन अन्य ग्रन्थों में गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का कथन है उनमें यह कहीं नहीं कहा गया कि यह कार्य राचमल्ल के जीते ही हुआ था | सन् १७८ ईस्वी में रचे जानेवाले चामुण्डराय पुराण से यह निश्चित है ही कि उस समय तक मूर्त्ति की स्थापना नहीं हुई थी, और सन् २०२८ से पहले के किसी शिलालेख में इस प्रतिष्ठा का समाचार नहीं
पाया जाता /
एक बात और है जिसके कारण ऊपर निश्चित किया हुआ समय ही गोमटेश की प्रतिष्ठा के लिये ठीक प्रतीत होता है। कहा जाता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्त्ति चामुण्डराय के गुरु थे और गोमटेश की प्रतिष्ठा के समय उनके साथ थे । द्रव्य-संग्रह नामक ग्रन्थ के टीकाकार ब्रह्मदेव ने ग्रन्थ के मूलकर्त्ता नेमिचन्द्र को धाराधीश भोजदेव के समकालीन कहा है । ऊपर निश्चित किये हुए समय के अनुसार यह कथन प्रयुक्ति-सङ्गत नहीं कहा जा सकता क्योंकि भोजदेव
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३३ का राज्य-काल उस समय विद्यमान था। भोजदेव के सन् १०१६, १०२२ और १०४२ ईस्वी के उल्लेख मिले हैं।
कुछ वर्षों के अन्तर से गोम्मटेश्वर का मस्तकाभिषेक होता है, जो बड़ी धूमधाम, बहुत क्रियाकाण्ड और भारी द्रव्य-व्यय के साथ मनाया जाता है। इसे महाभिषेक भी कहते हैं। इस मस्तकाभिषेक का सबसे प्राचीन उल्लेख शक सं० १३२० के लेख नं० १०५ ( २५४ ) में पाया जाता है। इस लेख में कथन है कि पण्डितार्य ने सात बार गोम्मटेश्वर का मस्तकाभिषेक कराया था। पञ्चबाण कवि ने सन् १६१२ ईस्वी में शान्तवर्णि-द्वारा कराये हुए मस्तकाभिषेक का उल्लेख किया है, व अनन्त कवि ने सन १६७७ में मैसुर नरेश चिक्कदेवराज ओडेयर के मन्त्री विशालाक्ष पण्डित-द्वारा कराये हुए और शान्तराज पण्डित ने सन १८२५ के लगभग मैसूर-नरेश कृष्णराज
ओडेयर तृतीय द्वारा कराये हुए मस्तकाभिषेक का उल्लेख किया है। शिलालेख नं०६८ (२२३) में सन् १८२७ में होने वाले मस्तकाभिषेक का उल्लेख है। सन १६०६ में भी मस्तकाभिषेक हुआ था। अभी तक सबसे अन्तिम अभिषेक हाल ही में-मार्च सन १८२५ में हुआ है जिसके विषय में 'वीर' पत्र में यह समाचार प्रकाशित हुआ है-" ता० १५-३-२५ को श्रीमान महाराजा कृष्णराज बहादुर मैसूर अपने दो सालोंसहित पहाड़ पर पधारे और अपनी तरफ से अभिषेक कराया। बन्दोबस्त बहुत अच्छा था। आज लगभग ३०,००० मनुष्य
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श्रवणबेलगोल के स्मारक अभिषेक देख सके जिसमें करीब पाँच हजार विन्ध्यगिरि पर थे और शेष सब चन्द्रगिरि पहाड़ पर इधर-उधर बैठकर दूर से अभिषेक देखते थे। महाराजा ने अभिषेक के लिए पाँच हजार रुप्या प्रदान किये। उन्होंने स्वयं गोम्मटस्वामी की प्रदक्षिणा की, नमस्कार किया तथा द्रव्य से पूजन की व कुछ रुपये प्रतिमाजी व भट्टारकजी को भेंट किये व भट्टारकजी को नमस्कार किया। सुबह ६ बजे से दोपहर एक बजे तक इस प्रथम अभिषेक का कार्य अतीव आनन्द व धर्म-प्रभावना के साथ हुआ। इस अभिषेक में जल, दुग्ध, दही, केला, पुष्प, नारियल व चुरमा, घृत, चन्दन, सर्वोषधि, इतुरस, लाल चन्दन, बदाम, खारक गुड़, शक्कर, खसखस, फूल, चने की दाल
आदि का अभिषेक उपाध्यायों द्वारा मचान पर से हुआ। ___कहा जाता है कि जब होयसल-नरेश विष्णुवर्द्धन जैन-धर्म को छोड़ वैष्णव धर्मावलम्बी हो गया तब रामानुजाचार्य ने गोम्मट की मूर्ति को तुड़वा डाला; पर इस कथन में कोई सत्य का अंश प्रतीत नहीं होता क्योंकि मूर्ति आज तक सर्वथा अक्षत है। ___गोम्मटेश्वर की दो और विशाल मूर्तियाँ विद्यमान हैं। ये दोनों दक्षिण कनाड़ा जिले में ही हैं; एक कारकल में और दूसरी एनूर में। कारकल की मूर्ति ४१ फुट ५ इञ्च ऊँची है। इसे सन् १४३२ ईस्वी में जैनाचार्य ललितकीर्ति के उपदेश से वीर पाण्ड्य ने प्रतिष्ठित कराई थी। एनूर की मूर्ति ३५ फुट ऊँची है और सन् १६०४ में चारुकीति पण्डित के
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विन्ध्यगिरि उपदेश से चामुण्डवशीय 'तिम्मराज' द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी। इन तीनों मूत्तियों की बनावट प्राय: एक सी ही है। वमीठे, सर्प और लताएँ तीनों में एक से ही दिखाये गये हैं।
विन्ध्यगिरि के गोम्मटेश्वर की दोनों बाजुओं पर यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियाँ हैं, जिनके एक हाथ में चौरी और दूसरे में कोई फल है। मूत्ति के बायीं ओर एक गोल पाषाण का पात्र है जिसका नाम 'ललितसरोवर' खुदा हुआ है। मूत्ति के अभिषेक का जल इसी में एकत्र होता है। इस पाषाणपात्र के भर जाने पर अभिषेक का जल एक प्रणालो-द्वारा मूर्ति के सम्मुख एक कुएँ में पहुँच जाता है और वहाँ से वह मन्दिर की सरहद के बाहर एक कन्दरा में पहुँचा दिया जाता है। इस कन्दरा का नाम 'गुल्लकायज्जि बागिलु' है। मूति के सम्मुख का मण्डप नव सुन्दर खचित छतों से सजा हुआ है। पाठ छतों पर अष्ट दिक्पालों की मूर्तियाँ हैं और बीच की नवमो छत पर गोम्मटेश के अभिषेक के लिये हाथ में कलश लिये हुए इन्द्र की मूर्ति है। ये छत बड़ी कारीगरी के बने हुए हैं। मध्य की छत पर खुदे हुए शिलालेख (नं० ३५१) से अनुमान होता है कि यह मण्डप बलदेव मन्त्रो ने १२ वीं शताब्दि के प्रारम्भ में किसी समय निर्माण कराया था। शिलालेख नं० ११५ (२६७) से विदित होता है कि सेनापति भरतमय्य ने इस मण्डप का कठघरा (हप्पलिगे) निर्माण कराया था। शिलालेख नै० ७८ (१८२) में कथन है कि नयकीर्तिसिद्धान्त
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक चक्रवर्ति के शिष्य बसविसेट्टि ने कठघरे की दीवाल और चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमाएँ निर्माण कराई थी और उसके पुत्रों ने उन प्रतिमाओं के सम्मुख जालीदार खिड़कियाँ बनवाई। शिलालेख नं० १०३ (२२८ ) से ज्ञात होता है कि चङ्गाल्व-नरेश महादेव के प्रधान सचिव केशवनाथ के पुत्र चन्न बोम्मरस और नजरायपट्टन के श्रावकों ने गोम्मटेश्वरमण्डप के ऊपर के खण्ड (बल्लिवाड) का जीर्णोद्धार कराया।
परकोटा-गोम्मटेश्वर की दोनों बाजुओं पर खुदे हुए शिलालेख नं० ७५ (१८०)व ७६ ( १७७ ) से विदित होता है कि गोम्मटेश्वर का परकोटा गङ्गराज ने निर्माण कराया था। यही बात लेख नं० ४५ (१२५), ५६ (७३), ६० ( २४०) व ४८६ से भी सिद्ध होती है। गङ्गराज होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के सेनापति थे। उपयुक्त शिलालेख शक सं० १०४० व उसके पश्चात् के हैं। इसके पहले के शिलालेखों में परकोटे का उल्लेख नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि शक सं० १०३६ के लगभग ही इसका निर्माण हुआ है।
परकोटे के भीतर मण्डपों में इधर-उधर कुल ४३ जिनमूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, जो इस प्रकार हैं
ऋषभ १ सुमति १ शीतल २ अनन्त १ अजित २ सुपार्श्व १ श्रेयांस १ धर्म १ संभव २ चन्द्रप्रभ ३ वासुपूज्य १ शान्ति ३ अभिनन्दन २ पुष्पदन्त २ विमल २ कुन्थ १
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अर १ मल्लि २
विन्ध्यगिरि
मुनिसुव्रत २ नेमि २ नमि १ पार्श्व ४
वद्धर्मान १
बाहुवलि १
कुष्माण्डनि २
१ ( अज्ञात )
अधिकांश मूत्तियाँ ४ फुट ऊँची हैं । पाँच-छः मूत्तियाँ पाँच फुट, एक छ: फुट व दो-तीन मूतियाँ तीन साढे तीन फुट की हैं । एक चन्द्रप्रभ की व अन्तिम अज्ञात मूर्ति को छोड़कर शेष जिन मूर्तियों पर लेख हैं वे सब नयकीर्त्ति सिद्धान्तदेव और उनके शिष्य बालचन्द्र अध्यात्मि के समय की सिद्ध होती हैं । लेख नं० ७८ ( १८२ ) व ३२७ ( १७ ) से ज्ञात होता है कि नीति के शिष्य बसविसेट्टि ने यहाँ चतुविशति तीर्थकरों की प्रतिष्ठा कराई थी । पर केवल तीन मूर्तियों पर बस विसेट्टि का नाम पाया जाता है ( लेख नं० ३१७, ३१८, ३२७ ) । उपर्युक्त मूतियों में पद्मप्रभ तीर्थ कर की कोई मूत्ति नहीं है । चन्द्रप्रभ की एक मूर्ति पर मारवाड़ी में लेख है कि उसे ( विक्रम ) संवत् १६३५ में सेनवीरमतजी व अन्य सज्जनों ने प्रतिष्ठित कराई थी (३३१) । अज्ञात मूर्त्ति डेढ़ फुट की है । इस पर मारवाड़ी में लेख है कि उसे ( विक्रम ) संवत् १५४८ में गुशाजी जगद... ने प्रतिष्ठित कराई ( ३३२ ) ।
परकोटे के द्वारे पर दोनों बाजुओं पर छ: छः फुट ऊँचे द्वारपालक हैं । परकोटे के बाहर गोम्मटदेव के ठीक सन्मुख लगभग छ: फुट की ऊँचाई पर ब्रह्मदेवस्तम्भ है । इसमें ब्रह्मदेव की पद्मासन मूर्त्ति है । ऊपर गुम्मट है । स्तम्भ के नीचे कोई
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक पाँच फुट ऊँची 'गुल्लकायज्जि' की मूर्ति है, जिसके हाथ में 'गुल्लकायि' है। जन-श्रुति के अनुसार यह स्तम्भ और गुल्लकायजि की मूर्ति दोनों स्वयं चामुण्डराय ने प्रतिष्ठित कराये थे ।
२ सिद्धर बस्ति-यह एक छोटा सा मन्दिर है जिसमें तीन फुट ऊँची सिद्ध भगवान की मूत्ति विराजमान है। मूर्ति के दोनों ओर लगभग छः-छः फुट ऊँचे खचित स्तम्भ हैं। ये स्तम्भ महानवमी मण्डप के स्तम्भ के समान ही उच्च कारीगरी के बने हुए हैं। दायीं बाजू के स्तम्भ पर अर्हदास कवि का रचा हुआ पण्डितार्य की प्रशस्तिवाला बड़ा भारी सुन्दर लेख है [१०५ (२५४)] जिसके अनुसार पण्डितार्य की मृत्यु शक संवत् १३२० में हुई थी। इस स्तम्भ में पीठिका पर विराजमान, शिष्य को उपदेश देते हुए, एक आचार्य का चित्र है। शिष्य सन्मुख बैठा है। दूसरे चित्र में जिनमूत्ति है। बायीं बाजू के स्तम्भ पर मङ्गराज कवि का रचा हुआ सुन्दर लेख है [१०८ ( २५८)] जिसमें शक सं० १३५५ में श्रुतमुनि के स्वर्गवास का उल्लेख है।
३ अखण्ड बागिलु-यह एक दरवाजे का नाम है । यह नाम इसलिये पड़ा क्योंकि यह पूरा दरवाजा एक अखण्ड शिला को काटकर बनाया गया है। दरवाजे का ऊपरी भाग बहुत ही सुन्दर खचित है। इसमें लक्ष्मी की पद्मासन मूर्ति खुदी है जिसको दोनों ओर से दो हाथी स्नान करा रहे हैं। जन-श्रुति के अनुसार यह द्वार भी चामुण्डराय ने निर्माण
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विन्ध्यगिरि कराया था। दरवाजे के दोनों ओर दायें-बायें क्रमशः बाहुबलि
और भरत की मूर्तियाँ हैं। इन पर जो लेख हैं (३६८-३६८) उनसे विदित होता है कि ये गण्डविमुक्त सिद्धान्तदेव के शिष्य दण्डनायक भरतेश्वर द्वारा प्रतिष्ठित की गई हैं। इनका समय शक सं० १०५२ के लगभग प्रतीत होता है। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा का उल्लेख शिलालेख नं० ११५ (२६७) में भी आया है जिसके अनुसार ये मूर्तियाँ दरवाजे की शोभा बढ़ाने के लिये स्थापित की गई हैं। इस लेख के अनुसार इस दरवाजे की सीढ़ियाँ भी उक्त दण्डनायक ने ही निर्माण कराई हैं।
४ सिद्धरगुण्ड-अखण्ड दरवाजे की दाहिनी ओर एक बृहत् शिला है जिसे 'सिद्धर गुण्डु' (सिद्ध-शिला ) कहते हैं । इस शिला पर अनेक लेख हैं। ऊपरी भाग की कई सतरों में जैनाचार्यो के चित्र हैं। कुछ चित्रों के नीचे नाम भी अङ्कित हैं।
५ गुल्लकायज्जिबागिलु-यह एक दूसरे दरवाजे का नाम है। इस दरवाजे की दाहिनी ओर एक शिला पर एक बैठी हुई स्त्री का चित्र खुदा है। यह लगभग एक फुट का है । इसे लोगों ने गुल्लकायजि का चित्र समझ लिया है। इसी से उक्त दरवाजे का नाम गुल्लकायजिबागिलु पड़ गया। पर चित्र के नीचे जो लेख (४१८) पाया गया है उससे विदित होता है कि वह एक मल्लिसेट्टि की पुत्रो का चित्र है। गुल्लकायि की मूर्ति का वर्णन ऊपर कर ही चुके हैं।
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक ६ त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ-यह चागद कंब ( त्यागस्तम्भ ) भी कहलाता है क्योंकि कहा जाता है कि यहाँ दान दिया जाता था । इस स्तम्भ की कारीगरी प्रशंसनीय है। कहा जाता है कि यह स्तम्भ अधर है, उसके नीचे से रूमाल निकाला जा सकता है। यह भी चामुण्डराय-द्वारा स्थापित कहा जाता है और स्तम्भ पर खुदे हुए लेख नं० १०६ ( २८१) से भी यही बात प्रमाणित होती है। इस लेख में चामुण्डराय के प्रताप का वर्णन है। दुर्भाग्यवश यह लेख हमें पूरा प्राप्त नहीं हो सका। ज्ञात होता है कि हेग्गडे कण्न ने अपना छोटा सा लेख [नं० ११० (२८२)] लिखाने के लिये चामुण्डराय का लेख घिसवा डाला। यदि यह लेख पूरा मिल जाता तो सम्भवतः उससे गोम्मटेश्वर की स्थापनादि का समय भी ज्ञात हो जाता । स्तम्भ की पीठिका की दक्षिण बाजू पर दो मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। एक मूत्ति, जिसके दोनों ओर चवरवाही खड़े हुए हैं, चामुण्डराय की और उसके साम्हनेवाली उनके गुरु नेमिचन्द्र की कही जाती हैं।
७चेन्नण्ण बस्ति-यह बस्ति त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ से पश्चिम की ओर थोड़ी दूर पर है। इसमें चन्द्रनाथ स्वामी की २६ फुट ऊँची मूर्ति है। साम्हने मानस्तम्भ है। लेख ने० ४८० (३६०) से अनुमान होता है कि इसे चेन्नण्ण ने शक सं० १५६६ के लगभग निर्माण कराया था। बरामदे में दो स्तम्भों पर क्रमशः एक पुरुष और एक स्त्री की मूत्ति खुदी हुई
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विन्ध्यगिरि है। सम्भव है कि ये मूर्तियाँ चेन्नण्ण और उनकी धर्मपत्नी की हो। बस्ति से ईशान की ओर दो दोणे ( कुण्डों) के बीच एक मण्डप बना हुआ है। उपर्युक्त लेख में सम्भवत: इसी मण्डप का उल्लेख है।
८ प्रोदेगल बस्ति-इसे त्रिकूट बस्ति भी कहते हैं क्योंकि इसमें तीन गर्भगृह हैं। चन्द्रगिरि पर्वत की शान्तोश्वर बस्ति के समान यह बस्ति भी खूब ऊँचो सतह पर बनी हुई है। सीढ़ियों पर से जाना पड़ता है। भोतों की मजबूती के लिये इसमें पाषाण के आधार ( आदेगल ) लगे हुए हैं, इसी से इसे ओदेगल बस्ती कहते हैं। बीच की गुफा में आदिनाथ की और दायीं बाई गुफाओं में क्रमशः शान्तिनाथ और नेमिनाथ की पद्मासन मूर्तियाँ हैं। बस्ती के पश्चिम की ओर की चट्टान पर सत्ताइस लेख नागरी अक्षरों में हैं जिनमें अधिकतर तीर्थ-यात्रियों के नाम अङ्कित हैं (नं. ३७८-४०४) ।
चौबीस तीर्थकर बस्ति-यह एक छोटा सा देवालय है। इसमें एक अढ़ाई फुट ऊँचे पाषाण पर चौबीस तीर्थकरों की मृत्तियाँ उत्कीर्ण हैं। नीचे एक कतार में तीन बड़ी मूत्तियाँ खुदी हुई हैं जिनके ऊपर प्रभावली के
आकार में इक्कीस अन्य छोटी-छोटी मूत्तियाँ हैं। इस बस्ति के लेख नं० ११८ ( ३१३ ) से ज्ञात होता है कि इस चौबीस तीर्थकर मूर्ति की स्थापना चारुकीति पण्डित, धर्मचन्द्र आदि ने शक सं० १५७० में की थी।
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श्रवणबेलगोल के स्मारक १० ब्रह्मदेव मन्दिर-यह छोटा सा देवालय विन्ध्यगिरि के नीचे सीढ़ियों के समीप ही है। इसमें सिन्दूर से रंगा हुआ एक पाषाण है जिसे लोग ब्रह्म या 'जारुगुप्पे अप्प' कहते हैं। मन्दिर के पीछे चट्टान पर के लेख नं० १२१ (३२१) से ज्ञात होता है कि इसे हिरिसालि के गिरिगौड के कनिष्ठ भ्राता रङ्गय्य ने सम्भवतः शक सं० १६०० में निर्माण कराया था। मन्दिर के ऊपर दूसरी मंजिल भी है जो पीछे से निर्माण कराई गई विदित होती है। इसमें पार्श्वनाथ की मूत्ति है।
श्रवणबेल्गोल नगर ऊपर कहा जा चुका है कि श्रवणबेलगोल चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि के बीच बसा हुआ है। यहाँ के प्राचीन स्मारक इस प्रकार हैं:
१ भण्डारि बस्ति-यह श्रवण बेल्गोल का सबसे बड़ा मन्दिर है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई २६६ ४७८ फुट है। इसमें एक गर्भगृह, एक सुखनासि, एक मुखमण्डप और प्राकार हैं। गर्भगृह में एक सुन्दर चित्रमय वेदी पर चौबीस तीर्थकरों की तीन २ फुट ऊँची मूर्तियाँ हैं। इसी से इसे चौबीस तीर्थकरबस्ति भी कहते हैं। गर्भगृह में तीन दरवाजे हैं जिनकी आजू-बाजू जालियाँ बनी हुई हैं । सुखनासि में पद्मावती और ब्रह्म की मूर्तियाँ हैं। नवरङ्ग के चार स्तम्भों के बीच
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श्रवणबेलगोल नगर जमीन पर एक दस फुट का चौकोर पत्थर बिछा हुआ है। आगे के भाग और बरामदे में भी इतने इतने बड़े पत्थर लगे हुए हैं। ये भारी-भारी पाषाण यहाँ कैसे लाये गये होंगे, यह भी आश्चर्यजनक है। नवरङ्गद्वार की चित्रकारी बड़ी ही मनोहर है। इसमें लताएँ व मनुष्य और पशुओं के चित्र खुदे हुए हैं। मुख्य भवन के चारों ओर बरामदा और पाषाण का चार फुट ऊँचा कठघरा है। बस्ति के सन्मुख एक पाषाण-निर्मित सुन्दर मानस्तम्भ है। होयसल नरेश नरसिंह ( प्रथम ) के भण्डारि हुल्ल द्वारा निर्माण कराये जाने के कारण यह भण्डारि बस्ति कहलाती है। लेख नं० १३७ ( ३४५ ) और १३८ (३४६) से ज्ञात होता है कि यह शक सं० १०८१ में निर्माण कराई गई थी व नरसिंह नरेश ने इसे भव्य-चूडामडि नाम देकर इसकी रक्षा के हेतु सवणेरु ग्राम का दान दिया था। उक्त लेखों में हुल्ल और उनके बस्ति-निर्माण का सुन्दर वर्णन है।
२ अक्कन बस्ति-नगर भर में यही बस्ति होयसलशिल्पकला का एकमात्र नमूना है। इस सुन्दर भवन में गर्भगृह, सुखनासि, नवरङ्ग और मुखमण्डप हैं। गर्भगृह में सप्तफणी पार्श्वनाथ की पाँच फुट ऊँची भव्य मूर्ति है। गर्भगृह के दरवाजे पर बड़ा अच्छा खुदाई का काम है। सुखनासि में एक दूसरे के सन्मुख साढ़े तीन फुट ऊँची पञ्चफणी धरणेन्द्र यक्ष और पद्मावती यक्षिणी की मूत्तियाँ हैं। दरवाजे के आसपास जालियाँ हैं। नवरङ्ग के चार काले पाषाण के
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श्रवणबेलगोल के स्मारक बने हुए आइने के सहश चमकीले स्तम्भ और कुशल कारीगरी के बने हुए नवछत बड़े हो सुन्दर हैं। मंदिर की गुम्मट अनेक प्रकार की जिन-मूत्तियों से चित्रित है, शिखर पर सिंहललाट है। दक्षिण की दीवाल सीधी न होने के कारण उसमें पत्थर के प्राधार लगाये गये हैं। द्वारे के पास के लेख (नं. १२४ ( ३२७ ) से ज्ञात होता है कि यह बस्ति होयसल नरेश बल्लाल ( द्वितीय ) के ब्राह्मण मंत्री चन्द्रमौलि की जैन धर्मावलम्बिनी भार्या प्राचियक्क ने शक सं० ११०३ में निर्माण कराई थी व राजा ने उसकी रक्षा के निमित्त बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम का दान दिया था। 'अक्कन' प्राचियक्कन का ही संक्षिप्त रूप है इसी से इसे अक्कन बस्ति कहते हैं। यही बात लेख नं० ४२६ ( ३३१ ) व ४६४ से भो सिद्ध होती है।
३ सिद्धान्त बस्ति-यह बस्ति अक्कन बस्ति के पश्चिम की ओर है। किसी समय जैन सिद्धान्त के समस्त ग्रंथ इसी बस्ति के एक बन्द कमरे में रक्खे जाते थे। इसी से इसका नाम सिद्धान्त बस्ति पड़ा। कहा जाता है कि धवल, जयधवल
आदि अत्यन्त दुर्लभ ग्रंथ यहीं से मूडविद्रो गये हैं। इसमें एक पापाय पर चतुर्विशति तीर्थ करों की प्रतिमायें हैं। बीच में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा है और उनके आसपास शेष तीर्थकरों की। यहाँ के लेख नं० ४२७ ( ३३२ ) से ज्ञात होता है कि यह चतुर्विशति मूत्ति उत्तर भारत के किसी यात्री ने शक सं० १६२० के लगभग प्रतिष्ठित कराई थी।
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श्रवणबेलगोल नगर ४ दानशाले बस्ति-यह छोटा सा देवालय अक्कन बस्ति के द्वार के पास ही है। इसमें एक तीन फुट ऊँचे पाषाण पर पञ्चपरमेष्टी की प्रतिमाये हैं। चिदानन्द कवि के मुनिवंशाभ्युदय (शक सं० १६०२ ) के अनुसार मैसूर के चिक्क देवराज ओडेयर ने अपने पूर्ववर्ती नृप दोड्डु देवराज ओडेयर के समय में (सन् १६५६ - १६७२ ईखो) बेल्गोल की यात्रा की, दानशाला के दर्शन किये और राजा से उसके लिये मदनेय ग्राम का दान करवाया। यहाँ पहले दान दिया जाता रहा होगा इसी से इस बस्ति का यह नाम पड़ा।
५ नगर जिनालय--इस भवन में गर्भगृह, सुखनासि और नवरङ्ग हैं। इसमें आदिनाथ की प्रभावली संयुक्त अढ़ाई फुट ऊँची मूत्ति है। नवरङ्ग की बाई ओर एक गुफा में दो फुट ऊँची ब्रह्मदेव की मूत्ति है जिसके दाये हाथ में कोई फल
और बायें हाथ में कोड़े के आकार की कोई चीज है। पैरों में खड़ाऊँ हैं। पीठिका पर घोड़े का चिह्न बना हुआ है। यहाँ के लेख नं० १३० ( ३३५ ) से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर को होयसल नरेश बल्लाल ( द्वितीय ) के 'पट्टणस्वामी' व नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य नागदेव मंत्री ने शक सं० १११८ में निर्माण कराया था। नगर के महाजनांद्वारा ही इसकी रक्षा होती थी इसी से इसका नाम नगर जिनालय पड़ा। 'श्रीनिलय' भी इस मंदिर का नाम रहा है। उक्त लेख में नागदेव मंत्री द्वारा कमठपार्श्वनाथबस दि के सन्मुख 'नृत्य
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श्रवणबेलगोल के स्मारक रङ्गा और अश्मकुट्टिम ( पाषाणभूमि ) व अपने गुरु नयकीर्ति देव की निषद्या निर्माण कराये जाने का भी उल्लेख है। लेख नं० १२२ ( ३२६) के अनुसार उन्होंने नयकीर्ति के नाम से ही नागसमुद्र नामक सरोवर भी बनवाया। यह सरोवर अब 'जिगणेक?' कहलाता है। पर लेख नं० १०८ (२५८) में कहा गया है कि पण्डित यति के तप के प्रभाव से ही नगर जिनालय (नगर जिनास्पद ) की सृष्टि हुई।
६ मङ्गायि बस्ति -इसमें एक गर्भगृह, सुखनासि और नवरङ्ग है। इसमें एक साढ़े चार फुट ऊँची शान्तिनाथ की मूत्ति विराजमान है। सुखनासि के द्वार पर प्राजू-बाजू पाँच फुट ऊँची चवरवाहियों की मूर्तियाँ हैं। नवरङ्ग में वर्द्धमान स्वामी की मूर्ति है जिस पर लेख है, ४२६ ( ३३८)। मन्दिर के सन्मुख सुन्दरता से खचित दो हस्ती हैं। लेख नं० १३२ ( ३४१ ) व ४३० ( ३३६) से ज्ञात होता है कि यह बस्ति अभिनव चारुकीर्ति पण्डिताचार्य के शिष्य बेलगोल के मङ्गायि ने बनवाई थी। उक्त लेखों में इसे त्रिभुवनचूड़ामणि कहा है। ये लेख शक की तेरहवों शताब्दि के ज्ञात होते हैं। शान्तिनाथमूत्ति की पीठिका पर के लेख से विदित होता है कि वह मूर्ति पण्डिताचार्य की शिष्या व देवराय महाराज की रानी भीमादेवी ने प्रतिष्ठित कराई थी [ लेख नं० ४२८ (३३७)]। ये देवराय सम्भवतः विजयनगर के राजा देवराज प्रथम हैं जिनका राज्य सन् १४०६ से १४१६ तक रहा था।
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श्रवणबेलगोल नगर उक्त महावीर स्वामी की पीठिका पर के लेख से सिद्ध होता है कि उनकी प्रतिष्ठा पण्डितदेव की शिष्या वसतायि ने कराई थी। इसका भी उक्त समय ही अनुमान होता है। इसी मंदिर के एक लेख [नं० १३४ (३४२)] से विदित होता है कि इसकी मरम्मत सम्भवतः शक सं० १३३४ में गेरसोप्पे के हिरिय अय्य के शिष्य गुम्मटण्ण ने कराई थी।
७ जैनमठ-यह यहाँ के गुरु का निवास स्थान है। इमारत बहुत सुन्दर है, बीच में खुला हुआ आँगन है। हाल ही में दूसरी मन्जिल भी बन गई है। मण्डप के खम्भे अच्छी कारीगरी के बने हुए हैं। उन पर खूब चित्रकारी है। यहाँ के तीन गर्भगृहों में अनेक पाषाण और धातु की मूत्तियाँ हैं । इनमें की अनेक मृत्तियाँ बहुत अर्वाचोन हैं। इन पर संस्कृत व तामिल भाषा में ग्रंथ अक्षरों के लेख हैं जिनसे ज्ञात होता है कि वे अधिकांश मद्रास प्रान्तीय धर्मिष्ठ भाइयों ने प्रदान की हैं। नवदेवता बिम्ब में पञ्चपरमेष्ठो के अतिरिक्त जिनधर्म, जिनागम, चैत्य और चैत्यालय भी चित्रित हैं। मठ की दीवालों पर तीर्थकरों व जैन राजाओं के जीवन की घटनाओं के अनेक रङ्गीन चित्र हैं। इनमें मैसूर-नरेश कृष्णराज ओडेयर तृतीय के 'दसर दरवार' का भी चित्र है। पार्श्वनाथ के समवसरण व भरत चक्रवत्ति के जीवन के चित्र भी दर्शनीय हैं। चार चित्र नागकुमार की जीवन-घटनाओं के हैं। एक वन के दृश्य में षडलेश्याओं के पुरुषों के चरित्र बड़ी उत्तम रीति
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श्रवणबेलगोल के स्मारक से चित्रित किये गये हैं। उपर की मजिल में पार्श्वनाथ की मूत्ति है और एक काले पाषाण पर चतुर्विशति तीर्थ कर खचित हैं। ___ कहा जाता है कि चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर की मूति निर्माण कराकर अपने गुरु नेमिचन्द्र को यहाँ का मठाधीश नियुक्त किया। यह भी कहा जाता है कि इससे पहले भो यहाँ गुरु-परम्परा चली आती थी। लेख नं० १०५ (२५४) व १०८ ( २५८ ) में उल्लेख है कि यहाँ के एक गुरु चारुकीति पण्डित ने होटसल नरेश बल्लाल प्रथम ( सन् ११००११०६ ) को एक बड़ो दुस्साध्य व्याधि से मुक्त किया था जिससे उन्हें बल्लालजीवरक्षक की उपाधि मिली थी।।
कल्याणि-यह नगर के बीच के एक छोटे से सरोवर का नाम है। इसके चारों ओर सीढ़ियाँ और दोवाल हैं। दीवाल के दरवाजे शिखरबद्ध हैं। उत्तर की ओर एक सभामण्डप है जिसके एक स्तम्भ पर लेख है (४४४ ( ३६५) कि यह सरोवर चिक्कदेव राजेन्द्र ने बनवाया। मैसूर के चिकदेवराजेन्द्र ने सन् १६७२ से १७०४ तक राज्य किया है। अनन्त कवि-कृत गोम्मटेश्वरचरित ( शक सं०१७००) में उल्लेख है कि चिक्कदेवराज ने अपने टकसाल के अध्यक्ष अण्णय्य की प्रार्थना से 'कल्याणि' निर्माण कराया। पर सरोवर के पूरे होने से प्रथम ही राजा की मृत्यु हो गई, तब अण्णय्य ने उसे चिक्कदेवराज के पौत्र कृष्णराज ओडेयर
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श्रवणबेलगोल नगर . प्रथम (सन् १७१३-१७३१) के समय में शिखर, सभामण्डप
आदि बनवाकर पूर्ण कराया। सम्भवतः यही बड़ा पुराना सरोवर रहा है जिस पर से इस नगर का नाम बेल्गुल (धवल सरोवर ) पड़ा। उक्त पुरुषों ने सम्भवतः इसका जीर्णोद्धार कराया होगा। यह भी हो सकता है कि इस स्थान को नाम देनेवाला धवल सरोवर कोई अन्य ही रहा हो।
जलिकट्टे-यह भण्डारि बस्ति के दक्षिण में एक छोटा सा सरोवर है। इसके पास की दो चट्टानों पर जैन प्रतिमाओं के नीचे के दो लेखे नं० ४४६ (३६७) और ४४७ ( ३६८) से ज्ञात होता है कि बोपदेव की माता, गङ्गराज के ज्येष्ठ भ्राता की भार्या, शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या जक्किमव्वे ने ये जिनमुत्तियाँ और सरोवर निर्माण कराये । लेख नं० ४३ (११७) व अन्य लेखां से सिद्ध है कि गङ्गराज होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के सेनापति थे और शक सं० १०४५ में जीवित थे। इस लेख में जक्किमव्वे की भी प्रशस्ति है। साणेहल्लि के एक लेख नं. ४८६ (४०० ) से ज्ञात होता है कि इसी धर्मपरायणा साध्वी महिला ने वहाँ भी एक बस्ति निर्माण कराई थी।
१० चेन्नगण का कुण्ड-नगर से दक्षिण की ओर कुछ दूरी पर यह कुण्ड है। इसका निर्माता वही चेन्नण्ण बस्ति का निर्माता चेन्नण्ण है। चेनण्ण की कृतियों का उल्लेख लेख नं० १२३ तथा ४४८-४५३ व ४६३-४६५ में है।
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श्रवणबेलगोल के हमारेक
नं० ४८० ( ३-८० ) से इस कुण्ड का समय शक सं० १५८५ के लगभग प्रतीत होता है ।
श्रवणबेलगोल के आसपास के ग्राम
शान्तिनाथ बस्ति
जिननाथ पुर - यह श्रवणबेलगोल से एक मील उत्तर की ओर है । लेख नं० ४७८ (३८८ ) के अनुसार इसे होय्सल - नरेश विष्णुवर्द्धन के सेनापति गङ्गराज ने शक सं० १०४० के लगभग बसाया था । यहाँ की शान्तिनाथ बस्ति होयसल शिल्पकारी का बहुत सुन्दर नमूना है। इसमें एक गर्भगृह, सुखनासि और नवरङ्ग हैं । शान्तिनाथ की साढ़े पाँच फुट ऊँची मूर्त्ति बड़ी भव्य और दर्शनीय है । वह प्रभावली और दोनों ओर चवरवाहियों से सुसज्जित है। नवरङ्ग के चार स्तम्भ अच्छी मूँगे की कारीगरी के बने हैं हुए आमनेइसके नवछत भी बड़े सुन्दर । हैं । सामने दो सुन्दर आले बने हुए हैं जो अब खाली हैं । बाहिरी दीवालों पर अनेक चित्रपट हैं । कई चित्र अधूरे ही रह गये हैं । इनमें तीर्थकर, यक्ष, यक्षिणी, ब्रह्म, सरस्वती, मन्मथ, मोहिनी, नृत्यकारिणी, गायक, बादित्रवादी आदि के चित्र हैं । नारी- चित्रों की संख्या चालीस हैं ।
यह बस्ति मैसूर राज्य भर के जैन मंदिरों में सबसे अधिक आभूषित है । शान्तिनाथ की पीठिका के लेख नं० ४७१
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श्रवणबेलगोल के आसपास के ग्राम ५१ ( ३८० ) से ज्ञात होता है कि इस बस्ति को 'वसुधै कबान्धव रेचिमय्य' सेनापति ने बनवाकर सागरनन्दि सिद्धान्तदेव के अधिकार में दे दी थी। एक लेख ( ए० क० अर्सीकेरे ७७ सन् १२२० ) में उल्लेख है कि उक्त सेनापति कलचुरिनरेश के मंत्री थे, पश्चात् उन्होंने होरसल नरेश बल्लाल (द्वितीय) ( सन् ११७३-१२२० ) की शरण लो। इससे शान्तिनाथ बस्ति के निर्माण का समय लगभग शक सं० ११२० सिद्ध होता है। नवरङ्ग के एक स्तम्भ पर के लेख नं० ४७० ( ३७६) से विदित होता है कि इस बस्ति का जीर्णोद्धार पालेद पदुमन्न ने शक सं० १५५३ में कराया था।
ग्राम के पूर्व में अरेगल बस्ति नाम का एक दूसरा मंदिर है। यह शान्तिनाथ बस्ति से भी पुराना है। इसमें पार्श्वनाथ भग
वान् की सप्तफणी, प्रभावली संयुक्त पाँच अरेगल बस्ति
फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति है। सुखनासि में धरणेन्द्र और पद्मावती के सुन्दर चित्र हैं। मन्दिर में सफाई अच्छी रहती है । एक चट्टान ( अरेगल ) के ऊपर निर्मित होने से ही यह मन्दिर अरेगल बस्ति कहलाता है। पार्श्वनाथ की पीठिका पर के लेख नं० ४७४ ( ३८३ ) से विदित होता है कि वह मूत्ति शक सं० १८१२ में बेल्गुल के भुजबलैय्य ने प्रतिष्ठित कराई है। इसका कारण यह था कि प्राचीन मूत्ति बहुत खण्डित हो गई थी। यह प्राचीन मूर्ति अब पास ही के तालाब में पड़ी हुई है और उसका छत्र बस्ति के द्वारे के पास
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक रक्खा हुआ है जहाँ पर कि लेख नं० १४४ ( ३८४) है। मंदिर में चतुर्विशति तीर्थ कर, पञ्चपरमेष्ठी, नवदेवता, नन्दीश्वर अदि की धातुनिर्मित मूत्तियाँ भी हैं।
ग्राम की नैऋत दिशा में एक समाधिमण्डप है। इसे शिलाकूट कहते हैं। मण्डप चार फुट लम्बा-चौड़ा और पाँच फुट ऊँचा है। ऊपर शिखर है। इसके चारों ओर दीवालें हैं पर दरवाजा एक भी नहीं है। इस पर के लेख नं ४७६ ( ३८६) से वह बालचन्द्रदेव के तनय की निषद्या सिद्ध होती है जिनकी मृत्यु शक सं ११३६ में हुई। लेख में बालचन्द्रदेव के तनय का नाम घिस गया है, पर उनके गुरु बेलिकुम्ब के नमिचन्द्र पण्डित व निषद्या निर्मापक बैरोज के नाम लख में पढ़े जाते हैं। लेख के अन्तिम भाग में यह भी लिखा है कि एक साध्वी स्त्री कालब्बे ने सल्लेखना विधि से शरीरान्त किया। सम्भवत: यह उक्त मृत पुरुष की विधवा पत्नी रही होगी।
ऐसा ही एक समाधिमण्डप तावरेकरे सरोवर के समीप है। इसके पास जो लेख (नं. १४२ (३६२) है उससे विदित होता है कि यह चारुकीति पण्डित को निषद्या है जिनकी मृत्यु शक सं० १५६५ में हुई।
लेख नं० ४० (६४) में उल्लेख है कि देवकीति पण्डित, जिनकी मृत्यु शक सं० १०८५ में हुई, ने जिननाथ पुर में एक दानशाला निर्माण कराई थी।
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श्रवणबेलगोल के आसपास के ग्राम
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हलेबेल्गोल - यह ग्राम श्रवणबेलगोल से चार मील उत्तर की ओर है । यहाँ का होयसल शिल्पकारी का बना हुआ जैनमन्दिर ध्वंस प्रवस्था में है। गर्भगृह में अढ़ाई फुट की खड्गासन मूर्त्ति है । सुखनासि में लगभग पाँच फुट ऊँची सप्तफणी पार्श्वनाथ की खण्डित मूर्त्ति रक्खी है। नवरङ्ग
में अच्छी चित्रकारी है । बोच की छत पर देवियों सहित रथारूढ़ अष्टदिक्पालों के चित्र हैं जिनके बीच में पञ्चफणी धरणेन्द्र का चित्र है । धरणेन्द्र के बाँयें हाथ में धनुष और दाहिने में सम्भवतः शङ्ख है । नवरङ्ग में दो चवरवादी और एक तीर्थकर मूर्त्ति खण्डित रक्खी हुई हैं। नवरङ्ग के द्वार पर अच्छी कारीगरी दिखलाई गई है । इस मन्दिर के सन् १०८४ के लेख ( नं० ४८२ ) से विदित होता है कि विष्णुवर्द्धन के पिता होयसल एरेयङ्ग ने बेल्गोल के मन्दिरों के जीर्णोद्वार के लिये जैनगुरु गोपनन्दि को राचनद्दल्ल ग्राम का दान दिया । इस लेख ब लेख नं ० ५५ (६८ ) में गोपनन्दि की खूब प्रशंसा पाई जाती है। यह बस्ति संभवत: लगभग शक सं० १०१६ की बनी हुई है।
इस ग्राम में एक शैत्र और एक वैष्णव मन्दिर भी है। ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में यहाँ अधिक मन्दिर रहे हैं क्योंकि यहाँ के एक तालाब की नहर में प्रायः सारा मसाला टूटे हुए मन्दिरों का लगा हुआ है । ग्राम के मध्य में एक तालाब के पास एक खण्डित जिन प्रतिमा भी है ।
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक साणेहल्लि-यह ग्राम श्रवणबेल्गुल से तीन मील पर है। यहाँ एक ध्वंस जैन मन्दिर है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, लेख नं० ४८६ (४०० ) के अनुसार इसे गङ्गराज की भावज जकिमव्वे ने निर्माण कराया था।
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता विशेष राजवंशों से सम्बन्ध रखनेवाले लेखों का विवेचन करने से पूर्व यहाँ एक ऐसी घटना पर कुछ विचार करना प्रावश्यक है जिसका राजकीय व जैन-धार्मिक इतिहास से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैनसंघ के नायक भद्रबाहु स्वामी के साथ भारतसम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण यात्रा का प्रसङ्ग जैसा जैन इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है वैसा ही वह भारत के राजकीय इतिहास में अनुपेक्षणीय है। लगातार कई वर्षों से इस विषय पर इतिहासवेत्ताओं में मतभेद चला भाता है। यद्यपि मतभेद का अभी तक अन्त नहीं हुअा, पर अधिकांश विद्वानों का झुकाव एक ओर होने से इस विषय का प्रायः निर्णय ही समझना चाहिए। संक्षेप में, जैनसाहित्य में यह प्रसङ्ग इस प्रकार पाया जाता है-अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने निमित्त-ज्ञान से जाना कि उत्तर भारत में एक बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। ऐसी विपत्ति के समय में वहाँ मुनिवृत्ति का पालन होना कठिन जान
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता उन्होंने अपने समस्त शिष्यों-सहित दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। भारतसम्राट चन्द्रगुप्त ने भी इस दुर्भिक्ष का समाचार पा, संसार से विरक्त हो, राज्यपाट छोड़ भद्रबाहु स्वामी से दीक्षा ली और उन्हीं के साथ गमन किया । जब यह मुनिसंघ श्रवण बेल्गोल स्थान पर पहुँचा तब भद्रबाहु स्वामी ने अपनी प्रायु बहुत थोड़ी शेष जान, संघ को आगे बढ़ने की प्राज्ञा दी और पाप चन्द्रगुप्त शिष्य-सहित छोटी पहाड़ी पर रहे। चन्द्रगुप्त मुनि ने अन्त समय तक उनकी खूब सेवा की और उनका शरीरान्त हो जाने पर उनके चरणचिह्न की पूजा में अपना शेष जीवन व्यतीत कर अन्त में सल्लेखना विधि से शरीरत्याग किया।
अब देखना चाहिए कि श्रवण बेल्गोल के स्थानीय इतिहास से, शिलालेखां से व साहित्य से इस बात का कहाँ तक समर्थन होता है। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त के वहाँ रहने से ही उस पहाड़ी का नाम चन्द्रगिरि पड़ा। इस पहाड़ी पर की प्राचीनतम बस्ति चन्द्रगुप्त द्वारा ही पहले-पहल निर्माण कराये जाने के कारण चन्द्रगुप्त बस्ति कहलाई। इस पहाड़ी पर की भद्रबाहु गुफा में चन्द्रगुप्त के भी चरण-चिह्न हैं। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त ने इसी गुफा में समाधिमरण किया था। सेरिङ्गपट्टम के दो शिलालेखों ( ए० क० ३, सेरिङ्गपट्टम १४७, १४८) में उल्लेख है कि कल्बप्पु शिखर ( चन्द्रगिरि ) पर महामुनि भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के चरण-चिह्न हैं। ये शिला
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५६ . श्रवणबेलगोल के स्मारक लेख लगभग शक सं० ८२२ के हैं। श्रवणबेल्गोल के लगभग शक सं० ५७२ के लेख नं० १७-१८ ( ३१ ) में कहा गया है कि 'जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था उसके किञ्चित् क्षोण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया ।' शक सं० १०५० के लेख नं० ५५ (६७) ( श्लोक ४) में भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का उल्लेख है। ऐसा ही उल्लेख शक सं० १०८५ के लेख नं० ४० (६४) (श्लोक ४-५) में व शक सं० १३५५ के लेख नं० १०८ ( २५८) ( श्लोक ८-८ ) में है। इन उल्लेखों में चन्द्रगुप्त की गुरुभक्ति और तपश्चरण की महिमा गाई गई है।
साहित्य में इस प्रसङ्ग का सबसे प्राचीन उल्लेख हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोष' में पाया जाता है। यह ग्रन्थ शक सं० ८५३ का रचा हुआ है। इसमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है-'पौण्डवर्धन देश में देवकोट नाम का नगर था। इस नगर का प्राचीन नाम कोटिपुर था। यहाँ पद्मरथ नाम का राजा राज्य करता था। इनके एक पुरोहित सोमशर्मा और उनकी भार्या सोमश्री के भद्रबाहु नामक पुत्र हुमा। एक दिन अन्य बालकों के साथ नगर में खेलते हुए भद्रबाहु को चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन ने देखा । उन्होंने देखकर जान लिया कि यही बालक अन्तिम श्रुतकेवली होनेवाला है। अतएव माता-पिता की अनुमति से उन्होंने
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता ५७ भद्रबाहु को अपने संरक्षण में ले लिया और उन्हें सब विद्याएँ सिखाई। यथासमय भद्रबाहु ने गोवर्धन स्वामी से जिन दीक्षा धारण की। एक समय विहार करते हुए भद्रबाहु स्वामी उज्जैनी नगरी में पहुँचे और सिप्रा नदी के तीर एक उपवन में ठहरे। इस समय उज्जैनी में जैनधर्मावलम्बो राजा चन्द्रगुप्त अपनी रानी सुप्रभा-सहित राज्य करते थे । जब भद्रबाहु स्वामी आहार के निमित्त नगरी में गये तब एक गृह में झूले में झूलते हुए शिशु ने उन्हें चिल्लाकर मना किया और वहाँ से चले जाने को कहा। इस निमित्त से स्वामी को ज्ञात हो गया कि वहाँ एक बारह वर्ष का भीषण दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। इस पर उन्होंने समस्त संघ को बुलाकर सब हाल कहा और कहा कि “अब तुम लोगों को दक्षिण दंश को चले जाना चाहिए। मैं स्वयं यहीं ठहरूँगा क्योंकि मेरी प्रायु क्षीण हो चुकी है।* ____जब चन्द्रगुप्त महाराज ने यह सुना तब उन्होंने विरक्त होकर भद्रबाहु स्वामी से जिन दीक्षा ले ली। फिर चन्द्रगुप्त मुनि, जो दशपूर्वियों में प्रथम थे, विशाखाचार्य के नाम से जैन संघ के नायक हुए। भद्रबाहु की प्राज्ञा से वे संघ को दक्षिण के पुन्नाट देश को ले गये । इसी प्रकार रामिल. स्थूलवृद्ध,
* अहमत्र व तिष्ठामि क्षीणमायुर्ममाधुना ।
| पुन्नाट बड़ा पुराना राज्य रहा है। कन्नड साहित्य में यह पुन्नाड के नाम से प्रसिद्ध है। 'टालेमी' ने इसका उल्लेख पनिट'
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
और भद्राचार्य अपने-अपने संघों सहित सिंधु प्रादि देशों को भेजे गये । स्वयं भद्रबाहु स्वामी उज्जयिनी के 'भाद्रपद' नामक स्थान पर गये और वहाँ उन्होंने कई दिन तक अनशन व्रत कर समाधिमरण किया * जब द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष का प्रन्त हो गया तब विशाखाचार्य संघ सहित दक्षिण से मध्यदेश को लौट आये |
दूसरा ग्रंथ, जिसमें उपयुक्त प्रसङ्ग प्राया है, रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित है । रत्ननन्दि, अनन्तकीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति के शिष्य थे ! उनका ठीक समय ज्ञात नहीं है पर वे पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दि के लगभग अनुमान किये जाते हैं । इस ग्रन्थ में प्राय: ऊपर के ही समान भद्रबाहु का प्राथमिक वृत्तान्त देकर कहा गया है कि वे जब उज्जयिनी मा गये तत्र वहाँ के राजा 'चन्द्रगुप्त' ने उनकी खूब
भक्ति की और उनसे
नाम से किया है और कहा है कि वहाँ रक्तमणि ( beryl ) बहुत पाये जाते हैं । यहाँ के राष्ट्रवर्मा श्रादि राजाओं की राजधानी 'कीर्तिपुर' थी । कीर्तिपुर कदाचित् मैसूर जिले के हेग्गड़ वन्कोटे तालुके में
पिनी नदी पर के आधुनिक 'कित्तूर' का ही प्राचीन नाम हैं । हरिषेण और जिनसेन कवि अपने को पुन्नाट संघ के कहते हैं । यह संघ सम्भवतः 'कित्तूर' संघ का ही दूसरा नाम है जिसका उल्लेख शिलालेख नं० १६४ ( ८१ ) में श्राया है ।
* प्राप्य भाद्रपद देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ॥ समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुदिवं ययैौ ॥
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता अपने सोलह स्वप्नों का फल पूछा। इनके फल-कथन में भद्रबाहु ने कहा कि यहाँ द्वादश वर्ष का दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। इस पर चन्द्रगुप्त ने उनसे दीक्षा ले ली। फिर भद्रबाहु अपने बारह हजार शिष्यों-सहित 'कर्नाटक' को जाने के लिये दक्षिण को चल दिये। जब वे एक बन में पहुँचे तब अपनी प्रायु पूरी हुई जान उन्होंने विशाखाचार्य को अपने स्थान पर नियुक्त कर उन्हें संघ को आगे ले जाने के लिये कहा और आप चन्द्रगुप्ति-स हित वहीं ठहर गये। संघ चौड देश को चला गया। थोड़े समय पश्चात् भद्रबाहु नं समाधिमरण किया। चन्द्रगुप्ति उनके चरण-चिह्न बनाकर उनकी पूजा करते रहे। विशाखाचार्य जब दक्षिण से लौटे तब चन्द्रगुप्ति मुनि ने उनका
आदर किया। विशाखाचार्य ने भद्रबाहु की समाधि की वन्दना कर कान्यकुब्ज को प्रस्थान किया।
चिदानन्द कवि के मुनिवंशाभ्युदय नामक कन्नड काव्य में भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की कुछ वार्ता प्राई है। यह ग्रन्थ शक सं० १६०२ का बना हुआ है। इसमें कथन है कि "श्रुतकेवली भद्रबाहु बेलगोल को आये और चिक्कवेट्ट ( चन्द्रगिरि) पर ठहरे । कदाचित् एक व्याघ्र ने उन पर धावा किया
और उनका शरीर विदीर्ण कर डाला। उनके चरयाचिह्न अब तक गिरि पर एक गुफा में पूजे जाते हैं........अर्हद्वलि की प्राज्ञा से दक्षिणाचार्य बेलगोल आये । चन्द्रगुप्त भी यहाँ तीर्थयात्रा को प्राये थे। इन्होंने दक्षिणाचार्य से दीक्षा ग्रहण की
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श्रवणबेलगोल के स्मारक और उनके बनवाये हुए मन्दिर की तथा भद्रबाहु के चरणचिह्नों की पूजा करते हुए वहाँ रहे। कुछ कालोपरान्त दक्षिणाचार्य ने अपना पद चन्द्रगुप्त को दे दिया ।"
शक सं० १७६१ के बने हुए देवचन्द्रकृत राजावलीकथा नामक कन्नड ग्रन्थ में यह वार्ता प्रायः रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित के समान ही पाई जाती है। पर इस ग्रन्ध में और भी कई छोटी-छोटी बाते दी हुई हैं जो अधिक महत्त्व की नहीं हैं। यहाँ कथन है कि श्रुतकेवली विष्णु, नन्दि मित्र और अपराजित व पाँच सौ शिष्यों के साथ गोवर्धनाचार्य जम्बूस्वामी के समाधिस्थान की वन्दना करने के हेतु कोटिकपुर में आये । राजा पद्मरथ भी सभा में भद्रबाहु ने एक लेख, जिसे अन्य कोई भी विद्वान् नहीं समझ सका था, राजा को समझाया । इससे उनकी विलक्षण बुद्धि का पता चला । कार्तिक की पूर्णमासी की रात्रि को पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त को सोलह स्वप्न हुए। प्रातःकाल यह समाचार पाकर कि भद्रबाहु नगर के उपवन में विराजमान हैं, राजा अपने मन्त्रियों-सहित उनके पास गये। राजा का अन्तिम स्वप्न यह था कि एक बारह फण का सर्प उनकी ओर आ रहा है। इसका फल भद्रबाहु ने यह बतलाया कि वहाँ बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। एक दिन जब भद्रबाहु आहार के लिये नगर में गये तब उन्होंने एक गृह के सामने खड़े होकर सुना कि उस घर में एक झूले में झूलता हुआ बालक जोर-जोर से चिल्ला रहा है ।
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता वह शिशु बारह बार चिल्लाया पर किसी ने उसकी आवाज नहीं सुनी। इससे स्वामीजी को विदित हुआ कि दुर्भिक्ष प्रारम्भ हो गया है। राजा के मन्त्रियों ने दुभिक्ष को रोकने के लिये कई यज्ञ किये। पर चन्द्रगुप्त ने उन सबके पापों के प्रायश्चित्त-स्वरूप अपने पुत्र सिंहसेन को राज्य दे भद्रबाहु से जिन दीक्षा ले ली और उन्हीं के साथ हो गये। भद्रबाहु अपने बारह हजार शिष्यों-सहित दक्षिण को चल पड़े। एक पहाड़ी पर पहुँचने पर उन्हें विदित हुआ कि उनकी आयु अब बहुत थोड़ी शेष है; इसलिये उन्होंने विशाखाचार्य को संघ का नायक बनाकर उन्हें चौल और पांड्य देश को भेज दिया। केवल चन्द्रगुप्त को उन्होंने अपने साथ रहने की अनुमति दी । उनके समाधिमरण के पश्चात् चन्द्रगुप्त उनके चरणचिह्नों की पूजा करते रहे। कुछ समय पश्चात् सिंहसेन नरेश के पुत्र भास्कर नरेश भद्रबाहु के समाधिस्थान की तथा अपने पितामह की बन्दना के हेतु वहाँ आये और कुछ समय ठहरकर उन्होंने वहाँ जिनमन्दिर निर्माण कराये, तथा चन्द्रगिरि के समीप बेल्गोल नामक नगर बसाया। चन्द्रगुप्त ने उसी गिरि पर समाधिमरण किया।
इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन प्रमाण चन्द्रगिरि पर प्राश्वनाथ बस्ति के पास का शिलालेख (नं० १) है। यह लेख श्रवणबेलगोल के समस्त लेखों में प्राचीनतम सिद्ध होता है। इस लेख में कथन है कि "महावीर स्वामी के पश्चात् परमर्षि
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श्रवणबेलगोल के स्मारक गैातम, लोहार्य, जम्बू विष्णुदेव, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृतिकार्य, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेण, बुद्धिलादि गुरुपरम्परा में होनेवाले भद्रबाहु स्वामी के त्रैकाल्यदर्शी निमित्तज्ञान द्वारा उज्जयिनी में यह कथन किये जाने पर कि वहाँ द्वादश वर्ष का वैषम्य ( दुर्भिक्ष ) पड़नेवाला है, सारे संघ ने उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया और क्रम से वह एक बहुत समृद्धियुक्त जनपद में पहुँचा। यहाँ प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने व्याघ्रादि व दरीगुफादि-संकुल सुन्दर कटवप्र नामक शिखर पर अपनी प्रायु अल्प ही शेष जान समाधितप करने की प्राज्ञा लेकर, समस्त संघ को प्रागे भेजकर व केवल एक शिष्य को साथ रखकर देह की समाधि-आराधना की ।"
ऊपर इस विषय के जितने उल्लख दिये गये हैं उनमें दो बाते सर्वसम्मत हैं-प्रथम यह कि भद्रबाहु ने बारह वर्ष के दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की और दूसरे यह कि उप वाणी को सुनकर जैनसंघ दक्षिणापथ को गया। हरिषेण के अनुसार भद्रबाहु दक्षिणापथ को नहीं गये। उन्होंने उज्जयिनी के समीप ही समाधिमरण किया और चन्द्रगुप्ति मुनि अपर नाम विशाखाचार्य संघ को लेकर दक्षिण को गये। भद्रबाहुचरित तथा राजावलीकथा के अनुसार भद्रबाहु स्वामी ने ही श्रवणबेलगोल तक संघ के नायक का काम किया तथा श्रवणबेलगोल की छोटी पहाड़ो पर वे अपने शिष्य चन्द्रगुप्त-सहित ठहर गये। मुनिवंशाभ्युदय तथा उपयुल्लिखित सेरिङ्गपट्टम के दो लेख,
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता
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श्रवणबेलगोल के लेख नं० १७-१८, ४०, ५४ तथा १०८ भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दोनों का चन्द्रगिरि से सम्बन्ध स्थापित करते हैं । पर जैसा कि ऊपर के वृत्तान्त से विदित होगा, शिलालेख नं० १ की वार्ता इन सबसे विलक्षण है । उसके अनुसार त्रिकालदर्शी भद्रबाहु ने दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की, जैन संघ दक्षिणापथ को गया व कटवप्र पर प्रभाचन्द्र ने जैन संघ को आगे भेजकर एक शिष्य सहित समाधि- प्राराधना की । यह वार्ता स्वयं लेख के पूर्व और अपर भागों में वैषम्य उपस्थित करने के अतिरिक्त ऊपर उल्लिखित समस्त प्रमाणों के विरुद्ध पड़ती हैं। भद्रबाहु दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करके कहाँ चले गये, प्रभाचन्द्र आचार्य कौन थे, उन्हें जैन संघ का नायकत्व कब और कहाँ से प्राप्त हो गया इत्यादि प्रश्नों का लेख में कोई उत्तर नहीं मिलता । इस उलझन को सुलझाने के लिये हमने लेख के मूल की सूक्ष्म रीति से जाँच की । इस जाँच से हमें ज्ञात हुआ कि उपर्युक्त सारा बखेड़ा लेख की छठी पंक्ति में 'आचार्य: प्रभाचन्द्रोनामानितल... 'इत्यादि पाठ से
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खड़ा होता है । यह पाठ डा० फ्लीट और रायबहादुर नरसिंहाचार का है | श्रवणबेलगोल शिलालेखों के प्रथम संग्रह के रचयिता राइस साहब ने 'प्रभाचन्द्रोना.. ' की जगह 'प्रभाचन्द्रेण .. ...' पाठ दिया है । डा० टी० के० लड्डू भी राइस साहब के पाठ को ठीक समझते हैं । जगह 'प्रभाचन्द्रेण' होने से उपर्युक्त सारा बखेड़ा सहज ही
'प्रभाचन्द्रो' की
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
तय हो जाता है। इससे 'आचार्य' का सम्बन्ध भद्रबाहु स्वामी से हो जाता है और लेख का यह अर्थ निकलता है कि भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर भाप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य सहित कटवप्र पर ठहर गये और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। इससे लेख के पूर्वापर भागों में सामन्जस्य स्थापित हो जाता है और अन्य प्रमाणों से कोई विरोध नहीं रहता । मूल में 'प्रभाचन्द्रोना' 'प्रभाचन्द्रेणाम' भी पढ़ा जा सकता है । इस पाठ में कठिनाई केवल यह आती है कि 'म' अक्षर का कोई अर्थ व सम्बन्ध नहीं रहता । पर इसके परिहार में यह कहा जा सकता है कि लेख को खोदने वाले ने 'प्रभाचन्द्रेणनाम...' की जगह भ्रम से 'प्रभाचन्द्र'खाम' खोद दिया है; वह 'न' को भूल गया । ऐसी भूलें शिलालेखों में बहुधा पाई जाती हैं। प्रभाचन्द्र के भद्रबाहु के शिष्य होने से ऊपर के समस्त प्रमाणों द्वारा यह बात सहज ही समझ में आ जाती है कि प्रभाचन्द्र चन्द्रगुप्त का ही नामान्तर व दीक्षा- नाम होगा ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये भद्रबाहु और चन्द्र-गुप्त कौन थे और कब हुए । शिलालेख नं० १, जिसकी वार्त्ता पर हम ऊपर विचार कर चुके हैं, अपनी लिखावट पर से अपने को लगभग शक संवत् की पाँचवीं-छठी शताब्दि का सिद्ध करता है । अतः उसमें उल्लिखित भद्रबाहु और प्रभाचन्द्र ( चन्द्रगुप्त ) शक की पाँचवीं छठी शताब्दि से पूर्व
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता ६५ होना चाहिये। दिगम्बर पट्टावलियों में महावीर स्वामी के समय से लगाकर शक की उक्त शताब्दियों तक 'भद्रबाहु' नाम के दो प्राचार्यों के उल्लेख मिलते हैं, एक तो अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु और दूसरे वे भद्रबाहु जिनसे सरस्वती गच्छ की नन्दो प्राम्नाय की पट्टावली प्रारम्भ होती है। दूसरे भद्रबाहु का समय ईस्वी पूर्व ५३ वर्ष व शक संवत् से १३१ वर्ष पूर्व पाया जाता है। इनके शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त पाया जाता है जो इनके पश्चात् पट्ट के नायक हुए। डा० फ्लीट का मत है कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले ये ही द्वितीय भद्रबाहु हैं और चन्द्रगुप्त उनके शिष्य गुप्तिगुप्त का हो नामान्तर है। पर इस मत के सम्बन्ध में कई शंकाएँ उत्पन्न होती हैं। प्रथम तो गुप्तिगुप्त और चन्द्रगुप्त को एक मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं हैं, दूसरे इससे उपर्युक्त प्रमाणों में जो चन्द्रगुप्त नरेश के राज्य त्यागकर भद्रबाहु से दीक्षा लेने का उल्लेख है, उसका कुछ खुलासा नहीं होता और तीसरे जिस द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु ने दक्षिण की यात्रा की थी उम दुर्भिक्ष के द्वितीय भद्रबाहु के समय में पड़ने के कोई प्रमाण नहीं मिलते। इन कारणों से डा० फ्लीट की कल्पना बहुत कमज़ोर है और अन्य कोई विद्वान उसका समर्थन नहीं करते । विद्वानों का अधिक झुकाव अब इसी एकमात्र युक्तिसंगत मत की ओर है कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं और उनके
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श्रवणबेलगोल के स्मारक साथ जाने वाले उनके शिष्य चन्द्रगुप्त स्वयं भारत सम्राट चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हैं। यद्यपि वीर निर्वाण के समय का अब तक अन्तिम निर्णय न हो सकने के कारण भद्रबाहु का जो समय जैन पट्टावलियों और ग्रंथों में पाया जाता है तथा चन्द्रगुप्त सम्राट का जो समय आजकल इतिहास सर्व सम्मति में स्वीकार करता है उनका ठीक समीकरण नहीं होता, * तथापि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्र. दाय के ग्रंथों से भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त समसामयिक सिद्ध होते हैं। इन दोन सम्प्रदायों के ग्रंथों में इस विषय पर कई विरोध होने पर भी वे उक्त बात पर एकमत हैं। हेमचन्द्रा. चार्य के 'परिशिष्ठ पर्व' से यह भी सिद्ध होता है कि इस समय बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा था, तथा 'उस भयङ्कर दुष्काल के पड़ने पर जब साधु समुदाय का भिक्षा का अभाव होने लगा तब सब लोग निर्वाह के लिये समुद्र के समीप गाँवों में चले गये। इस समय चतुर्दशपूर्वधर श्रुत केवली श्री भद्रबाहु स्वामी ___* दि० जैन ग्रंथों के अनुसार भद्रबाहु का श्राचार्यपद निर्वाण संवत् १३३ से १६२ तक २६ वर्ष रहा जो प्रवलित निर्वाण संवत् के अनुसार ईस्वीपूर्व ३६४ से ३६५ तक पड़ता है, तथा इतिहासानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य ईस्वीपूर्व ३२१ से २१८ तक माना जाता है। इस प्रकार भद्रबाहु और चन्द्र गुप्त के अन्तकाल में ६७ वर्ष का अन्तर पड़ता है। श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार भद्रबाहु का समय नि० सं० १५६ से १७० तदनुसार ईस्वी पूर्व ३.१ से १७ तक सिद्ध होता है। इसका चन्द्रगुप्त के समय के साथ प्रायः समीकरण हो जात है।
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ने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की प्राराधना प्रारम्भ कर दी थी । परिशिष्ट पर्व के अनुसार भद्रबाहु स्वामी इस समय नेपाल की ओर चले गये थे और श्रीसंघ के बुलाने पर भी वे पाटलिपुत्र को नहीं श्राये जिसके कारण श्रीसंघ ने उन्हें संघबाह्य कर देने की भी धमकी दी। उक्त ग्रंथ में चन्द्रगुप्त के समाधि पूर्वक मरण करने का भी उल्लेख है ।
इस प्रकार यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में कई बारीकियों में मतभेद है पर इन भेदों से ही मूल बातों की पुष्टि होती है क्योंकि उनसे यह सिद्ध होता है कि एक मत दूसरे मत की नकल मात्र नहीं है व मूल बातें दोनों के ग्रन्थों में प्राचीनकाल से चली आती हैं।
अब इस विषय पर भिन्न-भिन्न डा० ल्यूमन * और डा० हार्नते । दक्षिण यात्रा को स्वीकार करते हैं टामस साहब अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि "चन्द्रगुप्त जैन समाज के व्यक्ति थे यह जैन ग्रन्थकारों ने एक स्वयंसिद्ध और सर्व प्रसिद्ध बात के रूप से लिखा है जिसके लिये कोई अनुमान प्रमाण देने की आवश्यकता ही नहीं थी । इस विषय में लेखों के प्रमाण बहुत प्राचीन और साधारणतः सन्देह-रहित हैं । मैगस्थनीज
विद्वानों के मत देखिये । श्रुतकेवली भद्रबाहु की
* Vienna Oriental Journal VII, 382.
+ Indian Antiquary XXI, 59-60.
‡ Jainism or the Early Faith of Asoka P, 23.
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श्रवणबेलगोल के स्मारक के कथनों से भी झलकता है कि चन्द्रगुप्त ने ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में श्रमणों (जैन मुनियों) के धर्मोपदेशों
को अङ्गीकार किया था ।" टामस साहब इसके आगे यह भी सिद्ध करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और प्रपौत्र बिन्दुसार
और अशोक भी जैनधर्मावलम्बी थे। इसके लिये उन्होंने 'मुद्राराक्षस' 'राजतरङ्गिणी' तथा 'माइने अकबरी' के प्रमाण दिये हैं। श्रीयुक्त जायसवाल महोदय लिखते हैं* कि "प्राचीन जैनग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त को जैन राजर्षि प्रमाणित करते हैं। मेरे अध्ययन ने मुझे जैनग्रंथों की ऐतिहासिक वार्ताओं का आदर करने को वाध्य किया है। कोई कारण नहीं है कि हम जैनियों के इस कथन को कि चन्द्रगुप्त अपने राज्य के अन्तिम भाग में राज्य को त्याग जिन दीक्षा ले मुनि वृत्ति से मरण को प्राप्त हुए, न माने। मैं पहला ही व्यक्ति यह माननेवाला नहीं हूँ। मि० राइस, जिन्होंने श्रवणबेल्गोला के शिलालेखों का अध्ययन किया है, पूर्णरूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं और मि० व्ही. स्मिथ भी अन्त मैं इस मत की ओर झुके हैं।" डा० स्मिथ लिखते हैं। कि "चन्द्रगुप्त मौर्य का घटना-पूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस पर ठीक प्रकाश एक मात्र जैन कथाओं से ही
* Journal of the Behar and Orissa Research Society Vol. III.
FOxford History of India 75-76.
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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता
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पड़ता है। जैनियों ने सदैव उक्त मौर्य सम्राट को बिम्बसार ( श्रेणिक ) के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वास को झूठ कहने के लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है । इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं है कि, शैशुनाग, नन्द और मौर्य राजवंशों के समय में जैन धर्म मगध प्रान्त में बहुत जोर पर था । चन्द्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की थी यह बात चन्द्रगुप्त के जैनधर्मावलम्बी होने के कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ती। 'मुद्राराक्षस' नामक नाटक में एक जैन साधु का उल्लेख है जो नन्द नरेश के और फिर मौर्य सम्राट् के मन्त्री राक्षस का खास मित्र था ।
"एक बार जहाँ चन्द्रगुप्त के जैनधर्मावम्बी होने की बात मान ली तहाँ फिर उनके राज्य को त्याग करने व जैनविधि कं अनुसार सल्लेखना द्वारा मरण करने की बात सहज ही विश्वसनीय हो जाती है। जैनग्रन्थ कहते हैं कि जब भद्रबाहु की द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षवाली भविष्यवाणी उत्तर भारत में सच होने लगी तब आचार्य बारह हजार जैनियों को साथ लेकर अन्य सुदेश की खोज में दक्षिण को चल पड़े । महाराज चन्द्रगुप्त राज्य त्यागकर सङ्घ के साथ हो लिये । बेलगोला पहुँचा । यहाँ भद्रबाहु ने शरीर त्याग किया । राजर्षि चन्द्रगुप्त ने उनसे बारह वर्ष पीछे समाधिमरण किया । इस कथा का समर्थन श्रवणबेलगोला के मन्दिरों आदि के नामों, ईसा की सातवीं शताब्दि के उपरान्त के लेखों तथा दसवीं
यह सङ्घ श्रवण
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
शताब्दि के ग्रन्थों से होता है। इसकी प्रामाणिकता सर्वतः पूर्ण नहीं कही जा सकती किन्तु बहुत कुछ सोच-विचार करने पर मेरा झुकाव इस कथन की मुख्य बातों को स्वीकार करने की ओर है। यह तो निश्चित ही है कि जब ईस्वी पूर्व ३२२ में व इसके लगभग चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए थे तब वे तरुण अवस्था में ही थे । प्रतएव जब चौबीस वर्ष के पश्चात् उनके राज्य का अन्त हुआ तब उनकी अवस्था पचास वर्ष से नीचे ही होगी । अत: उनका राजपाट त्याग देना उनके इतनी कम अवस्था में लुप्त हो जाने का उपयुक्त कारण प्रतीत होता है । राजाओं के इस प्रकार विरक्त हो जाने के अन्य भी उदाहरण हैं और बारह वर्ष का दुर्भिक्ष भी अविश्वसनीय नहीं है 1 संक्षेपतः अन्य कोई वृत्तान्त उपलब्ध न होने के कारण इस क्षेत्र में जैन कथन ही सर्वोपरि प्रमाण हैं ।"
अब शिलालेखों में जो राजव ंशों का परिचय पाया जाता हैं उसका सिलसिलेवार परिचय दिया जाता है ।
९ गङ्गवंश - इस राजवंश का अब तक का ज्ञात इतिदास लेखों, विशेषतः ताम्रपत्रों पर से सङ्कलित किया गया है। इस वंश से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक ताम्रपत्रों की डा० फ्लोट ने पूर्णरूप से जांचकर यह मत प्रकाशित किया था कि वे सब ताम्रपत्र जाली हैं और गङ्गवंश की ऐतिहासिक सत्ता के लिये कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है । इसके पश्चात् मैसूर पुरातत्व विभाग के डायरेकर रावबहादुर नरसिंहाचार ने इस वंश
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गड़वंश के अन्य अनेक लेखों का पता लगाया जो उनकी जाँच में ठीक उतरे। इनके बल से उन्होंने गङ्गवंश की ऐतिहासिकता सिद्ध की है। ____ इस वंश का राज्य मैसूर प्रान्त में लगभग ईसा की चौथी शताब्दि से ग्यारहवीं शताब्दि तक रहा। आधुनिक मैसूर का अधिकांश भाग उनके राज्य के अन्तर्गत था जो गङ्गवाडि ६६००० कहलाता था। मैसूर में जो आजकल गङ्गडिकार (गङ्गवाडिकार ) नामक किसानों की भारी जनसख्या है वे गङ्गनरेशों की प्रजा के ही वंशज हैं। गङ्गराजाओं की सबसे पहली राजधानी 'कुवलाल' व 'कोलार' थी जो पूर्वी मैसूर में पालार नदी के तट पर है। पीछे राजधानी कावेरी के तट पर 'तलकाड' को हटा ली गई। आठवीं शताब्दि में श्रीपुरुष नामक गङ्गनरेश अपनी राजधानी सुविधा के लिये बङ्गलोर के समीप मण्णे व मान्यपुर में भी रखते थे। इसी समय में गङ्गराज्य अपनी उत्कृष्ट अवस्था पर पहुँच गया था। तलकाड ईसा की ११ हवीं शताब्दि के प्रारम्भ में चोल नरेशों के अधिकार में आ गया और तभी से गणराज्य की इतिश्री हुई। आदि से ही गङ्गराज्य का जैनधर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा । लेख नं० ५४ (६७ ) के उल्लंख से ज्ञात होता है कि गणराज्य की नींव डालने में जैनाचार्य सिंहनन्दि ने भारीसहायता की थी। सिंहनन्द्याचार्य की इस सहायता का उल्लेख गङ्गवंश के अन्य कई लेखों में भी पाया जाता है, उदाहरणार्थ लेख नं०
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक ३६७; उदयन्दिरम् का दानपत्र (सा० ई० ई० २, ३८७); कूडल का दानपत्र ( मै० प्रा० रि० १९२१ पृ. २६); ए० क० ७, शिमोग ४; ए० क० ८ नगर ३५ व ३६ इत्यादि । इसके अतिरिक्त गोम्मटसार वृत्ति के कर्ता अभयचन्द्र विद्य• चक्रवर्ती ने भी अपने ग्रन्थ की उत्थानिका में इस बात का उल्लेख किया है। इन अनेक उल्लखों से यद्यपि यह स्पष्ट नहीं ज्ञात होता कि जैनाचार्य ने गणराज्य की जड़ जमाने में किस प्रकार सहायता की थो तथापि यह बात पूर्णत: सिद्ध होती है कि गङ्गवंश की जड़ जमानेवाले जैनाचार्य सिंहनन्दि ही थे। कहा जाता है कि प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दि इसी वंश के सातवें नरेश दुर्विनीत के राजगुरु थे। गङ्गवंश के अन्य अनेक प्रकाशित लेख जैनाचार्यों से सम्बन्ध रखते हैं।
लेख नं० ३८ (५६ ) में गङ्गनरेश मारसिंह के प्रताप का अच्छा वर्णन है। अनेक भारी भारी युद्धों में विजय पाकर अनेक दुर्ग किले आदि जीतकर व अनेक जैन मन्दिर और स्तम्भ निर्माण कराकर अन्त में अजितसेन भट्टारक के समीप सल्लेखना विधि से बकापुर में उन्होंने शरीर त्याग किया। उन्होंने राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र ( चतुर्थ ) का अभिषेक किया था। यद्यपि इस लेख में उनके स्वर्गवास का समय नहीं दिया गया पर एक दूसरे लेख ( ए० क. १०, मूल्बागल ८४ ) में कहा गया है कि उन्होंने शक सं० ८६६ में शरीर त्याग किया था। गङ्गनरेश मारसिंह और राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज तृतीय इन
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गङ्गवंश दोनों के बीच घनिष्ठ मित्रता थी। मारसिंह ने अनेक युद्ध कृष्णराज के लिये ही जीते थे। कूडलूर के दानपत्र (मै। प्रा० रि० १९२१ पृ० २६ सन् ६६३ ) में कहा गया है कि स्वयं कृष्णराज ने मारसिंह का राज्याभिषेक किया था। ___मारसिंह के उत्तराधिकारी राचमल्ल (चतुर्थ) थे। इन्हीं के मन्त्री चामुण्डराज ने विन्ध्यगिरि पर चामुण्डरायबस्ती निर्माण कराई और गोम्मटेश्वर की वह विशाल मूर्ति उद्घाटित की (नं० ७५-७६ आदि)। लेख नं० १०६ (२८१) यद्यपि अधूरा है तथापि इसमें चामुण्डराय का कुछ परिचय पाया जाता है। उससे विदित होता है कि चामुण्डराय ब्रह्मक्षत्र कुल के थे और उन्होंने अपने स्वामी के लिये अनेक युद्ध जोते थे। इतना ही नहीं चामुण्डराय एक कवि भी थे। उनका लिखा हुआ च मुण्डराय पुगण नाम का एक कन्नड ग्रन्थ भी पाया जाता है। यह अधिकांश गद्य में है। इसमें चौबीस तीर्थकरों के जीवन का वर्णन है। यह ग्रन्थ उन्होंने शक सं० ६०० में समाप्त किया था। इस ग्रन्थ में भी उनके कुल व गुरु अजितसेन आदि का परिचय पाया जाता है तथा किस प्रकार भिन्न भिन्न युद्ध जीतकर उन्होंन समर धुरन्धर, वीरमात ण्ड, रणरङ्गसिंग, वैरिकुलकालदण्ड, भुजविक्रम, समरपरशुराम की उपाधियाँ प्राप्त की थीं इसका भी वर्णन इस ग्रन्थ में है। वे अपनी सत्यनिष्ठा के कारण सत्ययुधिष्ठिर कहलाते थे। कई लेखों में उनका उल्लेख केवल 'राय' नाम से
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श्रवणबेलगोल के स्मारक ही किया गया है नं० १३७ (३४५)। लेख नं० ६७ (१२१) में उल्लेख है कि चामुण्डराय के पुत्र, व अजितसेन के शिष्य जिनदेवन ने बेल्गोल में एक जैन मन्दिर निर्माण कराया था। ___ इनके अतिरिक्त अन्य कई लेखों में गङ्गवंश के ऐसे नरेशों का उल्लेख मात्र आया है, जिनका अभी तक अन्य कहीं कोई विशेष परिचय नहीं पाया गया। लेख नं. २५६ (४१५) में जिस शिवमारन बसदि का उल्लेख है वह सम्भवतः गङ्गवंश के शिवमार नरेश. ( सम्भवतः शिवमार द्वि० श्री-पुरुष के पुत्र) ने निर्माण कराई थी। लेख नं० ६० ( १३८) में किसी गङ्गवज्र अपर नाम रकसमणि का उल्लेख है जिनके बोयिग नाम के एक वीर योद्धा ने वग और कोणेयगङ्ग के विरुद्ध युद्ध करते हुए अपने प्राण विमर्जित किये। वहग राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष तृतीय का उपनाम भी था। गङ्गवन मारसिंग नरेश की उपाधि भी थो (नं. ३ . (५८)। लेख नं० ६१ (१३६) में लोकविद्याधर अपर नाम उदयविद्याधर का उल्लेख है। निश्चयतः नहीं कहा जा सकता कि यह भी कोई गङ्गवशी नरेश का नाम है या नहीं; किन्तु कुछ गङ्गनरेशों की विद्याधर उपाधि थो। उदाहरणार्थ, रक्कसगङ्ग के दत्तक पुत्र का नाम राजविद्याधर था ( ए० क०८, नगर ३५) व मारसिंग की उपाधि गङ्गविद्याधर थी ३८ (५६)। अतएव सम्भव है कि लोकविद्याधर व उदयविद्याधर भी कोई गङ्गनरेश रहा हो। नं० २३५ ( १५० ) में गणराज्य व एरेगङ्ग के महामन्त्री नर
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राष्ट्रकूटवंश सिंग के एक नाती नागवर्म के सल्लेखना मरण का उल्लेख है। सूडि व कूडलूर के दान-पत्रों (ए० इ० ३, १५८, म० प्रा० रि० १६२५, पृ० २५) में गङ्गनरेश एरेयप्प और उनके पुत्र नरसिंग का उल्लेख है। सम्भव है कि उपर्युक्त लेख के एरंगत और नरसिंग ये ही हों।
कुछ लेखों में बिना किसी राजा के नाम के गंगवंश मात्र का उल्लेख है [ लेख नं० १६३ ( ३७ ); १५१ ( ४११); २४६ (१६४); ४६८ (३७८)] । लेख नं० ५५ (६६) में उल्लेख है कि जो जैन धर्म ह्रास अवस्था को प्राप्त हो गया था उसे गोपनन्दि ने पुनः गङ्गकाल के समान समृद्धि और ख्याति पर पहुँचाया। लेख नं. ५४ (६७ ) में उल्लेख है कि श्रोविजय का गङ्गनरेशों ने बहुत सम्मान किया था। लेख नं० १३७ ( ३४५ ) में उल्लेख है कि हुल्ल ने जिस केल्लंगेरे में अनेक बस्तियाँ निर्माण कराई थी उसकी नींव गङ्गनरेशों ने ही डाली थी। लेख नं० ४८६ में गङ्ग वाडि का उल्लेख हैं।
राष्टकूटवंश-राष्ट्रकूटवंश का दक्षिण भारत में इतिहास ईस्वी सन की आठवीं शताब्दि के मध्यभाग से प्रारम्भ होता है। इस समय राष्ट्रकूटवश के दन्तिदुर्ग नामक एक राजा ने चालुक्यनरेश कीर्तिवर्मा द्वितीय को परास्त कर राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव डाली। उसके उत्तराधिकारी कृष्ण प्रथम ने चालुक्य राज्य के प्रायः सारे प्रदेश अपने आधीन कर लिये । कृष्ण के पश्चात् क्रमशः गोविन्द ( द्वितीय ) और ध्रुव ने राज्य
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
किया । इनके समय में राष्ट्रकूट राज्य का विस्तार और भी बढ़ गया । आगामी नरेश गोविन्द तृतीय के समय में राष्ट्रकूट राज्य विन्ध्य और मालवा से लगाकर कावी तक फैल गया । इन्होंने अपने भाई इन्द्रराज को लाट ( गुजरात ) का सूबेदार बनाया । गोविन्द तृतीय के पश्चात् अमोघवर्ष राजा हुए जिन्होंने लगभग सन् ८१५ से ८७७ ईस्वी तक राज्य किया । इन्होंने अपनी राजधानी नासिक को छोड़ मान्यखेट में स्थापित की। इनके समय में जैन धर्म की खूब उन्नति हुई। अनेक जैन कवि –— जैसे जिनसेन, गुणभद्र, महावीर आदि - इनके समय में हुए । गुणभद्राचार्य ने उत्तर पुराण में कहा है कि राजा अमोघवर्ष जिनसेनाचार्य को प्रणाम करके अपने को धन्य समझता था । अमोघवर्ष स्वयं भी कवि थे । इनकी बनाई हुई 'रत्नमालिका' नामक पुस्तक से ज्ञात होता है कि वे अन्त समय में राज्य को त्यागकर मुनि हो गये थे । "विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥”
अमोघवर्ष के पश्चात् कृष्णराज द्वितीय हुए जिनकी अकालवर्ष, शु· तुङ्ग, श्रो पृथ्वीवल्लभ, वल्लभराज, महाराजाधिराज, परमेश्वर परमभट्टारक उपाधियाँ पाई जाती हैं। इनके पश्चात् इन्द्र (तृतीय) हुए जिन्होंने कन्नौज पर चढ़ाई कर वहाँ के राजा महीपाल को कुछ समय के लिये सिंहासनच्युत कर दिया । इनके उत्तराधिकारियों में कृष्णराज तृतीय सबसे प्रतापी हुए
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राष्ट्रकूटवंश जिन्होंने राजादित्य चोल के ऊपर सन् ६४६ में बड़ी भारी विजय प्राप्त की। इस समय के युद्धों का मूल कारण धार्मिक था। राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मपोषक और चोल नरेश शैव धर्मपोषक थे। इनके समय में सोमदेव, पुष्पदन्त, इन्द्रनन्दि आदि अनेक जैनाचार्य हुए हैं। कृष्णराज के उत्तराधिकारी खोटिगदेव और उनके पीछे कर्कराज द्वितोय हुए। इनके समय में चालुक्यवंश पुनः जागृत हो उठा। इस वंश के तैल व तैलप ने कर्कराज को सन् ६७३ में बुरी तरह परास्त कर दिया जिससे राष्ट्रकूट वंश का प्रताप सदैव के लिये अस्त हो गया। जैसा कि आगे विदित होगा, लेख नं० ५७ (शक सं०६०४) में कृष्णाराज तृतीय के पौत्र एक इन्द्रराज (चतुर्थ) का भी उल्लेख है व लेख नं० ३८ में कहा गया है कि गङ्गनरेश मारसिंह ने इन्द्र का अभिषेक किया था। सम्भवत: राष्ट्रकूटवंश के हितैषी गङ्गनरंश ने राष्ट्रकूट राज्य को रक्षित रखने के लिये यह प्रयत्न किया पर इतिहास में इमका कोई फल देखने में नहीं आता। दक्षिण का राष्ट्रकूटवंश इतिहास के सफे से उड़ गया।
अब इस संग्रह के लेखों में इस वंश के जो उल्लेख हैं उनका परिचय कराया जाता है। ___इस वंश के वग व अमोघवर्ष तृतीय ने कोणेय गंग के साथ गङ्गवन व रकसमणि के विरुद्ध युद्ध किया था, ऐसा लेख नै०६० ( १३८) ( अनु शक ८६२ ) के उल्लेख से
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श्रवणबेलगोल के स्मारक ज्ञात होता है। लेख नं० १०६ (२-१) (अनु० शक ६५०) से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटनरेश इन्द्र की आज्ञा से चामुण्डराय के स्वामी जगदेकवीर राचमल्ल ने वज्वलदेव को परास्त किया था। लेख नं. ३८ (५६) (शक ८६६ ) से विदित होता है कि राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण तृतीय के लिये गङ्गनरेश मारसिंह ने गुर्जर प्रदेश को जीता था व राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र ( चतुर्थ ) का राज्याभिषेक किया था। इन उल्लेखों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि गङ्गवश और राष्ट्रकूटव'श के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध था। इस वंश का सबसे प्राचीन लेख, जो इस संग्रह में पाया है, लेख नं० २४ ( ३५ ) (अनु० शक ७ २) है। इस लेख में ध्रुव के पुत्र व गोविन्द ( तृतीय ) के ज्येष्ठ भ्राता रणावलोक कम्बय्य का उल्लेख है। एक लेख ( ए० क० ४, हेग्गडदेवकोटे ६३) से ज्ञात होता है कि जब गङ्गगज शिवमार द्वितीय को ध्रुव ने कैद कर लिया था तब राजकुमार कम्ब गङ्गप्रदेश के शासक नियुक्त किये गये थे व ए० क. ६, नेलमङ्गल ६१ से ज्ञात होता है कि कम्ब शक सं० ७२४ ( ई. सन् ८०२) में गङ्गप्रदेश का शासन कर रहे थे। हाल ही में चामराज नगर से कुछ ताम्रपत्र मिले हैं ( मै० प्रा० रि १६२० पृ० ३१) जिनसे ज्ञात होता है कि जिस समय कम्ब का शिविर तलवननगर ( तलकाड ) में था तब उन्होंने अपने पुत्र शङ्करगण्ण की प्रार्थना से शक सं० ७२६ ( सन् ८०७ ई०) में एक ग्राम का दान जैनाचार्य वर्धमान को दिया था। अन्य प्रमाणों से ज्ञात
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राष्ट्रकूट वंश
हुआ है कि ध्रुव नरेश ने अपना उत्तराधिकारी अपने कनिष्ठ पुत्र गोविन्द (तृतीय) को बनाया था व कम्ब को गङ्गप्रदेश दिया था इस हेतु कम्ब ने गोविन्द के विरुद्ध तैयारी की पर अन्त में उन्हें गोविन्द का प्राधिपत्य स्वीकार करना पड़ा ।
लेख नं० ५७ (१३३ ) में इन्द्र चर्थ की किसी गेंद के खेल में चतुराई आदि का वर्णन है व उल्लेख है कि उन्होंने शक सं० ६०४ में श्रवणवेल्गुल में सल्लेखना मरण किया । लेख में यह भी कहा गया है कि इन्द्र कृष्ण ( तृतीय ) के पौत्र, गङ्गगंगेय (बूतुग) के कन्यापुत्र व राजचू मणि के दामाद थे। यह विदित नहीं हुआ कि ये राजचूड़ामणि कौन थे । इन्द्र की रट्टकन्दर्प, राजमार्तण्ड, चलङ्कराव, चलदग्गलि, कीर्तिनारायण, एलेवबेडेंग, गेडेगलाभरण, कलिगलोलगण्ड और बीरर वीर ये उपाधियाँ थीं। जैसा ऊपर कहा जा चुका है, गङ्गनरेश मारसिंह ने इन्द्र का राज्याभिषेक किया था । लेख नं० ५८ (१३४ ) 'मावणगन्धहस्ति' उपाधिधारी एक वीर योधा पिट्ट की मृत्यु का स्मारक है । लेख में इस वीर के पराक्रमवर्णन के पश्चात् कहा गया है कि उसे राजचूड़ामणि मार्गे डेमल्ल ने अपना सेनापति बनाया था । लेख की लिपि और राजचूड़ामणि व चित्रभानु संवत्सर के उल्लेख से अनुमान होता है कि यह भी इन्द्र चतुर्थ के समय का है ।
प्रसङ्गवश लेख नं० ५४ (६) में साहसतुङ्ग और कृष्णराज का उल्लेख है । अकलङ्कदेव ने अपनी विद्वत्ता का वर्णन
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श्रवणबेलगोल के स्मारक साहसतुङ्ग को सुनाया था ( पद्य नं० २१ ), और परवादिमल्ल ने अपने नाम की सार्थकता कृष्णराज को समझाई थी ( पद्य नं० २६)। ये दोनों क्रमशः राष्ट्रकूटनरेश दन्तिदुर्ग और कृष्ण द्वितीय अनुमान किये जाते हैं।
३ चालुक्यवंश-चालुक्यनरेशों की उत्पत्ति राजपुताने के सोलकी राजपूतों में से कही जाती है। दक्षिण में इस राजवश की नीव जमानेवाला एक पुलाकेशी नाम का सामन्त था जो इतिहास में पुलाकेशी प्रथम के नाम से प्रख्यात हुआ है। इसने सन् ५५० ईस्वी के लगभग दक्षिण के बीजापुर जिले के वातापि ( आधुनिक बादामी ) नगर में अपनी राजधानी बनाई और उसके आसपास का कुछ प्रदेश अपने अधीन किया। इसके उत्तराधिकारी कीर्त्तिवर्मा, मङ्गलेश और पुला. केशी द्वितीय हुए जिन्होंने चालुक्यराज्य को क्रमश: खूब फैलाया। पुलाकशी द्वितीय के समय में चालुक्यराज्य दक्षिण भारत में सबसे प्रबल हो गया। इस नरेश ने उत्तर के महाप्रतापी हर्षवर्धन नरेश की भी दक्षिण की ओर प्रगति रोक दी। इस राजा की कीर्ति विदेशों में भी फैली और ईरान के बादशाह खुसरो (द्वितीय) ने अपना राजदूत चालुक्य राजदरबार में भेजा। पुलाकशी द्वितीय ने सन् ६०८ से ६४२ ईस्वी तक राज्य किया। पर उसके अन्तिम समय में पल्लव नरेशों ने चालुक्यराज्य की नींव हिला दी। उसके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम के समय में इस वश की एक शाखा ने
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चालुक्यवंश
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में राज्य स्थापित किया ।
आठवीं शताब्दी के मध्य
गुजरात भाग में दन्तिदुर्ग नामक एक राष्ट्रकूट राजा ने इस वंश के कीर्त्तिवर्मा द्वितीय को बुरी तरह हराकर राष्ट्रकूटवश की जड़ जमाई । चालुक्यवंश कुछ समय के लिये लुप्त हो गया ।
दशमी शताब्दी के अन्तिम भाग में चालुक्यवश के तैल नामक राजा ने अन्तिम राष्ट्रकूट नरेश कर्क द्वितीय को हराकर चालुक्यवंश को पुनर्जीवित किया । इस समय से चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में स्थापित हुई। इसके उत्तराधिकारियों को चोल नरेशों से अनेक युद्ध करना पड़ा । सन् १०७६ से ११२६ तक इस वंश के एक बड़े प्रतापी राजा विक्रमादित्य षष्ठम ने राज्य किया । इन्हीं के समय में बिल्हण कवि ने 'विक्रमाङ्गदेवचरित' काव्य रचा। इनके उत्तराधिकारियों के समय में चालुक्यराज्य के सामन्त नरेश देवगिरि के यादव और द्वारासमुद्र के होय्सल स्वतंत्र हो गये और सन् ११८० में चालुक्य साम्राज्य की इतिश्री हो गई ।
अब इस संग्रह के लेखों में जो इस वंश के उल्लेख हैं उनका परिचय दिया जाता है ।
लेख नं० ३८ (५८ ) ( शक ८६६ ) में गङ्गनरेश मारसिंह के प्रताप वर्णन में कहा गया है कि उन्होंने चालुक्यनरेश राजादित्य को परास्त किया था । नं० ३३७ (१५२) में किसी चगभक्षण चक्रवर्ती उपाधिधारी गोग्गि नाम के एक सामन्त का उल्लेख है । यह संभवत: वही चालुक्य सामन्त
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक है जिसका उल्लेख ए० क० ३, मैसूर ३७ के लेख में पाया जाता है। इस लेख में वे 'समधिगतपञ्चमहाशब्द" महासामन्त कहे गये हैं। जहाँ से यह लेख मिला है उसी वरुण नामक ग्राम में अन्य भी अनेक वीरगल हैं जिनमें गोरिंग के अनुजीवी योद्धाओं के रण में मारे जाने के उल्लेख हैं (मै० प्रा० रि० १६१६ पृ०४६-४७)। लेख नं. ४५ (१२५)
और ५६ (७३) में उल्लेख है कि होय्सलनरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गङ्गराज ने चालुक्य सम्राट त्रिभुवनमल्ल पेर्माडिदेव (विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६-११२६ ई०) को भारी पराजय दी। इन लेखों में गङ्गराज का कन्नेगाल में चालुक्य सेना पर रात्रि में धावा मारने व उसे हराकर उसकी रसद व वाहन आदि सब स्वाधीन कर अपने स्वामी को देने का जोरदार वर्णन है। नं. १४४ (३८४ ) होयसलवश का लेख है पर उसके आदि में चालुक्याभरण त्रिभुवनमल्ल की राज्यवृद्धि का उल्लेख है जिससे होय्सल राज्य के ऊपर त्रिभुवनमल्ल के आधिपत्य का पता चलता है । लेख नं० ५५ (६६) में मलधारि गुणचन्द्र "मुनीन्द्र बलिपुरे मल्लिकामोद शान्तीशचरणार्चकः' कहे गये हैं ( पद्य नं० २०)। अन्य अनेक लेखों ( ए० क० ७, शिकारपुर २० अ, १२५, १२६, १५३; ए० इ० १२, १४४ ) से ज्ञात हुआ है कि मल्लिकामोद चालुक्यनरेश जयसिंह प्रथम की उपाधि थी। इससे अनुमान किया जा सकता है कि सम्भवतः बलिपुर में शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा
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होयसलवंश
८३ जयसिंह नरेश ने ही कराई थी। इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि वासवचन्द्र ने अपने वाद-पराक्रम से चालुक्य राजधानी में बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी। लेख नं. ५४ (६७) में उल्लेख है कि वादिराज ने चालुक्य राजधानी में भारी ख्याति प्राप्त की थी तथा जयसिंह (प्रथम ) ने उनकी सेवा की थो (पद्य ४१, ४२) इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि जिन जैनाचार्य को पांड्यनरेश ने स्वामी की उपाधि दी था उन्हें ही आहवमल्ल ( चालुक्यनरेश १०४२१०६८ ई०) ने शब्दचतुर्मुख की उपाधि प्रदान की थो। लेख नं० १२१ ( ३२७) व १३७ (३४५) में होयसल नरेश एरेयङ्ग चालुक्य नरेश की दक्षिण बाहु कहे गये हैं (पद्य नं. ८)।
४ हायसलवश-पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में कादुर जिले के मुगेरे तालुका में 'अंगडि' नाम का एक स्थान है। यही स्थान होयसल नरेशों का उद्गमस्थान है। इसी का प्राचीन नाम शशकपुर है जहाँ पर अब भी वासन्तिका देवी का मन्दिर विद्यमान है। यहाँ पर 'सल' नामक एक सामन्त ने एक व्याघ्र से जैनमुनि की रक्षा करने के कारण पोयसल नाम प्राप्त किया। इस वंश के भावी नरेशों ने अपने को 'मलपरोलगण्ड' अर्थात् 'मलपाओं' ( पहाड़ सामन्तों) में मुख्य कहा है। इसी से सिद्ध होता है कि प्रारम्भ में होयसलवंश पहाड़ी था। इस वंश के एक 'काम' नाम के नृप के कुछ शिलालेख मिले हैं जिनमें उसके कुर्ग के कोङ्गाल्व नरेशों से
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श्रवणबेलगोल के स्मारक युद्ध करने के समाचार पाये जाते हैं। होयसल नरेश इस समय चालुव यनरेश के माण्डलिक राजा थे। जिस समय ईसा की ११ वीं शताब्दि के प्रारम्भ में चोलनरेशों द्वारा गङ्गवंश का अन्त हो गया उस समय होयसल माण्डलिकों को अपना प्राबल्य बढ़ाने का अवसर मिला। 'काम' के उत्तराधिकारी 'विनयादित्य' ने चोलों से लड़-भिड़कर अपना प्रभुत्व बढ़ाया यहाँ तक कि चालुक्य नरेश सोमेश्वर पाहवमल्ल के महामण्डलेश्वरों में विनयादित्य का नाम गङ्गवाडि ६६००० के साथ लिया जाने लगा। विनयादित्य के उत्तराधिकारी बल्लाल ने अपनी राजधानी शशपुरी से 'बेलूर' में हटा ली। द्वारासमुद्र में भी उनकी राजधानी रहने लगी। इन्होने चङ्गाल्वनरेशों से युद्ध किया था। इनके उत्तराधिकारी विष्णुवर्द्धन के समय में होयसल नरेशों का प्रभाव बहुत ही बढ़ गया। गड़वाडि का पुराना राज्य सब उनके आधीन हो गया और विष्णुवर्द्धन ने कई अन्य प्रदेश भी जीते ! प्रारम्भ में विष्णुवर्द्धन जैन धर्मावलम्बी थे पर पीछे वैष्णव हो गये थे। तथापि जैन धर्म में उनकी सहानुभूति बनी ही रही। विष्णुवर्द्धन ने लगभग सन् ११०६ से ११४१ तक राज्य किया और फिर उनके पुत्र नरसिंह ने सन् ११७३ तक। नरसिंह ने अपने पिता के समान ही होयसल राज्य की वृद्धि की। उनके पुत्र वीर बल्लाल के समय में यह राज्य चालुक्य साम्राज्य के अन्तर्गत नहीं रहा और स्वतंत्र हो गया। वीर बल्लाल ने सन् १२२०
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होय्सलवंश
८५ तक राज्य किया। इसके पश्चात् वीर बल्लाल के उत्तराधिकारियों ने होयसल राज्य को नवे वर्ष तक और कायन रक्खा। सन् १३१० ईस्वी में दक्षिण पर मुसलमानों की चढ़ाई हुई। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजो के सेनापति म लेक काफूर ने होयसल राज्य को नष्ट भ्रष्ट कर डाला, होयसलनरेश को पकड़कर कैद कर लिया और राजधानी द्वारासमुद्र का भी नाश कर डाला। द्वारास मुद्र का पूर्णतः सत्यानाश मुसलमानी फौजों ने सन् १३२६-२७ में किया।
अब इस वंश के सम्बन्ध के जो उल्लेख संगृहीत लेखों में आये हैं उनका परिचय दिया जाता है ।
इस संग्रह में होयसलवंश के सबसे अधिक लेख हैं ।ले व नं० ५३ (१४३), ५६ ( १३२ ), १४४ ( ३४८) व ४६३ में विनयादित्य से लगाकर विष्णुवर्धन तक; लेख नं १३७ (३४५) और १३८ ( ३४६) में विनयादित्य से नारसिंह (प्रथम ) तक व १२४ ( ३२७), १३० (३३५) और ४६१ में विनयादित्य से बल्लाल (द्वितीय) तक की वंशपरम्परा पाई जाती है। नं. ५६ (१३२) में इस वंश की उत्पत्ति का इस प्रकार वर्णन पाया जाता है-"विष्णु के कमलनाल से उत्पन्न ब्रह्मा के अत्रि, अत्रि के चन्द्र, चन्द्र के बुध, बुध के पुरूरव, पुरूरव के आयु, आयु के नहुष, नहुष के ययाति व ययाति के यदु नामक पुत्र उत्पन्न हुए। यदु के वंश में अनेक नृपति हुए। इस वंश के प्रख्यात नरेशों में एक सल नामक नृपति हुए। एक
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श्रवणबेलगोल के स्मारक समय एक मुनिवर ने एक कराल व्याघ्र को देखकर कहा 'पोटसल' 'हे सल, इसे मारा' । इस वृत्तान्त पर से राजा ने अपना नाम पोयसल रक्खा और व्याघ्र का चिह्न धारण किया। इसके आगे द्वारावती के नरेश पोय्सल कहलाये और व्याघ्र उनका लाञ्छन पड़ गया। इन्हीं नरेशों में विनयादित्य हुए। अन्य शिलालेखों ( ए० क० ५, अर्सिकेरे १४१, १५७ ) से ज्ञात होता है कि विनयादित्य के पिता नृप काम होयसल थे। अनेक लेखों ( ए० क. ५, मजराबाद ४३; अल्गुद ७६; ए० क० ६, मूडगेरे १६ ) से सिद्ध है कि नृप काम ने भी उसी प्रदेश पर राज्य किया था। लेख नं. ४४ (११८ ) में भी नृप काम का एचि के रक्षक के रूप में उल्लेख है ( पद्य ५) प्रतएव यह कुछ समझ में नहीं आता कि उपर्युक्त व शावली में उनका नाम क्यों नहीं सम्मिलित किया गया। विनयादित्य के विषय में लेख नं० ५४ (६७) में कहा गया है कि उन्होंने शान्तिदेव मुनि की चरणसेवा से राज्यलक्ष्मी प्राप्त की थी ( पद्य नं ० ५१ ), तथा लेख नं० ५३ (१४३) में कहा गया है कि उन्होंने कितने ही तालाब व कितने ही जैनमन्दिर आदि निर्माण कराये थे यहाँ तक कि ईटों के लिए जो भूमि खादी गई वहाँ तालाब बन गये, जिन पर्वतों से पत्थर निकाला गया वे पृथ्वी के समतल हो गये, जिन रास्तों से चूने की गाड़ियाँ निकली वे रास्ते गहरी घाटियाँ हो गये। पोय्सलनरेश जैनमंदिर निर्माण कराने में ऐसे दत्तचित्त थे। ( पद्य नं० ४-५)।
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होय्सलवंश विनयादित्य के केलेयबरसि रानी से एरेयङ्ग पुत्र हुए जो लेख नं० १२४ ( ३२७ ) व १३७ (३४५) में चालुक्यनरेश की दक्षिण बाहु कहे गये हैं। लेख नं १३८ ( ३४६) के कई पद्यों में इस नरेश के प्रताप का वर्णन पाया जाता है। वे वहाँ 'क्षत्रकुलप्रदीप' व 'क्षत्रमौलिमणि' 'साक्षात्समर-कृतान्त' व मालवमण्डलेश्वर पुरी धारा के जलानेवाले, कराल चोलकटक को भगानेवाले, चक्रगोट्ट के हरानेवाले, व कलिङ्ग का विध्वंस करनेवाले कहे गये हैं।
लेख नं० ४६२ (शक.१०१५) विनयादित्य के पुत्र एरेयङ्ग के समय का है। इस लेख में एरेयङ्ग और उनके गुरु गोपनन्दि की कीर्ति के पश्चात् नरेश द्वारा चन्द्रगिरि की बस्तियों के जीर्णोद्धार के हेतु गोपनन्दि को कुछ ग्रामों का दान दिये जाने का उल्लेख है। एरेयङ्ग गङ्गमण्डल पर राज्य करते थे, लेख में इसका भी उल्लेख है। एरेयङ्ग की रानी एचलदेवी से बल्लाल, विष्णुवर्धन और उदयादित्य ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
विष्णुवर्धन की उपाधियों व प्रतापादि का वर्णन लेख नं० ५३ (१४३), ५६ ( १३२ ), १२४ (३२७), १३७ (३४५), १३८ ( ३४६), १४४ ( ३८४ ) और ४६३ में पाया जाता है। वे महामण्डलेश्वर, समधिगतपञ्चमहाशब्द, त्रिभुवनमल्ल, द्वारावतीपुरवराधीश्वर, यादवकुलाम्बरद्युमणि, सम्यक्तचूड़ामणि, मलपरोल्गण्ड, तलकाडु-कोङ्ग-नङ्गलि-कोयतूर-उच्छङ्गिनोलम्बवाडि-हानुगल-गोण्ड, भुजबल वीरगङ्ग आदि प्रताप
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
सूचक पदवियों से विभूषित किये गये हैं। उन्होंने इतने दुर्जय दुर्गा जीते, इतने नरेशों को पराजित किया व इतने आश्रितों को उच्च पदों पर नियुक्त किया कि जिससे ब्रह्मा भी चकित हो जाता है । लेखों में उनकी विजयों का खूब वर्णन है । लेख नं० २२ (१३७) जो शक सं० १०३९ का है विष्णुवर्द्धन के राज्यकाल का ही है । इस लेख में पोटसलसेट्टि और नेमिट्टि नाम के दो राजव्यापारियों का उल्लेख हैं। इन व्यापारियों की माताओं माचिकब्वे और शान्तिकन्ये ने जिनमन्दिर और नन्दीश्वर निर्माण कराकर भानुकीर्ति मुनि से जिन दीक्षा ले ली । यह मन्दिर चन्द्रगिरि पर तेरिन बस्ति के नाम से प्रसिद्ध है । लेख नं० ४४५ ( ३६६ ) अधूरा है पर इसमें विष्णुवर्द्धन का उल्लेख है । नं० ४७८ ( ३८८ ) से ज्ञात होता है कि इस नृपति के हिरियदण्डनायक, स्वामिद्रोहघरट्ट गङ्गराज ने बेल्गुल में जिननाथपुर निर्माण कराया । यह लेख बहुत गया है । विदित होता है कि गङ्गराज ने उक्त नरेश की अनुमति से कुछ दान भी मन्दिर को दिया था । कोलग का उल्लेख है । 'कोलग' एक माप विशेष था लेख नं० ४८३ ( शक १०४७) में विष्णुवद्धन के वस्तियों के जीर्णोद्धार व ऋषियों को आहारदान के हेतु शल्य ग्राम के दान का उल्लेख है । यह दान नन्दि संघ, द्रमिड़ गए, प्ररुङ्गलान्वय के श्रीपाल त्रैविद्यदेव को दिया गया । लेख में उक्त अन्वय की परम्परा भी है
लेख में
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लेख नं० ४६७
चालुक्य
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होयसल वंश
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त्रिभुवनमल्ल के साथ-साथ विष्णुवर्द्धन का उल्लेख है जिससे सिद्ध होता है कि विष्णुवद्धन चालुक्यों के आधिपत्य को स्वीकार करते थे । इस लेख में नयकीर्त्ति के स्वर्गवास का भी उल्लेख है । लेख नं० ४५ (१२५), ५-८ (७३ ), ८० (२४० ), १४४ (३८४) ३६० ( २५१ ) तथा ४८६ (३६७) विष्णुवर्द्धन नरेश ही के समय के हैं। इन लेखों में गङ्गराज की वंशावली तथा उनके प्रतापमय व धार्मिक कार्यों का वर्णन पाया जाता है । गङ्गराज का वंशवृक्ष इस प्रकार हैकौण्डिन्य गोत्रीय नागवर्मा
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बम्मचमूप
1
मार - माकणब्बे
!
एच ( पर नाम बुधमित्र - नृपकाम होय्सल के आश्रित ) - पोचिकब्बे
गङ्गराज
( देखा लेख नं० १४४, पृ० २-६६ )
लेख नं० ४४ (११८ ) में गङ्गराज की ये उपाधियाँ पाई जाती हैं— समधिगतपश्च महाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचण्डदण्डनायक, वैरिभयायक, गोत्रपवित्र, बुधजनमित्र, श्री जैनधर्मामृताम्बुधि प्रवर्द्धन सुधाकर, सम्यक्त्वरत्नाकर, आहार
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श्रवणबेलगोल के स्मारक भयभैषज्यशास्त्रदानविनोद, भव्यजनहृदयप्रमोद, विष्णुवर्धनभूपालहोय्सलमहाराजराज्याभिषेकपूर्णकुम्भ, धर्महर्योद्धरणमूलस्तम्भ और द्रोहघरट्ट। इसी लेख में यह भी कहा गया है कि गङ्गराज के पिता मुल्लर के कनकनन्दि प्राचार्य के शिष्य थे। चालुक्यवंशवर्णन में कहा जा चुका है कि इन्होंने कन्नेगाल में चालुक्य-सेना को पराजित किया था। उनके तलकाडु, कोङ्ग, चेङ्गिरि आदि स्वाधीन करने, नरसिंग को यमलोक भेजने, अदिपम, तिमिल, दाम, दामोदरादि शत्रुओं को पराजित करने का वर्णन लेख नं० ६० ( २४० ) के ६, १० व ११ पद्यों में पाया जाता है। जिस प्रकार इन्द्र का वन, बलराम का हल, विष्णु का चक्र, शक्तिधर की शक्ति व अर्जुन का गाण्डीव उसी प्रकार विष्णुवर्धन नरेश के गङ्गराज सहायक थे। गङ्गराज जैसे पराक्रमी थे वैसे ही धर्मिष्ठ भी थे। उन्होंने गोम्मटेश्वर का परकोटा बनवाया, गङ्गवाडि परगने के समस्त जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, तथा अनेक स्थानों पर नवीन जिनमन्दिर निर्माण कराये। प्राचीन कुन्दकुन्दान्वय के वे उद्धारक थे। इन्हीं कारणों से वे चामुण्डराय से भी सौगुणे अधिक धन्य कहे गये हैं। धर्म बल से गङ्गराज में अलौकिक शक्ति थी। लेख नं० ५६ ( ७३ ) के पद्य १४ में कहा गया है कि जिस प्रकार जिनधर्माग्रणी अत्तियब्बरसि के प्रभाव से गोदावरी नदी का प्रवाह रुक गया था उसी प्रकार कावेरी के पूर से घिर जाने पर भी, जिनभक्ति के
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होयसलवंश
६१ कारण गङ्गराज की लेशमात्र भी हानि नहीं हुई। जब वे कन्नेगल में चालुक्यों को पराजित कर लौटे तब विष्णुवर्द्धन ने प्रसन्न होकर उनसे कोई वरदान माँगने को कहा। उन्होंने परम नामक ग्राम माँगकर उसे अपनी माता तथा भार्या द्वारा निर्माण कराये हुए जिनमन्दिरों के हेतु दान कर दिया । इसी प्रकार उन्होंने गोविन्दवाडि ग्राम प्राप्त कर गोम्मटेश्वर को अर्पण किया। गङ्गराज शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। लेख नं० ५६ ( ७३ ) से विदित होता है कि दण्डनायक एचिराज ने इस परम ग्राम के दान का समर्थन किया था।
गङ्गराज से सम्बन्ध रखनेवाले और भी अनेक शिलालेख हैं, यद्यपि उनमें गङ्गराज के समय के नरेश का नाम नहीं पाया। लेख नं० ४६ (१२६ ) गङ्गराज की भार्या लक्ष्मी ने अपने भ्राता बूचन की मृत्यु के स्मरणार्थ लिखवाया था। बूचन शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। लेखनं० ४७ (१२७) जैनाचार्य मेघचन्द्र विद्यदेव की मृत्यु का स्मारक है और इसे गङ्गराज और उनकी भार्या लक्ष्मी ने लिखवाया था। लेख नं. ४६ ( १२६) लक्ष्मीमतिजी ने अपनी भगिनी देमति के स्मरणार्थ लिखवाया था। लेख नं० ६३ (१३० ) से ज्ञात होता है कि शुभचन्द्रदेव की शिष्या लक्ष्मी ने एक जिन मन्दिर निर्माण कराया जो अब ‘एरडुकट्टे बस्ति' के नाम से प्रख्यात है। लेख नं० ६४ (७०) में कहा गया है कि गङ्गराज ने अपनी माता पोचब्बे के हेतु कत्तले बस्ति निर्माण कराई। लेख नं०
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श्रवणबेलगोल के स्मारक ६५ (७४) में गङ्गराज के इन्द्रकुल गृह ( शासन बस्ति ) बनवाने का उल्लेख है। लेख नं. ७५ (१८०) और ७६ ( १७७ ) में गङ्गराज द्वारा गोम्मटेश्वर का परकोटा बन. वाये जाने का उल्लेख है। लेख नं. ४३ (११७ ), ४४ ( ११८), ४८ और ( १२८ ) गङ्गराज द्वारा निर्माण कराये हुए क्रमश: उनके गुरु शुभचन्द्र, उनकी माता पाचिकब्बे
और भार्या लक्ष्मी के स्मारक हैं। लेख नं० १४४ ( ३८४ ) में गङ्गराज के वंश का बहुत कुछ परिचय मिलता है व लेख नं. ४४६ ( ३६७ ), ४४७ ( ३६८) और ४८६ (४००) में गडराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव की भार्या जक्कणब्बे के सत्कार्यों का उल्लेख है। ये सब लेख्य विष्णुवर्द्धन नरेश के समय के व उस समय से सम्बन्ध रखनेवाले हैं इसी लिये इनका यहाँ उल्लेख करना आवश्यक हुआ।
विष्णुवर्द्धन के समय के अन्य लेख इस प्रकार हैं। लेख नं. १४३ ( ३७७ ) में राजा के नाम के साथ ही गङ्गराज के नामोल्लेख के पश्चात् कहा गया है कि चलदङ्कराव हेडेजीय और अन्य सजनों ने कुछ दान किया। जान पड़ता है यह दान गोम्मटेश्वर के दायीं ओर की एक कंदरा को भरकर समतल करने के लिये दिया गया था। लेख नं० ५६ (१३२) में विष्णुवर्द्धन की रानी शान्तलदेवी द्वारा 'सवति गन्धवारण बस्ति' के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। इस लेख में मेघचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र की स्तुति, होयसल वंश की उत्पत्ति
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होयसलवंश व विष्णुवर्द्धन तक की वंशावलि, विष्णुवर्द्धन की उपाधियों व शान्तल देवी की प्रशंसा व उनके वंश का परिचय पाया जाता है। शान्तलदेवी की उपाधियों में 'उदवृत्तसवतिगन्धवारणे' अर्थात् 'उछ खल सौतों के लिये मत्त हाथी' भी पाया जाता है। शान्तलदेवी की इसी उपाधि पर से बस्ति का उक्त नाम पड़ा। लेख नं० ६२ ( १३१ ) में भी इस मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है। इस लेख में यह भी कहा गया है कि उक्त मन्दिर में शान्तिनाथ की मूर्ति स्थापित की गई थी। लेख नं० ५३ ( १४३ ) ( शक १०५०) में शान्तलदेवी की मृत्यु का उल्लेख है जो 'शिवगङ्ग' में हुई। यह स्थान अब बङ्गलोर से कोई तीस मील की दूरी पर शैवों का तीर्थस्थान है। लेख में शान्तलदेवी के वंश का भी परिचय है। उनके पिता पेगेंडे मारसिङ्गय्य शैव थे पर माता माचिकब्बे जिन भक्त थीं। लेख नं० ५१ ( १४१ ) और ५२ (१४५ ) (शक १०४१) में शान्तलदेवो के मामा के पुत्र बलदेव और उनके मामा सिङ्गिमय्य की मृत्यु का उल्लेख है। बलदेव ने मोरिङ्गरे में समाधिमरण किया तब उनकी माता और भगिनी ने उनकी स्मारक एक पट्टशाला ( वाचनालय ) स्थापित की। सिङ्गिमय्य के समाधिमरण पर उनकी भार्या और भावज ने स्मारक लिखवाया। लेख नं० ३६८ (२६५) और ३६६ ( २६६ ) में दण्डनायक भरतेश्वर द्वारा दो मूर्तियों के स्थापित कराये जाने का उल्लेख है। भरतेश्वर गण्डविमुक्त सिद्धान्त देव के
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शिष्य थे और अन्य शिलालेखों ( नागमङ्गल ३२ ए० क - ४; चिकमगलूर १६० ए० क० ६ ) से सिद्ध है कि वे और उनके बड़े भाई मरियाणे विष्णुवर्द्धन नरेश के सेनापति थे । लेख नं० ४० (६४ ) ( शक १०८५ ) में भी भरत के गण्डविमुक्तदेव के शिष्य होने का उल्लेख है । लेख नं० ११५ (२६७ ) से विदित होता है कि भरतेश्वर ने जिन दो मूर्तियों की स्थापना कराई थी वे भरत और बाहुबली स्वामी की मूर्तियाँ थीं । इस लेख में भरतेश्वर के अन्य धार्मिक कृत्यों का भो उल्लेख है । उन्होंने उक्त दोनों मूर्तियों के आसपास कटघर ( हप्पलिगे ) बनवाया, गोम्मटेश्वर के आसपास बड़ा गर्भगृह बनवाया, सीढ़ियाँ बनवाई तथा गङ्गवाडि में दो पुरानी बस्तियों का उद्धार कराया और अस्सी नवीन बस्तियाँ निर्माण कराई । यह लेख भरत की पुत्री शान्तलदेवी ने लिखवाया था । लेख नं०६८ (१५६) और ३५१ (२२१ ) भी इसी नरेश के समय के विदित होते हैं उनमें कुछ जिन भक्त पुरुषों का उल्लेख है ।
विष्णुवर्द्धन और लक्ष्मीदेवी के पुत्र नारसिंह प्रथम हुए जिनकी उपाधियों आदि का उल्लेख लेख नं० १३७ ( ३४५ ) और १३८ (३४६ ) में है । लेख नं० १३८ ( ३४६ ) में उल्लेख है कि उक्त नरेश के भण्डारि और मन्त्रो हुल्ल ने बेलगोल में चतुर्विंशति जिनमन्दिर निर्माण कराया यह मन्दिर भण्डारि बस्ति के नाम से प्रसिद्ध है। लेख में विनयादित्य से । लगाकर नारसिंह प्रथम तक के वर्णन और हुल्ल के वंशपरिचय
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होय्सलवंश के पश्चात् कहा गया है कि एक बार अपनी दिग्विजय के समय नरेश बेल्गोल में प्राय, गोम्मटेश्वर की वन्दना की और हुल्ल के बनवाये हुए चतुर्विशति जिनालय के दर्शन कर उन्होंने उस मन्दिर का नाम 'भव्यचूडामणि' रक्खा क्योंकि हुल्ल की उपाधि 'सम्यक्तचूड़ामणि' थी। फिर उन्होंने मन्दिर के पूजन, दान तथा जीर्णोद्धार के हेतु 'सवणेरु' नामक ग्राम का दान किया । लेख में यह भी उल्लेख है कि हुल्ल ने नरेश की अनुमति से गोम्मटपुर के तथा व्यापारी वस्तुओं पर के कुछ कर ( टैक्स ) का दान मन्दिर को कर दिया। हुल्ल वाजि-वश के जकिराज ( यक्षराज ) और लोकाम्बिका के पुत्र, लक्ष्मण और अमर के ज्येष्ठ भ्राता तथा मलधारि स्वामी के शिष्य थे। सवणेरु ग्राम का दान उन्होंने भानुकीर्ति को दिया था। वे राज्यप्रबन्ध में योगन्धरायण' से भी अधिक कुशल और राजनीति में बृहस्पति से भी अधिक प्रवीण थे। लेख नं. १३७ ( ३४५) में भी नारसिंह के बेल्गोल की वन्दना करने का उल्लेख है और इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि हुल्ल विष्णुवर्द्धन के समय में भी राजदरबार में थे तथा लेख नं० ६ ( २४०) व ४६१ से विदित होता है कि वे अगामी नरेश बल्लाल द्वितीय के समय में भी विद्यमान थे क्योंकि उन्होंने उक्त नरेश से एक दान प्राप्त किया था। इस लेख में हुल्ल की कीर्ति और धर्मपरायणता का खूब वर्णन है। वे चामुण्डराय और गङ्गराज की श्रेणी में ही सम्मिलित किये गये हैं। उन्होंने
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
बङ्कापुर और कलिविट के जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, कोण में जैनाचार्यो के हेतु बहुत सी जमीन लगाई, केलङ्ग रे में छ:- नवीन जिनमन्दिर बनवाये और बेलगोल में चतुर्विंशति तीर्थकर मन्दिर बनवाया उन्होंने गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य महामण्डलाचार्य नयकीर्ति सिद्धान्तदेव को इस मन्दिर के प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । लेख नं० ६० (२४० ) में भी नारसिंह की बेलगोल की वन्दना का उल्लेख है। इस लेख से विदित होता है कि सवरु के प्रतिरिक्त नरेश ने दो और ग्रामों—बेक और कगोरे― का दान दिया
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था । हुल्ल की प्रार्थना से इसी दान का समर्थन बल्लाल द्वितीय ने भी किया था ( ४-६१ ) । लेख नं० ८० (१७८ ) और ३१६ ( १८१ ) में भी इस दान का उल्लेख है । लेख नं० ४० ( ६४ ) में उल्लेख है कि हुल्ल ने अपने गुरु महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पण्डितदेव की निषद्या निर्माण कराई जिसकी प्रतिष्ठा उन्होंने उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेव . द्वारा कराई। लेख नं० १३७ ( ३४६ ) में हुल्ल की भार्या पद्मावती के गुणों का वर्णन है इस लेख में भी हुल्ल के नयकीर्ति के पुत्र भानुकीर्ति को सवणेरु ग्राम का दान करने का उल्लेख है ।
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नारसिंह प्रथम और उनकी रानी एचलदेवी के बल्लालदेव द्वितीय हुए। लेख नं० १२४ ( ३२७ ) १३० ( ३३४ ) और ४८१ में इनके वंश व उपाधियों आदि का वर्णन है ।
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होयसल वंश
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वे सनिवार सिद्धि, गिरिदुर्गमल्ल व कुम्मट और एरम्बरगे के उनकी उच्छङ्गि की विजय का बड़ा
लेख नं० ४८१ ( शक
इसमें इन
विजेता भी कहे गये हैं। वीरतापूर्ण वर्णन दिया गया है । १०-८५ ) इस राज्य का सबसे प्रथम लेख है । नरेश और उनके दण्डाधिप हुल्ल का परिचय है । नरेश ने चतुर्विंशति तीर्थकर की पूजन के हेतु मारुहल्लिग्राम का दान दिया व हुल्ल के अनुरोध से बेक ग्राम के दान का समर्थन किया । यह दान नयकीर्ति के शिष्य भानुकीर्ति को दिया गया । लेख नं० -६० (२४० ) में गङ्गराज की कीर्ति का वर्णन, व गुणचन्द्र के पुत्र नयकीर्त्ति का, नारसिंह प्रथम की बेलगोल की वन्दना का तथा बल्लाल द्वारा नारसिंह के दान के समर्थन का उल्लेख पाया जाता है । लेख के अन्तिम भाग में कथन है कि नयकीर्ति के शिष्य अध्यात्मि बालचन्द्र ने एक बड़ा जिन मंदिर, एक बृहत् शासन, अनेक निषद्यायें व बहुत से तालाब आदि अपने गुरु की स्मृति में निर्माण कराये । लेख नं० १२४ ( ३२७ ) ( शक ११०३ ) में नरेश के मन्त्री चन्द्रमौलि की भार्या आचियक द्वारा बेल्गोल में पार्श्वनाथ बस्ति निर्माण कराये जाने का उल्लेख है 1 यह बस्ति अब प्रक्कन बस्ति के नाम से प्रसिद्ध है । चन्द्रमौलि शम्भूदेव और अक्कब्बे के पुत्र थे । वे शिवधर्मी ब्राह्मण थे और न्याय, साहित्य, भरत शास्त्र आदि विद्याओं में प्रवीण थे । उनकी भार्या आचियक्क व आचल देवी जिनभक्ता थी । ( प्रचलदेवी की वंशावली
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक के लिये देखो लेख नं. १६२४)। उनके गुरु नयकीर्ति और बालचन्द्र थे। लेख में कहा गया है कि चन्द्रमौलि की प्रार्थना पर बल्लालदेव ने प्राचलदेवी द्वारा निर्मापित मंदिर के हेतु बम्मेयन हल्लिग्राम का दान दिया। लेख में और भी दानों का उल्लेख है। उक्त दान का उल्लेख उसी ग्राम के लेख नं० ४६४ (शक ११०४ ) तथा लेख नं. १०७ ( २५६ ) और ४२६ ( ३३१ ) में भी है। लेख नं० १३० ( ३३५) में विनयादित्य से लगाकर होयसल नरेशों के परिचय के पश्चात् महामण्डलाचार्य नयकीर्ति की कीर्ति का वर्णन है और फिर नरेश के 'पट्टणस्वामी' नागदेव का परिचय है। देखो लेख नं० १३०)। नागदेव के अपने गुरु नयकीर्ति की निषद्या बनवाने का उल्लेख लेख नं. ४२ (६६ ) में भी है। नागदेव के कुछ और सत्कृत्यों और कुछ आचार्यों का परिचय लेख नं. १२२ ( ३२६ ) और ४६० (४०७ ) में पाया जाता है। लेख नं. ४७१ ( ३८० ) में वसुधैकबान्धव रेचिमय्य के जिननाथपुर में शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा कराने व शुभचन्द्र विद्य के शिष्य सागरनन्दि को उस मंदिर के प्राचार्य नियुक्त करने का उल्लेख है। यद्यपि इस लेख में किसी नरेश का उल्लेख नहीं है तथापि अन्य शिलालेखों से ज्ञात होता है कि रेचिमय्य इन्हीं बल्लालदेव के सेनापति थे। बल्लालदेव के पास आने से प्रथम वे कलचुरि नरेशों के मन्त्री थे। ( मै० प्रा० रि० १६०६, पृ० २१; ए. क० ५, अर्सिकेरे ७७, ए० क० ७,
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होय्सलवंश शिकारपुर १६७ ) लेख नं. ४६५ में बल्लालदेव के समय में अपने गुरु श्रीपाल योगीन्द्र के स्वर्गवास होने पर वादिराजदेव के परवादिमल्ल जिनालय निर्माण कराने व भूमिदान देने का उल्लख है।
इस राज्य का अन्तिम लेख नं० १२८ (३३३) ( शक ११२८) का है जिसमें वीर बल्लालदेव के कुमार सोमेश्वरदेव
और उनके मत्री रामदेव नायक का उल्लेख है। इतिहास में कहीं अन्यत्र बल्लालदेव के सोमेश्वर नामक पुत्र का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि सम्भवत: नरेश का कोई प्रतिनिधि ही यहाँ विनय से अपने को नरेश का पुत्र कहता है। (लेख के सारांश के लिये देखो नं० १२८)।
बल्लाल द्वितीय के पुत्र नारसिंह द्वितीय के समय का एक ही लेख इस संग्रह में आया है। लेख नं० ८१ ( १८६) में कहा गया है कि पृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर नारसिंह के राज्य में पदुमसेट्टि के पुत्र व आध्यात्मि बालचन्द्र के शिष्य गोम्मटसेट्टि ने गोम्मटेश्वर की पूजा के लिये बारह गद्याण का दान दिया।
नरसिंह द्वितीय के उत्तराधिकारी सोमेश्वर के समय का लेख नं० ४६६ (शक ११७० ) है। इसमें सोमेश्वर की विजय व कीति का परिचय उनकी उपाधियों में पाया जाता है। लेख में कहा गया है कि सोमेश्वर के सेनापति 'शान्त' ने
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श्रवणबेलगोल के स्मारक शान्तिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। लेख में माघनन्दि प्राचार्यों की परम्परा भी दी है। ___ लेख नं०६६ ( २४६ ) (शक ११६६) में वीर नारसिंह तृतीय ( सोमेश्वर के पुत्र व नारसिंह द्वितीय के प्रपौत्र) का उल्लेख है। लेख नं० १२६ ( ३३४ ) (शक १२०५ ) भो सम्भवतः इसी राजा के समय का है। इस लेख में होय्सल वश की स्तुति है, और कहा गया है कि उस समय के नरेश के गुरु मेघनन्दि थे। ये ही सम्भवतः शास्त्रसार के कर्ता थे जिसका उल्लेख लेख के प्रथम पद्य में ही है। (सारांश के लिये देखो लेख नं० ६६ )।
लेख नं० १०५ ( २५४ ) (शक १३८० ) के ४६ वें पद्य में व लेख नं. १०८ (२५८) (शक १३५५ ) के २६ वें पद्य में उल्लेख है कि बल्लाल नरेश की एक घोर व्याधि से चारुदत्त गुरु ने रक्षा की थी। यह नरेश इस वंश के बल्लाल प्रथम, विष्णुवर्धन के ज्येष्ठ भ्राता हैं जिन्होंने बहुत अल्पकाल राज्य किया था। 'भुजबलि शतक' में कहा गया है कि इस नरेश को पूर्वजन्म के संस्कार से भारी प्रेत बाधा थी जिसे चारुकीति ने दूर की। इसी से इन प्राचार्य को 'बल्लालजीवरक्षक' की उपाधि प्राप्त हुई।
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विजयनगर जब सन् १३२७ ईस्वी में मुहम्मद तुगलक ने होय्साल राज्य का पूर्ण रूप से सत्यानाश कर डाला और होय्सल राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया तब दक्षिण के अन्य राज्य सचेत हुए। वे सब दो वीर योधाओं के नायकत्व में एकत्र हुए। इन वीर योधाओं, जिनके वश आदि का विशेष कुछ पता नहीं चलता, ने थोड़े ही वर्षों में एक राज्य स्थापित किया जिसकी राजधानी उन्होंने विजयनगर बनाई। उक्त दोनों वोरों के नाम क्रमशः हरीहर और बुक्क थे और वे दोनों भ्राता थे। इन्होंने मुसलमानों के बढ़ते प्रवाह को रोक दिया। इसी समय दक्षिण में मुसलमानों ने बहमनी राज्य स्थापित किया जिसकी राजधानी गुलबर्गा थो। अब दक्षिय में ये दोनों राज्य ही मुख्य रहे और दोनों प्रापस में लगातार झगड़ते रहे। सन् १४८१ के लगभग बहमनी राज्य बरार, विदर, अहमदनगर, गोलकुण्डा और बोजापुर इन पांच भागों में बट गया। विजयनगर नरेशों का झगड़ा बीजापुर के आदिल शाहों से चलता रहा। इनमें अधिकतः विजयनगर विजयी रहता था क्योंकि उक्त पाँचों मुसलमानी राज्यों में द्वेष था। अन्त में मुसलमानी राजाओं ने अपनी भूल पहचान ली। वे सन् १५६५ में एक होकर तालीकोटा के मैदान पर इकट्ठे हुए
और यहाँ दक्षिण भारत में हिन्दू साम्राज्य का निपटारा सदैव के लिये हो गया। विजयनगर-नरेश रामराय कैद कर लिये
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
गये और मार डाले गये और उनकी सुन्दर राजधानी विजयनगर विध्वस कर दी गई । यह संक्षिप्त में विजयनगर राज्य का इतिहास है ।
अब संग्रहीत लेखों में इस राज्य के जो उल्लेख आये हैं उन्हें देखिये ।
इस राजवंश के सम्बन्ध का सबसे प्रथम और सबसे महत्व का लेख नं० १३६ ( ३४४ ) ( शक १२-९० ) का है जिसमें बुक्कराय प्रथम द्वारा जैन और वैष्णव सम्प्रदायों के बीच शान्ति और संधि स्थापित किये जाने का वर्णन है । वैष्णवों ने जैनियों के अधिकारों में कुछ हस्तक्षेप किया था। इसके लिये जैनियों ने नरेश से प्रार्थना की। नरेश ने जैनियों का हाथ वैष्णवों के हाथ पर रखकर कहा कि धार्मिकता में जैनियों और वैष्णवों में कोई भेद नहीं है। जैनियों को पूर्वतत् ही पश्चमहावाद्य और कलश का अधिकार है। जैन दर्शन की हानि व वृद्धि को वैष्णवों को अपनी ही हानि व वृद्धि समझना चाहिए । श्री वैष्णवों को इस विषय के शासन समस्त बस्तियों में लगा देना चाहिए । जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक वैष्णव जैन धर्म की रक्षा करेंगे । इसके अतिरिक्त लेख में कहा गया है कि प्रत्येक जैन गृह से कुछ द्रव्य प्रति वर्ष एकत्रित किया जायगा जिससे बेल्गाल के देव की रक्षा के लिये बीस रक्षक रक्खे जावेंगे व शेष द्रव्य मंदिरों के जीर्णोद्धारादि में खर्च किया जावेगा। जो इस शासन का उल्लघन करेगा
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विजयनगर
वह राज्य का, संघ का व समुदाय का द्रोही ठहरेगा। इस सम्बन्ध में कदम्बहल्लि की शान्तीश्वर बस्ती का स्तम्भ लेख भी महत्व पूर्ण है। इस लेख में शैवों द्वारा जैनियों के अधिकारों की रक्षा का उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि यमादि योग गुणों के धारक, गुरु और देवों के भक्त, कलिकाल की कालिमा के प्रक्षालक, लाकुलीश्वर सिद्धान्त के अनुयायी, पञ्चदीक्षा क्रियायों के विधायक सात करोड़ श्रीरुद्रों ने एकत्रित होकर मूलसंघ, देशीगण, पुस्तक गच्छ के कदम्बहल्लि के जिनालय को 'एक्कोटि जिनालय' की उपाधि तथा पञ्चमहावाद्य का अधिकार प्रदान किया। जो कोई इसमें ऐसा नहीं होना चाहिए' कहेगा वह शिव का द्रोही ठहरेगा। यह लेख लगभग शक सं० ११२२ का है। ___ लेख नं. १२६ ( ३२६ ) में हरिहर द्वितीय की मृत्यु का उल्लेख है जो तारण संवत्सर ( शक १३६८ ) भाद्रपद कृष्णा दशमी सोमवार को हुई। अन्य एक लेख ( ए० क०८, तीर्थहल्लि १२६) से भी इसी बात का समर्थन होता है। लेख नं० ४२८ ( ३३७ ) से विदित होता है कि देवराय महाराय की रानी व पण्डिताचार्य की शिष्या भीमादेवी ने मङ्गायी बस्ति में शान्तिनाथ भगवान की प्रतिष्ठा कराई। यह राजा सम्भवतः देवराय प्रथम है। शिलालेख से यह नई बात विदित होती है कि इस राजा की रानी जैनधर्मावलम्बिनी थी। यह लेख लगभग शक सं० १३३२ का है। लेख
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
नं० ८२ (२५३ ) ( शक १३४४ ) में हरिहर द्वितीय के सेनापति इरुप का परिचय है और कहा गया है कि उन्होंने बेल्गोल, एक वनकुञ्ज और एक तालाब का दान गोम्मटेश्वर के हेतु कर दिया। लेख में इरुगप की वंशावली इस प्रकार पाई जाती है
बैच दण्डनायक ( बुक्कराय प्र० के मंत्री )
मानगप जानकी
इरुगप
Ī
बैचप
इरुगप
लेख में पण्डितार्य और श्रुतमुनि की प्रशंसा के पश्चात् कहा गया है कि श्रुतमुनि के समक्ष उक्त दान दिया गया था । यह लेख शक सं० १३४४ का है जिससे विदित होता है कि sory देवराय द्वितीय के समय में भी विद्यमान थे । इरुगप संस्कृत के अच्छे विद्वान थे । उन्होंने 'नानार्थरत्नमाला' नामक पद्यात्मक कोष की रचना की थी। उनके तीन और लेख मिले हैं ( ए० इ० ७, ११५; सं० इ० इ० १– १५६ ) जिनमें से दो शक सं० १३०४ और १३०८ के हैं जिनमें पण्डितार्य की प्रशंसा है व तीसरा शक सं० १३०७ का है और उसमें
बुकण
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मैसूर राजवंश
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कथन है कि इरुप ने विजयनगर में कुंथ जिनालय निर्माण कराया । लेख नं० १२५ (३२८ ) और १२७ ( ३३० ) में देवराय द्वितीय की क्षय संवत्सर ( शक १३६८ ) में मृत्यु का उल्लेख है ।
मैसूर राजवंश
लेख नं० ८४ (२५० ) शक सं० १५५६ का है। इसमें मैसूर नरेश चामराज ओडेयर द्वारा बेल्गोल के मंदिरों की जमीन के, जो बहुत दिनों से रहन थी, मुक्त कराये जाने का उल्लेख है। नरेश ने जिन लोगों को इस अवसर पर बुलवाया था उनमें भुजबल चरित के कर्ता पञ्चबाण कवि के पुत्र बोम्यप्प व कवि बोमण्णा भी थे । इसी विषय का कुछ और विशेष विवरण लेख नं० १४० ( ३५२ ) ( शक १५५६ ) में पाया जाता है । इस लेख में राजा की ओर से मंदिर की भूमि रहन करने व कराने का निषेध किया गया है । यद्यपि लेखे में इस बात का उल्लेख नहीं है तथापि यह प्राय: निश्चय ही है कि उक्त विषय के निर्णय के लिये नरेश बेल्गोल अवश्य गये होंगे । चिदानन्द कवि के मुनिवंशाभ्युदय में नरेश की बेलगोल की यात्रा का इस प्रकार वर्णन है । " मैसूर नरेश चामराज बेल्गोल में आये और गर्भगृह में से गोम्मटेश्वर के दर्शन किये । फिर उन्होंने द्वारे पर आकर दोनों बाजुओं के
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१०६ श्रवणबेलगोल के स्मारक शिलालेख पढ़वाये। उन्होंने यह ज्ञात किया कि किस प्रकार चामुण्डराय बेलगोल आये थे और अपने गुरु नेमिचन्द्र की प्रेरणा से उन्होंने गोम्मटेश्वर को एक लाख छयानवे हजार 'वरह' की आय के ग्रामों का दान दिया था। इसके पश्चात् नरेश सिद्धर बस्ति में गये और वहाँ के लेखों से जैनाचार्यों की वंशावली, उनके महत्व व उनके कार्यों का परिचय प्राप्त किया। फिर उन्होंने यह पूछा कि अब गुरु कहाँ गये। बम्मण कवि, जो मन्दिर के अध्यक्षों में से थे, ने उत्तर दिया कि जगदेव के तेलुगु सामन्त के त्रास के कारण गोम्मटेश्वर की पूजा बन्द कर दी गई है और गुरु चारुकीर्ति उस स्थान को छोड़ भैरवराज की रक्षा में भल्लातकीपुर ( गेरुसोप्पे ) में रहते हैं। इस पर नरेश ने गुरु को बुला लेने के लिये कहा और नया दान देने का वचन दिया। फिर उन्होंने भण्डारि बस्ति के दर्शन किये और चन्द्रगिरि के सब मंदिरों के दर्शन कर वे सेरिङ्गापट्टम को लौट गये। पदुमण सेट्टि और पदुमण पण्डित चारुकीर्ति को लेने के लिये भल्लातकीपुर भेजे गये। उनके आने पर वे सत्कार से बेल्गोल पहुँचाये गये और राजा ने वचनानुसार दान दिया। उपरोक्त वर्णन में जिस जगदेव का उल्लेख आया है वह चेन्नपट्टन का सामन्त राजा था। वह शक सं० १५५२ में चामराज द्वारा हराकर राज्यच्युत कर दिया गया।
लेख नं० ४४४ ( ३६५) में चिकदेवराज प्रोडेयर द्वारा बेल्गोल में एक कल्याणी ( कुण्ड ) निर्माण कराये जाने का
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मैसूर राजवंश
१८७ उल्लेख है। लेख नं० ८३ ( २४६ ) में कृष्णराज ओडेयर के शक सं० १६४५ में बेलगोल में आने व गोम्मटेश्वर के हेतु बेलगोल आदि कई ग्रामों के दान का व चिक्कदेवराजवाले कुण्ड के निकट बनी हुई दानशाला के हेतु कबाले नामक प्राम के दान का उल्लेख है। लेख में कहा गया है कि गोम्मटेश्वर के दर्शन कर नरेश बहुत ही प्रसन्न हुए और पुलकितगात्र होकर उन्होंने उक्त दान दिये। अनन्तकवि कृत 'गोम्मटेश्वर चरित' में भी इस नरेश की बेल्गोल-यात्रा का वर्णन है।
लेख नं. ४३३ ( ३५३) और ४३४ ( ३५४ ) कागज पर लिखी हुई कृष्णराज ओडेयर तृतीय की सनदें हैं जो समय-समय पर बेल्गोल के गुरु को दी गई हैं। इनमें की प्रथम सनद नरेश के मंत्री पुर्णय्य की दी हुई है और उस में कृष्णराज ओडेयर प्रथम के दान का समर्थन किया गया है। द्वितीय सनद स्वयं नरेश ने दी है। उसमें बेल्गोल के समस्त मंदिरों के खर्च व जीर्णोद्धार के लिये तीन ग्रामों के दान का उल्लेख है। इस लेख में समस्त मंदिरों की संख्या तेतीस दी है-विन्ध्यगिरि पर पाठ, चन्द्रगिरि पर सोलह, ग्राम में आठ व मलेयूर की पहाड़ी पर एक । इससे पूर्व मठ को उक्त मंदिरों के खर्च व जीर्णोद्धार के लिये राज्य से एक सौ बीस वरह का दान मिलता था। पर यह उक्त कार्य के लिये यथेष्ट नहीं था इसी से राजमहल के
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श्रवणबेलगोल के स्मारक लक्ष्मी पंडित की प्रार्थना पर इसके बदले तीन ग्रामों का उक्त दान दिया गया ।
कृष्णराज ओडेयर तृतीय के समय का एक और लेख नं. ६८ (२२३) (शक १७४८) है। इस लेख में उल्लेख है कि चामुण्डराज के एक वंशज, कृष्णराज के प्रधान अङ्गरक्षक की मृत्यु गोम्भटेश्वर के मस्तकाभिषेक के दिवस हुई। इस पर उनके पुत्र ने गोम्मट स्वामी की प्रतिवर्ष पूजा के हेतु कुछ दान दिया।
वर्तमान महाराजा कृष्णराज प्रोडेयर चतुर्थ का नाम तिथि सहित चन्द्रगिरि के शिखर पर अंकित है जो नवम्बर १६०० ईस्वी में उनके बेलगोल आने का स्मारक है।
कदम्ब वंश अनुमान शक की नवमी शताब्दि के लेख न. २८२ (४४३ ) में काचिन दाणे के पास एक कदम्ब राजा की अाज्ञा से तीन शिलायें लाई जाने का उल्लेख है। यह कदम्ब नरेश कौन था व शिलायें किस हेतु लाई गई थी यह विदित करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं।
* लेख नं० १ ४ १ राइस साहब के संग्रह में छपा है पर श्रीयुक्त नरसिंहाचार के नये संस्करण में वह नहीं छापा गया। श्रीयुक्त नरसिंहाचार का कथन है कि यह लेख उपयुक्त दोनों सनदो के ऊपर से तैयार किया गया है और इसका अब मठ में पता नहीं चलता (देखो लेख नं० १४५ ।)
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कोङ्गावंश नालम्ब व पल्लव वंश
लेख नं० १०८ (२८१ ) में चामुण्डराज द्वारा नोलम्ब नरेश के हराये जाने का उल्लेख है । सम्भवतः यह नरेश दिलीप का पुत्र नन्नि नोलम्ब था । लेख नं० १२० (३१८) में अरकरे के वीर पल्लवराय व उसके पुत्र शङ्कर नायक के नाम पाये जाते हैं 1 शङ्कर नायक का नाम लेख (१७० ) व २४-६ ( १७१ ) में भी पाया जाता है । लगभग शक सं० ११४० के हैं ।
नं० ७३
ये लेख
चोलवंश
शक की दशवीं शताब्दि के एक अधूरे लेख नं० ४६८ (३७८) में एक चोल पेर्मडि का गङ्गों के साथ युद्ध का उल्लेख है । सम्भवतः यह नरेश राजेन्द्र चोल ही था जो गङ्गनरेश भूतराय द्वारा शक सं० ८७१ के लगभग मारा गया था जिसका कि उल्लेख अतकूर के लेख में है । लेख नं० -८० (२४० ), ३६० (२५१) व ४८६ ( ३८७ ) में गङ्गराज द्वारा चोलराज नरसिंह वर्मा व दामोदर की पराजय का उल्लेख है ।
htङ्गालव वंश कोङ्गाव नरेशों का राज्य अर्कल्गुद तालुका के अन्तर्गत कावेरी और हेमवती नदियों के बीच था । सं० ६४२ से १०२२ तक के पाये गये हैं । में चङ्गाव राज्य था । इस वंश का सबसे अच्छा परिचय लेख नं० ५०० में राजा की उपाधियों में पाया जाता है ।
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इनके लेख शक
इन्हीं के दक्षिण
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११० श्रवणबेलगोल के स्मारक वहाँ इस वंश के राजा राजेन्द्र पृथ्वी 'समधिगतपञ्चमहाशब्द', 'महामण्डलेश्वर', 'ओरेयूरपुरवराधीश्वर', 'चोलकुलोदयाचलगभस्तिमालो' व 'सूर्यवंशशिखामणि' कहे गये हैं। इससे स्पष्ट है कि कोङ्गाल्व नरेश सूर्यवंशी थे और चोलवश से उनकी उत्पत्ति थी। ओरेयूर व उरगपूर चोल राज्य की प्राचीन राजधानी थी। इस वंश के शिलालेखों से अब तक निम्नलिखित राजाओं के नाम व समय विदित हुए हैं
सन् ईस्वी बडिव कोङ्गाल्व. राजेन्द्र चोल पृथुवी महाराज...... ......१०२२ राजेन्द्र चोल कोङ्गाल्व....... .......१०२६ राजेन्द्र पृथुवी कोङ्गाल्वदेव अदटरादित्य...१०६६-११०० त्रिभुवनमल्ल चोल कोङ्गाल्वदेव अदटरादित्य......११००
लेख नं० ५०० (शक १००१) व अन्य लेखों से स्पष्ट है कि अदटरादित्य जैनधर्मावलम्बी था। उक्त लेख में उभयसिद्धान्त-रत्नाकर प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव की कीर्ति के पश्चात् कहा गया है कि अददरादित्य नरेश राजेन्द्र पृथुवी कोङ्गाल्व ने गण्डविमुक्त सिद्धान्तदेव के लिये चैत्यालय बनवाया। यह लेख चतुर्भाषाविज्ञ सान्धिविग्रहिक नकुलार्य का लिखा हुआ है। लेख नं० ४८८ त्रिभुवनमल्ल चोल कोङ्गाल्व देव के समय का है।
चङ्गल्ववंश इस वश के नरेशों का राज्य पश्चिम मैसूर और कुर्ग में • था। वे अपने को यादव शो कहते थे। उनका प्राचीन स्थान
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निडुगलव श चङ्गनाडु (अाधुनिक हुणसूर तालुका) था। लेखनं० १०३ (२८८) में कथन है कि इस वश के एक नरेश कुलोत्तुङ्ग चङ्गाल्व महादेव के मन्त्री के पुत्र ने गोम्मटेश्वर की ऊपरी मन्जिल का शक सं० १४२२ में जीर्णोद्धार कराया । उक्त नरेश का उल्लेख एक और लेख में भी पाया गया है (ए. क. ४, हणसुर ६३ )
निडगलवश निडुगल नरेश सूर्यवंशी थे और अपने को करिकाल चोल के वशज कहते थे। वे ओरेयूराधीश्वर की उपाधि धारण करते थे। ओरेयूर ( त्रिचनापल्ली के समीप) चोल राज्य की प्राचीन राजधानी थी। ये नरेश चोल महाराजा भी कहलाते थे। उनकी राजधानी पेजेरु थी जो अब अनन्तपुर जिले में हेमावती कहलाती है। होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के समय इस वश का एक 'इरुङ्गोल' नाम का राजा राज्य करता था। लेख नं० ४२ (६६) में उसके नयकीर्ति सिद्धान्तदेव के शिष्य होने व लेख नं० १३८ ( ३४६) में उसके विष्णुवर्द्धन द्वारा हराये जाने का उल्लेख है।
उपयुक्त राजकुलों के अतिरिक्त कुछ लेखों में और भी फुटकर राजानों व राजव'शों का उल्लेख है। लेख नं० १५२ (११) में अरिष्टनेमि गुरु के समाधिमरण के समय दिण्डिकराज उपस्थित थे। दिण्डिक का उल्लेख एक और लेख (सा. इ. इ. २-३८१ ) में भी आया है पर वह लेख लगभग
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श्रवणबेलगोल के स्मारक सन् ८०० का है और प्रस्तुत लेख उससे कोई दो सौ वर्ष प्राचीन अनुमान किया जाता है। लेख नं० १४ (३४) की नागसेन प्रशस्ति में नागनायक नाम के एक सामन्त राजा का उल्लेख है। लेख नं० ५५ (६६) में कहा गया है कि प्रभाचन्द्र धाराधीशभोज द्वारा व यश:कीर्ति सिंहलनरेश द्वारा सम्मानित हुए थे। लेख नं० ५४ ( ६७ ) में कथन है कि अकलङ्क देव ने हिमशीतल नरेश की सभा में बौद्धों को परास्त किया था व चतुर्मुखदेव ने पाण्ड्य नरेश द्वारा स्वामी की उपाधि प्राप्त की थी। लेख नं० ३७ (१४५) में गरुड़केसिराज व नं० २६६ (४५७ ) में बालादित्य, वत्सनरेश, का उल्लेख है। लेख नं० ४० (६४ ) में सामन्त केदार नाकरस कामदेव व निम्बदेव माघनन्दि के, व दण्डनायक मरियाणे और भटत व बूचिमय्य और कोरय्य गण्डविमुक्तदेव के शिष्य कहे गये हैं। निम्ब के माधनन्दि के शिष्य होने का समाचार तेरदाल के एक लेख ( इ. ए. १४, १४ ) में भी पाया जाता है। शुभचन्द्र के शिष्य एमनन्दि ने अपनी 'एकत्वसतति' में उन्हे सामन्तचूड़ामणि कहा है। नं. ४७७ ( ३८७ ) में सिंग्यपनायक व नं० ४१ (६५) में बेलु केरे के राजा गुम्मट का उल्लेख है। गुम्मट ने शुभचन्द्र देव की निषद्या बनवाई थी। लेख नं० १०५ ( २५४ ) में हरियण और माणिकदेव नामक दो सामन्त राजाओं के पण्डितार्य के शिष्य होने का उल्लेख है।
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लेखों का मूल प्रयोजन
में
प्रस्तुत लेखों का मूल प्रयोजन धार्मिक है। इस सङ्ग्रह लगभग एक सौ लेख मुनियों, ग्रार्जिकाओं, श्रावक और श्राविकाओं के समाधिमरण के स्मारक हैं; लगभग एक सौ मन्दिर - निर्माण, मूर्तिप्रतिष्ठा दानशाला, वाचनालय, मन्दिरों के दरवाजे, परकोटे, सिढिया, रङ्गशालायें, तालाब, कुण्ड, उद्यान, जीर्णोद्धार आदि कार्यों के स्मारक हैं, अन्य एक सौ के लगभग मन्दिरों के खर्च, जीर्णोद्धार, पूजा, अभिषेक, ग्राहारदान आदि के लिये ग्राम, भूमि, व रकम के दान के स्मारक हैं, लगभग एक सौ साठ संघों और यात्रियों की तीर्थयात्रा के स्मारक हैं और शेष चालीस ऐसे हैं जो या तो किसी आचार्य, श्रावक, वयोधा की स्तुति मात्र हैं, व किसी स्थान - विशेष का नाम मात्र अंकित करते हैं व जिनका प्रयोजन अपूर्ण होने के कारण स्पष्ट विदित नहीं हो सकता ।
सल्लेखना – समाधिमरण से सम्बन्ध रखनेवाले सौ लेखों में अधिकांश अर्थात् लगभग साठ-सातवीं आठवीं शताब्दि व उससे पूर्व के हैं और शेष उससे पश्चात् के। इससे अनुमान होता है कि सातवीं आठवीं शताब्दि में सल्लेखना का जितना प्रचार था उतना उससे पश्चात् की शताब्दियों में नहीं रहा । समाधिमरण करनेवालों में लगभग सोलह के संख्या स्त्रियों-अर्जिकाओं व श्राविकाओं की भी है। लेखों में कहीं पर इसे सल्लेखना, कहीं समाधि, कहीं संन्यसन,
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
कहीं व्रत व उपवास व अनशन द्वारा मरण व स्वर्गारोहण कहा है । अनेक स्थानों पर सल्लेखना मरण की सूचना केवल मुनियों व श्रावकों की निषद्याओं ( स्मारकों) से चलता है ।
सोखना क्यों और किस प्रकार की जाती थी इसके सम्बन्ध में प्राचीन जैन ग्रन्थों में समाचार मिलते हैं । इस विषय पर समन्तभद्र स्वामी कृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ १ ॥ स्नेहं वैर सङ्ग परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा चमयेत्प्रियवचनैः ॥ २ ॥ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमत च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषम् ॥ ३ ॥ शोकं भयमवसादं क्लेद कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्वेोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतैः ॥ ४ ॥ आहार परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत्पानं । स्निग्ध च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः || ६ || खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्तया । पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ ६ ॥
अर्थात् " जब कोई उपसर्ग व दुर्भिक्ष पड़े. व बुढ़ापा व व्याधि सतावे और निवारण न की जा सके उस समय धर्म की रक्षा के हेतु शरीर त्याग करने को सल्लेखना कहते हैं। इसके
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सल्लखना
११५ लिये प्रथम स्नेह व वैर, संग व परिग्रह का त्याग कर मन को शुद्ध करे व अपने भाई बन्धु व अन्य जनों को प्रिय वचनों द्वारा क्षमा प्रदान करे और उनसे क्षमा करावे । तत्पश्चात् निष्कपट मन से अपने कृत, कारित व अनुमोदित पापों की आलोचना करे और फिर यावज्जोवन के लिये पञ्चमहाव्रतों को धारण करे । शोक, भय, विषाद, स्नेह, रागद्वेषादि परिणति का याग कर शास्त्र-वचनों द्वारा मन को पसन्न और उत्साहित करे। तत्पश्चात् क्रमश: कवलाहार का परित्याग कर दुग्धादि का भोजन करे। फिर दुग्धादि का परित्याग कर कञ्जिकादि शुद्ध पानी ( व गरम जल ) का पान करे। फिर क्रमश: इसे भी त्यागकर शक्तानुसार उपवास करे और पञ्चनमस्कार का चिन्तवन करता हुआ यत्नपूर्वक शरीर का परित्याग करे।" यह सल्लेखना मुनियों के लिये ही नहीं श्रावकों को भी उपादेय कही गई है । आशाधरजी ने अपने धर्मामृत ग्रन्थ में कहा है
सम्यक्त वममलममलान्यनुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ।।
अर्थात् शुद्ध सम्यक्तव, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन व मरण समय सल्लेखना यह गृहस्थों का सम्पूर्ण धर्म है। कुछ शिलालेखों में जितने दिनों के उपवास के पश्चात् समाधि मरण हुआ उसकी संख्या भी दी है। लेख नं० ३८ (५६) में तीन दिन, नं० १३ (३३ ) में इक्कोस दिन , व नं०८ (२५); ५३ (१४३ ) और ७२ (१६७)
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११६ श्रवणबेलगोल के स्मारक में एक माह का उल्लेख है। सबसे प्राचीन लेख समाधिमरण के विषय के ही हैं। लेख नं० १ जो सब लेखों में प्राचीन है, भद्रबाहु के ( व कुछ विद्वानों के मतानुसार प्रभाचन्द्र के) समाधिमरण का उल्लेख करता है। इसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है। इस लेख की लिपि छठवीं सातवीं शताब्दि की अनुमान की जाती है। इसी प्रकार जैन इतिहास के लिये सबसे महत्वपूर्ण लेख भी इसी विषय के हैं। देवकीर्ति प्रशस्ति नं० ३६-४० (६३-६४) शुभचन्द्र प्रशस्ति नं० ४१ (६५), मेघचन्द्र प्रशस्ति ४७ (१२). प्रभाचन्द्र पशस्ति ५० (१४०) मल्लिषेण प्रशस्ति ५४ (६७), पण्डितार्य प्रशस्ति १०५ (२५४), व श्रुतमुनि प्रशस्ति १०८ (२५८) में उक्त आचार्यों के कीर्ति-सहित स्वर्गवास का वर्णन है। लेख नं० १५६ ( २२ ) में कहा गया है कि कालत्तूर के एक मुनि ने कटवप्र पर १०८ वर्ष तक तपश्चरण करके समाधिमरण किया। इन्हीं लेखों में प्राचार्यों की परम्पराये व गण गच्छों के समाचार पाये जाते हैं, जिनका सविस्तर विवेचन आगे किया जावेगा।
यात्रियों के लेख-जैन औपदेशिक ग्रन्थों में श्रावकधर्म के अन्तर्गत तीर्थयात्रा का भी विधान है। जिन स्थानों पर जैन तीर्थ करों के कल्याणक हुए हैं व जिन स्थानों से मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है व जहाँ अन्य कोई असाधारण धार्मिक घटना घटी हो वे सब स्थान 'तीर्थ' कहलाते हैं। गृहस्थों को समय समय पर पुण्य का लाभ करने के हेतु इन स्थानों की
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यात्रियों के लेख
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वन्दना करनी चाहिए । श्रवणबेलगोल बहुत काल से एक ऐसा ही स्थान माना जाता रहा है । इस लेख संग्रह में लगभग १६० लेख तीर्थ यात्रियों के हैं। इनमें के अधिकांश लगभग १०७ --- दक्षिण भारत के यात्रियों के और शेष उत्तर भारतवासियों के हैं। दक्षिणी यात्रियों के लेखों में लगभग ५४ में केवल यात्रियों के नाम मात्र अंकित हैं, शेष लेखों में यात्रियों की केवल उपाधियाँ व उपाधियों सहित नाम पाये जाते हैं। कुछ लेखों में यह भी स्पष्ट कहा है कि अमुक यात्री व यात्रियों ने देवकी व तीर्थ की वन्दना की । यात्रियों के जो नाम पाये जाते हैं उनमें से कुछ ये हैं- श्रीधरन, वीतराशि, चावण्डय्य, कविरत्न, प्रकलङ्क पण्डित, अलमकुमार महामुनि, मालव अमावर, सहदेव मणि, चन्द्रकीर्ति, नागवर्म्म, मारसिङ्गय्य और मल्लिषेण । सम्भव है कि इनमें के 'कविरत्न' वही कन्नड भाषा के प्रसिद्ध कवि हों जिन्हें चालुक्य नरेश तैल तृतीय ने 'कविचक्रवर्त्ति' की उपाधि से विभूषित किया था व जिन्होंने शक सं० ६१५ में 'अजितपुराण' की रचना की थी । नागवर्म सम्भवत: वही प्रसिद्ध कनाड़ी कवि हों जिन्हें गङ्गनरेश रक्कसगङ्ग ने अपने दरबार में रक्खा था और जिन्होंने 'छन्दोम्बुधि' और ' कादम्बरी' नामक काव्यों की रचना की थी । 'चन्द्रकीर्ति' सम्भव है वे ही आचार्य हों जिनका उल्लेख ४३ ( ११७ ) में आया है । आश्चर्य नहीं जो चावुण्डय्य और मारसिङ्गय्य क्रमश: चामुण्डराज मन्त्री और मारसिंह नरेश ही
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श्रवणबेलगोल के स्मारक हो। केवल उपाधियों में से कुछ इस प्रकार हैं-समधिगत पञ्चमहाशब्द; महामण्डलेश्वर, श्रीराजन् चट्ट ( राजव्यापारी), श्रीबडवरबण्ट (गरीबों का सेवक), रणधीर, इत्यादि। उपाधिसहित नामों के उदाहरण इस प्रकार हैं-श्री ऐचय्य-विरोधिनिष्ठुर, श्रीजिनमार्गनीति-सम्पन्न-सर्पचूडामणि, श्रावत्सराज बालादित्य, अरिट्टनेमि पण्डित परसमयध्वंसक, इत्यादि । जिनके साथ में यह भी कहा गया है कि उन्होंने देव की व तीर्थ की वन्दना की, उनमें से कुछ के नाम ये हैं-मल्लिषेण भट्टारक के शिष्य चरेङ्गय्य, अभयनन्दि पण्डित के शिष्य कोत्तय्य, श्रीवर्मचन्द्रगीतय्य, नयनन्दि विमुक्तदेव के शिष्य मधुवय्य, नागति के राजा इत्यादि। कुछ शिल्पियों के नाम भी हैं, जैसे- गण्डविमुक्तसिद्धान्तदेव के शिष्य श्रीधरवोज, बिदिग, वबोज, चन्द्रादित और नागवर्म।
इस प्रकार के शिलालेख यों तो निरुपयोगी समझ पड़ते हैं पर इतिहासखोजक के लिये कभी-कभी ये ही बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं। कम से कम उनसे यह बात तो सिद्ध होती ही है कि कितने प्राचीन समय से उक्त स्थान तीर्थ माना जाता रहा है और यति, मुनि, कवि, राजा, शिल्पी, आदि कितने प्रकार के यात्रियों ने समय समय पर उस स्थान की पूजा वन्दना करना अपना धर्म समझा है। इससे उस स्थान की धार्मिकता, प्राचीनता और प्रसिद्धि का पता चलता है।
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यात्रियों के लेख उत्तर भारत के यात्रियों के लेखों की संख्या लगभग ५३ है। ये सब मारवाड़ी-हिन्दी भाषा में हैं। लिपि के अनुसार ये लेख दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। ३६ लेखों की लिपि नागरी है और १७ की महाजनी । नागरी लेखों का समय लगभग शक सं० १४०० से १७६० तक है। इनमें के दो लेख स्याही से लिखे हुए हैं। इन लेखों में के अधिकांश यात्री काष्ठा संघ के थे जिनमें के कुछ मण्डितटगच्छ के थे। यह गच्छ काष्ठा संघ के ही अन्तर्गत है। कुछ यात्रियों के साथ उनकी वघेरवाल जाति व गोनासा और पीला गोत्र का उल्लेख है। कुछ लेखों में यात्रियों के निवासस्थान पुरस्थान, माडवागढ़ व गुडघटीपुर का उल्लेख है। महाजनी लिपि के १७ लेख उस विचित्र लिपि के हैं जिसे मुण्डा भाषा कहते हैं । इसकी विशेषता यह है कि इसमें मात्रायें प्रायः नहीं लगाई जाती। केवल 'अ' और 'इ' की मात्राओं से ही अन्य सब मात्राओं का भी काम निकाल लिया जाता है। व्यञ्जनों में 'ज' और 'झ', 'ट' और 'ठ', 'ड' और 'ण', 'भ' और 'व' में कोई भेद नहीं रक्खा जाता। यह भाषा आगरा, अवध और पजाब प्रदेशों के व्यापारी महाजनों में प्रचलित है। कुछ लेखों में 'टाकरी' लिपि के अक्षर भी पाये जाते हैं, जो पजाब के पहाड़ी हिस्सों में प्रचलित हैं। इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि उक्त सब प्रदेशों से यात्री इस तीर्थस्थान की वन्दना को आते थे। उल्लिखित यात्रियों में अधिकांश अप्र
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श्रवणबेलगोल के स्मारक वाल और सरावगी जातियों के थे। अग्रवालों के अन्तर्गत ही वे सब अवान्तर भेद पाये जाते हैं जिनका उल्लेख लेखों में आया है; यथा-नरथनवाला, सहनवाला, गङ्गानिया इत्यादि । अनेक यात्रियों ने अपने को 'पानीपथीय' कहा है जिससे विदित होता है कि वे 'पानीपत' के थे। लेखों में गोयल और गर्ग गोत्रों व स्थानपेठ और मांउनगढ़ स्थानों के नाम भी आये हैं। इन लेखों का समय लगभग शक सं० १६७० से १७१० तक है।
जीर्णोद्धार और दान-मन्दिरादिनिर्माण, जीर्णोद्धार और पूजाभिषेकादि के हेतु दान से सम्बन्ध रखनेवाले लेखों की संख्या लगभग दो सौ है। मन्दिरादिनिर्माण के विषय के लेखों का उल्लेख पहले मन्दिरों आदि के वर्णन में भा चुका है। यहाँ शेष लेखों में के मुख्य २ का कुछ परिचय दिया जाता है। शक सं० ११०० के लगभग के लेख नं० ८८ ( २३७ ), ८६ ( २३८) और ६२ ( २४२ ) में गोम्मटेश्वर की पूजा के हेतु पुष्पों के लिये दान का उल्लेख है। प्रथम लेख में कहा गया है कि महापसायित विजपण के दामाद चिक्क मदुकण्ण ने महामण्डलाचार्य चन्द्रपभदेव से कुछ भूमि मोल लेकर उसे गोम्मटेश की नित्य पूजा में बीस पुष्पमालाओं के लिये लगा दो। द्वितीय लेख में कथन है कि सोमेय के पुत्र कविसेट्टि ने उक्त देव की पूजार्थ पुष्पों के लिये कुछ भूमि का दान महामण्डलाचार्य चन्द्रप्रभदेव को दिया। तीसरे
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जीर्णोद्धार और दान लेख में उल्लेख है कि बेल्गोल के समस्त व्यापारियों ने 'संघ' से कुछ भूमि खरीद कर उसे मालाकार को गोम्मटेश की पूजा में पुष्प देने के लिये दान कर दी। लेख नं. ६१ ( २४१) में कथन है कि बेल्गोल के समस्त व्यापारियों ने गोम्मटेश और पार्श्वदेव की पूजा में पुष्पों के लिये प्रतिवर्ष कुछ चन्दा देने का वचन दिया। लेख नं. ६३ ( २४३ ) के अनुसार चेन्नि सेट्टि के पुत्र व चन्द्रकीर्ति भट्टारक के शिष्य कल्लय्य ने कुछ द्रव्य का दान इस हेतु दिया कि कम से कम पुष्पों की छः मालायें प्रतिदिवस गोम्मटदेव और तीर्थ करों का चढ़ाई जावें। लेख नं० ६४, ६५, ६७ व ३३० (२४४, २४५, २४७, २००) में गोम्मटेश के प्रतिदिन अभिषेक के हेतु दुग्ध के लिये दान का उल्लेख है। इन लेखों में दुग्ध का परिमाण भी दिया गया है। और बेल्गोल के व्यापारी इस कार्य के प्रबन्धक नियुक्त किये गये हैं। लेख नं० १०६ ( २५५ ) (शक सं० १३३१ ) में गोम्मटेश की मध्याह्न पूजन के हेतु दान का उल्लेख है।
लगभग शक सं०११०० के लेख नं०८६,८७, ३६१ (२३५, २३६,२५२) में बसविसेट्टि द्वारा स्थापित चतुर्विशति तीर्थ करों की अष्टविध पूजा के हेतु व्यापारियों के वार्षिक चन्दों का उल्लेख है। इसी प्रकार लेख नं. ६६-१०२, १३१, १३५, १३७,४५४ और ४७५ में भिन्न भिन्न सत्पुरुषों द्वारा भिन्न-भिन्न देवों और मन्दिरों की भिन्न भिन्न प्रकार की सेवा और पूजा के हेतु भिन्न-भिन्न समय पर नाना प्रकार के दानों का उल्लेख है।
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श्रवणबेलगोल के स्मारक ___ लेख नं० १३४ (३४२ ) में कहा गया है कि हिरियअय्य के शिष्य गुम्मटन ने चन्द्रगिरि पर की चिक्कबस्ति, उत्तरीय दरवाजे पर की तीन बस्तियों और मङ्गायि बस्ति का जीर्णोद्धार कराया। लेख नं. ३७० ( २७०) के अनुसार बेगूरु के बैयण ने एक बड़ा होज और छप्पर बनवाया। नं० ४६८ (५००) के अनुसार एक साध्वी स्त्री जिन्न ने एक मन्दिर को रथ का दान दिया, व नं० ४८३ के अनुसार महेय नायक ने एक नन्दिस्तम्भ बनवाया ।
लेखों से तत्कालीन दूध के भाव का अनुमान. अनेक लेखों में मस्तकाभिषेक के हेतु दुग्ध के लिये दान दिये जाने के उल्लेख हैं जिनसे उस समय के दूध के भाव का कुछ ज्ञान हो सकता है। उदाहरणार्थ, शक सं० ११६७ के एक लेख नं. ६५ ( २४५ ) में कहा गया है कि हलसूर के केतिसेट्टि ने गोम्मटदेव के नित्याभिषेक के लिये ३ मान दुध के लिये ३ गद्याण का दान दिया। यह दूध उक्त रकम के ब्याज से जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक लिया जावे । गद्याण दक्षिण भारत का एक प्राचीन सोने का सिक्का है जो करीब दस आना भर होता है, और मान दक्षिण भारत का एक माप है जो ठीक दो सेर का होता है। अतएव स्पष्ट है कि १॥ भर (दो आना कम दो तोला) सोने के साल भर के व्याज से ३६० x ३४२ =२१६० सेर दूध प्राता था। शक सं० ११२८ के लेख नं० १२८ (३३३) से ज्ञात होता
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लेखों से तत्कालीन दूध के भाव का अनुमान १२३ है कि उस समय अाठ ‘हण' का सालाना एक ‘हण' व्याज आ सकता था अर्थात् ब्याज की दर सालाना मूल रकम का अष्टमांश थी। इसके अनुसार शा2) भर सोने का साल भर का ब्याज 5 (पौने चार आना ) भर सोना हुआ। अतएव स्पष्ट है कि शक की बारहवीं शताब्दी के लगभग अर्थात् प्राज से छः सात सौ वर्ष पूर्व दक्षिण भारत में पौने चार आना भर सोने का २१६० सेर दूध बिकता था। इसे आजकल के चाँदी सोने के भाव के अनुसार इस प्रकार कह सकते हैं कि उक्त समय एक रुपया का लगभग साढ़े नौ मन दूध आता था। ___ इसी प्रकार लेख नं०६४ (२४४) में जो नित्यप्रति ३ मान दूध के लिये ४ गद्याण के दान का उल्लेख है उसका हिसाब लगाने से २१६० सेर दूध की कीमत पाँच आना भर सोना निकलती है। शक सं० १२०१ के लेख १३१ ( ३३६ ) में नित्यप्रति एक 'बल्ल दूध के लिये पाँच 'गद्याण' के दान का उल्लेख है जिसके अनुसार ३६० 'बल्ल' दूध की कीमत सवा छः आना भर सोना निकलती है। बल्ल सम्भवतः उस समय 'मान' से बड़ा कोई माप रहा है* ।
* 'गद्याण' और 'मान' का अर्थ मुझे श्रीयुक्त पं० नाथरामजी प्रेमी द्वारा विदित हुआ है। उन्होंने श्रवण वेल्गोला से समाचार में गाकर अपने पहले पत्र में मुझे इस प्रकार लिखा था-"गधाण = यह साप अनुमान १ तोले के बराबर होता है और एक सुवर्ण नाण्य (?) को
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आचार्यों की वंशावली जैन इतिहास की दृष्टि से वे लेख बहुत महत्वपूर्ण हैं जिनमें प्राचार्यों की परम्परायें दी हैं। प्रस्तुत संग्रह के दस बारह लेखों में ऐसी परम्परायें व पट्टावलियाँ पाई जाती हैं। इस सम्बन्ध में सबसे पहले हम उन लेखों को लेते हैं जिनमें उन सुगृहीतनाम आचार्यों का क्रमबद्ध उल्लेख पाया है जिन्होंने महावीर स्वामी के पश्चात् जैन आगम का अध्ययन
और प्रचार किया। ऐसे लेख नं० १ और १०५ ( २५४ ) हैं। इनमें उक्त आचार्यों की निम्नलिखित परम्परा पाई जाती है। मिलान के लिये साथ में हरिवंश पुराण की गुर्वावली भी दी जाती है। भी कहते हैं। मान = यह अनुमान एक सेर के बराबर होता है। इनका प्रचार प्राचीन काल में था अब नहीं है।" इसके पश्चात् उनका दूसरा पत्र आया जिसमें निम्नलिखित वार्ता थी-"गद्याण पुराने समय का सोने का सिक्का है जो करीब दस आने भर होता है। अब यह नहीं चलता। चार गुजाओं का एक हणा, नौ हणाओं का एक बरहा और दो बरहा का एक गद्याण ! मान ठीक दो सेर का होता है । अब इसको 'बल्ला' बोलते हैं। खेड़ों में इसका प्रचार है और अनाज मापने के काम में यह पाता है। पहले दूध, दही, घी भी इससे मापा जाता था।" ऊपर के विवेचन में दूसरे पत्र का ही आधार लिया गया है। इसके अनुसार 'मान' और 'बल्ला' एक ही बराबर ठहरते हैं पर जैसा कि ऊपर कहा गया है, प्राचीन काल का 'बल्ल' सम्भवतः मान से बड़ा रहा है।
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आचार्यों की वंशावली
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११ गणधर ३ केवली
नं० १०५ (२५४) हरिवंश पुराण
नं०१ (शक सं० १३२०) (शक सं० ७०५) (अनु० ७ वीं शताब्दी)
महावीर महावीर महावीर १ इन्द्रभूति । गौतम ) १ गौतम [ १ गौतम २ अग्निभूति | ३ वायुभूति
४ अकम्पन ५ मौर्य
सुधर्म । सुधर्म २ सुधर्म १ २ लोहाचार्य ।७ पुत्र ८ मैत्रेय ६ मौण्ड्य १० अन्धवेल । ११ प्रभासक। जम्बू ३ जम्बू । ३ जम्बू
- ५ श्रुतफेवली
(१ विष्णु १२ अपराजित २३ नन्दिमित्र ४ गोवर्द्धन ५ भद्रबाहु
१ विष्णु (१ विष्णुदेव २ नन्दिमित्र २ अपराजित ३ अपराजित २३ गोवर्धन ४ गोवर्द्धन ४ भद्रबाहु ५ भद्रबाहु
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श्रवणबेलगोल के स्मारक [१ क्षत्रिय
१ विशाख | २ प्रोष्ठिल २ प्रोष्ठिल ३ गङ्गदेव
३ क्षत्रिय ४ जय
४ जय | ५ सुधर्म
५ नाग ६ विजय
६ सिद्धार्थ ७ विशाख ७ धृतिषेण ८ बुद्धिल
८ विजय ६ धृतिषण ६ बुद्धिल १० नागसेन १० गङ्गदेव । ११ सिद्धार्थ ११ धर्मसेन
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११ दशपूर्वी
१ विशाख २ प्रोष्ठिल ३ कृत्तिकार्य __ (क्षत्रिकार्य) १४ जय
५ नाम (नाग) ६ सिद्धार्थ ७ धृतिषण ८ बुद्धिल प्रादि
५ एकादशाङ्गी
१ नक्षत्र २ पाण्डु . ३ जयपाल ४ कंसाचार्य ! ५ द्रुमसेन (धृति- ! । सेन)
१ नक्षत्र २ यश:पाल ३ पाण्डु ४ ध्रुवसेन ५ कंसाचार्य
४ आचारागी
१ लोह १२ सुभद्र । ३ जयभद्र । ४ यशोबाहु
१ सुभद्र २ यशोभद्र ३ यशोबाहु ४ लोहाचार्य
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आचार्यों की वशावली
१२७ यह अङ्गधारी आचार्यों की पट्टावली है । नामों के क्रम में जो हेर फेर पाये जाते हैं, उसका कारण यह है कि लेख नं०१०५ हरिवंश पुराण से भिन्न छन्दों में लिखा गया है। कवि को अपने छन्द में नामों का समावेश करने के लिये उनको इधर उधर रखना पड़ा है। इसी कारण कहीं कहीं नामों में भी हेर फेर पाये जाते हैं । लेख में यश:पाल के लिये जयपाल, धर्मसेन के लिए सुधर्म, और यशोभद्र की जगह जयभद्र नाम आये हैं। ध्रुवसेन की जगह जो लेख में द्रुमसेन पाया जाता है, यह सम्भवत: मूल लेख के पढ़ने में भूल हुई है। लेख नं. १ में जो अधूरी परम्परा पाई जाती है उसका कारण यह ज्ञात होता है कि वहाँ लेखक का अभिप्राय पूरी पट्टावलि देने का नहीं था। उन्होंने कुछ नाम देकर आदि लगाकर उस सुप्रसिद्ध परम्परा का उल्लख मात्र किया है। इसी से श्रुतकेवलियों के बीच एक नाम छूट भी गया है। उक्त लेखों में यद्यपि इन प्राचार्यों का समय नहीं बतलाया गया, तथापि इन्द्रनन्दि-कृत श्रुतावतार से जाना जाता है कि महावीर स्वामी के पश्चात् तीन केवली ६२ वर्ष में, पाच श्रुत केवली १०० वर्ष में, ग्यारह दशपूर्वी ५८३ वर्ष में, पाँच एकादशाङ्गो २२० वर्ष में और चार एकाङ्गी ११८ वर्ष में हुए हैं। इस प्रकार महावीर स्वामी की मृत्यु के पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष व्यतीत हुए थे। ___ बहुत से लेखों में आगे के आचार्यों की परम्परा कुन्दकुन्दाचार्य से ली गई है। दुर्भाग्यतः किसी भी लेख में उपर्युक्त
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प्रवणबेलगोल के स्मारक श्रुतज्ञानियों और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच की पूरी गुरुपरम्परा नहीं पाई जाती। केवल उपर्युक्त लेख नं० १०५ में ही इस बीच के प्राचार्यो के कुछ नाम पाये जाते हैं जो इस प्रकार हैं१ कुम्भ
७ सर्वज्ञ २ विनीत या अविनीत ८ सर्वगुप्त ३ हलधर
६ महिधर ४ वसुदेव
१० धनपाल ५ अचल
११ महावीर ६ मेरुधीर
१२ वीरट्ट इत्यादि नन्दि संघ की पदावली में कुन्दकुन्दाचार्य की गुरुपरम्परा इस प्रकार पाई जाती है :
भद्रबाहु
गुप्तिगुप्त
माघनन्दि
जिनचन्द्र
कुन्दकुन्द इन्द्रनन्दिकृत भुतावतार के अनुसार कुन्दकुन्द उन आचार्यों में हुए हैं जिन्होंने अंगज्ञान के लोप होने के पश्चात् आगम को पुस्तकारूढ़ किया।
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आचार्यो की वंशावली
१२६ कुन्दकुन्दाचार्य जैन इतिहास, विशेषतः दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के इतिहास, में सबसे महत्वपूर्ण पुरुष हुए हैं। वे प्राचीन और नवीन सम्प्रदाय के बीच की एक कड़ी हैं। उनसे पहले जो भद्रबाहु आदि श्रुतज्ञानी हो गये हैं उनके नाममात्र के सिवाय उनके कोई ग्रंथ आदि हमें अब तक प्राप्त नहीं हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य से कुछ प्रथम ही जिन पुष्पदन्त, भूतबलि आदि आचार्यों ने आगम को पुस्तकारूढ़ किया उनके भी ग्रन्थों का अब कुछ पता नहीं चलता । पर कुन्दकुन्दाचार्य के अनेक ग्रन्थ हमें प्राप्त हैं। आगे के प्रायः सभी प्राचार्यों ने इनका स्मरण किया है और अपने को कुन्दकुन्दान्वय के कहकर प्रसिद्ध किया है। लेखों में दिगम्बर सम्प्रदाय का एक और विशेष नाम मूल संघ पाया जाता है। यह नाम सम्भवत: सबसे प्रथम दिगम्बर संघ का श्वेताम्बर संघ से पृथक निर्देश करने के लिये दिया गया। अनुमान शक संवत् १०२२ के शिलालेख नं० ५५ में कुन्दकुन्द को ही मूल संघ के आदि गणी कहा है यथा
श्रीमता वर्द्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । श्रीकोण्डकुन्दनामाभून्मूलसंघाग्रणीगणी ॥
पर शिलालेख नं० ४२, ४३, ४७ और ५० ( क्रमशः शकसं० १०६६, १०४५, १०३७ और १०६० ) में गौतमादि मुनीश्वरों का स्मरण कर कहा गया है कि उन्हीं की सन्तान के नन्दि गण में पमनन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य हुए। लेख
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१३० . श्रवणबेल्गोल के स्मारक नं० ५४ (शक १०५०), ४० ( शक १०८५) और १०८ ( शक १३५५ ) में गौतम स्वामी के उल्लेख के पश्चात् उन्हीं की सन्तति में भद्रबाहु और फिर उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनके ही अन्वय में कुन्दकुन्द मुनि हुए। इन लेखों में इस स्थल पर संघ गणादि का नाम निर्देश नहीं किया गया ।
लेख नं० ४१ में बिना किसी पूर्व सम्बन्ध के यह प्राचार्यपरम्परा भी दी है
कुलभूषण
माघनन्दि
शुभचन्द्र विद्य
चारुकीति पण्डित
माघनन्दि व्रती
अभयचन्द्र
बालचन्द्र पण्डित
रामचन्द्र लेख नं० ४७, ४३, ५० और ४२ में नन्दिगण कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा इस प्रकार पाई जाती है।
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प्राचार्यों का वंशावली
१३१ शक सं० १०८५ के लेख नं. ४० में निम्न प्रकार आचार्य-परम्परा पाई जाती है ---
गौतमादि
(उनकी सन्तान में)
भद्रबाहु
चन्द्रगुप्त
( उनके अन्वय में ) पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द)
(उनके अन्वय में ) उमास्वाति (गृद्धपिञ्छ)
बलाकपिञ्छ
( उनकी परम्परा में) समन्तभद्र
(उनके पश्चात् ) देवनन्दि (जिनेन्द्रबुद्धि व पूज्यपाद)
(उनके पश्चात् )
अकलङ्क (उनकी सन्तति में मूल संघ में नन्दिगण का जो देशीगण प्रभेद हुआ उसमें गोल्लदेशाधिप हुए।)
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श्रवणबेल्गोल के स्मारक
गोल्लाचा
काल्ययोगी
अविद्धकर्ण पद्मनन्दि (कौमारदेव)
mese
कुलभूषण
प्रभाचन्द्र
कुलचन्द्रदेव
माधनन्दि मुनि ( कोलापुरीय )
गण्डविमुक्तदेव
भानुकीति
देवकीति
( स्वर्ग० १०८५) अनुमान शक सं० १०२२ के लेख नं० ५५ की प्राचार्य परम्परा इस प्रकार है
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आचार्यों की वंशावली मूल संघ, देशीगण, वक्रगच्छ कुन्दकुन्द (मूलसंघाग्रणी) ( उनके अन्वय में)
देवेन्द्र सिद्धान्तदेव
चतुर्मुखदेव (वृषभन्धाचार्य) (इनके ८४ शिष्य थे) ।
गोपनन्दि प्रभाचन्द्र दामनन्दि गणचन्द्र माघनन्दि, जिनचन्द्र, देवेन्द्र
| वासवचन्द्र यश:| कीति ,शुभकीर्ति पं.दे.
त्रिमुष्टिमुनि मलधारिहेमचन्द्र मेघचन्द्र कल्याणकीर्ति बालचन्द्र
(गण्डविमुक्त गौलमुनि) मूल पद्यात्मक लेख के पश्चात् आचार्यों के नामों की गद्य में पुनरावृत्ति है। इस नामावली में ऊपर के भाग से कुछ विशेषतायें पाई जाती हैं। मूलसंघ देशीगण, वक्रगच्छ कुन्दकुन्दान्वय में यहाँ देवेन्द्र सिद्धान्तदेव से प्रथम वडदेव का नामोल्लेख है। देवेन्द्र सिद्धान्तदेव के पश्चात् चतुर्मुखदेव का द्वितीय नाम वृषभन्याचार्य दिया है। चतुर्मुखदेव के शिष्यों में महेन्द्रचन्द्र पण्डितदेव का नाम अधिक है। माघनन्दि के शिष्यों में त्रिरत्ननन्दि का नाम अधिक है। यश:कीत्ति और वासवचन्द्र गोपनन्दि के शिष्यों में गिनाये गये हैं। इनमें चन्द्रनन्दि का नाम अधिक है।
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१३४
श्रवणबेलगोल के स्मारक
लेख नं० १०५ ( शक १३२० ) की कुन्दकुन्दाचार्य तक
कुन्दकुन्दाचार्य से
की परम्परा हम ऊपर देख चुके हैं। प्रागे इस लेख की गुरु-परम्परा इस प्रकार है
पुष्पदन्त
कुन्दकुन्द
उमास्वाति (गृद्धपिञ्छ )
बलाक पिछ समन्तभद्र
शिवकोटि
देवनन्दि ( जिनेन्द्रबुद्धि व पूज्यपाद )
भट्टाकलङ्क
जिनसेन
गुणभद्र
दलि
भूतबलि
नेमिचन्द्र
माघनन्दि
( उनके वंश में )
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आचार्यों की वंशावली अभयचन्द्र देव ( इनके अनुज ) श्रुतकीति
श्रुतमुनि
चारुकीर्ति
(इनके प्रशिष्य ) अभिनव श्रु तमुनि
पण्डितदेव (स्वर्ग १३२०) अभिनव पण्डित
लेख नं. १०८ की परम्परा आदि से अकलङ्कदेव तक लेख नं० ४० के समान ही है। अकलङ्कदेव के पश्चात् संघ-भेद हुआ जिसकी इगुलेश बलि की कुछ परम्परा इस प्रकार दी है।
श्रतकीति
चारुकीति
पण्डित
सिद्धातयोगी
अ तमुनि ( स्वर्गवास १३५५)
शक संवत् १२६५ के लेख नं० १११ में मूलसंघ बलात्कार गण की कुछ परम्परा निम्न प्रकार पाई जाती है। लेख बहुत घिसा हुआ हैान के कारण परम्परा के ऊपर और नीचे के कुछ गम स्पष्ट नहीं पढ़े गये।
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श्रवणबेलगोल के स्मारक
मूल संघ - बलात्कार गण
.कीर्त्ति (वनवासि के )
देवेन्द्र विशालकीर्त्ति I शुभकीर्त्तिदेव भट्टारक
धर्म भूषणदेव
....
मरकीर्त्तिश्राचार्य
धर्म भूषणदेव ( की निषद्या बनवाई गई शक सं० १२६५ )
शक सं० १०४७ के लेख नं० ४८३ में नन्दि संघ, द्रमिणगण रुङ्गलान्वय की निम्न प्रकार परम्परा है । इस लेख में प्राचार्यों का गुरु-शिष्य-सम्बन्ध नहीं बतलाया गया केवल एक के पश्चात् दूसरे हुए ऐसा कहा गया है ।
नन्दि संघ, द्रमिणगण, अरुङ्गलान्वय
महावीर स्वामी
I गौतम गणधर
समन्तभद्रवती
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प्राचार्यों की वंशावली
१३७
एक सन्धिसुमति-भट्टारक अकलङ्कदेव वादीभसिंह वक्रग्रीवाचार्य श्रीनन्द्याचार्य सिंहनन्द्याचाय श्रीपाल भट्टारक कनकसेन वादिराजदेव श्रीविजयशान्तिदेव पुष्पसेन सिद्धान्तदेव वादिराज शान्तिषेण देव कुमारसेन सैद्धान्तिक मल्लिषेण मलधारि श्रीपाल विद्यदेव (शक सं० १०४७ में
विष्णुवर्द्धन नरेश ने शल्य ग्राम का दान दिया।) लगभग शक सं० १०६६ के लेख नं० ११३ में उल्लेख है कि देसी गण पुस्तक गच्छ कुन्दकुन्दान्वय के निम्नोल्लिखित प्राचार्यों ने मिलकर पञ्चकल्याणोत्सव मनाया
त्रिभुवनराजगुरु भानुचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती, सोमचन्द्र सि. च०, चतुर्मुख भट्टारकदेव, सिंहनन्दि भट्टाचार्य, शान्ति भट्टारक, शान्तिकीर्ति, कनकचन्द्र मलधारिदेव और नेमिचन्द्र मलधारिदेव ।
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१३८ श्रवणबेल्गोल के स्मारक
शक सं० १०५० का लेख नं० ५४ आचार्यों की नामावली में और प्राचार्यों के सम्बन्ध की बहुत सी वार्ता देने में सब लेखों में विशेष महत्वपूर्ण है। किन्तु दुर्भाग्यवश इस लेख में प्राचार्यों का पूर्वापर सम्बन्ध व गुरु-शिष्य-सम्बन्ध स्पष्टतः नहीं बतलाया गया। इससे इस लेख का ऐतिहासिक महत्व उतना नहीं रहता जितना अन्यथा रहता। इस लेख के आचार्यों की नामावली का क्रम लेख में इस प्रकार है
वर्द्धमानजिन गौतमगणधर भद्रबाहु
चन्द्रगुप्त
कुन्दकुन्द समन्तभद्र--वाद में 'धूर्जटि' की जिह्वा को भी स्थगित करनेवाले । सिंहनन्दि वक्रग्रीव-छः मास तक 'अथ' शब्द का अर्थ करनेवाले । वज्रनन्दि ( नवस्तोत्र के कर्ता) पात्रकेसरि गुरु ( विलक्षण सिद्धान्त के खण्डनकर्ता) सुमतिदेव ( सुमतिसप्तक के कर्ता ) कुमारसेन मुनि चिन्तामणि (चिन्तामणि के कर्ता) श्रीवर्द्धदेव (चूड़ामणि काव्य के कर्ता, दण्डी द्वारा स्तुत्य) महेश्वर (ब्रह्मराक्षसों द्वारा पूजित)
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प्राचार्यों की वंशावलो
१३६ अकलङ्क ( बौद्धों के विजेता, साहसतुङ्गः नरेश के सन्मुख
हिमशीतल नरेश की सभा में ) पुष्पसेन ( अकलङ्क के सधर्म ) विमलचन्द्र मुनि-इन्होंने शैवपाशुपतादिवादियों के लिये 'शत्र ।
भयङ्कर' के भवन-द्वार पर नोटिस लगा दिया था। इन्द्रनन्दि परवादिमल्ल (कृष्णराज के समक्ष) अार्यदेव चन्द्रकीर्ति ( श्रुतविन्दु के कर्ता ) कर्मप्रकृति भट्टारक
श्रीपालदेव मतिसागर
वादिराज-कृत पार्श्वनाथचरित (शक १४७)
से विदिताहोता है कि वादिराज के गुरु मति| सागर थे और मतिसागर के श्रीपाल ।
हेमसेन विद्याधनञ्जय महामुनि दयालपाल मुनि (रूपसिद्धि के कर्ता, मतिसागर के शिष्य) वादिराज (दयापाल के सहब्रह्मचारी, चालुक्यचक्रेश्वर जयसिंह के कटक में कीर्ति प्राप्त की) श्रीविजय ( वादिराज द्वारा स्तुत्य हेमसेन गुरु के समान) कमलभद्र मुनि दयापाल पण्डित, महासूरि
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१४०
श्रवणबेल्गोल के स्मारक शान्तिदेव (विनयादित्य पोय्सल नरेश द्वारा पूज्य) चतुर्मुखदेव (पाण्ड्य नरेश द्वारा स्वामी की उपाधि और पाहवमल्लनरेश द्वारा चतुर्मुखदेव की उपाधि प्राप्त की) गुणसेन ( मुल्लर के ) अजितसेन वादीभसिंह
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amasan
शान्तिनाथ कविताकान्त पद्मनाभ वादिकोलाहल कुमारसेन मल्लिषेण मलधारि (अजितसेन पण्डितदेव के शिष्य, स्वर्गवास
शक सं० १०१०) उपर्युक्त वंशावलियों के प्राचार्यो में से कुछ के विषय में जो खाख़ ख़ास बाते लेखों में कही गई हैं वे इस प्रकार हैं
कुन्दकुन्दाचाय-ये मूल संघ के अग्रगणी थे ( मूलसंघाग्रणीगणी) (५५)। इन्होंने उत्तम चारित्र द्वारा चारण ऋद्धि प्राप्त की थी (४०,४२,४३, ४७,५०) जिसके बल से वे पृथ्वा से चार अंगुल ऊपर चलते थे (१३६) मानों यह बतलाने के हेतु कि वे बाह्य और अभ्यन्तर रज से अस्पृष्ट हैं (१०५)* ।
उमास्वाति-ये गृद्धपिञ्छाचार्य कहलाते थे ( ४०,४३, ४७, ५० ) वे बलाकपिछ के गुरु और तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता थे (१०५)* ।
* इन प्राचार्य के विषय में विशेष जानने के लिये माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के 'रत्रकरण श्रावकाचार' की भूमिका देखिए ।
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प्राचार्यों का परिचय
१४१ समन्तभद्र-ये वादिसिंह, गणभृत और समस्तविद्यानिधि पदों से विभूषित थे ( ४०, ५४, ४६३ ) इन्होंने भस्मक व्याधि को जीता तथा पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्धु, ठक्क (पञ्जाब), काञ्चीपुर, विदिशा ( उज्जैन ) व करहाटक ( कोल्हापूर ) में वादियों को आमन्त्रित करने के लिये भेरी बजाई। उन्होंने 'धूर्जटि'* की जिह्वा को भी स्थगित कर दिया था ( ५४ )। समन्तभद्र 'भद्रमूर्ति जिन शासन के प्रणेता और प्रतिवाद-शैलों को वाग्वज से चूर्ण करनेवाले थे ( १०८)
शिवकाटि-ये समन्तभद्र के शिष्य व तत्त्वार्थसूत्रटीका के कर्ता थे ( १०५ )।
पूज्यपाद-इनका दीक्षा नाम 'देवनन्दि' था, महबुद्धि के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाए तथा इनके पादों की पूजा वनदेवता करते थे इससे विद्वानों में ये पूज्यपाद के नाम से प्रख्यात हुए (४०, १०५)। वे जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि ( टीका ), जैनाभिषेक, समाधिशतक, छन्दःशास्त्र व स्वास्थ्यशास्त्र के कर्ता थे (४०)। हुमच के एक लेख (रि. ए. जै. ६६७) में वे न्यायकुमुदचन्द्रोदय, शाकटायन सूत्र न्यास, जैनेन्द्र न्यास, पाणिनि सूत्र के शब्दावतार
* 'धूर्जटि' की जिह्वा को स्थगित करने का श्रेय गोपनन्दि प्राचार्य को भी दिया गया है (५५, ४६२)। धूर्जटि शङ्कर की उपाधि है व इसका तात्पर्य शङ्कराचार्य से भी हो सकता है क्योंकि शङ्कराचार्य हिन्दू ग्रन्थों में शङ्कर के अवतार माने गये हैं।
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१४२ श्रवणबेल्गोल के स्मारक न्यास, वैद्यशास्त्र और तत्त्वार्थ सूत्रटीका ( सर्वार्थसिद्धि ) के कर्त्ता कहे गये हैं। वे सुराधीश्वरपूज्यपाद, अप्रतिमौषधर्द्धि, 'विदेहजिनदर्शनपूतगात्र' थे। उनके पादप्रक्षालित जल से लोहा भी सुवर्ण हो जाता था (१०८)* ।।
गोलाचार्य-ये मुनि होने से प्रथम गोल्ल देश के नरेश थे। नूत्न चन्दिल नरेश के वंशचूड़ामणि थे (४७)।
काल्ययोगी-इन्होंने एक ब्रह्मराक्षस को अपना शिष्य बना लिया था। उनके स्मरणमात्र से भूत प्रेत भाग जाते थे। उन्होंने करज के तेल को घृत में परिवर्तित कर दिया था (४७)।
गोपनन्दि-बड़े भारी कवि और तर्क प्रवीण थे। उन्होंने जैन धर्म की वैसी ही उन्नति की जैसी गङ्गनरेशों के समय में हुई थी। उन्होंने धूर्जटि की जिह्वा को भी स्थगित कर दिया था (५५-४६२)।
प्रभाचन्द्र-ये धारा के भोज नरेश द्वारा सम्मानित हुए थे (५५)।
दामनन्दि--इन्होंने महावदि विष्णुभट्ट' को परास्त किया था जिससे वे 'महावादिविष्णुभट्टघरट्ट' कहे गये हैं ( ५५ )।
जिनचन्द्र-ये व्याकरण में पूज्यपाद, तर्क में भट्टाकलङ्क और साहित्य में भारवि थे (५५)।
विशेष जानने के लिये माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के रत्नकरण्ड श्रावकाचार की भूमिका व 'जैन साहित्य संशोधक' भा० १ अं० २, देखिए
पृ० ६७-६७ ।
___
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प्राचार्यों का परिचय
१४३ वासवचन्द्र-इन्होंने चालुक्य नरेश के कटक में बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी (५५)।
यशःकीर्ति-इन्होंने सिंहल नरेश से सम्मान प्राप्त किया था ( ५५ )।
कल्याणकीर्ति-साकिनी आदि भूत-प्रेतों को भगाने में प्रवीण थे ( ५५ )।
श्रुतकीर्त्ति--'राघवपाण्डवोय' काव्य के कर्ता थे। यह काव्य अनुलोमप्रतिलोम नामक चित्रालङ्कार-युक्त था अर्थात् वह आदि से अन्त व अन्त से आदि की ओर एक सा पढ़ा जा सकता था। जैसा कि काव्य के नाम से ही विदित होता है वह द्वयर्थक भी था। श्रुतकीर्ति ने देवेन्द्र व अन्य विपक्षियों को वाद में परास्त किया था। सम्भव है कि उक्त देवेन्द्र उस नाम के वे ही श्वेताम्बराचार्य हों जिनके विषय में प्रभावक चरित में कहा गया है कि उन्होंने दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को. . परास्त किया था। (लेख नं० ४० के नीचे का फुटनोट देखिए । )
वादिराज-जयसिंह चालुक्य द्वारा सम्मानित हुए थे ( ५४ )।
चतुर्मखदेव-पाण्ड्य नरेश से स्वामी की उपाधि प्राप्त की थी।
इन आचार्यों के अतिरिक्त अन्य जिन प्रभावशाली प्राचार्यों का परिचय हमें लेखों से मिलता है उनका विवरण ऊपर ऐति
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१४४
श्रवणबेल्गोल के स्मारक हासिक विवेचन में आ चुका है। एक बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जैनाचार्यों ने हर प्रकार से अपना प्रभाव महाराजाओं और नरेशों पर जमाने का प्रयत्न किया था। इसी से वे जैन धर्म की अपरिमित उन्नति कर सके। जैनाचार्यों का राजकीय प्रभाव उठ जाने से जैन धर्म का ह्रास हो गया । ____ अन्य लेखों से जिन आचार्यो का जो परिचय हमें मिलता है वह भूमिका के अन्त में तालिकारूप में दिया जाता है।
संघ, गण, गच्छ और बलि भेद मूलसघ-ऊपर कहा जा चुका है कि लेखों में दिगम्बर सम्प्रदाय को मूल संघ कहा है। सम्भवतः यह नाम उक्त सम्प्रदाय को श्वेताम्बर सम्प्रदाय से पृथक निर्दिष्ट करने के लिये दिया गया है। लेखों में इस संघ के अनेक गण, गच्छ और शाखाओं का उल्लेख हैं। इनमें मुख्य नन्दिगण
है। लेख नं० ४२, ४३, ४७, ५८ नन्दिगण और देशीगण
____आदि में इस गण के आचार्यो की पर
___म्परायें पाई जाती है। सबसे अधिक लेखों में मूल संघ, देशीगण और पुस्तकगच्छ का उल्लेख है। यह देशीगण नन्दिगण से भिन्न नहीं है किन्तु उसी का एक प्रभेद है जैसा कि लेख नं० ४०, ( शक १०८५ ) से विदित होता है। इस लेख में कुन्दकुन्द से लगाकर अकलङ्क तक के
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संघ, गण, गच्छ और बलि भेद
१४५
मुख्य मुख्य आचार्यो के उल्लेख के पश्चात् पद्य नं० १३ में कहा गया है कि इसी मूल संघ के नन्दिगण का प्रभेद देशो गण हुआ जिसमें गोल्लाचार्य नाम के प्रसिद्ध मुनि हुए । लेख नं० १०८ ( शक १३५५ ) में भी इसी के अनुसार नन्दिसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छ का उल्लेख है । 'नन्दिसंघे सदेशीयो गच्छे च पुस्तके' । अन्य अनेक लेखों में भी ( यथा ४७, ५० आदि ) नन्दिगण के उल्लेख के पश्चात् देशोगया पुस्तकगच्छ का उल्लेख है । लेख नं० १०५ ( शक १३२० ) और १०८ ( शक १३५५ ) में सधभेद की उत्पत्ति का कुछ विवरण पाया जाता है । लेख नं० १०५ में कथन है कि लि प्राचार्य ने आपस का द्वेष घटाने के लिये 'सेन', 'नन्दि', 'देव' और 'सिंह' इन चार संघों की रचना की। इनमें कोई सिद्धान्त-भेद नहीं है और इसलिये जो कोई इनमें भेद - बुद्धि रखता है वह 'कुदृष्टि' है। यह कथन इन्द्रिनन्दिकृत नीतिसार के कथन से बिलकुल मिलता है । लेख नं० १०५ में कहा गया है कि प्रकलङ्क के स्वर्गवास के पश्चात् संघ देश-भेद से उक्त चार भेदों में विभाजित हो गया । इन भेदों
*तदैव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तिकाग्रणीः । लिगुरुश्चक्रे संघसंघट्टनं परम् ॥ ६ ॥ सिहसंघो नन्दिसंधः सेनसंघो महाप्रभः । देवसंघ इति स्पष्ट स्थानस्थिति विशेषतः ॥ ७ ॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः केोप्यस्ति प्रवृज्यादिषु कर्मसु ॥ ८ ॥
च
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१४६ श्रवणबेल्गोल के स्मारक में कोई चारित्र-भेद नहीं है। कई लेखों ( १११, १२६ आदि) में बलात्कारगण का उल्लेख है। इन्हीं उल्लेखों से स्पष्ट है कि यह भी नन्दिगण व देशीगण से अभिन्न है।
लेख नं० १०५ में कहा गया है कि प्रत्येक संघ गण, गच्छ और बलि (शाखा) में विभाजित है। देशीगण का
. सबसे प्रसिद्ध गच्छ पुस्तकगच्छ है पुस्तकगच्छ और
भार जिसका उल्लेख अधिकांश लेखों में पाया वक्रगच्छ
__ जाता है। इसी गण का दूसरा गच्छ 'वक्रगच्छ' है जिसकी एक परम्परा लेख नं० ५५ ( लगभग शक १०८२ ) में पाई जाती है। लेख नं० १०५, १०८ व
१२६ में देशीगण की इंगलेश्वरबलि इंगुलेश्वरबलि
" (शाखा) का उल्लेख है। बलि या शाखा किसी आचार्य-विशेष व स्थान विशेष के नाम से निर्दिष्ट होती थी। देशीगण की एक दूसरी 'हनसोगे' नामक हनसोगे व पनसोगे बलि
- शाखा का उल्लेख लेख नं०७० में पाया
" जाता है। लेख घिसा हुआ होने से वहाँ यह स्पष्ट नहीं ज्ञात होता कि यह शाखा देशीगण की ही है। पर जिन आचार्या ( गुणचन्द्र व नयकीर्त्ति) को वहाँ हनसोगे शाखा का कहा है वे ही लेख नं० १२४ में मूल सघ देशीगण, पुस्तकगच्छ के कहे गये हैं। इसी से उक्त शाखा का देशीगणान्तर्गत होना सिद्ध होता है। हनसोगे शाखा का कई अन्य लेखों में भी उल्लेख आया है। हनसोगे एक
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संघ, गण, गच्छ और बलि भेद
१४७ स्थान - विशेष का नाम था । कहीं-कहीं इसे पनसोगबलि भी कहा है । (रि० ए० जै० नं० २२३, २३८, ४४६ आदि )
अनेक लेख (२८, ३१, २११, २१२, २१४, २१८ ) में नविलूर संघ का उल्लेख है । इसी संघ को कहीं-कहीं (२७, २०७, २१५) नमिलूर संघ कहा नबिलूर, नमिलूर है। इसी का दूसरा नाम 'मयूर स ंघ' व मयूर सघ
पाया जाता है ( २७, २८ )।
I
लेख नं० २७ में पहले नमिलुर संघ का उल्लेख है और फिर उसे ही मयूर संघ कहा है। लेख नं० २८ में इसे 'मयूर ग्राम' संघ कहा है जिससे स्पष्ट है कि यह संघ बलि व शाखा के समान स्थान - विशेष की अपेक्षा से पृथक् निर्दिष्ट हुआ है कहीं पर स्पष्ट उल्लेख तो नहीं पाया गया पर जान पड़ता है कि यह भी देशीगण के ही अन्तर्गत है । इसी प्रकार जो लेख नं० १६४ में कितरस च नं० २०३, २०६ में कोलातूर संघ नं० ४६६ में दिण्डिगूर शाखा व नं० २२० में 'श्रीपूरान्वय' का उल्लेख है वे सब भी देशीगण की ही स्थानीय शाखाएँ विदित होती हैं ।
* कित्तर मैसूर जिले के होगाडेवन्कोटे तालुका में है । इसका प्राचीन नाम कीर्तिपुर था जो पुन्नाट राज्य की राजधानी था । कन्नड साहित्य में पुनाट राज्य का उल्लेख है । टालेमी ने भी 'पौन्नट' नाम से इसका उल्लेख किया है । इसी राज्य का पुन्नाद संघ प्रसिद्ध है । हरिवंश पुराण के कर्त्ता जिनसेन व कथाकोष के कर्त्ता हरिषेण पुन्नाट - संवीय ही थे । सम्भवतः कित्तूर संघ पुन्नाट संघ का ही दूसरा नाम है ।
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लान्वय
१४८
श्रवणबेल्गोल के स्मारक लेख नं. ४६३ में द्रमिणगण के अरुङ्गलान्वय का उल्लेख है। इन्द्रनन्दि-कृत नीतिसार व देवसेन-कृत दर्शनसार
में द्राविड़ संघ जैनाभासों में गिनाया गण अरुङ्ग- गया है। पर जिस द्रमिणगण का उक्त
लेख में उल्लेख है वह इस जैनाभास संघ से भिन्न है। उक्त द्रमिण संघ स्पष्टतः नन्दि सघ के अन्तर्गत कहा गया है। लेख नं० ५०० में मूल संघ कारगण, तगरिलगच्छ
___का उल्लेख है। सम्भवतः यह गण कारगरगण,
भी देशीगण व नन्दि संघ से सम्बन्ध तगरिल गच्छ
रखनेवाला ही है। काष्टा संघ लेखनं० ११६ में काष्ठास घमंडितटमण्डितटगच्छ गच्छ का उल्लेख है।
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ऊपर वर्णित लेख नं० ४०,४१,४२,४३,४७,५०,५ लेखों में उल्लिखित श्राचार्यों का परिचय |
नंबर प्राचाय का नाम गुरु का नाम
१ बलदेव मुनि शान्तिसेन मुनि
श्ररिष्टनेमि श्राचा
2
वृषभनंदि श्राचार्य
मौनि गुरु
कनकसेन X
X
× ×
X
संघ, गण, गच्छादि लेख नं० समय
शक सं०म
x
X
१५,१०५, १०८, १११, ११३ और ४६३ को छोड़ शेष
X
१५२ (१५४) (२६७)
१५ ० ५७२ समाधिमरण ।
"
१७
१८६
""
विशेष विवरण
CJE. TALY MATANOLONE A
""
समाधिमरण | भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र ने जिस धर्म की उन्नति की थी उसके क्षीण होने पर इन मुनिराज ने उसे पुनरुत्थापित किया । समाधिमरण । इनके अनेक शिष्य थे । समाधि के समय 'दिण्डिकराज' साक्षी थे । लेख नं० १५४ व २३७ यद्यपि क्रमशः मवीं वीं शताब्दि के अनुमान किये जाते हैं तथापि सम्भवतः उनमें भी इन्हीं प्राचार्य का उल्लेख है। लेख नं० २६७ में वे 'परसमयध्वं - सक' पद से विभूषित किये गये हैं व 'मले गोल' के कहे गये हैं ।
इनके किसी शिष्य ने समाधिमरण किया । ०६२२ एक शिष्या का समाधिमरण । ये ही सम्भवतः लेख नं० 8 के गुगसेन गुरु के व लेख नं० ३१ के वृषभनन्दि गुरु के गुरु थे ।
१४-६
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नंबर प्राचार्य का नाम गुरु का नाम संघ,गण,गच्छादि लेख नं० समय
शक सं०में
विशेष विवरण
६ चरितश्री मुनि ७ पानप (मौनद) ८ बलदेव गुरु
ay wa
"
धर्मसेन गुरु
६ उग्रसेन गुरु । पहिनि गुरु
अ० ६२२ समाधिमरण। " । समाधिमरण ।
। इनके गुरु 'कित्तर' परगने में 'वेल्माद' नामक स्थान
के थे। " । इनके गुरु 'मालनूर' के
थे। उग्रसेनजी ने एक मास
तक अनशन किया। " । लेख नं. २ में सम्भवतः
इन्हीं मौनिगुरु का उल्लेख है। गुणसेन 'कोहर' के थे।
१० गुणसेन गुरु
xx xxx xxxx
मौनि गुरु
xx
११ उल्लिकल गुरु १२ कालावि(कला
पक) गुरु १३ नागसेन गुरु १४ सिंहनंदि गुरु
गुणभूषित
- १४ | "
ऋषभसेन गुरु वेडे गुरु
४
एक शिष्य का समाधिमरण । समाधिमरण । " । लेख बहुत घिसा है, इससे
भाव स्पष्ट नहीं हुआ।
सन्द्विगगण(?). २१
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X
X
x
१६) मेल्लगवास गुरु १७ नन्दिसेन मुनि १८ गुणकीति १३ वृषभनन्दि मुनि सौनियाचा २०| चन्द्रदेवाचार्य
X
२१ मेघनन्दि मुनि २२ नन्दि मुनि २३ महादेव मुनि २४ सर्वज्ञभट्टारक २५ अक्षयकीर्त्ति
२६ गुणदेव सूरि २७ मासेन (महासेन ) ऋषि
२८ सर्वनन्दि
x x x x x
X
xx
c
चिकुरा परविय (?)
X X X
नविलूर संघ
X
नमिलूर संघ
X X
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X
X
१३ | ० ६२२ समाधिमरण । ये गुरु 'इनुङ्गर' के थे ।
39
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25
"
ܙܕ
। ये आचार्य 'नदि' राज्य के थे।
1
ये 'वेरा' के थे ।
| ये दक्षिणा 'मदुरा' से आये थे। इन्हें सर्प ने सताया था ।
| चिकुरा परविय का तात्पय चिकूर के परविय गुरु व चिकुरापरविय के गुरु हो सकता है । 'परवि' एक प्राचीन तालुके का नाम भी पाया जाता है ।
( १५१ )
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________________
नंबर श्राचाय का नाम गुरु का नाम संघ, गण, गच्छादि लेख नं०
२३ बलदेवाचार्य
३० पद्मनन्दि मुनि ३१ | पुष्प नान्द ३२ विशोक भट्टारक ३३ इन्द्रनन्दिश्राचार्य ३४ पुष्पसेनाचाय ३५ श्रीदेवाचार्य ३६ | मल्लिसेन भट्टारक
३७ कुमारनंदिभट्टारक ३८ अजित सेनभट्टारक
""
मुनि
३६ मलधारिदेव
४० पद्मनन्दिदेव
X X X X X X X X
x x
X
X
नयनन्दि विमुक्त
X
X X X X X X
को लातूर संघ
नविलुर संघ
X X
X
x
समय
१६५ श्र०६२२ समाधिमरण ।
""
"
१६६
""
"
१६७
२०३
२०५
२१२
""
२१३
१४६ अनु०हवीं इनके एक शिष्य ने तीर्थ वन्दना की ।
शताब्दि
"}
"
ג,
""
33
""
विशेष विवरण
समाधिमरण ।
""
DEPONERY SAT PRE
२२७
X
६७
३८ अनु०८६६ लेख नं० ३८ में कहा गया है कि गङ्गनरेश मारसिंह ने इनके निकट समाधिमरण किया । व लेख नं० ६७ के अनुसार इनके शिष्य चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन ने जिन मंदिर
बनवाया ।
३०४ अनु०६७० नयनन्दि विमुक्त के एक शिष्य ने तीर्थ वंदना की ।
४६८ श्र०१००० महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल कोङ्गाल्व ने
( १५२ )
Page #174
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________________
४३ प्रभाचन्द्रसिद्धान्त
x
x
कुछ भूमि का दान दिया। ५०० अ०१००१ चैत्यालय के हेतु कोङ्गाल्व नरेश अदटरादित्य
द्वारा भूमिदान । उपाधि-उभयसिद्धान्तरना
देव
(१५३ )
४२ गण्डविमुक्तदेव x मूलसंव
" कोङ्गाल्वनरेश राजेन्द्र पृथुवी द्वारा बस्तीकानूर गण
निर्माण और भूमिदान ।
तगरिल गच्छ ४३ देवनन्दि भट्टारक
४
४५६ अ०१००० ४४ गोपनन्दि पण्डित चतुमुखदेव मू० दे० पु. ४६२ १०१०१५पारसलनरेश त्रिभुवनमल्ल एरेयङ्ग ने बस्तियों
के जीणोद्धार के हेतु ग्राम का दान दिया। गोपनन्दि ने क्षीण होते हुए जैनधर्म का गङ्ग नरेशों की सहायता से पुनरुद्धार किया।
वे षड्दर्शन के ज्ञाता थे। ४५ देवेन्द्रसिद्धान्तदेव
" उपर्युक्त नरेश के गुरुत्रों में से थे। ४६ अकलङ्क पण्डित
१६६ अ०१०२० ४७ सातनन्दि देव
२२४ " चरणचिह्न हैं। ४८ चन्द्रकीत्तिदेव ।
२२५ ४६ अभयनन्दिपण्डित
२२ अ०१०२२ एक शिष्य ने देववन्दना की। १० शुभचन्द्रसि० देव कु०मलधारिदेव मू० दे० पु. ४६०३७ ये पोसल नरेश विष्णुवर्धन के मनी
५६१०३६ गंगराज दण्डनायक और उनके कुटुंब ४५,६३ १०४० के गुरु थे। इन्होंने उक्त कुटुम्ब के सदस्यों ६४६५, से कितने ही जिनालय निर्माण कराये,
"
Ꮃ
x xxxx
"x xxx
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________________
नंबर प्राचार्य का नाम, गुरु का माम संघ,गण,गच्छादि लेख नं० समय
विशेष विवरण
raswamwrsamMegamayawamanaraEAUMIHAR
जीर्णोद्धार कराया, मूर्तियां प्रतिष्ठित ४४७,
कराई और कितनों ही को दीक्षा, ४८६, १०१०४१ संन्यास आदि दिये।
४६ १०४२ ४८,६२ १०४४
५३ १०५० १० अ०११०० १३६ १०४१ इस लेख से यह गुरुक्रम विदित होता है
देवेन्द्र सि० देव दिवाकरनन्दि
(१५४ )
५१ दिवाकरनन्दि | देवेन्द्र सि० देव मू० दे० पु.
१२ भानुकीति मुनि १३ प्रभाचन्द्रसि देव मेघचन्द्रदेव
मू० दे०
मलधारिदेव शुभचन्द्र देव सि० मु० २२६ १०३६ फेोयसल राजसेट्टि ने इनसे दीक्षा ली। ५१,१२ १०४१ इनकी एक शिष्या ने पदृशाला ( वाचना.
४४ १०४३ लय) स्थापित कराई। ये विष्णुवद्धन ५३ १.४५नरेश की रानी शान्तलदेवी के गुरु थे।
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________________
२४ चारुकीत्ति देव ५५ कनकनन्दि
५६ वर्धमानदेव २७ रविचन्द्रदेव | २८ गण्ड विमुक्त सि०
देव नयकीर्त्ति
५६
X X
X
Xx
x
X X
X
X
मू० दे० पु०
X
X
६० कल्याणकीत्ति ६१ | भानुकीर्तिदेव
X
६२ माधवचन्द्रदेव शुभचन्द सि० देव मू० दे० पु० ६३ नीतिदेव (म०म० (हिरिय ) ६४ | नयकीर्ति देव
( चिक्क ) ६५ | शुभकीर्तिदेव
XXX
x
सवति गन्ध
१०५० | उसके निर्माण कराये हुए वारण मन्दिर के लिये इन्हें ग्राम आदि के दान दिये गये थे ।
""
३६८
लेख के लेखक बोकिमय्य के गुरु । १०४३ ये मुल्लर निवासी थे (मुल्लूर कुर्ग में है)। नृपकाम पोटल के श्राश्रित एचिगाङ्क के गुरु थे । १०५० इनकी और प्रभाचन्द्र सि० देव की साक्षी से शान्तलदेवी की माता ने संन्यास लिया था । १०५० इनके शिष्य दण्डनायक भरतेश्वर ने भुज२४१ अ०१०७० बलि स्वामी का पादपीठ निर्माण कराया । १०५० विष्णुवर्धन नरेश के राज्यकाल में नयकीर्त्ति का स्वर्गवास हो जाने पर कल्याणकीर्ति को जिनालय बनवाने व पूजनादि के हेतु भूमि का दान दिया गया ।
४६७
"
४४
५३
१४४ श्र० १०५७
,,
""
४५४ ०१०६५
१८८०१०६७
( १५५ )
Page #177
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________________
नंबर प्राचार्य का नाम गुरु का नाम संघ,गण,गच्छादि लेख नं०
समय
विशेष विवरण
xxx
मूलसंघ
X
त्रिकालयोगी ।
४७३ अ०१०६७/ अभयदेव ६८ कु. मलधारि
१३७ १०१०८७ हुल्ल मंत्री के गुरु । देव नयकीति सि० गुणचन्द्र सि. मू० दे० पु० " " हुल्ल मंत्री ने ग्राम का दान दिया। देव (म०म०) दे०हनसोगे शाखा ७८१०२०
१२२ ३१७-२०
३२४
( १५६ )
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३२६ ३२७
" "
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१३८ १०८, १३७ अ०१०८७
७० दामनन्दिन
देव । ७१/ भानुकीति
सि० देव ७२ बालचन्द्रदेव ] म. म. नय- मू० दे० पु०
अध्यास्मि ।। कीति देव हनसोगे शाखा ७३/ प्रभाचन्द्रदेव ) .
७०" १०१२ ४६१ " १०६५ कुन्दकुन्दाचाय के प्राभृत त्रय पर इनकी १० ॥ ११०० कनाड़ी टीका पाई जाती है।
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________________
१८७
| " ११०२ ,, ११०३
माघनन्दि )
भट्टारक ७५ पमनान्ददेव
मत्रवादि ७६) नेमिचन्द्रपं०
देव
१२४ ४२६ ४६४
११०४ अ०१११८
३२५
३२८)
१२८ ८१
" ११२० |" ११२८ अ०११५३
( १५७ )
७७ लक्खनन्दि मुनि
देवकीत्ति मुनि बड़े भारी कवि, तार्किक
और वक्ता थे । उक्त तिथि को उनका स्वर्ग७८ माधवचन्द्र देवकीति म०म० x ३६ द्रती
१०१२वास होने पर उक्त शिष्यों ने उनकी ७६ त्रिभुवनमल
निषद्या बनवाई। योगी । ८० मेघचन्द्र भालचंद्र अध्यात्मी मू० दे० पु. ४६६ ११०८ इनके एक शिष्य रामदेव विभ्र ने जिनालय ८१ नयकीति देव (हिरिय) नय- ४ ४७५ अ०१११७ बनवाया व दान दिया।
कीत्ति देव २२ धनकीति देव x ४ २४३ १०१११२
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________________
नंबर आचार्य का नाम गुरु का नाम संव,गण,गच्छादि लेख नं० समय
Jail Education International
विशेष विवरण
x
x
xxx
८८,८४ अ. १३०८
११२० २३८ अ. ११२० २५१ " इनकी प्रतिमा है।
,
x x
४७१
८३ चन्द्रप्रभदेव हिरियनयकीति
म० म० ८४ चन्द्रकीर्ति
कनकनन्दिदेव ८६ मल्लिषण
सागरनन्दि शुभचन्द्र सि. देव
देव शुभचन्द्र त्रै० माघनन्दिसि०
देव ८९ वादिराज ___०मल्लिषेण मलधारि
श्रीपालयोगीन्द्र x १२ वादिराजदेव श्रीपाल योगीन्द्र १३ शान्तिसिंगपण्डित ६४ परवादिमल्ल
पण्डित । . ११नमिचन्द्र पं०देव
म०म०राजगुरु
( १५८ )
४६५० ११२२
xxx
x x
x
x
x x
x
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________________
६६ अभयनन्दि
सुरकीत्ति गुणचन्द्र
६ ६
भानुकीत्ति १०० माघनन्दि भट्टारक १०१ चन्दप्रभदेव
१०२ चन्द्रकीर्त्ति भट्टारक १०३ प्रभाचन्द्र भट्टारक १०४ सुनिचन्द्रदेव
१०५ पद्मनन्दिदेव
१०६
कुमुदचन्द्र
१०७ माघनन्दि सि० च०
x
X
X
2
माघनन्दिसि ०च० मू० दे० पु० भानुकीति नयीति देव
म० म०
X
X
उदयचन्द्रदेव
म० म०
चन्द्रप्रभदेव
X
X
X X
x
X X X
X X X
४३१ ०११७६
23
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४६६
ܙܕ
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27
१३७०
६६ ०१:३६
१२६
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६३ अ ०११६७
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६४,६७
१३७ १२०० इन श्राचार्यों और अन्य सम्यनों ने चन्दा
किया ।
""
१२०५
"
होय्सलराय राजगुरु । सम्भवतः ये ही उस शास्त्रसार के कर्ता हैं जिसका उल्लेख प्रारम्भ के एक श्लोक में श्राया है। माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला नं० २१ में एक 'शास्त्रसार समुच्चय' नामक ग्रन्थ छुपा है और भूमिका में कहा गया है कि सम्भवतः वे कुमुदचन्द्र के गुरु थे । ( देखा मा० ग्र० भूमिका पृ० २३-२४ )
( १५८ )
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________________
S
नंबर प्राचार्य का नाम गुरु का नाम संघ, गण, गच्छादि लेख नं० समय
१०८ बालचन्द्रदेव नेमिचन्द्र पं० देव मू० दे० इंगिले
श्वर बलि
X
१० ६ अभिनव पण्डिता
चाय
S
११०
पद्मनन्दिदेव १११ चारुकीत्ति पं०
आचार्य
११२ " (अभिनव
S
X
११८
११६ पण्डिताचार्य व
त्रविद्यदेव
X
११३ मल्लिषेणदेव लक्ष्मीसेन भट्टारक ११४ सोमसेनदेव
पण्डितदेव १२० श्रुतमुनि
X
११५ भुवन
१२६ सिहनन्दिश्राचार्य
X
११७ हेमचन्द्रकीत्ति देव शान्तिकीत्ति देव
चन्द्रकीति
X
X
X
X
पण्डिताय मुनि
मु०
>>
X X X
X X X X
X
पु०
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४६० अ०
४२१ श्र. १२३३ /
""
११४. १२३८ समाधि मरण ।
४३२. ११३६
१३२ अ. १२४७ एक शिष्य ने मां गायिवस्ति निर्माण कराई ।
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४३०
२४७ . १३२० निषद्या ।
"" ३७१
३७२
३७४
" ११२
"
"
विशेष विवरण
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एक शिष्य ने बन्दना की । निषद्या ।
निषद्या ।
१०६
१३३१ भूमिदान |
४२८ . १३३० इनकी शिष्या देवराय महाराय की रानी भीमादेवी ने मूर्ति प्रतिष्ठा कराई। १३४४ | इनके समक्ष दण्डनायक इरुगप ने बेल्गोल
१२६
८२
( १६० )
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________________
x
ग्राम का दान दिया। ४ २२ अ०१३६. संघ सहित बन्दना को आये ।
x
१२१ जिनसेन भट्टारक
| ( पट्टाचार्य ) १२२ अभिनव पण्डित चारुकीत्ति पं. देव
देव पण्डितदेव
x
x
४८४/०१४२०
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x x
xxx xx
१२४ चारुकीर्तिभट्टारक १२५ पण्डितदेव १२६ ब्रह्मधर्मरुचि) १२७, "गुण सागर
अभयचन्द्रभट्टारक १२८ चारुकीर्तिपं० देव
xx
३७७ अ०१५२० चरणचिह्न । ११७ अ०१५३३ ३३३ संवत् १५- यात्रा।
५८(वि.) ८४ १५५६ इनके समक्ष मैसूर-नरेश ने मन्दिर की १४२ १५६५ भूमि ऋणमुक्त कराई।
स्वर्गवास।
x
१२६ धर्मचन्द्र
चारुकीति
बलात्कार गण
११८ १५७० इनके उपदेश से वधेरवालों ने चौबीस
तीर्थकर प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई । ११६ १६०२ इनके साथ तीर्थ-यात्रा।।
१३० श्रुतसागर बर्णी
xx
१३१) इन्द्रभूषण
राजकीति के । शिष्य लक्ष्मीसेन
११६ वि० सं० इनके साथ वघेरवालों ने तीर्थयात्रा
१७१६ की।
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________________
नंबर प्राचार्य का नाम गुरु का नाम संघ,गण,गच्छादि लेख नं० समय
विशेष विवरण
anumari
१३१, अजितकीति
चारुकीति
देसी गण
७२ १७३१ एक मास के अनशन से सल्लेखना ।
अजितकीति
शान्तिकीति
x
१३३ चारुकीति पं०
भू० दे० पु.
आचाय
४३३ १७३२ । मैसूर-नरेश कृष्णराज की ओर से सनदें ४३४१७५२ / प्राप्त की। ४३५१७७८ इनके मनोरथ से बिम्बस्थापना की गई।
१३४ सन्मतिसागरवर्णी चारुकीति गुरु
( १६२ )
m mmyy
"
४३६१७८०
संकेताक्षरों का अर्थ अ० व अनु० = अनुमातः । कु. = कुक्कटासन । त्रै० देव =विद्यदेव । ५० प्राचार्य = पंडिताचार्य । ६० देव पंडितदेव । ब्रह्म = ब्रह्मचारी। म०म० = महामण्डलाचार्य। मू० दे० पु. = मूल संघ, देशीगण, पुस्तकगच्छ। सि० देव = सिद्धान्तदेव । सि. च० = सिद्धान्त चक्रवर्ती । सि. मु. = सिद्धान्त मुनीश्वर ।
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________________
Page #185
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________________
VA
चन्द्रगिरि पर्वत ।
3
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
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________________
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________________
पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की
ओर के शिलालेख
१ (१)
( लगभग शक सं० ५२२ ) सिद्धम् स्वस्ति।
जितम्भगवता श्रीमद्धर्म तीर्थ-विधायिना । वर्द्धमानेन सम्प्राप्त-सिद्धि-सौख्यामृतात्मना ॥ १ ॥ लोकालोक-द्वयाधारम्वस्तु स्थास्नु चरिष्णु वा । *संविदालोक-शक्तिः खाव्यश्नुते यस्य केवला ॥२॥ जगत्यचिन्त्य-माहात्म्य-पृजाति रायमीयुषः । तीर्थकृन्नाम-पुण्यौघ-महाहन्त्यमुपेयुषः ॥ ३ ॥ तदनु श्री-विशालयम् (लायाम) जयत्यद्य जगद्धितम् । तस्य शासनमव्याज प्रवादि-मत-शासनम् ॥ ४॥
अथ खलु सकल-जगदुदय-करणोदित-निरतिशय-गुणास्पदीभूत-परमजिन-शासन-सरस्समभिवर्द्धित - भव्यजन • कमलविकसन-वितिमिर-गुण-किरण-सहस्र-महोति महावीर-सवितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि - गौतम - गणधर - साक्षाच्छिष्य
* सच्चिदा
विशालेयत् ।
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । लोहार्य-जम्बु - विष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल-कृत्तिकार्य - जयनाम-सिद्धार्थधृतिषेणबुद्धिलादि-गुरुपरम्परीणकमाभ्यागत - महापुरुष - सन्तति-समवद्योतितान्वय-भद्रबाहु-स्वामिना उज्जयन्यामष्टाङ्ग-महानिमित्त-तत्वज्ञेन त्रैकाल्य-दर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्वस्सङ्घ उत्तरापथादृक्षिणापथम्प्रस्थितः क्रमेणैव जनपदमनेक-ग्राम-शत-सङख्यं मुदितजन-धन-कनक-सस्य-गो-महिषा-जावि-कुल-समाकीर्णम्प्राप्तवान् [1] प्रतः आचार्यः प्रभाचन्द्रो नामावनितल-ललाम-भूतेऽथास्मिन्कटवम-नामकोपलक्षिते विविध-तरुवर - कुसुम - दलाबलि-विरचना-शबल-विपुल सजल-जलद - निवह - नीलोपल - तले वराह- द्वीपि-व्याघ्रः-तरतु-व्याल-मृगकुलोपचितोपत्यक-कन्दरदरी-महागुहा-गहनाभोगवति समुत्तुङ्ग-शृङ्ग सिखरिणि जीवितशेषमल्पतर-कालमवबुध्यात्मनः सुचरित - तपस्समाधिमाराधयितुमापृच्छर निरवसेषेण सङ्घ विसृज्य शिष्येणैकेन पृथुलतरास्तीर्ण-तलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं संन्यस्याराधितवान् क्रमेण सप्त-शतमृषीयामाराधितमिति जयतु जिन-शासनमिति ।
२(२०)
(लगभग शक सं० ६२२) अदेयरेनाड चित्तूर मौनिगुरवडिगल शिषित्तियर् नागमतिगन्तियर् मूरु तिङ्गल नोन्तु मुडिप्पिदर् ।
* क्षत्रिकाh | प्रभाचन्द्रण + अध्वनः 8 सुचकितः
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
[ श्रदेयनाडु में चित्तूर के मौनि गुरु की शिष्या नागमति गन्तियर ने तीन मास के व्रत के पश्चात् शरीरान्त किया । ] ३ ( १२ )
( लगभग शक सं० ६२२ )
1
श्री । दुरिताभूद् वृषमान्कील्तलरे पोदेदज्ञानशैलेन्द्रमान्पोल् दुर- मिथ्यात्व-प्रमूढ़-स्थिरतर- नृपनान्मेटिंगन्धेभमयदान् । सुरविद्यावल्लभेन्द्रास्सुरवर मुनिभिस्तुत्य कल्बप्पिनामेल् चरितश्री नामधेयप्रभुमुनिन्त्रतगल् नान्तु सौख्यस्थनाय्दान् ||
[ पाप, अज्ञान व मिथ्यात्व को हत और इन्द्रियों का दमन कर कटवप्र पर्वत पर चरितश्री मुनि-व्रत पाल सुख को प्राप्त हुए । ] ४ ( १७ )
( लगभग शक सं० ६२२ ) गनोन्तु मुडिप्पिदर | [ व्रतधार प्राणोत्सर्ग किया । ]
५ (१८)
( लगभग शक सं० ६२२ )
स्वस्ति श्री जम्बुनाथ गिर तील्थदोलू नान्तु मुडिप्पिदम् । [ जम्बुनाथगिर ने व्रतपाल प्राणोत्सर्ग किया । ] ६ ( ८ )
( लगभग शक सं० ६२२ ) श्री ने डुबोरेय पानप -भटारनन्तु मुडिप्पिदार् ।
पल्लवनरेश नन्दिवर्म के एक दानपत्र में अदेयरराष्ट्र का उल्लेख श्राया है। संभव है श्रदेरेनाहु भी उसी का नाम हो (इंडि. एन्टी. म,
१६८)
* मौनद ।
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । [ नेडुबोरे के पानप भटार ने व्रतपाल प्राणोत्सर्ग किया।]
७(२४)
( लगभग शक सं० ६२२ ) श्री कित्तरा वेल्माददा धम्मसेनगुरवडिगला शिष्यर् बालदेवगुरवडिगल सन्यासनं नोन्तु मुडिप्पिदार् ।
[कित्तूर में वेल्माद के धर्मसेनगुरु के शिष्य बलदेवगुरु ने सन्यासव्रत पाल प्राणोत्सर्ग किया।
८(२५)
( लगभग शक सं० ६२२) श्री मालनूर पहिनि गुरवडिगल शिष्यर उग्रसेनगुर• वडिगल ओन्दु तिङ्गल सन्यासनं नोन्तु मुडिपिपदार।
[मलनूर के पट्टिनिगुरु के शिष्य उग्रसेनगुरु ने एक मास तक सन्यास-व्रत पाल प्राणोत्सर्ग किया।]
(८) (लगभग शक सं० ६२२) श्री अगलिय मौनिगुरवर शिष्य कोहरद गुणसेनगुरवन्तॊन्तु मुडिप्पिदार।
[अगलि के मौनिगुरु के शिष्य कोटर के गुणसेन गुरु ने व्रत पाल प्राणोत्सर्ग किया।] .
... १० (७) ....... (लगभग शक सं०.६२२) श्री पेरुमालु गुरवडिगला शिष्य धरणे कुत्तारेविगुरवि...डिप्पिदार।
* एचि ।
जार
•
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । [पेरुमालुगुरु की शिष्या धण्णेकुत्तारेविगुर्राव (१) ने ...... प्राणोत्सर्ग किया ।
११ (६)
( लगभग शक सं० ६२२) श्री उल्लिकल्गोरवडिगल नोन्तु......दार् ।
[उल्लिकल गुरु (या उल्लिकल के गुरु) ने व्रत पाल प्राणो. त्सर्ग किया ]
१२ (५)
(लगभग शक सं० ६२२) श्रोतीवंद गारवडिगल नो..... [ तीर्थदगुरु (या तीर्थ के गुरु) ने व्रत पाल (प्राणोत्सर्ग किया)]
१३ (३३) ( लगभग शक सं० ६२२) श्री कालाविर्गुरवडिगल शिष्यर तरकाड पेर्जेडिय मोदेय कलापकद गुरवडिगल्लिप्पत्तोन्दु दिवसं सन्यासनं नान्तु मुडिप्पिदार।
[तलेकाडु में पेल्जेडि के कलापक* गुरु कालाविर गुरु के शिष्य ने इक्कीस दिन तक सन्यास बत पाल प्राणोत्सर्ग किया।
१४ (३४) ( लगभग शक सं० ६२२) श्री-ऋषभसेन गुरवडिगल शिष्यर नागसेन गुरवडिगल सन्यासनविधि इन्तु मुडिप्पिदार् ।
* कलापक का शब्दार्थ मुञतृण या समूह होता है।
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । नागसेनमनघं गुणाधिक नागनायकजितारिमण्डलं । राजपूज्यममलश्रीयाम्पदं कामदं हतमदं नमाम्यहं ॥
[ऋषभसेनगुरु के शिष्य नागसेनगुरु ने सन्यास-विधि से प्राणोत्सर्ग किया।
१५ (२)
( लगभग शक सं० ५७२) श्री । उद्यानजितनन्दनं ध्वनदलिव्यासक्तरक्तोत्पल
व्यामिश्रीकृता-शालिपिजरदिशं कृत्वा तु बाह्याचलं । सर्वप्राणिदयार्थदाधिभगवद्ध्यानेन सम्बोधयन आराध्याचलमस्तके कनकसत्सेनोत्भवत्सत्पति ॥ १ ॥ अहो बहिग्गिरिन्त्यक्त्वा बलदेवमुनिश्श्रीमान् । पाराधनम्प्रगृहीत्वा सिद्धलोकं गतप्नः ॥२॥
१६ ( ३०)
(लगमग शक सं० ६२२) श्री ..म्मडिगल नोन्तु कालं केयदार् । [...म्मडिगल ने व्रत पाल देहोत्सर्ग किया।]
१७-१८ (३१)
(लगभग शक सं० ५७२) श्री -भद्रबाहु सचन्द्रगुप्तमुनीन्द्रयुग्मदिनोप्पेवल ।
भद्रमागिद धर्ममन्दु वलिक्केवन्दिनिसल्कलो ।।
+ ब्यापि श्रीकृत
भगवना (ज्ञा) नेन (नया एडीशन)
___
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । विद्रुमाधर शान्तिसेनमुनीशनाकिएवेल्गोल । अद्रिमेलशनादि विट्टपुनर्भवक्केरे आगि ..॥
[जो जैन-धर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था उसके किञ्चित् क्षीण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया। इन मुनियों ने वेल्गोल पर्वत पर अशन श्रादि का त्याग कर पुनर्जन्म को जीत लिया।]
१८ ( ३२)
(लगभग शक सं० ६२२) श्री वेट्टेडे गुरवडिगल्मायाकस्सिङ्गन्दिगुरवडिगल्नोन्तुकालं-केयदा । [वेटेडेगुरु के शिष्य सिंहनन्दिगुरु ने व्रत पाल देहोत्सर्ग किया ]
२० (२६) ( लगभग शक सं० ६२२)
......यरुल्लरि पीठ दिल्दो नान् ......तारि कुमाररि नर्चिकेययेतां स्थिरदरलिन्तुपेगुरम सुरलोकविभूति एय दिदार ।
[......इस प्रकार पेगुरम (?) ने सुरलोक विभूति को ‘प्राप्त किया।
२१ (२६)
(लगभग शक सं० ६२२) स्वस्ति श्रीगुणभूषितमादि उलाडग्देरिसिदा निसिदिगे सद्धम्मगुरुसन्तानान् सन्द्विग-गणता-नयान् गिरितलदामे
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । लति......स्थलमान तीरदाणमाकेलगे नेलदि मानदा सद्धम्मदा गेलि ससानदि पतान् । [ इस लेख का भाव स्पष्ट नहीं हुआ।
२२ (४८) ( लगभग शक सं० १०२२) श्री अभयणन्दि पण्डितर गुड़ कोत्तय्य बन्दिल्लि देवर बन्दिसिद।
[अभयनन्दि पण्डित के गृहस्थ शिष्य कोत्तय्य ने यहां श्राकर देव-बन्दना की।
२३ (२८)
(लगभग शक सं०६२२) स्वस्ति श्रीइनुङ गरा मेल्लगवासगुरवकल्बप्पबेष्टम्मेल्कालं केयदार्।
[ इनूङ गूर के मेल्लगवासगुरु ने कल्वप्प (कटवप्र) पर्वत पर देहोत्सर्ग किया।]
२४ (३५)
(लगभग शक सं० ७२२) स्वस्ति .समधिगतपञ्चमहाशब्दपदडकेदलिध्वजसाम्या.. महामहासामन्ताधिपति श्रीबल्लभ "हा-राजाधिराज'.. मेश्वर-महाराजरा मगन्दिर् रणावलोक-श्रीकम्बय्यन् पृथुवीराज्यं गेये बरसल्वप्पु ल पेर्गस्वप्पिना पालदिन्न
*चे
la
___
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________________
चन्द्रगिरि पर्वत पर कं शिलालेख । . उदु कोदृदु 'सेन अडिगलो मनसिजरा ‘गनाअरसि बेनेएत्ति मौनमुज्जमिसुवल्लि कोट्टटु पोलमेरे तदृग्गेरेय किल्करे पौगि अक्षरकल्ल मेगे अल्लिन्दा वसेल कर्गलमारदु सल्लु पेरिय पाल
'वारि मरल पुणुसपेरि''तोरेयु आलरे मेरे दुवेट्टगे निरुकल्लु कोवदा पेरिय एलवु अल्लि कुडित्तु अरसरा श्रीकरणमुं...... .............'गादियर दिण्डिगगामुण्डरुम् एनवरुवङ्गरुवल्लभ-गामुण्डरुम रुन्दि वञ्चरु रुण्डि मारम्मनुकादलूर श्रीविक्रम-गामुण्डरुं कलिदुर्गगामुण्डरुं अगदिपो..... ...'यरर'' ''रणपारगामुण्डलं अन्दमासल उत्तम गामुण्डलं नविलूर नालगामुण्डरुं बेल्गोलद गोविन्दपा. डिय उ.. ल्लामन्दु बेल्गोलदा वलि गोविन्दवाडिग कोट्टदु.
बहुभिर्वसुधाभुक्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तदा फलं ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते क्रमिः ॥ॐ [ श्रीबल्लममहाराज के पुत्र महासामन्ताधिपति रणावलेाक श्रीकम्बय्यन् के राज्य में मनसिज (?) की राज्ञी के व्याधि से मुक्त होने के पश्चात् मौन व्रत समाप्त होने पर कुछ भूमि का दान दिया गया था, जिसकी सीमा आदि लेख में दी है। लेख दान की शपथ के साथ समाप्त होता है।
* ये दो श्लोक नये एडीशन में बहुत अशुद्ध हैं। उसमें 'यदाभूमि' के स्थान पर 'यथाभूमि' व 'स्वदत्तं' 'परदत्त' 'हरन्ति' 'पृष्ठायां' पाठ हैं ।
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१०
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
२५ * (६१) ( लगभग शक सं० ८२२ ) श्रीमत्’`````पु’''शिष्यर्न रिट्टो नेमि माडिसिहर सिहं
. के शिष्य धरिट्टोनेमि ने बनवाया ।]
* भरतेश्वर की मूर्ति के दक्षिण की ओर ।
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शासनवस्ति के पूर्व की ओर के
शिलालेख
२६ (८८)
( लगभग शक सं० ६२२) सुरचापंषोले विद्युल्लतेगल तेरवोल्मन्जुवोल्तारि बेगं। पिरिगुं श्रीरूप-लीला-धन-विभव-महाराशिगल्निल्लवार्ग । परमार्थ मेच्चेनानीधरणियुलिरवानेन्दु सन्यासन-गे। यदुरु सत्वननन्दिसेन प्रवर-मुनिवरन्देवलोककेसन्दान् ।।
रूप, लीला, धन व विभव, इन्द्र-धनुष, बिजली व ओसबिन्दु के समान क्षणिक हैं, ऐसा विचारकर नन्दिसेन मुनि ने सन्यास धार सुरलोक को प्रस्थान किया।]
२७ (११४)
( लगभग शक सं० ६२२) श्री ।। शुभान्वित-श्रीनमिलूरसङ्घदा । प्रभावती...... । प्रभाख्यमी-पर्वतदुल्ले नोन्तुताम् । स्वभाव-सौन्दर्य-कराङ्ग..
राधिपर ।। ग्रामे मयूरसङ्घऽस्य प्रार्यिका दमितामती। कटवप्रगिरिमध्यस्था साधिता च समाधिवा ।।
[ नमिलूरसंघ की प्रभावती ने इस पर्वत पर व्रत धार दिव्य शरीर प्राप्त किया।
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१२
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । [ मयूरग्रामसंघ की आर्यिका दमितामती ने कटवा पर्वत पर समाधि-मरण किया।]
२८ (६८)
(लगभग शक सं०६२२) श्री ॥ तपमान्द्वादशदा विधानमुखदिन् केरदोन्दुताधात्रिमेल ।
चपलिल्ला नविलूर सङ्घदमहानन्तामतीखन्तियार ।। विपुलश्रोकटवप्रनल गिरियमेल्नोन्तोन्दु सन्मार्गदिन् ।
उपमील्या सुरलोकसौख्यदेडेयान्तामेरिद इल्दाल मनम् ।। [ नविलूर संघ की अनन्तामती-गन्ति ने द्वादश तप धार कटवप्र पर्वत पर यथाविधि व्रतों का पालन किया और सुरलोक का अनुग्म सुख प्राप्त किया।
२८ (१०८)
(लगभग शक सं० ६२२) श्री ।। अनवरतन्त्रालम्पि भृत-शय्यममेन्ते विच्छेयं वनदोलयोग्य... नक्कुमदि......गलो... मनवमिकुत......रदि...नोन्तुसमाधिकूडिदों अनुपम दिव्यप्पदु सुरलोकद मार्ग दोलिल्दरिन्बिनिम् ।। मयूरप्रामसंङ्घस्य सौन्दर्या-प्रार्य-नामिका । कटप्रगिरिशैलेच साधितस्य समाधितः ।।
[ उत्साह के साथ प्रात्म-संपम-सहित समाधि व्रत का पालन किया और सहज ही अनुपम सुरलोक का मार्ग ग्रहण किया । (1)}
[मयूरग्रामसंघ की प्रार्या ने कटवा पर्वत पर समाधि-मरण किया।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
- ३० (१०५)
( लगभग शक सं० ६२२) अङ्गादिनामननेकं गुणकीति देन्तान् तुङ्गोच्चभक्तिवशदिन तारदिखिदेहम्
पोङ्गोल विचित्रगिरिकूटमयंकुचेलम् । [ गुणकीत्ति ने भक्ति-सहित यहाँ देहोत्सर्ग किया।]
. ३१ (१०६)
( लगभग शक सं० ६२२ ) नविलूरा श्रीसङ्घदुल्ले गुरवंनम्मोनियाचारियर् अवराशिष्यरनिन्दितार्गुणमि 'वृषभनन्दोमुनी । भवविज्जैन-सुमार्गदुल्ले नडदोन्दाराधना-योगदिन अवलं साधिसि स्वर्गलोकसुख-चित्त......माधिगल ।
नविलूर संघ के मौनिय श्राचार्य के शिष्य वृषभनन्दि मुनि ने समाधि-मरण किया ।
३२ (११३) (लगभग शक सं० ६२२ ) तनगे मृत्युवरवानरि देन्दु सुपण्डितन् । अनेक-शील-गुणमालेगलिन्सगिदोप्पिदोन् ।। विनय देवसेन-नाम-महामुनि नोन्तु पिन् । इन दरिल्दु पलितङ्कदे तान्दिवमेरिदान् ।
[ मृत्यु का समय निकट जान गुणवान् और शीलवान् देवसेन महामुनि व्रत पाल स्वर्ग-गामी हुए।]
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
__३३ (६३)
( लगभग शक सं० ६२२) एडेपरेगीनडे केय्दु तपं सय्यममान्कोलत्तूरसङ्घ ..। वडे कोरेदिन्तुवाल्वुदरिदिनेनगेन्दु समाधि कूडिए । एडे-विडियल्कवडिं कटवप्रवंएरिये निल्लदनन्धन पडेगमोलिप्प......न्दी-सुरलोक-महा-विभवस्थननादं ।
["अब मेरे लिये जीवन असम्भव है" ऐसा कहकर कोलत्तूर संघ के......(?) ने समाधि-व्रत लिया और कटवा पर्वत पर से सुरलोक प्राप्त किया।
३४ (८४)
( लगभग शक सं० ६२२) स्वस्ति श्री
अनवद्यन्नदि-राष्ट्रदुल्ले प्रथित-यशो...न्दकान्वन्दु..लाम् विनयाचार प्रभावन्तपदिन्नधिकन्चन्द्र-देवाचार्य नामन् उदित-श्री-कल्वप्पिनुल्ले रिषिगिरि-शिले-मेल्नोन्तुतन्देहमिकि निरवद्यन्न रि स्वर्ग शिवनिलेपडेदान्साधुगल्पूज्यमानन् ।
[नदिराज्य के यशस्त्री, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न चन्द्रदेव प्राचार्य कल्वप्प नामक ऋषिपर्वत पर व्रत पाल स्वर्गगामी हुए।]
३५ (७६)
( लगभग शक सं० ६२२) सिद्धम्
नेरेदाद व्रत-शील-नोन्पि-गुणदि स्वाध्याय-सम्पत्तिनिम् ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । १५ करेइल-नस्तप-धर्मदा-ससिमति-श्री-गन्तियर्वन्दुमेल ॥ अरिदायुष्यमनेन्तु नोडेनगे तानिन्तेन्दु कल्वप्पिनुल । तोरदाराधने-नोन्तु तीर्थ-गिरि-मेल स्वर्गालयकेरिदार ॥
[व्रत-शील-श्रादि-सम्पन्न ससिमति-गन्ति कल्वप्पु पर्वत पर आई और यह कहकर कि मुझे इसी मार्ग का अनुसरण करना है तीर्थगिरि पर सन्यास धारणकर स्वर्गगामी हुई।]
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कांचिन दो के मार्ग पर के शिलालेख
श्री सरेयगये कवट्टद लो......। [ कवह में एरेयगवे......]
३६ (१४५ )
( लगभग शक सं० ६२२ )
३७ (१४६ )
( लगभग शक सं० १०७२ )
श्रीमतु गरुडकेसिराज स्थिरं जीयातु ।
( दक्षिणमुख )
३८ (५-८)
(शक संo ८६६ )
कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ पर
स्वस्ति म. .म् उदधिं कृत्वावधिं मेदिनी ...चक्र......धवा भुञ्जन् भुजासेर्बलात् । न्यश्री जग......पतेर्गङ्गान्वयक्ष्माभुजां भूषा-रत्नमभू. वनितावक्तेन्दुमेघादयः ॥ १ ॥ तस्य सकलजगतीतला त्तुङ्ग गङ्गकुल कुमुद
गद्य
.....
........
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
•%
।
कौमुदी -महातेजायमानस्य । सत्यवाक्य कवि-धर्ममहाराजाधिराजस्य । कृष्णराजेोत्तर दिग्विजय विदितगुर्ज्जराधिराजस्य । वनगजमल प्रतिमन बलवदनदर्प-दलनप्रकटीकृत विक्रमस्य । गण्डमार्त्तण्ड - प्रतापपरिरक्षित सिंहासनादि-सकल- राज्यचिह्नस्य । विन्ध्याटवीनिकटवर्त्ति... ण्डक- किरातप्रकरभङ्ग-करस्य । भुजबल परि... मान्यखेट -प्रवेशितचक्रवर्त्तिकट... विक्रम.. श्रीमदिन्द्रराज पट्टबन्धोत्सवस्य । समुत्साहितसमर सज्ज - वज्जल......घ... नस्य भयोपनतवनवासिदेशाधि.... मणिकुण्डलमदद्विपादि-समस्त वस्तु समुपलब्ध-सङ्कीर्त्त - नस्य । प्रणतमा टूरवंशजस्य.....ज सुतस त भुज-बलावलेप-गजघटाटोप गर्व्वदुवृत्तसकलने लिम्बाधिराजस मर विध्वंस कस्य । समुन्मूलित राज्य कण्टकस्य । सञ्चूर्णितेाच्चङ्गिगिरिदुर्गस्य । संहृतनरगाभिधान शबरप्रधानस्य । प्रतापावनतचेर - चोल - पाण्ड्यपल्लवस्य । प्रतिपालित जिनशासनस्य । त मद्दाध्वजस्य । । बलबद रिनृपद्रविणापहरण कृतमहादानस्य । परिपालितसे तु बन्धभै...न्धुसम्बन्धव सुन्धरातलस्य । श्रीनालम्बकु (लान्त) कदेवस्य । शौर्यशासनं धर्मशासनं च सभ्चरतु दिग्मण्डलान्तरमा -
-
.
कल्पान्तरमाचन्द्रतारम् ॥
( पश्चिममुख )
......
-
......
. या कै रप्यु पायान्ततिशिशखाशेखरं
..... नान्य एवाहतो
श्रीगङ्गचूड़ामणि
... वना... द... बाणि...क्रं पल्लव... मा... येनामितं ...
......
१७
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१८५
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
... भुजावलेपमल... कृत्वा ... गं स्वयं ... • गुत्तियगङ्गभूपति नालम्बान्तकः ।। ..... यियसन्मुखं युधि...... गादस्मय ...... प्रतिगज...... विक्रमं ॥ त्पलमिव नालम्बान्तकः ... भूलोकादनेक-द्र... नेकबन्धान्धक... चोल-पल्लव... का नन्दतार... श्रीमारसिंह - चि... तिलक क्षेत्र-चन्द्रस्य...चन्द्र .. य्र्य्यर...... दर्प...गं सं... गं...६.रः ।।... वद्रोषणा ...न्मद्दाविजयोत्सवे सिंहासना-ध...
...
( उत्तरमुख)
याव
दैत्येन्द्रैर्मधुकैटभप्रभृतिभिर्ध्वस्तैर्मुरद्वे...
किं मायारिभिरित्यमुत्थितमिति क्ष्मातङ्क- शङ्काकृ... ...लैर्भरगासुरस्य वसुधानन्दाश्रुमिश्शि... दार्थैरकरोत्सरागमवनीचक्रं नालम्बान्तकः ।
.........
.....
इत्याधिष्कृत- वीर-सङ्गर - गिरः चालुक्य- चूडामणे राजादित्य- हरेद्देवानिरजनिश्रीगङ्ग-चूडामणि ।
...
......
( प्रथम ८ पंक्तियाँ अस्पष्ट हैं )
. ज्ञ-क्षमाभृतः
3...fa...faar............afa II
- गुप्त्तिय-गङ्ग
भूपमितियं विश्वं.
.. कृता......तिं पतिमह
.....वष्टभ्यदुष्टावनिप- कुल मिलामिन्द्रराज...... कुम्ब
श्री गङ्ग-चूड़ामणिरिति धरणी स्तौतियं ......रसम्प्रति मारसिंह नृपतिर्व्विक्रान्त
न
. मिश्रीकृत म... क-वीर-विस्मय-तेज....
......
1.s
...
.....
दल... यक - च्छत्र.
.. कीर्ति :
:: 11
.........
...
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । १६ क.........सौ यत्र...स्थिति-साहसोन्मद-महासामन्त-मत्तद्विपम् । .."स्वामिनि पट्ट-बन्ध-महिमा-निर्वि...मित्युवराचक्रं यस्य पराक्रम-स्तुति-परैः व्यावर्णयत्यङ्गकैः । येनेन्द्र-क्षिति-वल्लभस्य जगती-राज्याभिषेकः कृतः । येना...द-मद...पेन विजितातालमल्लानुजः । ...प्रो.. रणाङ्गणे रण-पटुस्तस्यात्मजोजा...... ...............रभू............म... ( पूर्वमुख)
बगेयललुम्बमप्प बलदल्लन...डिसि गेल्द शौर्यमं पोगल्वेनो धात्रियोल नेगल्द वज्जलनं बिडेयट्टि देलगेयं पागल्वेनो पल्लवाधिप......मं तवे कोन्द वीरमं पोगल्वेनो पेलिमेवोगल्वेनेन्दरिये चलदुत्तरङ्गनं ।।
ओलियेकोदु पल्लवर पन्दलेयेल्लमनेय्देदट्टिकापालिकरूरि सारि परमण्डलिकर्कल नम्मनीवुईय । ओलिगे निम्म पन्दलेगलं बरलीयदे कण्डु बाल्वु... । ओलिय लेम्बिनं नेगल्दुदाजि मण्डलिक-त्रिणेचना। तुङ्गपराक्रमं पलवु कालमगुर्विसे सुत्तिवृत्ति बि-- टुङ्गडकाडुवट्टि कोललारन...मुन्नमेनिप्प पेम्पिनुच्चङ्गिय कोटेयं जगमसुङ्गोले कोण्ड नगल्ते मूरु लो
कङ्गलोलम्पोगल्तेगेडेयादुदु गुत्तिय-गङ्ग-भूपना ॥ कन्दं ॥ कालनो रावणनो शिशुपालनो नानेनिसि नेगल्द नरगन तले त
नालाल कयगे वन्दुदु
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२०
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
डेलासाध्यदाले गङ्ग-चूडामणिया । नुडिदने कावुदने एल्देगिडदिरुजवनिट्ट रक्के निनगीचुदने नुडिदने प्रदु कय्यदु
मुडदुदु तप्पुमे गङ्ग-चूड़ामणिया ||
इन्तु बिन्ध्याटवी निकट-तापी-तटवुं । मान्यखेट-पुरवरखुं । गोनूरुमुच्चङ्गियुं । बनत्रासिदेशयुं । पाभसेयकोटेयुं । मोदलागे पलवेडेयालमरियरं पिरियरुवं कादि गेल्दु पलवेडेगलोलं महाध्वजमनेत्तिसि महादानंगेय्दु नेगल्द गङ्ग-विद्याधरं । गङ्गरोल्गण्डं। गङ्गरसिङ्गौं । गङ्गचूडामणि गङ्गकन्दर्पं । गङ्गव । चलदुत्तरङ्ग । गुप्तियगङ्ग । धर्मावतारं । जगदेकवीरं । नुडिदन्तेगण्डं | प्रहितमार्त्तण्डं । कदनकर्कशं । मण्डलिक- त्रिणेत्रं । श्रीमन्नोलम्बकुलान्तकदेवं पलवेडेगलालं बस दिगलुं मानस्तम्भङ्गलुवं माडिसिदं । मङ्गलं । धर्म (म) ङ्गलं नमस्यं नडयिसिबलियमोन्दुवर्ष राज्यमं पत्तुविट्टु बङ्कापुर दाल अजितसेनभट्टारकर श्रीपादसन्निधियोलू आराधना विधियिंमूरुदे... सं नोन्तुं समाधियं साधिसिदं ॥
वृत्त ।। एले चोलक्षितिपाल सन्तवेल्देयं नीं नीविकोलू निन्ननुं - गोले माण्डत्तिरु पाण्ड्य पल्लव भयङ्गोण्डोड दिन्निन्नमण्डलदिं पिदे निस्वदीगनिवनिन्नुं त... गङ्गमण्डलिकं देवनिवासदत्त विजयं-गेय्दं नालम्बान्तकं ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । [इस लेख में गङ्गराज मारसिंह के प्रताप का वर्णन है । इसमें कथन है कि मारसिंह ने ( राष्ट्र कूट नरेश) कृष्णराज ( तृतीय) के लिए गुर्जर देश को विजय किया; कृष्णराज के विपक्षी अल्ल का मद चूर किया; विन्ध्य पर्वत की तली में रहने वाले किरातों के समूहों को जीता; मान्यखेट में नृप ( कृष्णराज) की सेना की रक्षा की; इन्द्रराज (चतुर्थ) का अभिषेक कराया; पातालमल्ल के कनिष्ठ भ्राता वज्जल को पराजित किया; वनवासीनरेश की धन सम्पत्ति का अपहरण किया; माटूर वंश का मस्तक झुकाया; नालम्ब कुल के नरेशों का सर्वनाश किया; काडुवट्टि जिस दुर्ग को नहीं जीत सका था उस उच्चङ्गि दुर्ग को स्वाधीन किया; शवराधिपति नरग का संहार किया; चौड़ नरेश राजादित्य को जीता; तापी-तट, मान्यखेट. गोनूर, उच्चङ्गि, बनवासि व पाभले के युद्ध जीते, व चेर, चोड़, पाण्ड्य और पल्लव नरेशों को परास्त किया व जैन धर्म का प्रतिपालन किया और अनेक जिन मन्दिर बनवाये। अन्त में उन्होंने राज्य का परित्याग कर अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिवस तक सल्लेखना व्रतका पालन कर बंकापुर में देहोत्सर्ग किया। लेख में वे गङ्ग चूडामणि, नालम्बान्तक, गुत्तिय-गङ्ग, मण्डलिकत्रिनेत्र, गङ्गविद्याधर, गङ्गकन्दर्प, गङ्गबज्र, गङ्गसिंह, सत्यवाक्य कोङ्गणिवर्म-धर्ममहाराजाधिराज श्रादि अनेक पदवियों से विभूषित किये गये हैं।]
३६ (६३) महनवमी मण्डप में
(शक सं० १०८५) (पूर्वमुख)
श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ १॥
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२२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । - स्वस्ति समस्त - भुवन-स्तुत्य-नित्य-निरवद्य-विद्या-विभवप्रभाव-प्रहरुह्वरीपाल-मौलि - मणि-मयूख-शेखरीभूत-पत-पद-नखप्रकररुं । जितवृजिनजिनपतिमतपयर्पयोधिलीलासुधाकररुं । चार्वाकाखर्चगर्वदुर्वारोर्वीधरोत्पाटनपटिष्ठनिष्ठुरोपालम्भद - म्भोलिदण्डलं अकुण्ठ-कण्ठ-कण्ठीरव-गभीर-भूरि - भीम-ध्वाननिर्दलितदुईमेद्धबौद्धमदवेदण्डरुम् । अप्रतिहत-प्रसरदसम-लसदुपन्यसननित्यनैसित्य -पान-दान-दलितनैयायिकनयनिकरनललं । चपलकपिलविपुलविपिनदहन-दावानलीं। शुम्भदम्भोद-नाद-नोदितविततवैशेषिकप्रकरमदमराजलं । शरदमलशशधरकरनिकरनीहारहाराकारानुवर्त्तिकीर्त्तिवल्लीवेल्लितदिगन्तरालरुमप्पश्रीमन्महामण्डलाचार्यरु श्रीमद्वेवकीर्तिपण्डितदेवरु । कुनमः कपिल-वादि-बनोम-बह्रये
चार्वाक-वादि-मकराकर-बाडवाग्नये । बौद्धोग्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे
श्रीदेवकीर्तिमुनये कविवादिवाग्मिने ॥ २ ॥ सङ्कल्पं जल्पवल्लींविलयमुपनयंश्चण्डवैतण्डिकोक्तिश्रीखण्डं मूलखण्डं झटिति विघटयन्वादमेकान्तभेदं । निर्पिण्डंगण्डशैलं सपदि विदलयन्सूत्कृतिप्रौढ़गर्जस्फूजन्मेवामदोर्जाजयतु विजयते देवकीर्त्तिद्विपेन्द्रः ॥ ३॥ चतुर्मुखचतुर्वक्तनिर्गमागमदुस्सहा। देवकीर्तिमुखाम्भोजे नृत्यतीति सरस्वती ।। ४ ॥ चतुरते सत्कवित्वदोलभिज्ञते शब्दकलापदोल प्रस
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । नतेमतियोल प्रवीणते नयागम-तर्क-विचारदोल सुपूज्यते तपदोल पवित्रते चरित्रदोलोन्दि विराजिसल प्रसिद्धते मुनि-देवकीर्तिविबुधाप्रणिगोप्पुवुदी धरित्रियोल ॥ ५ ॥ शकवर्षसासिरद एम्भत्तय्देनेय ॥ वर्षे ख्यात-सुभानु-नामनि सिते पक्षे तदाषाढ़के मासे तनवमीतिया बुध-युते वारे दिनेशोदये। श्रीमत्तार्किकचक्रवर्ति-दशदिग्वौद्धकीर्तिप्रियो जातः स्वर्गवधूमन:प्रियतमः श्रीदेवकीर्त्तिव्रती ॥ ६ ॥ जातेकीर्त्यवशेषके यतिपती श्रीदेवकीर्तिप्रभा वादीभेभरिपो जिनेश्वर-मत-क्षीराब्धितारापतौ । क स्थानं वरवाग्वधूजिनमुनिब्रातं ममेति स्फुटं चाक्रोशं कुरुते समस्तधरणौ दाक्षिण्य-लक्ष्मीरपि ॥ ७॥ तच्छिष्यो नुतलक्खणन्दिमुनिपः श्रीमाधवेन्दुव्रती भव्याम्भोरुहभास्करत्रिभुवनाख्यानश्चयोगीश्वरः । एते ते गुरुभक्तितो गुरुनिषद्यायाः प्रतिष्ठामिमां भूत्याकाममकारयन्निजयशस्सम्पूर्णदिग्मण्डलाः ॥८॥ [इस लेख में अपने समय के अद्वितीय कवि, तार्किक और वक्ता महामण्डलाचार्य मुनि देवकीर्ति पण्डित की विद्वत्ता का व्याख्यान है। इस समय जैनाचार्य के सन्मुख सांख्यिक, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती. बौद्ध आदि सभी दार्शनिक हार मानते थे। ___शक सं० १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ़ शुक्ल बुधवार को सूर्योदय के समय इन तार्किक चक्रवर्ति श्री देवकीर्त्ति मुनि का स्वर्ग
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२४ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । वास हुअा। उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधवेन्दु और त्रिभुवनमल्ल ने अपने गुरु की स्मारक यह निषद्या प्रतिष्ठित कराई।]
४० (६४) उसी स्तम्भ पर
(शक सं० १०८५) ( दक्षिणमुख) भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने । कुतीर्थ-ध्वान्त-सङ्घात-प्रभिन्नघन-भानवे ॥११॥ श्रीमन्नाभेयनाथाद्यमल-जिनवरानीक-सौधोरु-वार्द्धिः प्रध्वस्ताघ-प्रमेय-प्रचय-विषय-कैवल्य-बोधोरु-वेदिः । शस्तस्यात्कार-मुद्रा-शवलित-जनतानन्द नादोर-घोषः स्थेयादाचन्द्र-तारं परम-सुख-महावीर्य-वीचो-निकायः ॥२॥ श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गाः श्रीगौतमाद्याः प्रभविष्णवस्ते तत्राम्बुधा सप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्तता बोधनिधिबभूव ।।३।। [श्री] भद्रस्सर्वतो योहि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतकेवलिनाथेषु चरमर्परमो मुनिः ॥४॥ चन्द्र-प्रकाशोज्वल-तान्द्र-कीर्तिःश्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः । यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनीनां ॥५॥ तस्यान्वये भू-विदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकाण्डकुन्दादि-मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत-चारणद्धिः ॥६॥ अभूदुमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्य-शब्दोत्तरगृद्धपिच्छः।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर क शिलालख । तदन्वये तत्सहशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेष-पदार्थ-वेदी ॥७॥ श्री गृद्धपिच्छ-मुनिपस्य बलाकपिच्छः
शिष्योऽजनिष्टभुवनत्रयवर्तिकीर्तिः । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपाल-मौलि
माला-शिलीमुख-विराजितपादपद्मः ॥८॥ एवं महाचार्य-परम्परायां स्यात्कारमुद्राङ्किततत्वदीपः । भद्रस्समन्ताद्गुणतोगणीशस्समन्तभद्रोऽजनिवादिसिंहः ॥८॥ ततः ॥ यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः। श्रीपूज्यपादाऽजनिदेवताभिर्य्यत्पूजित पाद-युगं यदीय ॥१०॥ जैनेन्द्र निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकविता जैनाभिषेकःस्वकः । छन्दस्मूक्ष्मधियं समाधिशतक-स्वास्थ्य यदीयं विदा माख्यातीह स पूज्यपाद-मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥११॥ ततश्च ॥ (पश्चिममुख)
अजनिष्टाकलङ्क यजिनशासनमादितः । प्रकलङ्क वभौ येन सोऽकलको महामतिः ॥१२॥ इत्याधु द्धमुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलसङ्घ ततो जाते नन्दिगण-प्रभेदविलस द्वेशीगणेविश्रुते । गोल्लाचार्य इति प्रसिद्ध-मुनिपोऽभूगोल्लदेशाधिपः पूर्व केन च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्सुधीः ॥१३॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
श्रीमत्त्रैकाल्ययोगी समजनि महिका काय-लग्ना तनुत्रं यस्याभूद्वृष्टि-धारानिशितशर - गणाग्रीष्ममार्त्तण्डबिम्बं । चक्रं सद्वृत्तचापाकलित-यति- वरस्याघशत्रून्वि जेतुं गोल्लाचार्य्यस्य शिष्यस्स जयतु भुवने भव्य सत्कैरवेन्दुः ॥ १४॥ तच्छिष्यस्य ॥
२६
अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लेोके । कौमारदेव-ब्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तुसो ज्ञाननिधिस्सधीरः ॥ १५ ॥
तच्छिष्य : कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारान्निधिसिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधम्र्मो महान् ।
शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कप्रन्थकार : प्रभा
चन्द्राख्यो मुनिराज पण्डितवर : श्रीकुण्डकुन्दान्वयः ||१६|| तस्य श्री कुलभूषणाख्य सुमुनेशिशष्यो विनेयस्तुतस्सद्वृत्तः कुलचन्द्रदेवमुनि पस्सिद्धान्तविद्यानिधिः । तच्छिष्योऽजनि माघनन्दिमुनिपः कोल्लापुरे तीर्थकृद्राद्धान्ताराने त्र पारगोऽचलधृतिश्चारित्रचक्रेश्वरः ॥ १७ ॥ एले मात्रिं बनवब्जदिं तिलिगोलं माणिक्यदि मण्डनावलिताराधिपनि नभं शुभदमा गिन्ति रितु निमलवीगल कुलचन्द्रदेव चरणाम्भोजात सेवाविनि -- श्चलसैद्धान्तिकमाघनन्दिमुनिथिं श्री काण्डकुन्दान्वयम् ||१८|| हिमवत्कुत्कोल - मुक्ताफल- तरलतरत्तार- हारेन्दुकुन्दो — पद्मकीर्त्ति - व्याप्तदिग्मण्डलनवनत-भू-मण्डलं भव्य - पद्मोग्र-मरीचीमण्डलं पण्डित-तति-विनतं माघनन्द्याख्यवाचं
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- चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । यमिराजं वाग्वधूटीनिटिलतटहटन्ननसदनप' ॥१६॥ ...त मद-रदनिकुलमं भरदिं निभेंदिसल्के...सरियेनिपं वरसंयमाब्धिचन्द्रं धरेयोल ..माघनन्दि-सैद्धान्तेश ॥२०॥ तच्छिष्यस्थ ॥
अवर गुड्डगलु सामन्तकेदारनाकरसी दानश्रेयांस सामन्त निम्बदेव जगदोबंगण्ड सामन्तकामदेव ॥ ( उत्तरमुख )
गुरुसैद्धान्तिकमाघनन्दिमुनिपं श्रीमञ्चमूवल्लभं भरतं छात्रनपारशास्त्रनिधिगल श्रीभानुकीर्तिप्रभास्फुरितालङ्कृत-देवकीर्त्ति-मुनिपशिष्यजगन्मण्डनदोरेये गण्डविमुक्तदेवनिनगिन्नीनामसैद्धान्तिकर ॥२१॥ क्षीरोदादिव चन्द्रमा मणिरिव प्रख्यात रत्नाकरात् सिद्धान्तेश्वरमाघनन्दियमिनो जातो जगन्मण्डनः । चारित्रैकनिधानधामसुविनम्रो दीपवर्ती स्वयं
श्रीमद्गण्डविमुक्तदेवयतिपस्सैद्धान्तचक्राधिपः ॥२२॥ प्रवर सधर्मर ।
आवों वादिकथात्रयप्रवणदोल विद्वजन मेच्चे विद्यावष्टम्भमनप्पुकेय्दु परवादिक्षोणिभृत्पक्षमं । देवेन्द्र कडिवन्ददि कडिदेले स्याद्वादविद्यास्त्रदि विद्यश्रुतकीर्तिदिव्यमुनिवाल विख्यातियं ताल्दिदों ॥२३॥ श्रुतकीति -विद्यनिकरस
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । व्रति राघवपाण्डवीयमं विभु (बु) धचमस्कृतियेनिसि गत-प्रत्या
गतदिं पेल्दमलकीर्तियं प्रकटिसिदं ॥२४॥ प्रवरग्रजरु॥
यो बौद्धतितिभृत्करालकुलिशश्चा कमेघान ( नि ) लो मीमांसा-मतन्नत्ति-वादि-मदवन्मातङ्ग कण्ठीरवः ॥ स्याद्वादाब्धि-शरत्समुद्गतसुधा-शोचिस्समस्तैस्स्तुतस्स श्रीमान्भुवि भासते कनकनन्दि-ख्यात-योगीश्वरः ॥२५॥ वेताली मुकुलीकृताञ्जलिपुटा संसेवते यत्पदे झोटिङ्गः प्रतिहारको निवसति द्वारे च यस्यान्तिके । येन क्रीडति सन्ततं नुततपोलक्ष्मीर्यश (:) श्रीप्रियस्सोऽयं शुम्भति देवचन्द्रमुनिपो भट्टारकौघाप्रणीः ॥२६।।
अवर सधर्मनिन्दि-त्रैविद्य-देवरु विद्याचक्रवर्तिश्रीमद्देवकीति -पण्डितदेवर शिष्यरु श्रीशुभचन्द्र–विद्यदेवरु गण्डविमुक्तवादि-चतुर्मुख-रामचन्द्रविद्यदेवलं वादिवज्राङकुश-श्रीमदकलकत्रैविद्यदेवरुमापरमेश्वरन गुड्डुगलु माणिक्यभण्डारि मरियाने दण्डनायकरुं श्रीमन्महाप्रधानं सर्वाधिकारिपिरियदण्डनायकभरतिमय्यङ्गालश्रीकरणद हेग्गडे बूचिमय्यङ्गलुजगदेक-दानि हेग्गडे कोरय्यर्नु ।
प्रकलङ्क पितृ वाजि-वंश-तिलक-श्री-यक्षराजं निजा-म्बिके लोकाम्बिके लोक वन्दिते सुशीलाचारे दैवं दिवी
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । २६ -श-कदम्ब-स्तुत-पाद-पद्मनरुहं नाथं यदुक्षोणिपा-लक-चूड़ामणि नारसिङ्गनेनलेनोम्पुल्लनाहुल्लपं ॥२७॥
श्रीमन्महाप्रधानं सर्वाधिकारि हिरियभण्डारि अभिनवगङ्गदण्डनायक-श्रीहुल्लराज तम्म गुरुगलप्पश्रीकाण्डकुन्दान्वयद श्रीमूलसङ्घद देशियगणद पुस्तकगच्छद श्रीकाल्लापुरद श्रीरूपनारायणन बसदिय प्रतिविद्धद श्रीमत्केलङ्ग रेय प्रतापपुरवंपुनर्भरणवं माडिसि जिननाथपुरदलु कल दानशालेयं माडिसिद श्रीमन्महामण्डलाचार्यदेवकीर्तिपण्डितदेवगर्गे परोक्षविनयवागि निशिदियं माडिसिद अवर शिष्यर्लक्खणन्दि-माधवत्रिभुवनदेवमहादान-पूजाभिषेक-माडि प्रतिष्ठेयं माडिदरु
मङ्गल महा श्री श्री श्री ॥ . [ इस लेख में गौतम गणधर से लगाकर मुनिदेवकीर्ति पण्डितदेव की गुरु-परम्परा दी है।। कनकनन्दि और देवचन्द्र के भ्राता श्रुतकीति विद्य मुनि की प्रशंसा में कहा गया है कि उन्होंने देवेन्द्र सदृश विपक्षवादियों को पराजित किया और एक चमत्कारी काव्य राघव-पाण्डवीय की रचना की जो प्रादि से अन्त को व अन्त से. श्रादि को दोनों और पढ़ा जा सके ४ । प्रतापपुर की रूपनारायण बस्ती का
भूमिका देखो।
x श्रुतकीर्ति की प्रशंसा के ये दोनों छन्द नागचन्द्रकृत रामचन्द्रचरितपुराण' अपर नाम 'पम्प रामायण' के प्रथम प्राश्वास में नं० २४२५ पर भी पाये जाते हैं। इस काव्य की रचना शक सं० १०२२ के लगभग हुई है। जिन विपक्ष-सैद्धान्तिक देवेन्द्र का यहाँ उल्लेख है वेसम्भवत: 'प्रमाणनय-तत्वालेोकालङ्कार' के कर्ता वादि-प्रवर श्वेताम्बरा
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३०
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
जीर्णोद्वार व जिननाथपुर में एक दानशाला का निर्माण कराने वाले महामण्डलाचार्य देवकीर्त्ति पण्डितदेव के स्वर्गवास होने पर यादववंशी नारसिंह नरेश ( प्रथम ) के मंत्री हुलप ने यह निषद्या निर्माण कराई जिसकी प्रतिष्ठा देवकीर्त्ति श्राचार्य के शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेव ने दान सहित की । ]
४१ (६५ )
उसी मण्डप में ( शक सं० १२३५ )
श्रीमत्स्याद्वादमुद्रातिममलमहीनेन्द्र चक्रेश्व रेड्य जैनीयं शासनं विश्रुतमखिलहितं दोषदूरं गभीरं । जीयात्कारुण्यजन्मावनिरमितगुणैर्व्वयनीक -प्रवेकैः संसेव्यं मुक्तिकन्या-परिचय-करण प्रौढमेतत्त्रिलोक्यां ॥ १ ॥
श्रीसूल सङ्घ- देशीगण पुस्तकगच्छ - कोण्डकुन्दान्वाये । गुरुकुल मिह कथमिति चेद्ब्रवीमि सङ्घ पता भुवने ||२|| यः सेव्यः सर्व्वलोकैः परहितचरितं यं समाराधयन्ते भव्या येन प्रबुद्धं स्वपर मत - महा-शास्त्र-तत्त्वं नितान्तं । यस्मै मुक्ताङ्गना संस्पृहयति दुरितं भीरुतां याति यस्मा - द्यस्याशानास्ति यस्मिंस्त्रिभुवन महिता विद्यते शीलराशिः ॥ ३ ॥
-
चार्य देवेन्द्र व देवसूरि हैं, जिनके विषय में प्रभावक - चरित में कहा गया है कि उन्होंने वि० सं० ११८१ में दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को में परास्त किया था । ]
वाद
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
३१
तन्मेघ चन्द्रचैविद्यशिष्या राद्धान्तवेदी लोकप्रसिद्धः । श्री वीरणंदी मे नुस्तदन्तेवासी गुणान्धिः प्रास्ताङ्गजन्मा ||४|| यः स्याद्वाद - रहस्य- वादनिपुणोऽगण्यप्रभावो जनानन्दः श्रीमदनन्तकीर्त्तिमुनिपश्चारित्रभास्वत्तनुः । कामोग्राहि-गर-द्विजापहरणे रूढा नरेन्द्रोऽभवतच्छिष्यो गुरुपञ्चकस्मृति - पथ- स्वच्छन्द - सन्मानसः ॥ ५ ॥ मलधारिरामचन्द्रो यमी तदीय-प्रशस्य- शिष्योऽसैौ । यच्चरणयुगल सेवापरिगतजनतैति चन्द्रतां जगति || ६ || परपरिणतिदूरोऽध्यात्मसत्सारधीरो
विषय - विरति भावो जैनमार्ग-प्रभावः ।
कुमत - घन - समीरो ध्वस्तमायान्धकारो निखिलमुनिविनूतो रागकोपादिघातः ॥ ७ ॥ चित्ते शुभावनां जैनी वाक्ये पञ्चनमस्त्रियां । काये व्रतसमारोपं कुर्व्वन्नध्यात्मविन्मुनिः ॥ ८ ॥ पञ्चत्रिंशत्संयुत-शत- दूयाधिक-सहस्र-नुतवर्षेषु । वृत्तेषु शकनृपस्य तु काले विस्तीर्नविलसदनवनमा || प्रमादि (सं) वत्सरेमा से श्रावणे तनुमत्यजत् । वक्रे कृष्णचतुर्द्दश्यां शुभचन्द्रो महायतिः ||१०|| अमरपुरममरवासं तद्गत- जिन चैत्य- चैत्यभवनानां । दर्शन- कुतूहलेन तु यातो यातार्त्त रौद्र-परिणामः ॥ ११ ॥ तच्छिष्य र् ॥
दुरितान्धकाररविहिम
-
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३२
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
-कररोगेदद्मणन्दिपण्डितदेवर् । वर- माधवेन्दु समया - भरणश्रमूल सङ्घ- देशीगणदात् ।। १२ ।। गुरु- राम चन्द्र-यतिपन
वर- शिष्य - शुभेन्दुमुनिय निस्तिगेयं विस्तरदिं माडिसिदं बेल
करेयधिपं राय-राज- गुरुगुम्मट्टं ।। १३ ।।
श्री विजय पार्श्व - जिनवर चरणारुण-कमल- युगल - यजन - रतः । बोगार-राज-नामा तद्वैयापृत्यतो हि शुभचन्द्रः ॥ १४ ॥ यादेय - विवेकता जनतया यस्मात्सदादीयते तस्य श्रीकुलभूषणस्य वर शिष्यो माघनन्दिवती | सिद्धान्ताम्बुधितीरगो विशद - कीर्तिस्तस्य शिष्योऽभवत् त्रैविद्यः शुभचन्द्र-योगि-तिलकः स्याद्वाद - विद्याञ्चितः ।। १५ ।। तच्छिष्य श्चारुकीर्त्ति प्रथित-गुण-गणः पण्डितस्तस्य शिष्यः ख्यातः श्री माघनन्दि - ब्रति-पति- नुत भट्टारकस्तस्य शिष्यः । सिद्धान्ताम्भोधिसीत-द्युतिरभयशशी तस्य शिष्यो महीयान् बालेन्दुः पण्डितस्तत्पदनुतिरमलो रामचन्द्रोऽमलाङ्ग: । १६ । चित्रं सम्प्रतिपद्मनन्दिनिह कृत्तं तावकीनं तपः पद्मानन्द्यपि विश्रुताप्रमद इत्यासीस्सतां नम्रतां । कामं पूरयसे शुभेन्दु-पद-भक्त्यासक्त- चेतः सदा कामं दूर से निराकृत-महा-मोहान्धकारागम || १७|| काम - विदारोदारः समावृतोप्यक्षमो जगतिभासि
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
३३
श्रीपद्मनन्दिपण्डित पण्डित-जन- हृदय - कुमुदशीतकर ||१८|| पण्डित - समुदयवति शुभचन्द्र- प्रिय शिष्य भवति
-
सुदयास्ति । श्री पद्म नन्दि- पण्डित-यमीश भवदितर- मुनिषुनालोके | १८ | श्रीमदध्यात्मिशुभचन्द्रदेवस्य स्वकीयान्तेवासिना पद्म नन्दि- पण्डित - देवेन माधवचन्द्रदेवेन च परोक्ष-विनय-निमित्तं निषधका कारयिता ॥ भद्रं भवतु जिनशासनाय ||
[ इस लेख में शुभचन्द्र मुनि की श्राचार्य परम्परा और उनके स्वर्गवास की तिथि दी हुई है । कुन्दकुन्दान्वय, मूल संघ, पुस्तक गच्छ, देशी गण में गुरुशिष्य परम्परा से मेघचन्द्र त्रैविद्य, वीरनन्दि, अनन्त कीर्त्ति', मलधारि रामचन्द्र और शुभचन्द्र मुनि हुए । शुभचन्द्र मुनि का शक सं० १२३५ श्रावण कृष्ण १४ को स्वर्गवास हुआ । उनके शिष्य पद्मनन्दि पण्डितदेव और माधवचन्द्र ने उनकी निषद्या निर्माण कराई | लेख में रामचन्द्र मुनि की श्राचाय परम्परा इस प्रकार दी है। कुलभूषण, माघनन्दि व्रती, शुभचन्द्र त्रैविद्य, चारुकीर्त्ति पण्डित, माघनन्दि भट्टारक, श्रभयचन्द्र, बालचन्द्र पण्डित और रामचन्द्र । ]
C
४२ (६६ )
महानवमी मण्डप के उत्तर में एक स्तम्भ पर ( शक सं० १०८८ )
( पूर्व मुख )
श्रामत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयास्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ।। १ ।।
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३४
चन्द्रागार पवत पर
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । श्रीमन्नाभेयनाथाद्यमल-जिनवरानीक-सौधोरु-वार्द्धिः प्रध्वस्ताघ-प्रमेय-प्रचय विषय-कैवल्य-बोधोरु-वेदिः । शस्त-स्यात्कार-मुद्रा-शबलित-जनतानन्द-नादोरु-घोषः स्थेयादाचन्द्रतारं परम-सुख-महावीर्य-वीची-निकाय: ॥२॥ श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गा श्रीगौतमाचाप्रभविष्णवस्त । तत्राम्बुधा सप्तमहर्द्धि-युक्तास्तत्सन्तता नन्दिगणे बभूव ।।३।। ओपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकाण्डकुन्दः द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारणर्द्धिः ॥४॥ अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोसावाचार्य-शब्दोत्तरगृपिच्छः । तदन्वये तत्सहसा(शो)ऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेष
पदार्थ-वेदी ॥५॥ श्रीगृद्धपिञ्च्छ-मुनिपस्य बलाकपिञ्छ
शिष्याऽजनिष्ट भुवनत्रय-वर्ति-कीति: । चारित्रचुञ्चुरखिलावनिपालमौलि
__ माला-शिलीमुख-विराजित-पाद-पद्मः ।।६।। तच्छिष्या गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वर स्तक्क-व्याकरणादि-शास्त्र-निपुणस्साहित्य-विद्यापतिः । मिथ्यावादिमदान्ध-सिन्धुर-घटासट्टकण्ठोरवो भव्याम्भोज-दिवाकरो विजयतां कन्दर्प-दर्पापहः ॥ ७ ॥ तच्छिष्यास्त्रिशता विवेक-निधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गता स्तेपूत्कृष्टतमा द्विसप्रतिमितास्सिद्धान्त-शास्त्रार्थकव्याख्याने पटवो विचित्र-चरितास्तेषु प्रसिद्धोमुनि
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । ३५ नानून-नय-प्रमाणनिपुणो देवेन्द्र-सैद्धान्तिकः ॥८॥ : अजनि महिपचूडा-रत्नराराजिताघ्रि
विजित-मकरकेतूदण्ड-दाईण्ड-गर्वः । कुनय-निकर-भूद्धानीक-दम्भोलि-दण्ड
स्सजयतु विभुधेन्द्रोभारती-भाल-पट्टः ॥ ६॥ तच्छिष्यः कलधौतनन्दिमुनिपस्सिद्धान्त-चक्रेश्वरः पारावार-परीत-धारिणि-कुल-व्याप्तोरुकीर्तीश्वरः । पञ्चाक्षोन्मद-कुम्भि-कुम्भ-दलन-प्रोन्मुक्त मुक्ताफलप्रांशु-प्राञ्चितकेसरी बुधनुतो वाकामिनी-वल्लभः ॥ १० ॥ अवर्गे रविचन्द्र-सिद्धान्तविदर्सम्पूर्णचन्द्रसिद्धान्तमुनिप्रवररवरवर्गे शिष्यप्रवर श्रीदामनन्दि-सन्मुनि-पतिगल।११॥ बोधित-भव्यरस्त-मदनर्मद-वर्जित-शुद्ध-मानसर श्रीधरदेवरेम्बरवर्गप्र-तनूभवरादरा यशश्रीधरर्गाद शिष्यरवरील नेगल्दर्मलधारिदेवरु श्रीधरदेवरु नत-नरेन्द्र-ति (कि)रीट-तटार्चितक्रमर ।१२। आनम्नावनिपाल-जालकशिग-रत्न-प्रभा-भासुरश्रीपादाम्बुरुह-द्वयो वर-तपोलक्ष्मीमनोरञ्जनः । मोह-व्यूह-महीद्ध-दुर्द्धर-पविः सच्छीलशालिजंग
ख्यातश्रीधरदेव एष मुनिपो भाभाति भूमण्डले ॥१३॥ तच्छिष्यर ।।
भव्याम्भोरुह-षण्ड-चण्ड-किरण: कापूर-हार-स्फुरकीर्तिश्रीधवलीकृताखिल दिशाचक्रश्चरित्रोन्नतः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । (दक्षिणमुख)
भातिश्री जिन-पुङ्गव-प्रवचनाम्भोराशि-राका-शशी
भूमौ विश्रुत-माघनन्दिमुनिपस्सिद्धान्तचक्रेश्वरः ॥१४॥ तच्छिष्यर् ।। • सच्छीलश शरदिन्दु-कुन्द-विशद-प्रोद्यद्यश-श्रीपति
प्यद्दपक-दर्प-दाव-दहन-ज्वालालि-कालाम्बुदः । श्रोजैनेन्द्र-वचःपयोनिधि-शरत्सम्पूर्ण-चन्द्रः क्षिता
भाति श्रीगुणचन्द्र-देव-मुनिपो राद्धान्त-चक्राधिपः ॥१५।। तत्सधर्मर ॥
उद्भते नुत-मेघचन्द्र-शशिनि प्रोद्यद्यशश्चन्द्रिके संवर्द्धत तदस्तु नाम नितरां राधान्त-रत्नाकरः । चित्रं तावदिदं पयोधि-परिधि-क्षोणी समुद्रीक्ष्यते
प्रायेणात्र विज़म्भते भरत-शास्त्राम्भोजिनी सन्तत ॥१६।। तत्सधर्मर ।।
चन्द्र इव धवल-कीर्त्तिद्ध वलीकुरुते समस्त-भुवनं यस्य ।
तच्चन्द्रकीर्तिसञ्ज-भट्टारक-चक्रवत्ति नोऽस्य विभाति ।१७१ तत्सधर्मर ॥
नैयायिकेभ-सिंहो मीमांसकतिमिर-निकरनिरसन-तपनः बौद्ध-वन-दाव-दहनोजयतिमहानुदयचन्द्रपण्डितदेवः ।१८। सिद्धान्त-चक्रवर्ती श्रोगुणचन्द्रबतीश्वरस्यं बभूव श्रीनयकीति-मुनीन्द्रो जिनपति-गदिताखिलार्थवेदी शिष्यः
॥१६॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । स्वस्स्यनवरत-विनत-महिप-मुकुट-मौक्तिक-मयूख-माला-सरोमण्डनीभूत-चारुचरणारविन्दरुं। भव्यजन-हृदयानन्दरुं । काण्डकुन्दान्वय-गगन-मातण्डरूं। लीला-मात्र-विजितोचण्डकुसुमकाण्डरुं । देशीय-गण-गजेन्द्र-सान्द्र-मद-धारावभासीं। वितरणविलासरु । पुस्तकगच्छस्वच्छ-सरसी-सरोजरूं । वन्दिजनसुरभूजरूं। श्रीमद्गुणचन्द्र-सिद्धान्त-चक्रवत्ति-चारुतर-चरण सरसीरुह-षटचरणरुं। अशेष-दोषदूरीकरणपरिणतान्तःकरणकमप्प श्रीमन्नयकीर्ति-सिद्धान्त-चक्रवत्ति गले न्तप्परेन्दडे ।।
साहित्य-प्रमदा-मुखाब्जमुकुरश्चारित्र-चूडामणि श्रीजैनागम-वार्द्धि-वर्द्धन-सुधाशोचिस्समुद्भासते । यश्शल्य-त्रय-गारव-त्रय-लसद्दण्ड-त्रय-ध्वंसक --- स्स श्रीमानयकत्ति देवमुनिपस्सैद्धान्तिकाग्रेसरः ॥२०॥ माणिक्यनन्दिमुनिप श्रीनयकीर्त्तिव्रतीश्वरस्य सधर्मः। गुणचन्द्रदेवतनयो राद्धान्त-पयोधि-पारगो-भुवि भाति॥२१॥ हार-क्षीर-हराहहास-हलभृत्कुन्देन्दु-मन्दाकिनीकर्पूर-स्फटिक-स्फुरद्वरयशो-धौतत्रिलोकोदरः। उच्चण्ड-स्मर-भूरि-भूधरपविःख्यातो वभूवक्षिता सश्रीमानयकीर्ति देवमुनिपस्सिद्धान्तचक्रेश्वरः ॥२२॥ शाके रन्ध्रनवद्यचन्द्रमसि दुर्मुख्याचकसंवत्सरे वैशाखेधवले चतुर्दशदिने वारे च सूर्य्यात्मजे । पूर्वाह्न प्रहरेगतेऽर्द्धसहिते स्वर्ग जगामात्मवान
* ख्य
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
विख्यातो नयकीर्त्ति देव- मुनिपो राद्धान्त चक्राधिपः ||२३| श्रीमज्जैन वचेोधि-वर्द्ध'न-विधुरसाहित्य विद्यानिधिस् ( पश्चिम मुख )
सर्पद्दर्पक- हस्ति-मस्तक- लुठत्प्रोत्कण्ठ-कण्ठीरवः । स श्रीमान गुणचन्द्र देवतनयहसौजन्यजन्यावनि स्थेयात् श्रीनयकीर्त्ति देवमुनिपरिसद्धान्तचक्रेश्वरः ||२४|| गुरुवादं खचराधिपङ्ग बलिगं दानके बिपिङ्ग े तां गुरुवादं सुर-भूधरके नेगल्दा कैलास - शैलक्के तां । गुरुवादं विनुतङ्ग राजिसुविरुङ्गोलङ्ग लोकक्के सद् गुरुवादं नयकीर्त्तिदेवमुनिपं राद्धान्त चत्राधिपं ॥ २५ ॥ तच्छिष्यरू ॥
हिमकर- शरदभ्र क्षीर-कल्लोल - जाल - स्फटिक सित यश-श्रीशुभ्र - दिक्- चक्रवालः । मदन-मद- तिमिस्र - श्रेणितीत्रांशुमाली जयति निखिल बन्यो मेघचन्द्र- व्रतीन्द्रः ||२६||
३८
तत्सधर्म्मर ॥
~
कन्दर्पाहवकर्पाताद्धु रतनुत्राणोपमारस्थली
चञ्चद्भूरमला विनेय-जनता- नीरेजिनी - भानवः । त्यक्ताशेष- बहिर्विकल्प निचयाश्चारित्र - चक्रेश्वरः शुम्भन्त्यथितटाक त्रासि मलधारि-स्वामिनो भूतले ॥ २७ ॥
तत्स धर्म्म र् ॥
षट् कर्म विषय- मन्त्रे नानाविध-रोग-हारि-वैद्य च ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । जगदेकसूरिरेष श्रीधरदेवो बभूव जगति प्रवणः ॥२८॥ तत्सधर्मर ॥
तर्क व्याकरणागम-साहित्य-प्रभृति-सकल-शास्त्रार्थज्ञः । विख्यात-दामनन्दि विद्य-मुनीश्वरो धराने जयति ॥२६॥ श्रीमज्जैनमताब्जिनीदिनकरो नैय्यायिकाभ्रानिल . श्वाळकावनिभृत्करालकुलिशा बौद्धाब्धिकुम्भोद्भवः । योमीमांसकगन्धसिन्धुरशिरोनि दकण्ठीरव
स्वैविद्योत्तमदामनन्दिमुनिपस्सोऽयंभुविभ्राजते ॥३०॥ तत्सधर्मर ॥
दुग्धाब्धि-स्फटिकेन्दु-कुन्द-कुमुद-व्याभासि-कीर्तिप्रियस्सिद्धान्तोदधि-वर्द्धनामृतकरःपारार्थ्य-रत्नाकरः । ख्यात-श्री-नयकीर्तिदेवमुनिपश्रीपाद-पद्म-प्रियो । भात्यस्यांभुविभानुकीर्ति-मुनिपस्सिद्धान्त वक्राधिपः ॥३१॥ उरगेन्द्र-क्षीर-नीराकर-रजत-गिरि-श्रीसितच्छत्र-गङ्गा-- हरहासैरावतेभ-स्फटिक-वृषभ-शुभ्राभ्रनीहार-हारामर-राज-श्वेत-पङ्करह-हलधर-वाक-शङ्ख-हंसेन्दु-कुन्दो
करचञ्चत्कीतिरीकान्तं धरेयोलेसेदनी भानुकीर्ति-व्रतीन्द्र तत्सधर्मर ॥
॥३२॥ सवृत्ताकृति-शाभिताखिलकला-पूर्ण स्मर-ध्वंसकः शश्वद्विश्व-वियोगि-हृत्सुखकर-श्रीबालचन्द्रो मुनिः । वक्रेणोन-कलेन-काम-सुहृदाचञ्चद्वियोगिद्विषा लोकेस्मिन्नुपमीयते कथमसौ तेनाथ बालेन्दुना ॥३३॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । उच्चण्ड-मदन-मद-गज-निर्भेदन-पटुतर-प्रताप-मृगेन्द्रः । भव्य-कुमुदाघ-विकसन-चन्द्रो भुविभाति बालचन्द्र-मुनीन्द्रः
॥३४॥ ताराद्रि-क्षीर-पूर-स्फटिक-सुर-स रित्तारहारेन्दु-कुन्द- श्वेतोद्यकीति-लक्ष्मी-प्रसर-धवलिताशेषदिक्-चक्रवालः ।
श्रीमसिद्धान्त-चक्रेश्वर-नुत-नयकीर्ति-व्रतीशाङ्घि भक्तः (उत्तर मुख)
श्रीमान्भट्टारकेशो जगति विजयते मेघचन्द्र-व्रतीन्द्रः ।।३।। गाम्भीर्ये मकराकरो वितरणे कल्पद्रुमस्तेजसि प्रोच्चण्ड-घुमणिः कलास्वपि शशी धैर्ये पुनर्मन्दरः । सोज़-परिपूर्ण-निर्मल-यशो-लक्ष्मी-मना-रजनो भात्यस्यां भुवि माघनन्दिमुनिपो भट्टारकाग्रेसरः ॥३६।। वसुपूर्णसमस्ताश:क्षितिचक्रे विराजते ।
चञ्चत्कुवलयानन्द-प्रभाचन्द्रोमुनीश्वरः ॥३७।। तत्सधर्मर ।।
उच्चण्डग्रहकोटयो नियमितास्तिष्ठन्ति येन क्षिती यद्वाग्जातसुधारसोऽखिलविषव्युच्छेदकश्शोभते । यत्तन्त्रोद्धविधिःसमस्तजनतारोग्याय संवर्त्तते
सोऽयं शुम्भति पद्मनन्दिमुनिनाथो मन्त्रवादीश्वरः ॥३८॥ तत्सधर्मर ॥
चञ्चच्चन्द्र-मरीचि-शारद-घन-क्षोराब्धि-ताराचलप्रोद्यत्कीति-विकास-पाण्डुर-तर-ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । ४१ वाकान्ता-कठिन-स्तन-द्वय-तटी-हारो गभीर स्थिर सोऽयं सन्नुत-नेमिचन्द्र-मुनिपो विभ्राजते भूतले ॥३६।। भण्डाराधिकृतःसमस्त-सचिवाधीशो जगद्विश्रुतश्रीहुल्लो नयकीर्ति-देव-मुनि-पादाम्भोज-युग्मप्रियः । कीति-श्री-निलयःपरार्थ-चरिता नित्यं विभाति क्षिती सोऽयं श्रीजिनधर्म-रक्षणकरः सम्यक्तव-रत्नाकरः ॥४०॥ श्रीमच्छीकरणाधिपस्सचिवनाथो विश्व-विद्वन्निधिश्चातुर्वण्ण-महान्नदान-करणोत्साही क्षिता शोभते । श्रीनीलो जिन-धर्म-निर्मल-मनास्साहित्य-विद्याप्रियस्सौजन्यैक-निधिश्शशाङ्क-विशद-प्रोद्यद्यश-श्रीपतिः ॥४१॥ आराध्यो जिनपो गुरुश्च नयकीर्ति ख्यात-योगीश्वरो जोगाम्बा जननी तु यस्य जनक (:) श्रीबम्मदेवा विभुः । श्रीमत्कामलता-सुता पुरपति श्री मल्लिनाथस्सुता भात्यस्यां भुवि नागदेव-सचिवश्वण्डाम्बिकावल्लभः ॥४२॥ सुर-गज-शरदिन्दु-प्रस्फुरत्कीत्ति -शुभ्री भवदखिल-दिगन्ता वाग्वधू-चित्तकान्तः । बुध-निधि-नयकीर्ति-ख्यात-योगीन्द्र-पादाम्बुज-युगकृत-सेवः शोभते नागदेवः ॥४३|| ख्यातश्रीनयकीर्ति देवमुनिनाथानां पयःप्रोल्लसकीर्तीनां परमं परोक्ष-विनयं कतु निषध्यालयं । भक्तयाकारयदाशशाङ्क-दिनकृत्तारं स्थिरं स्थायिनं श्रीनागस्सचिवोत्तमा निजयशश्रोशुभ्र-दिग्मण्डलः॥४४॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
[ इस लेख में नागदेव मंत्री द्वारा अपने गुरु श्री नयकीर्त्ति योगीन्द्र की निषद्या निर्माण कराये जाने का उल्लेख है । नयकीर्त्तिमुनि का स्वर्गचास शक सं० १०६६ वैशाख शुक्ल १४ को हुआ था। मुनि की विस्तार - सहित वर्णन की हुई गुरु-परम्परा में निम्नलिखित श्राचार्यों का उल्लेख आया है । पद्मनन्दि अपर नाम कुन्दकुन्द, उमास्वाति गृद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ, गुणनन्दि, देवेन्द्र सैद्धान्तिक, कलधौतनन्दि, रविचन्द्र अपर नाम सम्पूर्णचन्द्र दामनन्दिमुनि, श्रीधरदेव, मलधारिदेव, श्रीधरदेव, माघनन्दि मुनि, गुणचन्द्रमुनि, मेवचन्द्र, चन्द्रकीत्ति भट्टारक और उदयचन्द्र पण्डितदेव । नयकीत्ति गुणचन्द्रमुनि के शिष्य थे और उनके धर्म गुणचन्द्र मुनि के पुत्र माणिक्यनन्दि थे । उनकी शिष्यमण्डली में मेवचन्द्र व्रतीन्द्र, मलधारिस्वामी, श्रीधरदेव, दामनन्दि
"
विद्य, भानुकीर्त्ति मुनि, बालचन्द्र मुनि, माघनन्दि मुनि, प्रभाचन्द्र मुनि, पद्मनन्दि मुनि और नेमिचन्द्र मुनि थे । ]
४२
४३ (११७ )
चामुण्डराय वस्ति के दक्षिण की ओर मण्डप में
प्रथम स्तम्भ पर
( शक सं० १०४५ )
( पूर्वमुख )
श्रीमत्परम गम्भीर - स्याद्वादामोघ लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन - शासनं ॥ १ ॥ श्रीमन्नाभेयनाथायमल- जिनवरानीक साधोरु-वाद्धि: प्रध्वस्ताघ-प्रमेय-प्रचय-विषय- कैवल्य-बोधोरु-वेदिः । शस्तस्यात्कार मुद्रा - शबलित जनतानन्द-नादोरुघोषः स्थेयादा चन्द्रतारं परम सुख -महा-वी वी ची -निकायः ॥२॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । ४३ श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्न-
वर्गाश्रीगौतमाद्याः प्रभविष्णवस्ते । तत्राम्बुधा सप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्तता नन्दिगणे बभूव ।।३।। श्रोपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकाण्ड
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यञ्चरित्रसञ्जातसुचारणद्धि : ॥४॥ अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्ध
पिञ्च्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी ।५। श्रीगृध्रपिछ-मुनिपस्य बलाकपिछरिशष्योऽजनिष्टभुवन
त्रयवत्ति कीत्ति: । चारित्रचुचुरखिलावनिपालमौलिमाला-शिलीमुख-विरा
जित-पाद-पद्मः ।।६।। तच्छिष्या गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणस्साहित्यविद्यापतिः । मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुर-घटा-सट्ट-कण्ठीरवो भव्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्प-दापहः ।।७।। तच्छिष्याविशता विवेकनिधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गतास्तेषूत्कृष्टतमाद्विसप्ततिमिता:सिद्धान्तशास्त्रार्थकव्याख्यानेपटवो विचित्र-चरितास्तेषु प्रसिद्धोमुनिः नानानूननयप्रमाणनिपुणोदेवेन्द्रसैद्धान्तिकः॥७॥ अजनिमहिप-चूड़ा-रत्न-राराजिताघ्रिविजितमकरकेतूह
___ण्डदाईण्डगवः।
.
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४४
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
कुनय निकर भूधानीकदम्भालिदण्डः सजयतु विबुधेन्द्रो भारती - भालपट्ट: ॥६॥
( दक्षिणमुख )
तच्छिष्यः कलधौतर्नान्दमुनिप: सैद्धान्तचक्रेश्वरः पारावारपरीतधारिणि कुल व्याप्तोरुकीर्तीश्वरः । पञ्चाक्षोन्मदकुम्भि कुम्भ-दलन प्रोन्मुक्त-मुक्ताफलप्रांशुप्राचितकेसरी बुधनुतो वाक्कामिनीवल्लभः ॥१०॥ अव रविचन्द्र सिद्धान्तविदर्सम्पूर्ण चन्द्र-सिद्धान्त-मुनि- । प्रवरवरवर्गेशिष्य --
प्रवर श्रदामनन्द-सन्मुनि-पति ||११|| बोधितभव्यरस्तमदनर्म्मद अर्जित-शुद्ध-मानसर श्रीधर देवरे म्बरवर्गग्रतनूभवरादरायशस् श्रीधर शिष्यवरोलू नेगल्दर्म्मलधारि-देवरुं । श्रीधरदेवरुंनतनरेन्द्र- किरीट-तटार्चित-क्रमर ॥ १२ ॥
मलधारिदेवरिन्द
बेलगिदुदु जिनेन्द्रशासनं मुन्नंनि
मेलमा गिमत्तमीगल बेलगद चन्द्रकीर्त्तिभट्टारकरि ||१३||
अवर शिष्यर ||
ܢ
परमाप्ताखिल-शास्त्र-तत्वनिलयं सिद्धान्त-चूड़ामणि स्फुरिताचारपरं विनेय जनतानन्द गुणानीकसु -
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
न्दरनेम्बुन्नतिथिं समस्त - भुवन प्रस्तुत्यनादं दिवाकरणन्दि - प्रतिनाथनुज्वलयशो विभ्राजिताशातटं ॥ १४ ॥ विदितव्याकरणद तर्कद सिद्धान्तद विशेषदि त्रैविद्यास्पदरेन्दी - धरेबणिपुटु दिवाकरणन्दिदेवसिद्धान्तिगरं । १५ । वरराद्धान्तिकचक्रवर्त्ति दुरितप्रध्वंसि कन्दर्पसि— न्धुरसिंहं वर - शील-सद्गुण - महाम्भोराशि पङ्कजपुकर- देवेभ-शशाङ्क-सन्निभ-यश-श्री-रूपना हो दिवाकरणन्दिनतिनिर्मदं निरुपमं भूपेन्द्रवृन्दार्चितं ॥ १६ ॥ ( पश्चिममुख )
वर भव्यानन - पद्ममुल्ललरलज्ञानीक नेत्रोत्पलं कोरगल्पापतमस्तमं परयलेत्त जैनमागमिलाम्बरमत्युज्वल मागलें बेलगिता भूभागमं श्रीदिवाकरर्णान्दवतिवादिवाकरकराकारम्बोलुब्बनुतं ॥ १७ ॥ यद्रक्तृचन्द्रविलसद्वचनामृताम्भःपानेनतुष्यतिविनेयचको
-
जैनेन्द्रशासन सरोवरराजहंसो जीयादसैौभुविदिवाकरणन्दिदेवः || १८ ||
अवर शिष्यरु ||
गडविमुक्तदेव मलधारि-मुनीन्द्ररपादपद्ममं कण्डोडसाध्य में नेनेद भव्यजनक्कम कोण्डचण्ड - दण्ड- विरोधि - दण्ड-नृप-दण्ड- पतत्पृथु-वज्रदण्ड-कोदण्ड- कराल-दण्डधर-इण्डभयं पेरपिङ्गि - पागवे ||१६||
४५
रवृन्दः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख बलयुतरं बलल्चुव लतान्तशरङ्गिदिरागितागिस चलिसे पलचि तूल्दवननोडिसिमेय वगंयाद दूसर। कलेयदे निन्द कर्बुनद कर्गिद सिप्पिनमक्के वेत्त क - त्तलमेनिसित्तु पुत्तडईमेय्य मलं मलधारि-देवरं ॥२०॥ मरेदुमदाम्मे लौकिकद वार्तेयनाडद केत्त बागिलं तेरेयद भानुवस्तमितमागिरे पोगद मेय्यनोम्मेयुं । तुरिसद कुक्कुटासनके सोलद गण्डविमुक्तवृत्तियं
मरेयद घोर-दुश्चर-तपश्चरितं मलधारिदेवर ।।२१।। प्रा-चारित्र-चक्रवर्ति गल शिष्यरु ।। पञ्चेन्द्रिय प्रथित-सामज-कुम्भपीठ-निर्लोट लम्पट महोग्र
समग्र-सिंहः । सिद्धान्त-वारिनिधि-पूर्न-निशाधिनाथा वाभाति भूरिभुवने
शुभचन्द्रदेवः ॥२२॥ शुभ्राभ्राभसुरद्विपामरस रित्तारापतिस्प्रस्फुटज्योत्स्ना-कुन्द-शशीद्ध-कम्बु-कमलाभाशा-तरङ्गोत्करः । प्रख्य-प्रज्वल-कीति मन्वहमिमां गायन्ति देवाङ्गना दिकन्याःशुभचन्द्रदेव भवतश्चारित्रभुभामिनि ।।२३।। शुभचन्द्रमुनीन्द्रयश स्प्रभेयोलसरियागलारदिन्ती चन्द्रं । प्रभुतेगिदे कन्दि कुन्दिद-~नभव-शिरोमणिगदेके कन्दुकुन्दु ॥२४।। एत्तलु बिजयङ्गय्वद
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
मत्तले धर्म्म प्रभावमधिकोत्सवदिं । बित्तरिपुदेनले पोल्वरे मन्त्तिनवरु श्री शुभेन्दु सैद्धान्तिगरं ||२४|| कन्तु मदापहर्सकल- जीव दयापर - जैन-मार्ग-राद्धान्त-पयोधिगल् विषयवैरिगलुद्धत - कर्म्म-भञ्जनर् । स्सन्तत भव्य पद्म-दिनकृत्प्रभरं शुभचन्द्र देव सि-द्धान्तमुनीन्द्ररं पागल्वुदम्बुधि-वेष्टित भूरि-भूतलं ||२५|| ( उत्तरमुख )
ख्यातश्री मलधारिदेवयमिन शिष्योत्तमे स्वर्गते हा हा श्री शुभचन्द्रदेवयति पे सिद्धान्तचूडामणैौ । लोकानुग्रहकारिणि चितिनुते कन्दर्पदपीन्तकं चारित्रोज्वलदीपिका प्रतिहता वात्सल्यवल्ली गता ||२६|| शुभचन्द्रे महस्सान्द्रेऽन्विक्रिते काल राहुया । सान्धकारं जगज्जालं जायतेत्येति नाद्भुतं ||२७|| बाणाम्भोधिनभश्शशाङ्कतुलितेजाते शकाब्दे ततो वर्षे शोभकृताये व्युपनते मासे पुन श्रावणे । पक्षे कृष्णविपक्षवर्त्तिनि सिते वारे दशम्यां तिथैौ स्वर्यातः शुभचन्द्रदेवगणभृत्सिद्धान्तवारान्निधिः ॥ २८ ॥ श्रीमदवरगुड्डु ॥
समधिगतपञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधिपतिमहाप्रचण्डदण्ड
गोत्रपवित्र । बुधजनमित्र |
नायकं । वैरिभयदायक | स्वामिद्रोहगोधूमघरट्ट। सङ्ग्रामजत्तट्ट । विष्णुवर्द्धन-पोयूसल
४
४७
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४८ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख महाराजराज्यसमुद्धरणकलिगलाभरण श्रीजैनधर्मामृताम्बुधिप्रवर्द्धन-सुधाकर-सम्यक्त-रत्नाकराद्यनेकनामावलीसमालङ्कतरप्पश्रीम न्महाप्रधानदण्डनायकगङ्गराजं तम्म गुरुगल श्रीमुलसङ्घददेसिय गणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवगर्गे परोक्षविनयक्के निसिधिगेय निलिसि महापूजेयं माडि महादानमं गेय्दरु॥ आमहानुभावनत्तिगे ॥ शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर गुड्डि ।
वरजिनपूजेयनयादरदिन्दं जक्कणब्बे माडिसुवलुस-1 चरिते गुणान्विते येन्दी धरणीतल मेचि पागलुतिर्युदु निच्चं ॥२६॥ दोरेये जकणिकब्बेगी भुवनदोल चारित्रदोल शीलदोल परमश्रीजिनपूजेयोल सकलदानाश्चर्यदोल सत्यदोल । गुरुपादाम्बुजभक्तियोल विनयदोल भव्यकलं कन्ददादरदि मन्निसुतिर्प पेम्पिनेडेयोल मत्तन्यकान्ताजनम् ॥३०॥ श्रीमत्प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवर गुड्ड हेग्गडेमर्दिमयंबरेदं । बिरुदरूवारिमुखतिलकं बर्द्धमानाचारि खंडरिसिद
मङ्गल महा ॥ श्री श्री ॥ इस लेख में पोय सल महाराज गङ्गनरेश विष्णुवर्धन द्वारा उनके गुरु शुभचन्द्र देव की निषद्या निर्माण कराये जाने का उल्लेख है। शुभचन्द्र देव का स्वर्गारोहण शक सं० १०४५, श्रावण कृष्ण १० को हुश्रा था। इनके गुरु परम्परा-वर्णन में मलिधारिदेव और श्रीधरदेव के उल्लेख तक के प्रथम ग्यारह श्लोक वे ही हैं जो उपर्युक्त शिलालेख नं. ४२ (६६) के हैं। इसके पश्चात् चन्द्रकीर्ति भट्टारक, दिवाकरनन्दि,
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४६
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख गण्डविमुक्तदेव मलधारि मुनीन्द्र और शुभचन्द्र देव का उल्लेख है। लेख में विष्णुवर्द्धन नरेश की भावज जवक्कणब्बे की जैन धर्म में भारी श्रद्धा का भी उल्लेख है। यह लेख प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य हेग्गडे मर्दिमय्य द्वारा रचित और वद्ध मानाचारि द्वारा उत्कीण है।]
४४ (११८) उसी मण्डप में द्वितीय स्तम्भ पर
. . (शक सं० १०४३) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनं ॥१॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे ।
अन्यवादिमदहस्तिमस्तकस्फाटनाय घटने पटीयसे ॥२॥ नमस्सिद्धेभ्यः ॥
जनताधारनुदारनन्यव नितादूरं वचस्सुन्दरी धनवृत्तस्तनहारनुग्ररणधीरं मारनेनेन्दपै । जनकं तानेने माकणब्बे विबुधप्रख्यातधर्मप्रयु
क्ते निकामात्त-चरित्रे तायनलिदेनेचं महाधन्यनो ॥३॥ कन्द ॥ वित्रस्तमलं बुधजनमित्रं
द्विजकुलपवित्रनेच जगदोलु । पात्रं रिपुकुलकन्दखनित्रं
कौण्डिन्य गोत्रनमलचरित्र ॥४॥ वृत्त ॥ परमजिनेश्वरं तनगेदेय्वमलुर्केयिनोल्पु-वेत्त मु
ल्लुरदुरितक्षयर्कनकनन्दिमुनीश्वररुत्तमोत्तम-..
___
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५०
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
गुरुगलुदात्तवित्तनवदात्तयशं नृपकामवोय्सलं पारेद महीनेन्दोडेले बण्पिरार्ने गल्देचिगान ||५||
कं [द] || मनुचरितनेचिगाङ्कन
मनेयोल मुनिजनसमूह; बुधजनमुं । जिनपूजने जिनवन्दने
जिनमहि मे गलाकालमुं शोभिसुगुं ॥ ६ ॥ ग्रामहानुभावनर्द्धाङ्गियेन्त पलेन्दोडे ।
उत्तम गुण- ततिवनिता
वृत्तियनालकोण्डुदेन्दु जगमेल्लं क
य्येत्तुविनममलगुणस—
म्पत्तिगे जगदालगे पोचिकन्ये नान्तलु ॥७॥
तनुवं जिनपतिनुतिथिं ।
धनमं मुनिजनदतृप्तियिं सफलमिदिनगेम्बी नम्बुगेयो
मनमं जगदालगे पोचिकब्वेयेनिरिपलु ||८|| जन विनुतनेचिगाङ्कन -
मनस्सरो हँसि गङ्गराजचमूना -
थन जननि जननि भुवन -
केने नेगल्दल पोचिकब्वे गुणदुन्नतिथिं || ६ || एनिसिद पोचाम्बिके परि
जनमु बुधजनम मोगा मनन्त
ने तदु पर से पुण्यम
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख [न] नन्तमं नेरपि परपि जसमंजगदाल ॥१०॥ व [चन] ॥ इन्तेनिसिदापोचाम्बिके बेलगोलद तीर्थ मोदलागनेकतीर्थगलोलु पलवू चैत्यालयङ्गल माडिसि महादान गेय्दु ॥ वृ त्त] ॥ अदनिन्नेनेम्बेनानन्दमल्द सुकृतमं नोड रोमाञ्च
मादप्पुदु पेल्वुद्योगदिन्दं स्मरियिपदेनमो वीतरागाय गार्हस्थ्यद योषिदभावदी कालद परिणतियिं गेल्दु सल्लेखनासम्पददिन्दं देविपाचाम्बिके सुरपदम लीलेयिं सूरेगोण्डल ॥११॥
सकवर्ष १०४३ नेय सार्वरि संवत्सरदाषाढ़ सुद्ध ५ सोमवारदन्दु सन्यसनम कैकोण्डु एकपावनियमदिं पञ्चपदमनुचारिसुत्त देवलोकक्के सन्दलु ।। आ जगजननियपुत्रं ॥ समधिगतपञ्चमहाशब्द महासामन्ताधिपति महाप्रचण्डदण्डनायकं । वैरिभयदायकं । गोत्रपवित्रं । बुधजनमित्र। श्रीजैनधर्मामृताम्बुधिप्रवर्द्धनसुधाकरं । सम्यक्त्वरत्नाकरं। आहाराभयभैषज्य-शास्त्रदानविनोद। भव्यजनहृदयप्रमोद । विष्णुबर्द्धन भूपालहोयसलमहाराजराज्याभिषेकपुर्णकुम्भ। धर्महोद्धरणमूलस्तम्भ । नुडिदन्तेगण्डपगेवरं बेङ्कोण्ड। द्रोहघरट्टाधनेक नामावलीसमालङ्कतनप्प श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकं गङ्गराजं तनात्माम्बिके पोचलदेवियरु दिवक्के सललु परोक्षविनयक्वन्दी निसिधिगेयं निलिसि प्रतिष्ठे गेरदु महादानपूजार्चनाभिषेकलं माडिद मङ्गलमहा श्री श्री।।
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५२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
श्री प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवगुडुं पेगडे चावराज बरेदं ।।
रूवारिहोयसलाचारियमगं वर्द्धमानाचारि बिरुदरूवारिमुखतिलकं कण्डरिसिद ।।
[ इस लेख में 'मार' और 'माकणब्बे' के सुपुत्र 'एचि' व 'एचिगाङ्क' की भार्या 'पाचिकब्बे' की धर्मपरायणता और अन्त में संन्यास. विधि से स्वर्गारोहण का उल्लेख है । पाचिकब्बे ने अनेक धार्मिक कार्य किये । उन्होंने बेल्गोल में अनेक मन्दिर बनवाये। शक सं० १०४३, आषाढ़ सुदि ५ सोमवार को इस धर्मवती महिला का स्वर्गवास हो जाने पर उसके प्रतापी पुत्र महासामान्ताधिपति, महाप्रचण्ड दण्डनायक, विष्णुवर्द्धन महाराज के मंत्री गङ्गराज ने अपनी माता की स्मारक यह निषद्या निर्माण कराई। ___ यह लेख प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव के गृहस्थ शिष्य चावराज का रचा हुआ और होय सलाचारि के पुत्र वर्धमानाचारि द्वारा उत्कीर्ण है ]
४५ (१२५) एरडु कट्टे वस्ति के पश्चिम की ओर
- एक पाषाण पर।
(लगभग शक सं० १०४०) श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ।। १ ॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे । अन्यवादिमदहस्तिमस्तकस्फाटनाय घटने पटीयसे ।।२।।
स्वस्ति 'समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर द्वारवतीपुर वराधीश्वरं यादवकुलाम्बर धुमणि सम्यक्तचूडामणि मलपरोल
___
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख गण्डाद्यनेकनामावली-समालङ्कतरप्प श्रीमन्महामण्डलेश्वरं त्रिभुबनमल्ल तलकाडुगोण्ड भुज-बलवीर-गङ्ग विष्णुवर्द्धन होयसलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमा चन्द्राकतारं सलुत्तंइरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ वृत्त ।। जनताधारनुदारनन्यवनितादूरं वचस्सुन्दरी
धनवृत्त-स्तन-हारनुपरणधीरं मारनेनेन्दपै । जनकं तानेने माकणब्बे विबुधप्रख्यातधर्मप्रयु.
क्ते निकामात्तचरित्रेतायेनलिदेनेचं महाधन्यनो ॥ ३ ॥ कन्द ॥ वित्रस्तमलं बुधजन-~
मित्रं द्विजकुल पवित्रनेचम् जगदालु । पात्रमरिपुकुलकन्दघनित्रं कौण्डिन्यगोत्रन मलचरित्र ।। ४ ।। मनुचरितनेचिगाङ्कन मनेयोलमुनिजनसमूहमुं बुधजनमुं । जिनपूजनेजिनवन्दने जिनमहिमेगलाव कालमु शोभिसुगुं॥ ५ ॥ उत्तमगुणततिवनितावृत्तियनोलकोण्डुदेन्दु जगमेल्लं कैय्येत्तुविनममलगुणसम्पत्तिगे जगदोलगे पोचिकब्बेयेनोन्तलु ॥ ६ ॥
अन्तेनिसिदेचिराजन पोचिकब्बेय पुत्रनखिल-तीर्थंकरपरम-देव-परम-चरिताकर्णनोदीर्ण-विपुल-पुलक-परिकलित वार
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५४ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख बाणनुवसम-समर-रस-रसिक-रिपु-नृप-कलापावलेप लोप-लोलुपकृपाणनुवाहाराभय-भैषज्य-शास्त्रदान-विनोदनुं सकल - लोक. शोकापनोदनुं॥ वृत्त ॥ वज्र वज्रभृतो हलं हलभृतश्चक्र तथा चक्रिण
शक्तिशशक्तिधरस्य गाण्डिवधनुर्गाण्डीव-कोदण्डिनः । यस्तद्वत् वितनोति विष्णुनृपतेष्कार्य कथं मादृशैः गर्गङ्गो गाङ्ग-तरङ्गरञ्जित-यशो-राशिस्सवर्णो भवेत् ॥ ७ ॥
इन्तेनिप श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकं द्रोहघरट्टगङ्गराज चालुक्यचक्रवर्ति त्रिभुबनमल पेाडिदेवनदलं पनिर्बरस्सामन्तāरसुकण्णेगालबीडिनलुबिट्टिरे ॥ कन्द ॥ तेगेवारुवमं हारुव
बगेयं तनगिरुल बवरवेनुत सवङ्ग । बुगुवकटकिगरनलिरं
पुगिसिदुदु भुजासि गङ्गदण्डाधिपन ॥ ८॥ वचन ॥ एम्बिनमवस्कन्दकेलियिन्दमनिबरु सामन्तरुमं भङ्गिसि
तदीयवस्तु-वाहनसमूहमं निजस्वामिगे तन्दु कोट्टनिज
भुजावष्टम्भक्केमेच्चि मेच्चिदें बेडिकोल्लेने ॥ कन्द । परमप्रसादमं पडेदु
राज्यमं धनमनेनुमं बेडदनस्वरमागे बेडिकोण्डं
परमननिदनहदर्चनाञ्चितचित्त ॥ ६ ॥ अन्तुबेडिकोण्डु ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख वृत्त ॥ पसरिसेकीत्तनं जननिपाचल-देवियरस्थिव मा
डिसिदजिनालयक्कमोसेदात्म-मनोरमे लक्षिदेविमा-। डिसिद जिनालयकमिदुपूजनेयोजितमेन्दुकोटुस
न्तोसमनजस्रमाम्पनेनेगङ्गचमूपनिदेनुदात्तनो ॥ १० ॥ अक्कर ॥ प्रादियागिप्पुंदाहत-समयके मूलसङ्घकोण्डकुन्दान्वयं
बादुवेडदं बलयिपुदल्लिय देसिगगणद पुस्तकगच्छद । बोध-विभवद कुक्कुट्टासनमलधारिदेवर शिष्यरेनिप पेम्पिङ्ग, आदमेसेदिपशुभचन्द्र-सिद्धान्त-देवरगुडुंगड-चमूपति११॥ गङ्गवाडिय बस दिगलेनितालवनितुमम्तानेय्दे पोसयिसिदं गङ्गवाडिय गोम्मटदेवगर्गे सुत्तालयमनेटदे माडिसिदं । गङ्गवाडिय तिगुलरं बेङ्कोण्डु वीरगङ्गङ्ग निमिर्चिकोट्ट गङ्गराजना मुन्निन गङ्गररायङ्ग नूमडिधन्यनल्ते ।। १२ ।। [ यह लेख शिलालेख नं० ५६ ( ७३ ) के प्रथम पैंतीस पद्यों का उद्धरण मात्र है । देखो नं. ५६]
४६ ( १२६ ) एरड्ड कट्टे वस्तिके पश्चिम की ओर मण्डप में
पहले स्तम्भ पर
(शक सं० १०३७ ) (उत्तरमुख) भद्रमस्तु जिनशासनस्य ॥
जयतु दुरितदूरः क्षीरकुपारहारः प्रथितपृथुलकीर्तिश श्री शुभेन्द्रव्रतीशः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
गुणमणिगणसिंधु शिष्टलो कैकबन्धुः विबुधमधुपफुल्ल : फुल्लबागादिसल्लः ॥ १ ॥ श्री चन्द्रलेखे सुरभूरुहदुद्भवदिं पयोधिवेलावधु पेम्पवेत्तवोल निन्दिते नागले चारुरूपली- । लावति दण्डनायकिति लक्कतेदेमति बूचिराजनेबीविभु पुट्टे पेम्पु वडेदार्जिसिदलु पिरिदप्प कीत्तिय ॥ २ ॥ श्रावयब्बेय मगनेन्तप्पनेन्दडे ||
स्वस्ति समस्तभुवनभवनविख्यातख्यातिकान्तानिकामकमनी
५६
यमुखकमलपरागपरभागसुभगीकृतात्मीयवक्तनुं । स्वकीयकायका न्तिपरिहसितकुसुमचापगात्रनुं । श्राहाराभय भैषज्यशास्त्रदानविनोदनुं । सकललोकशोकामनादनुं । निखिल गुणगणाभरणनुं । जिनचरणशरनुमे निसिद बूचणं ।
वृत्त | विनयद सीमे सत्यद तवर्म्मने शैौचद जन्मभूमि येन्दनवरतं पागल्वुदु जनं विबुधोत्करकैरवप्रबोधनहिमरोचियं नेगर्ह बूचियनुद्धपरार्थ सद्गुणा
भिनवदधोचियं सुभटभीकरविक्रमसव्यसाचियं ॥ ३ ॥ प्रायणं सकबर्ष १०३७ नेय विजयसंवत्सरदवैशाखसुद्ध १० आदित्यवार दन्दु सर्व्वसङ्गपरित्यागपूर्व्वकं मुडिपिदं ॥
( पश्चिममुख )
पद्य ॥ त्यागं सर्व्वगुणाधिक तदनुजं शौर्य च तद्वान्धवं धैर्य गर्व्वगुणातिदारुणरिपुं ज्ञानं मनोऽन्यं सतां ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख शेषाशेषगुणं गुणैकशरणं श्रीबूचणोऽत्याहितं सत्यं सत्यगुणीकरोति कुरुते किं वा न चातुर्य्यभाक् ॥ ४ ॥ यो वीर्ये गजवैरिभूयमतुले दानक्रमे बूचणो यस्साक्षात्सुरभूजभूयमवनौ गम्भीरताया विधौ । यो रत्नाकरभूयमुन्नति-गुणे यो मेरुभूयं गतस्सोऽन्ते सान्तमना मनीषिलषितं गीर्वाणभूयंगतः ॥ ५ ॥ माराकारइति प्रसिद्धतरइत्यत्यूजित-श्रीरिति . प्राप्तस्वर्गपतिप्रभुत्वगुणइत्युच्चैर्मनीषीति च । श्रीमद्गङ्गचमूपते प्रियतमा लक्ष्मीसहक्षा शिला-- स्तम्भं स्थापयतिस्म बूचणगुणप्रख्यातिवृद्धि प्रति ।। ६ ॥ धरे लघुवायतु विश्रुतविनेयनिकायमनाथमायतुवाक्तरुणियुमीगली जगदोलार्गमनादरणीयेयादलेन्दिरदे विषादमादमोदवुत्तिरे भव्यजनान्त [रङ्ग] दोलु
निरुपमनेयदिदं नेगई बूचियणं दिविजेन्द्रलोकमं ॥७॥ श्री मूलसङ्घद देसिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर गुड्डं बूचणन निशिधिगे ।।
[इस लेख में 'नागले' माता के सुपुत्र 'बूचिराज' व बूचण के सौन्दर्य, शौर्य और सद्गुणों का उल्लेख है। यह तेजस्वी और धर्मिष्ट पुरुष शक सं० १०३७ वैशाख सुदि १० रविवार को सर्व-परिग्रह का त्यागकर स्वर्गगामी हपा । उनके. स्मरणार्थ सेनापति गङ्ग ने एक पाषाणस्तम्भ आरोपित कराया।
बूचिराज के गुरु मूल संघ, देशीगण पुस्तक गच्छ के शुभचन्द्र . सिद्धान्त देव थे।]
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
४७ (१२७) उसी मण्डप में द्वितीय स्तम्भ पर
(शक सं० १०३७) (दक्षिणमुख)
भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने । कुतीर्थ-ध्वान्तसङ्घातप्रभिन्नघनभानवे ॥ १ ॥ श्रीमन्नाभेयनाथाद्यमलजिनवरानीकसौधोरुवाद्धिः प्रध्वस्ताघ-प्रमेय-प्रचय-विषय-कैवल्यबोधोरु-वेदिः। शस्तस्यात्कारमुद्राशबलितजनतानन्दनादोरुघोषः स्थेयादाचन्द्रतारं परमसुखमहावीर्यवीचीनिकायः ॥ २ ॥ श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गाः श्रीगौतमाद्या: प्रभविष्णवस्ते । तत्राम्बुधौ सप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्तती नन्दिगणे बभूव ॥३॥ श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामाह्याचार्यशब्दोत्तरकाण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारणर्द्धिः ॥४॥ अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिन्छः। तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी ॥५॥ श्रीगृद्धपिछमुनिपस्यबलाकपिञ्छः शिष्योऽजनिष्टभुवनत्रयवर्तिकीर्तिः । चारित्रचुचुरखिलावनिपालमालिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ।।६।। तच्छिष्योगुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरस्तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणस्साहित्यविद्यापतिः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुरघटासङ्घट्टकण्ठीरवो भव्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्पदोपहः ॥७॥ तच्छिष्यात्रिशता विवेकनिधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गतास्तेषूत्कृष्टतमा द्विसप्ततिमितास्सिद्धान्तशास्त्रार्थकव्याख्याने पटवो विचित्रचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसैद्धान्तिकः ॥८॥ अजनि महिपचूड़ारत्नराराजिताजि - विजितमकरकेतूदण्डदाईण्डगर्वः । कुनयनिकरभूधानीकदम्भोलिदण्ड स्सजयतु विबुधेन्द्रो भारतीभालपट्टः ।।६।। तच्छिष्यः कलधौतनन्दिमुनिपस्सैद्धान्तचक्रेश्वरः पारावारपरीतधारिणिकुलव्याप्तोरुकीतॊश्वरः । पञ्चाक्षोन्मदकुम्भिकुम्भदलनप्रोन्मुक्तमुक्ताफल--- प्रांशुप्राञ्चितकेसरी बुधनुतो वाकामिनीवल्लभः ॥१०॥ तत्पुत्रको महेन्द्रादिकीर्तिर्मदनशङ्करः । यस्य वाग्देवता शक्ता श्रौती मालामयूयुजत् ।।११।। तच्छिष्योवीरणन्दीकवि-गमक-महावादि-वाग्मित्वयुक्तो यस्य श्रीनाकसिन्धुत्रिदशपतिगजाकाशसङ्काशकीर्त्ति । गायन्त्युच्चैहि गन्ते त्रिदशयुवतयः प्रीतिरागानुबन्धात् सोऽयं जीयात्प्रमादप्रकरमहिधराभीलदम्भोलिदण्डः ॥१२॥ श्रीगोलाचायनामा समजनि मुनिपश्शुद्धरत्नत्रयात्मा सिद्धात्माद्यर्थ सार्थ-प्रकटनपटु-सिद्धान्त-शास्त्राब्धि-वीची
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
सङ्घातक्षालिताहः प्रमदमदकलालीढबुद्धिप्रभाव : जीयाद्भू पाल- मौलि-धुमणि- विदलिताङ्ग प्रब्जलक्ष्मीविलासः ॥ पेगडे चावराजं बरेदंमङ्गल ||
( पश्चिममुख)
वीरणन्दि विबुधेन्द्रसन्तती नूनचन्दिलनरेन्द्र वंशचू
:
डामणिः प्रथितगालदेशभूपालकः किमपि कारखेन सः ||१४|| श्रीमत् काल्ययेागी समजनि महिकाकाय लग्नातनुत्र यस्याभूद्दृष्टिधारा निशित-शर गया श्रीष्ममार्त्तण्डबिम्बं ।
चक्रसद्वृत्तचापाकलितयतिवरस्याघशत्रून्विजेतुं गोल्लाचार्य्यस्य शिष्यस्सजयतु भुवने भव्य सत्कैरवेन्दुः ॥ १५ ॥ तपस्सामर्थ्यता यस्य छात्रोऽभूद्ब्रह्मराक्षसः ।
यस्य स्मरणमात्रेण मुञ्चन्ति च महाग्रहाः || १६ || प्राज्याज्यतां गतं लोके करञ्जस्य हि तैलकं । वपस्सामर्थ्यातस्तस्य तपः किं वर्णितु क्षमं ॥ १७ ॥ त्रैकाल्य-योगि- यतिपाग्र-विनेयरत्नसिद्धान्तवार्द्धिपरिवर्द्धन पूर्णचन्द्रः । दिग्नागकुम्भलिखितेाज्ज्वल कीर्त्ति कान्तो जीयादसावभयनन्दिमुनिर्ज्जगत्यां ॥ १८ ॥
येनाशेषपरीषहादिरिपवस्सम्यग्जिताः प्रोद्धता:
येनाप्ता दशलक्षणोत्तममहाधम्र्माख्यकल्पद्रुमाः । येनाशेष भवेोपताप - हननस्वाध्यात्मसंवेदनं प्राप्त स्यादभयादिनन्दिमुनिपरसेोऽयं कृतार्थो भुवि ॥६-६||
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख तच्छिष्यस्सकलागमार्थनिपुणो लोकज्ञतासंयुत. स्सच्चारित्रविचित्रचारुचरितस्सौजन्यकन्दाङ्करः । मिथ्यात्वाब्जवनप्रतापहननश्रीसोमदेवप्रभुजर्जीयात्सत्सकलेन्दुनाममुनिपः कामाटवीपावकः ॥२०॥ अपिच सकलचन्द्रो विश्वविश्वम्भरेश प्रणुतपदपयोजः कुन्दहारेन्दुरोचिः । त्रिदशगजसुवज्रव्योमसिन्धुप्रकाश प्रतिमविशदकीर्तिग्विधूकर्णपूरः ॥२१।। शिष्यस्तस्य दृढ़व्रतश्शमनिधिस्सत्संयमाम्भानिधिः शीलानां विपुलालयस्समितिभिर्युक्तिस्त्रिगुप्तिश्रितः । नानासद्गुणरत्नरोहणगिरिर प्रोद्यत्तपो जन्मभूः प्रख्यातो भुवि मेघचन्द्रमुनिपस्त्रविद्यचक्राधिपः ॥ २२ ॥ विद्ययोगीश्वर-मेघचन्द्रस्याभूत्प्रभाचन्द्रमुनिस्सुशिष्यः। शुम्भद्रताम्भोनिधिपूर्णचन्द्रो निद्धृतदण्डत्रितयो विशल्यः २३ पुष्पास्त्रानून-दानोत्कट-कट-करटिच्छेद-दृप्यन्मृगेन्द्रः नानाभव्याब्जषण्डप्रतति-विकसन-श्रीविधानकभानुः । संसाराम्भोधिमध्योत्तरणकरणतीयानरत्नत्रयेश: सम्यग्जैनागमान्वित-विमलमतिः श्री प्रभाचन्द्र
योगी ॥ २४॥ ( उत्तरमुख)
श्रीभूपालकमौलिलालितपदस्सज्ञानलक्ष्मीपतिश्चारित्रोत्करवाहनश्शितयशश्शुभ्रातपत्राञ्चितः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख त्रैलोक्याद्भुतमन्मथारिविजयस्सद्धर्मचक्राधिपः पृथ्वीसंस्तवतूर्यघोषनिनदस्त्रविद्यचक्रेश्वरः ॥ २५ ।। शाब्दीघस्य शिरोमणिः प्रविलसत्तर्कज्ञचूड़ामणिः सैद्धान्तेद्धशिरोमणिः प्रशमवद् ब्रातस्य चूड़ामणिः। प्रोद्यत्संयमिनां शिरोमणिरुदञ्चद्भव्यरक्षामणिजर्जीयात्सन्नुतमेघचन्द्रमुनिपस्त्रविद्यचूड़ामणिः ।। २६ ॥ विद्योत्तममेघचन्द्रयमिनः पत्युममासि प्रिया वाग्देवी दिसहावहित्थहृदया तश्यकार्थिनी। कीर्तिर्वारिधिदिककुलाचलकुले स्वादात्मा प्रष्टुमप्यन्वेष्टु मणिमन्त्रतन्त्रनिचयं सा सम्भ्रमाभ्राम्यति ॥२७।। तकन्यायसुवज्रवेदिरमलाहत्सूक्तितन्मौक्तिकः शब्दग्रन्थ विशुद्धशङ्खकलितस्स्याद्वादसद्विद्रुमः । व्याख्यानोर्जितघोषणर प्रविपुलप्रज्ञोद्धवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेघचन्द्र-मुनिपस्त्रविद्य-रत्नाकरः ।। २८ ।। श्रीमूलसङ्घकृत-पुस्तक-गच्छ-देशी योद्यद्गणाधिपसुतार्किकचक्रवर्ती । सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेघचन्द्र
स्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधा(:) स्तुवन्ति ।। २६ ।। सिद्धान्ते जिन-वीरसेन-सदृशः शास्याब्ज-भा-भास्करः षटतर्केष्वकलङ्कदेवविबुधः साक्षादयं भूतले । सर्व-व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादस्स्वयं विद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपञ्चाननः ॥ ३० ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
रुद्राणीशस्य कण्ठे धवलयति हिमज्योतिषाजातमङ्क पीतं सौवर्ण्यशैलं शिशुदिनपतनुं राहुदेहं नितान्तं । श्रीकान्तावभाङ्ग कमलभववपुम्र्मेघचन्द्रप्रतीन्द्रत्रैविद्यस्याखिलाशावलयनिलय सत्कीर्त्तिचन्द्रातपोऽसौ ||३१|| मुनिनाथं दशधर्म्मधारि दृढषट् - त्रिंशद्गुणं दिव्य-बानिधानं निनगिक्षुचापमलिनीज्यासूत्रमारान्दे पूविन बाणङ्गलुमयदे होननधिकङ्गाक्षेपमंमादावनयं दर्पक मेघचन्द्र मुनियोल मानिन्नदेोईर्पमं ॥ ३२ ॥ मृदुरेखाविलासं चावराज- बलहदलबरेदुद बिरुद रूवा - रिमुख-तिलकगङ्गाचारि कण्डरिसिद शुभचन्द्र सिद्धान्त
देवरगुड | ( पूर्वमुख )
श्रवणीयं शब्द विद्यापरिणति महनीय' महातर्कविद्याप्रवणत्वं लाघनीयं जिननिगदित-संशुद्धसिद्धान्तविद्याप्रवणप्रागल्भ्यमंन्देन्दुपचितपुलकं कीर्त्तिसल कूर्त्तु विद्वनिवहं त्रैविद्यनाम - प्रविदितनेसेदं मेघचन्द्रवतीन्द्र ||३३|| क्षमेगीगल जौवनं तीविदुदतुलतप श्रीगे लावण्यमीगल् समसन्दिद्देत्तु तन्निं श्रुतवधुगधिक प्रौढियायतीगलेन्दन्दे महाविख्यातियं ताल्दिदनमलचरित्रोत्तमं भव्यचेतारमणं त्रैविद्यविद्योदितविशदयशं मेघचन्द्रव्रतीन्द्र ||३४|| इदे हंसीवृन्दमण्डल बगेदपुदु चकोरीचयं चचुविन्द कदुकलू साईप्पुदीशं जडेयोलिरिसलेन्दिर्द्धपं सेज्जेगेरलू ।
६३
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख पदेदप्पं कृष्णनेम्बन्तेसेदु बिस-लसत्कन्दलीकन्दकान्त पुदिदत्ती मेघचन्द्रव्रतितिलकजगदर्तिकीर्तिप्रकाश ॥३५॥ पूजितविदग्धविबुधसमाजं त्रैविद्य-मेघचन्द्र-ब्रति सराजिसिदं विनमितमुनिराजं वृषभगणभगणताराराजं ॥३॥
सक वर्ष १०३७ नेय मन्मथसंवत्सरद मार्गसिर सुद्ध १४ बृहवारं धनुलग्नद पूर्वाह्नदारुघलिगेयप्पागलु श्रीमूलसङ्घद देसिगगणद पुस्तकगच्छद श्रोमेघचन्द्रविद्य देवतम्मवशानकालमनरिदु पल्यङ्काशनदोलिई प्रात्मभावनेयं भाविसुत्तुं देवलोकके सन्दराभावनेयेन्तप्पुदेन्दोडे ।। अनन्त-बोधात्मकमात्मतत्त्वं निधाय चेतस्यपहाय हेयं । विद्यनामा मुनिमेषचन्द्रो दिवं गताबोधनिधिविशिष्टाम् ।।
अवरप्रशिष्यरशेष-पद-पदार्थ-तत्त्व-विदरु सकलशास्त्रपारावारपारगरु गुरुकुल्लसमुद्धरणरुमप्प श्री प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तदेवतम्म गुरुगलो परोक्षविनेयं कारणमागि श्रीकब्बप्पु-तीर्थदल तम्म गुडु ॥
समधिगतपञ्चमहाशब्द महासामन्ताधिपति महाप्रचण्ड दण्डनायक वैरिभयदायकं गोत्रपवित्रं बुधजनमित्र स्वामिद्रोहगोधूमघरट्टसङ्ग्रामजत्तलट्ट विष्णुवर्द्धनभूपालहोयसलमहाराजराज्य-समुद्धरण कलिगलाभरण ओजैनधर्मामृताम्बुधि-प्रवर्द्धनसुधाकर सम्यक्तरत्नाकर श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकगङ्गराजनु
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ६५ मातन मनस्सरोवरराजहंसे भव्यजनप्रसंसे गोत्र-निधाने रुक्मिणो समाने लक्ष्मीमतिदण्डनायकितियुमन्तवरिन्दमतिशयमहाविभूतियिं सुभलमदोलु प्रतिष्ठेय माडिसिदर प्रामुनीन्द्रोत्तमर ईनिसिधिगेयन् अवर तपःप्रभावमेन्तप्पुदेन्दोडे । समदोद्यन्मार-गन्ध-द्विरद-दलन १-कण्ठीरवं क्रोध-लोभद्रुम-मूलच्छेदनं दुर्द्धरविषयशिलाभेद-वज्र-प्रतापं । कमनीयं श्रोजिनेन्द्रागमजलनिधिपारं प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तमुनीन्द्र मोहविध्वंसनकरनेसेदं धात्रियोल योगिनाथ ।। ३८ ।।
चावराज बरेद ।। मत्तिन मातवन्तिरलि जीर्ण जिनाश्रयकोटियं क्रम बेत्तिरे मुन्निनन्तिरनितूर्गलोलं नेरे माडिसुत्तम --- त्युत्तमपात्रदानदोदवं मेरेवुत्तिरे गङ्गवाडितोम्बत्तरु सासिरं कोपणमादुदु गङ्गणदण्डनाथनिं ॥ ३८ ॥ सोभेयनें कैकोण्डुदो सौभाग्यद-कणियेनिप्प लक्ष्मीमतियन्दीभुवनतलदोला हाराभयभैसज्यशास्त्र-दान-विधान ॥४०॥
[यह लेख मेघचन्द्र विद्यदेव की प्रशस्ति है। प्रथम श्लोक को छोड़ आदि के नव पद वे ही हैं जो शिलालेख नं० ४१ (६६) में भी पाये जाते हैं। उनमें कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति गृद्ध पिञ्छ, बलाक पिच्छ, गुण नन्दि, देवेन्द्र सैद्धान्तिक और कलधौतनन्दि मुनि का उल्लेख है।
१ द्विरदन-बल
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६६
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
कलधौतनन्दि के पुत्र महेन्द्रकीर्त्ति हुए जिनकी आचार्य परम्परा में क्रम से वीरनन्दि, गोलाचार्य, त्रैकाल्ययोगी, अभयनन्दि और सकलचन्द्र मुनि हुए । लेख में इन श्राचार्यों के तप और प्रभाव का अच्छा वर्णन है । त्रैकाल्ययोगी के विषय में कहा गया है कि तप के प्रभाव से एक ब्रह्मराक्षस उनका शिष्य होगया था । उनके स्मरणमात्र से बड़े बड़े भूत भागते थे, उनके प्रताप से करञ्ज का तैल घृत में परिवर्तित होगया था । सकलचन्द्रमुनि के शिष्य मेवचन्द्र त्रैविद्य हुए जो सिद्धान्त में वीरसेन, तर्क में प्रकलङ्क और व्याकरण में पूज्यपाद के समान विद्वान् थे ।
शक सं० १०३७ मार्गसिर सुदि १४ बृहस्पतिवार को उन्होंने सद्ध्यानसहित शरीर त्याग किया | उनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव ने महाप्रधान दण्डनायक गङ्गराज द्वारा उनकी निषद्या निर्माण कराई |
लेख चावराज का लिखा हुआ है । ]
४८ (१२८ )
उसी मण्डप में तृतीय स्तम्भ पर ( शक सं० १०४४ )
श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयास्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥
जयतु दुरितदूर: क्षीरकूपारहारः प्रथित पृथुल कीर्त्ति श्री शुभेन्दुव्रतीशः । गुणमणिगण सिन्धुः शिष्टलेोकैकबन्धुः विबुध- मधुप फुल फुलबाणादि-सलः ॥ २ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
वर गुड्डि ||
परमपदार्थ निर्भयमनान्त विदग्धते दुर्भयङ्गलालू परिचयमेन्दु मिल्लदतिमुग्धते तन्निनियङ्ग े चित्तदोत् । पिरिदनुरागमं पडेव रूपु विनेयजनान्तरङ्गदाल निरुपमभक्तियं पडेव पेम्पिवु लक्ष्मलेगेन्दुमन्वितं ॥ ३ ॥ चतुरतेयोल लावण्य दो
लतिशयमेने नेगल्द देवभक्तियोलिन्ती
क्षितियोलगे गङ्गराजन
सति लक्ष्म्यम्बिकेयोलितरसतियद्दरेये ॥ ४ ॥
सौभाग्यदलमर्दादं
सोभास्पदमादरूपिनेोपि प्रत्य
क्षीभूत लक्ष्मियेन्दपु
दी भूतलमिनितुमेदे लक्ष्मीमतियं ॥ ५ ॥ शोभेनें कोण्डुदो
सौभाग्यद कणियेनिप्प लक्ष्मीमतिथि
न्दी भुवन- तलदोलाहा
राभय-भैश (प)ज्यशास्त्रदानविधानं ॥ ६ ॥ वितरणगुणमदे वनिता
कृतियं कयू कोण्डुदेनिप महिमेय लक्ष्मीमतियेलवा देवताधि
ष्टितेयल्ल दे केवलं मनुष्याङ्गनेये ॥ ७ ॥ इभगमने हरिलोचने
६७
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख शुभलक्षणे गङ्गराजनाङ्गने तानभिनवरुम्मिणिये नली
ऋभुवनदोल पोल्वरोलरे लक्ष्मीमतियं ॥८॥
श्रीमूलसङ्घद देशियगणद पुस्तकगच्छद श्रीमत्-शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवर गुड्डि दण्डनायकिति लक्कव्वे सक वर्षे १०४४ नेय प्रवसम्वत्सरद शुद ११ शुक्रवारदन्दु सन्यसनं गेयदु समाधिवेरसि मुडिपि देवलोकके सन्दल ।। ___ परोक्षविनेयके निषिधिगेयं श्रीमदण्डनायक-गङ्गराज निलिसि प्रतिष्ठेमाडि महादानमहापुजेगलं माडिदरु मङ्गल महा श्री श्री ।।
[ इस लेख में दण्डनायक गङ्गराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति के गुण, शील और दान की प्रशंसा की गई है। इस धर्मपरायण साध्वी महिला ने शक सं० १०४४ में संन्यास-विधि से शरीर त्याग किया। वह मूलसंघ पुस्तक-गच्छ देशीगण के शुभचन्द्राचार्य की शिष्या थी। अपनी साध्वी स्त्री की स्मृति में दण्डनायक गङ्गराज ने यह निषद्या निर्माण कराई।
४८ (१२८) उसी मण्डप में चतुर्थ स्तम्भ पर
(शक सं० १०४२) ( उत्तरमुख ) भद्रमस्तु जिनशासनस्य ।।..
जयतु दुरितदूरः तीरकूपारहारः
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख प्रथितपृथुलकीर्तिश्श्री शुभेन्द्र ब्रतीशः । गुणमणिगणसिन्धुः शिष्ट लोकैकबन्धुः विबुधमधुपफुल्लः फुल्लबाणादिसल्लः ॥ १ ॥ श्रोवधुचन्द्रलेखे सुरभूरुहदुद्भवदिं पयोधि-वेलावधु पेम्पु वेत्तवोलनिन्दिते नागले चारुरूपली- .. लावति दण्डनायकिति लक्कले देमति बूचिराजने म्बी विभु पुट्टे पेम्पु वडेदार्जिसिदल पिरिदप्पकीर्तियं ॥२॥
वचन ॥ आ यब्बेय मगलेन्तप्पलेन्दडे । स्वस्ति निस्तुषातिजितवृजिन-भाग - भगवदर्हदहणीयचारुचरणारविन्दद्वन्द्वानन्दवन्दनवेलाविलोकनीयाक्ष्मायमाण-लक्ष्मीविलासेयुं । अपहसनीयस्वीयजीवितेशजीवितान्तजीवनविनोदानारतरतरतिविलासेयु । कालेयकालराक्षसरक्षाविकलसकलवाणिजत्राणतिप्रचण्डचामुण्डातिश्रेष्ठराजश्रेष्ठिमानसराजमानराजहंसवनिताकल्पेयुं । परमजिनमतपरित्राणकरणकारणीभूत -जिनशासनदेवताकाराकल्पेयुं । अभिरामगुणगणवशीकरणीयतानुकरणीयधरणीसुतेयु । श्रीसाहित्यसत्यापितक्षीरोदसुतेयुं । सद्धर्मानुरागमतियुएनिसिददेमियक। पद्य ॥ श्रीचामुण्डमनोमनोरथरथव्यापारणैकक्रिया
श्रीचामुण्डमनस्सरोजरजसाराजविरेफाङ्गना । श्रीचामुण्डगृहाङ्गणोद्गतमहाश्रीकल्पवखी स्वयं श्रीचामुण्डमनःप्रिया विजयतांश्रीदेमवत्यङ्गना ॥ ३ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख (पश्चिममुख)
आहारं त्रिजगज्जनाय विभयं भीताय दिव्यौषधं व्याधिव्यापदुपेतदीनमुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमं । एवं देवमतिस्सदैव ददती प्रप्रक्षये स्वायुषा-- महदेवमतिंविधाय विधिना दिव्या वधू प्रोदभू ।। ४ ।। आसीत्परक्षोभकरप्रतापाशेषावनीपालकृतादरस्य । चामुण्डनाम्रो वणिजःप्रियास्त्री मुख्यामती या भुविदे
मतीति ॥ ५॥ भूलोक-चैत्यालय-चैत्य-पूजा-व्यापार-कृत्यादरतोऽवतीर्णा स्वर्गात्सुरस्त्रीतिविलोक्यमाना पुण्येनलावण्यगुणेनयात्र ॥६॥
आहारशास्त्राभयभेषजानां दायिन्यलंवर्णचतुष्टयाय । पश्चात्समाधिक्रिययायुरन्ते स्वस्थानवत्स्व: प्रविवेशयोच्चैः॥७॥ सद्धर्मशत्रु कलिकालराज जित्वा व्यवस्थापितधर्मवृत्या । तस्याजयस्तम्भनिभंशिलाया स्तम्भंव्यवस्थापयतिस्म लक्ष्मीः।८।
श्रीमूलसङ्घद देशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवर गुड्डि सकवर्ष १०४२ नेय विकारिसंवत्सरदफाल्गुणब ११ बृहवारदन्दु सन्यासन विधियिं देमियक मुडिपिदलु ॥
[इस लेख में चामुण्ड नाम के किसी प्रतिष्ठित और राजसन्मानित वणिक की धर्मवती भार्या 'देमति' व 'देवमति' की प्रशंसा है। इस महिला की माता का नाम 'नागले' व उसके एक भाई और बहिन के नाम क्रमश: बूचिराज और लक्कले थे। दान-पुण्य के कार्यों में जीवन
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
व्यतीत कर इस महिला ने शक सं० १०४२, फाल्गुण वदि बृहस्पति वार को संन्यास-विधि से शरीर त्याग किया। यह महिला शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या थी।
५० (१४०) गन्धवारण बस्ती के प्रथम मण्डप में एक स्तम्भ पर
(शक सं० १०६८) (पूर्वमुख)
भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने । कुतीर्थध्वान्तसङ्घातप्रभिन्नघनभानवे ।। १ ।। श्रीमन्नाभेयनाथाद्यमलजिनवरानीकसौधोरुवाद्धिः प्रध्वस्ताघप्रमेयप्रचयविषयकैवल्यबोधोरुवेदिः । शस्तस्यात्कारमुद्राशबलितजनतानन्दनादोरुघोषः स्थेयादाचन्द्रतारं परमसुखमहावीर्यवीचीनिकायः ॥ २ ॥ श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरत्नवर्गाः श्रोगौतमाद्या: प्रभविष्णवस्ते । तत्राम्बुधौसप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्ततीनन्दिगणे बभूव ।। ३ ॥ श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामाह्याचार्यशब्दोत्तरकाण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।। ४ ॥ अभूदुमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्ध
पिञ्च्छः। तदन्वयेतत्सदृशोऽस्तिनान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी ॥५॥ श्रीगृद्धपिन्छमुनिपस्यबलाकपिञ्छः शिष्योऽजनिष्टभुवनत्रयवर्त्तिकीर्तिः ।
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७२
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
चारित्रचञ्चुरखिलावनिपाल मौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः || ६ || तच्छिष्येोगुणन न्दि पण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरस्तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणस्साहित्यविद्यापतिः ।
मिथ्यावादिमदान्धसिन्धुरघटासङ्घकण्ठीरवो
भव्याम्भोज दिवाकरो विजयतां कन्दर्पदर्पापहः ॥ ७ ॥ तच्छिष्यास्त्रिशता विवेकनिधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गतास्तेषूत्कृष्टतमा द्विसप्ततिमितास्सिद्धान्तशास्त्रार्थकः व्याखाने पटवो विचित्रचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्र सैद्धान्तिकः ॥ ८ ॥ अजनि महिपचूड़ारत्नराराजिताङ्घ्रि - र्व्विजित मकरकेतूद्दण्डदे | ईण्डगर्व्वः ।
कुनयनिकरभूषानीकदम्भोलिदण्ड
जयतु विबुधेन्द्रो भारती भालपट्टः ॥ ८ ॥ तच्छिष्यः कलधैौतनन्दिमुनि पस्सैद्धान्तचक्रेश्वरः पारावारपरीतधारिणि कुलव्याप्तोरुकीर्तीश्वरः ।
पञ्चाक्षोन्मदकुम्भिकुम्भदलनप्रोन्मुक्तमुक्ताफलप्रांशुप्राञ्चितकेसरी बुधनुतो वाक्कामिनीवल्लभः ॥ १० ॥ तत्पुत्रको महेन्द्रादिकीर्त्तिर्म्मदनशङ्करः ।
यस्य वाग्देवता शक्ता श्रौती मालामयूयुजत् ॥ ११ ॥ तच्छिष्य वीरणन्दी कवि गमक- महावादि वाग्मित्वयुक्तो यस्य श्रीनाक सिन्धुत्रिदशपतिगजाकाशसङ्काशकीर्त्तिः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ७३ गायन्त्युच्चैदिगन्ते त्रिदशयुवतयः प्रीतिरागानुबन्धात् सोऽयं जीयात्प्रमादप्रकरमहिधराभीलदम्भोलिदण्डः ॥१२॥ श्रीगोल्लाचार्य्यनामा समजनि मुनिपश्शुद्धरत्नत्रयात्मा सिद्धात्माद्यर्थ-साथ-प्रकटनपटु-सिद्धान्त शास्त्राब्धि-वीचीसङ्घातक्षालिताहः प्रमदमदकलालीढबुद्धिप्रभावः जीयाद्भपाल-मौलि-धुमणि-विदलिताच बब्जलक्ष्मी
विलासः ॥ १३ ॥ वीरान्दविबुधेन्द्रसन्ततौ नूत्नचन्दिलनरेन्द्रवंशचूडामणिः प्रथितगालदेशभूपालकः किमपि कारणेन सः॥१४।। श्रीमत्वैकाल्ययोगी समजनि महिकाकायलग्नातनुत्र यस्याभूवृष्टिधारा निशित-शर-गणा ग्रीष्ममार्तण्डबिम्बं । चक्रसद्वृत्तचापाकलितयतिवरस्याघशत्रून्विजेतुं गोल्लाचार्यस्य शिष्यस्सजयतु भुवने भव्यसत्करवेन्दुः ॥१५॥
गङ्गण्णन लिखित (दक्षिणमुख)
तपस्सामर्थ्यता यस्य छात्रोऽभूद्ब्रह्मराक्षसः । यस्य स्मरणमात्रेण मुञ्चन्ति च महाग्रहाः ॥१६॥ प्राज्याज्यतां गत लोके करजस्य हि तैलकं । तपस्सामर्थ्यतस्तस्य तपः किं वर्णितुंक्षमं ॥ १७ ॥ त्रैकाल्य-योगि-यतिपान-विनेयरत्नस्सिद्धान्तवाद्धिपरिवर्द्धनपूर्णचन्द्रः।। दिग्नागकुम्भलिखितोज्ज्वलकीर्तिकान्तो
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख जीयादसावभयनन्दिमुनिर्जगत्यां ।। १८ ।। येनाशेषपरीषहादिरिपवस्सम्यग्जिता: प्रोद्धताः येनाप्ता दशलक्षणोत्तममहाधमांख्यकल्पद्रुमाः । येनाशेष-भवोपताप-हननं स्वाध्यात्मसंवेदनं प्राप्त स्यादभयादिनन्दिमुनिपस्सोऽयं कृतार्थो भुवि ॥ १६ ॥ तच्छिष्यस्सकलागमायनिपुणो लोकज्ञतासंयुतस्सच्चारित्रविचित्रचारुचरितस्सौजन्य कन्दाकरः । मिथ्यात्वाब्जवनप्रतापहननश्श्रीसोमदेवप्रभु
र्जीयात्सत्सकलेन्दु नाममुनिपः कामाटवीपावकः ।। २० ।। अपिच सकलचन्द्रो विश्वविश्वम्भरेशप्रणुतपदपयोज: कुन्दहारेन्दुरोचिः । त्रिदशगजसुवज्रव्योमसिन्धुप्रकाशप्रतिमविशदकीर्तिग्विधूकर्णपूरः ।। २१ ।। शिष्यस्तस्य दृढ़व्रतश्शमनिधिस्सत्संयमाम्भोनिधिः शीलानां विपुलालयस्समितिभिर्युक्तिस्त्रिगुप्तिश्रितः । नानासद्गुणरत्नरोहणगिरिः प्रोद्यत्तपोजन्मभूः प्रख्यातो भुवि मेघचन्द्र मुनिपस्त्रविद्यचक्राधिपः ॥२२॥ श्रीभूपालकमौलिलालितपदस्तज्ञानलक्ष्मीपतिश्चारित्रोत्करवाहनश्शितयशश्शुभ्रातपत्राश्चितः । त्रैलोक्याद्भुतमन्मधारिविजयस्सद्धर्मचक्राधिपः पृथ्वीसंस्तवतूर्यघोषनिनदस्त्रविद्यचक्रेश्वरः ।। २३ ।।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख शाब्दीघस्य शिरोमणिः प्रविलसत्तज्ञचूड़ामणि: सैद्धान्तेषुशिरोमणिः प्रशमवद्-ब्रात्तस्य चूड़ामणिः । प्रोद्यत्संयमिनां शिरोमणिरुदञ्चद्भव्यरक्षामणिजर्जीयात्सन्नुतमेघचन्द्रमुनिपस्त्रविद्यचूड़ामणिः ।। २४।। विद्योत्तममेघचन्द्रयमिनः पत्युर्ममासि प्रिया वाग्देवी दिसहावहित्य हृदया तश्यकार्थिनी । कीर्तिर्वारिधि दिककुल्लाचलकुलस्वादात्म [..] प्रष्टुमप्यन्वेष्टु मणिमन्त्रतन्त्रनिचयं सा सम्भ्रमाभ्राम्यति ।।२५।। तकन्यायसुवनवेदिरमलार्हत्सूक्तितन्मौक्तिकः शब्दग्रन्थविशुद्धशङ्खलितस्स्याद्वादस द्विद्रुमः । व्याख्यानार्जितघोषणः प्रविपुलप्रज्ञोद्धवीचीचयो जीयाद्विश्रुतमेघचन्द्र-मुनिपस्त्रविद्य-रत्नाकरः ॥ २६ ॥
श्रीमूल सङ्घकृत-पुस्तक-गच्छ देशी योद्यद्गणाधिपसुतार्किकचक्रवर्ती । सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणिमेघचन्द्रस्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधा (:) स्तुवन्ति ॥ २७ ॥ सिद्धान्ते जिनवीरसेन-सहशश्शास्याब्ज-भा-भास्करः षट्तर्केष्वकलङ्कदेवविबुधस्साक्षादयं भूतले । सर्व-व्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादस्वयं विद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीभपञ्चाननः ॥ २८ ॥ लिखिता मनोहर परनारीसहोदरनप्प गङ्गण्णन लिखित (पश्चिममुख)
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७६
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
रुद्राणीशस्य कण्ठं धवलयति हिमज्योतिषोजातमङ्क पीतं सैावर्ण्यशैलं शिशुदिनपतनुं राहुदेहं नितान्तं । श्रीकान्तावलभाङ्ग कमलभववपुर्मेघ चन्द्रव्रतीन्द्रत्रैविद्यस्याखिलाशावलयनिलय सत्कीर्त्तिचन्द्रातपोऽसौ ||२६||
मूवत्तारुं गुणदि
भावजनं कट्टि पेट्ट- बेलेदर वृषदि ।
भाविपडे मेघचन्द्र
विद्यारदेन्तो शान्तरसमं तलेदर ।। ३० ।। मुनिनाथं दशधर्म्मधारिदृढ़षत्रिंशद्गुणं दिव्यवा- निधानं निनगिन्तु चापमलिनीज्या सूत्रमा रोन्देपू - विन बाङ्गलुमयूदे हीननधिकङ्गाक्षेपमं माल्पुदा
नयं दप्र्पक मेघचन्द्र मुनियोलू माणूनिन्नदेोपमं ॥ ३१ ॥ श्रवणीयं शब्दविद्यापरिणतिमहनीयं महातर्कविद्याप्रवणत्वं श्लाघनीयं जिननिगदितसंशुद्धसिद्धान्तविद्याप्रवणप्रागल्भ्यमेन्देन्दुपचितपुलकं कीर्त्तिसल कूर्त्त विद्वन्निवहं त्रैविद्यनामप्रविदितनेसेदं मेघचन्द्रब्रतीन्द्रं ॥ ३२ ॥ क्षमेगीगल जौवनं तीविदुदतुलतपः श्रीगे लावण्यमीगल् समेसन्दित्तु तन्निं श्रुतवधुराधिक प्रौढियारती गलेन्दन्दे महाविख्यातियं ताल्दिदनमलचरित्रोत्तमं भव्यचेतारम त्रैविद्यविद्योदितविशदयशं मेघचन्द्र व्रतीन्द्र ॥ ३३ ॥ st हंसीवृन्द मीण्टल बगेदपुदु चकोरीचय' चञ्चु विन्दं कदुकल साईप्पुदीशं जडेयेोगिरिस लेन्दिईपंसेज्जे गेरल |
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७७
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख पदेदप्पं कृष्णनेम्बन्तेसेदु बिसलसत्कन्दलीकन्दकान्त पुदिदत्ती मेघचन्द्रब्रतितिलकजगदर्तिकीर्तिप्रकाशं ॥३४॥ पूजितविदग्धविबुध-समाजं त्रैविद्यमेघचन्द्रबतिरा-- राजिसिदं विनमितमुनिराजं वृषभगणभगणताराराजं ।। ३५ ।। स्तब्धात्मरनतनुशरतुब्धरने वोगल्वे पोगले जिनशासन-दुग्धाब्धिसुधांशुवनखिल-क--
कुद्धवलिमकीर्ति मेघचन्द्रबतियं ।। ३६ ।। तत्सधर्मरु ॥
श्रीबालचन्द्रमुनिराजपवित्रपुत्रः प्रोदप्तवादिजनमानलतालवित्रः । जीयादयं जितमनोजभुजप्रतापः स्याद्वादसूक्तिशुभगश्शुभकीर्तिदेवः ॥ ३७॥ किंवापस्मृतिविस्मृतः किमुफणिग्रस्तः किमुपग्रहव्यग्रोऽस्मिन्स्रवदश्रुगद्गदवचोम्लानाननं दृश्यते । तज्ज्ञानेशुभकीर्तिदेवविदुषा विद्वेषिभाषाविषबालाजाङ्गलिकेन जिमितमतिर्बादीवराकरस्वयं ॥ ३८ ।। घनदप्पोन्नद्धबौद्ध-क्षितिधरपवियीबन्दनी बन्दनी बन्-- दनेसन्नैयायिकोद्यत्तिमिरतरणियी बन्दनी बन्दनी बन्दनेसन्मीमांसकोद्यत्करि-करिरिपु यो बन्दनी बन्दनी बन्
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७८
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
दने पो पो वादि पोगेन्दु लिवुदु शुभकीर्त्तिद्धकीर्त्ति प्रघेोषं । । ३-८॥
वितथोक्तियल्तजंपशुपतिसाङ्गयेनिप्प मूरुं शुभकीर्त्ति -
प्रतिसन्निधियोल नाम ----
चितचरितरेतेोडईडितरवादिगललवे || ४० ॥
सिङ्गद सरमं केल्द म
तङ्गजदन्तलुकि बलुकलल्लदे सभेयोलू | पोङ्गि शुभकीर्ति-मुनिपनो
लेङ्गल नुडियल्के वादिगल्गेन्तेरदेये ॥ ४१ ॥
पो सावुदु वादि वृथा -
यासं विबुधोपहासमनुमनाप --
न्यासं निन्नीतेथे --
-
वासं संदपुदेवादिवाङ्कुशनालू ॥ ४२ ॥
गङ्गण्णन लिखित || सेवणुबल्लरदेव रूवारिरामाजन मग
दासाज कण्डरिसिद ||
( उत्तरमुख)
त्रैविद्ययोगीश्वरमेघचन्द्रस्याभूत्प्रभाचन्द्र
मुनिस्सुशिष्यः ।
शुम्भद्रताम्भोनिधिपूर्णचन्द्रो निद्धू तदण्डत्रितयो विशल्यः । ४३ । त्रैविद्योत्तम मेघचन्द्रसुतपः पीयूषवारा सिजः सम्पूर्णाक्षयवृत्तनिर्म्मलतनुः पुष्यनुधानन्दनः । त्रैलोक्यप्रसरद्यशः शुचिरुचिः यः प्रार्थपोषागमः
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ७६ सिद्धान्ताम्बुधिवर्द्धनो विजयतेऽपूर्वप्रभाचन्द्रमाः ॥४४॥ संसाराम्भोधिमध्योत्तरणकरणयानरत्नत्रयेशः । सम्यग्जैनागमाान्वित विमलमतिःश्रीप्रभाचन्द्रयोगी॥४५॥ सकलजनविनूतं चारुबोधत्रिनेत्रं सुकरकविनिवासं भारतीनृयरङ्गम् । प्रकटितनिजकीर्ति दिव्यकान्तामनोज
सकलगुणगणेन्द्र श्राप्रभाचन्द्रदेवं ॥ ४६॥ तत्सधर्मर ।।
गणधररं श्रुतदाल चारण-रिषयरनमलचरितदोल योगिजनाप्रणिगणेयेनदे मिक्करनेणेयेम्बुदे वीरन्दसैद्धान्तिकरोल ।। ४७ ।। हरिहर हिरण्यगर्भरनुरवणियिं गेल्द कामनं दीप्ततपोभरदिन्दुरिपिदरेने बि-~त्तरिसदरा/रणन्दिसैद्धान्तिकरं ।। ४८ ॥ यन्मूर्तिर्जगतां जनस्य नयने कर्पूरपूरायते । यत्कीर्तिः ककुभां श्रियः कचभरे मल्लीलतान्तायते ॥
........ । जेजीयाद्भुविवीरणन्दिमुनिपी राद्धान्तचक्राधिपः ।।४।। वैदग्धश्रीवधूटीपतिरत्नगुणालङ्कतिम्मघचन्द्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वजपातः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
सैद्धान्तव्यूह चूड़ामणिरनुपलचिन्तामणिर्भुजनानां योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवतिमहो वीरणन्दी मुनीन्द्रः ॥५०॥ श्री प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवर गुडि विष्णुवर्द्धन भुजबल वीरगड़ बिट्टिदेवन हिरियरसि पट्टमहादेवी ॥ शान्तल - देविय सद्गुण
वन्तेगे सौभाग्यभाग्यवतिगे वचश्श्री
कान्तेयुमच्युत [
} कान्तेयुमेयल्ल दुलिद सतियर्दोरेये ।। ५१ ।।
......
शान्तल- देविय तायि ।
दानमननूनमं कः
केनार्थी येण्दु को जिननं मनदोलू | ध्यानिसुतं मुडिपिद लिन्
नेम्बु माचिकब्बेयोन्दुन्नतियम् ॥ ५३ ॥
सकवर्ष १०६८ नेय क्रोधन संवत्सरद् आश्विजसुद्ध-दशमी बृहवार दन्दु धनुलग्नद पूर्वाह्णद् श्रारुघलिगेयप्पागल श्रीसूलसङ्घद काण्डकुन्दान्वयद देशिगगणद पुस्तकगच्छद श्री मेघचन्द्रत्रैविद्यदेवर हिरियशिष्यरम्प श्री प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवरु स्वर्गस्तरादरु |
[ इस लेख के प्रथम इकतीस पद्य शिलालेख नं० ४७ (१२७) के प्रथम बत्तीस पदों के समान ही हैं, केवल ४७ वें लेख में पद्य नं० २३ और २४ और इस लेख में पथ नं० ३० अधिक हैं । कुन्दकुन्दाचार्य से प्रारम्भ कर मेघचन्द्र व्रती तक की गुरु-परम्परा का वर्णन करने के
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ८१ पश्चात् लेख में मेवचन्द्र के गुरुभाई बालचन्द्र मुनिराज का उल्लेख है। तत्पश्चात् शुभकीर्ति आचार्य का उल्लेख है जिनके सम्मुख वाद में बौद्ध, मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। इसके पश्चात् लेख में मेधचन्द्र विद्यदेव के शिष्य प्रभाचन्द्र और वीरनन्दि का उल्लेख है। प्रभाचन्द्र श्रागम के अच्छे ज्ञाता और वीरनन्दि भारी सैद्धान्तिक थे। लेख के अन्तिम भाग में विष्णुवर्धन-नरेश की पटराज्ञी शान्तलदेवी की धर्मपरायणता का भी उल्लेख है। वे प्रभाचन्द्र की शिष्या थीं। प्रभाचन्द्रदेव का स्वर्गवास शक सं० १०६८ पासोज सुदि १० बृहस्पतिवार को हुआ। यह लेख उन्हीं का स्मारक है । ]
५१ (१४१) उसी स्थान के द्वितीय मण्डप में प्रथम स्तम्भ पर
(शक सं० १०४१) ( पूर्वमुख)
श्रीमत्परमगम्भीरस्यावादामोघलाञ्छनं ।। जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ सकल-जन-विनूतं चारु-बोध-त्रिनेत्रं सुकरकविनिवासं भारतीनृत्यरङ्ग। प्रकटितनिजकीर्त्तिदिव्यकान्तामनोज
सकलगुणगणेन्द्रं श्रीमभाचन्द्रदेव ॥ २ ॥ अवर गुडुनेन्तप्पनेन्दडे ।।
स्वस्ति समस्तभुवनजनवन्धमानभगवदर्हत्सुरभिगन्धिगन्धोदककणव्यक्तमुक्तावलीकृतोत्तंशहंस सुजनमनःकमलिनीराजहंस महाप्रचण्डदण्डनायक। शत्रुभयदायक। पतिहित
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८२
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
1
प्रकारन् । एकाङ्गवीर । सङ्ग्रामराम । साहसभीम । मुनिजनविनेयजनबुधजनमनस्सरोवर राजहंस ननूनदानाभिनवश्रेयांस जिनमतानुप्रेक्षा विचक्षण । कृतधर्म्मरक्षण | दयारसभरितभृङ्गार | जिनवचनचन्द्रिकाचकोरनुमप्प श्रीमतु बलदेव दण्डनायकनेने
नगर्द ॥
पलरु मुन्निन पुण्यदान्दोदविनिं भाग्यके पक्कादोड चलदिं तेजदिनोल्पिनि गुणदिनादादाय्र्यदि धैय्र्यदि । ललनाचित्तहरोपचारविधियि गांभीर्य्यदि सौय्र्यदि बलदेवङ्ग समानमप्परोलरे मत्तन्यदण्डाधिपरु || ३ || बलदेवदण्डनायक
नलङ्घ्य भुजबलपराक्रमं मनुचरितं ।
जलनिधिवेष्टितधात्री
तलदालु समनारो मन्त्रि चूड़ामणियालु || ४ || या महानुभावनर्द्धाङ्गलक्ष्मियेन्तप्पलेन्दडे || सतिरूपमल्तु नाडे
चितियोल सौभाग्यवतियनुन्नतमतियं । पतिहितेयं गुणवतियं सततंकीर्त्तिपुदु बाचिकब्बेयं भुवनजनं ॥ ५ ॥ वर्गे सुपुत्रर्पुट्टिद—
वनितल पोगले रामलक्ष्मीधर र
न्तवरिर्व्वगुणगणदिं
रवितेज नागदेव' सिङ्गानुं ॥। ६ ।।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
( पश्चिम मुख ) अवरोलगे ॥
दोरेयारी भुवनङ्गलोलु दिटके केलु सम्यक्त्वदालु सत्यदोलु परमश्रीजिनपूजेयालु विनयदालु सौजन्यदालु पेम्पिनेालु | परमात्साहदे मापदानदेडेयालु सौचव्रताचारदोलु निरुतं नेोपडे नागदेवने वलं धन्यं पेरर्द्धन्यरे ॥ ७ ॥ अन्तेनिप नागदेवन
कान्ते मनोरम सकलगुणगणेधरणीकान्तेगवधिकं नोपडे
कोन्तिय दोरेयेनिसि नागियक्कं नेगरर्दलु ॥ ८ ॥ अन्तवरिर्व्वर तनयं
सन्ततमखिलेोर्व्वियोलगे जसवेसेविनेगं ।
चिन्तितवस्तुवनीयलु चिन्तामणिकामधेनुवेनिपं बल्लं || -८ ॥
एन्तेन्तु नाडं गुण
वन्तं कलि सुचिदयापरं सत्यविदं ।
भ्रान्तेनेनुतं बुधर-
श्रान्तं कीर्त्तिपुदु धात्रियोलु बल्लणनं ॥ १० ॥
श्रातननुजाते भुवन
ख्यातियनेरे ताल्दि दानगुणदुन्नतिथिं ।
सीतादेविगवधिकं
भूतल दोलगेचि यक्कनेनेमे चदरारु ।। ११ ।।
८३
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८४ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख आजगज्जननि योडवुट्टिदं ।।
भाविसिपञ्चपदङ्गलनोवदे परिदिक्कि मोहपासद तोडरं । देव-गुरु-सन्निधानदला-विभु बलदेवनमरगतियं पडेदं ॥ १२ ॥
सकवर्ष १०४५नेय सिद्धार्थ संवत्सरद मार्गशिरशुद्धपाडिव सोमवारदन्दु मोरिङ्ग रेय तीर्थदलु सन्यसनविधियिं मुडिपिद ।।
आतन जननि नागियकनु एचियक्कनु परोक्षविनयक्के कब्बप्पुनाडोल प्रोम्मालिगेय हललुपहसालेय माडिसि तम्म गुरुगल प्रभाचन्द्रसिद्धान्त-देवर कालं कर्चिधारापूर्वकं माडिकोट्टरु पारेयरेयुमं ा केरेय मूडण देसेयलु खण्डुग बेदले ॥
इस लेख में किसी बल्ल व बलण नामक धर्मवान् पुरुष के सन्यासविधि से शरीर त्याग करने पर उसकी माता और भगिनी द्वारा उसकी स्मृति में एक पदृशाला (वाचनालय) स्थापित करने और उसके चलाव के लिए कुछ ज़मीन दान करने का उल्लेख है । बल्लण के वश का यह परिचय दिया गया है कि वह एक बड़े पराक्रमी दण्डनायक बलदेव और उनकी पत्नी बाचिकब्बे का पौत्र और धर्मवान् नागदेव और उसकी स्त्री नागियक का पुत्र था। उसकी भगिनी का नाम एचियक्के था। बल्लया ने शक सं० १०४१ मगसिर सुदि १ सोमवार को शरीर त्याग किया। इस के पश्चात् उक्त दान दिया गया और यह लेख लिखा गया । लेख के द्वितीय पद्य में प्रभाचन्द्रदेव का उल्लेख है। ]
१ सिद्धार्थ ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
८५
लेख में यह सम्वत् सिद्धार्थि सम्वत्सर कहा गया है पर मिलान करने से शक सं० १०४१ विकारी और शक सं० १०६१ सिद्धार्थो पाया जाता है । लेख में सम्वत् की भूल
1
५२ (१४२ )
उसी मण्डप में द्वितीय स्तम्भ पर ( शक सं० १०४१ )
( पूर्व्वमुख )
श्रीमत्परमगम्भीर - स्याद्वादामोघलान्छनं । जीयाले क्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ स्वस्त्यनवरत प्रबल रिपुबल विष समरावनीमहामहारिसंहारकरणकारणप्रचण्डदण्डनायक मुखदर्पणकर्णे जप कुभृत्कुलिश जिनधर्म्महर्म्य माणिक्य कलश मलयजमिलितकास्मीर कालागरुधूपधूमध्यामलीकृत जिनानागार । निर्विकार मदनमनोहराकार | जिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्ग वीरलक्ष्मीभुजङ्गनाहाराभय भैषज्यशास्त्रदानविनोद जिनधर्मकथाकथनप्रमादनुमप्प श्रीमतुबलदेवदण्डनायकनगर्द ||
स्थिरने बापमराद्रियिन्दवधिकं गम्भीरने बाप्पु सागरदिन्दग्गलमेन्तु दानिये सुरोवजक्के मारण्डलम् । सुरराजङ्गे येन्दु कीर्त्तिपुदुक्य कोण्डकरि सन्ततं धरेयेल्लं बलदेवमात्यन निला लो कैक विख्यातनं ॥ २ ॥ बलदेव दण्डनायकनलङ्घ्यभुजबलपराक्रमं मनुचरितं ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
जलनिधिवेष्टितधात्री
तलदोलु समनारो मन्त्रि चूड़ामणियालु || ३ ॥ पलरु सुन्निन पुण्यदान्दोद विनिंभाग्यक्के पक्कादोडं चलदि तेजदिनाल्पिनिं गुणदिनादादाय्र्य्यदिधैय्र्यदि / ललनाचित्तहरोपचारविधियिं गाम्भीर्य्यदि सौर्य्यदि बलदेवङ्ग े संमानमप्पलरे मत्तन्यदण्डाधिपरु ॥ ४ ॥ श्री बलदेवङ्ग मृगशाबेक्षणेयेनिप बाचिकब्बे गवखिला
बन्धु पुट्टिदं गुण --
लोबरनदटलेव सिङ्गिमय्यनुदारं ॥ ५ ॥ जिनधर्माम्बर तिग्मरोचि सुचरित्रं भव्यवंशोत्तमं सिष्टिनिधानं मन्त्रिचूडामणि बुधविनुतं गोत्रवंशाम्बरार्क | वनिता चित्तप्रियं निर्मलननुपमनत्युत्तमं कूरे कूर्प विनयाम्भोराशि विद्यानिधिगुणनिलयं धात्रियोलिसङ्गि
मय्यं ॥ ६ ॥
( पश्चिममुख )
जिनपदभक्तनिष्टजनवत्सलना श्रितकल्पभूरुह मुनिचरणाम्बुजातयुगभृङ्गनुदारननूनदानि मतिन पुरुष पोलिyददाद्दरेयंम्बिनेगं नेगद्द नी-मनुजनिधाननेन्दु पोगल्गुं घरे पेडे सिडिमय्यन ॥ ७ ॥
एने नेगल्द सिङ्गिमय्यन
वनिते मनोरथन लक्ष्मियेनिपलु रूपं ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
जनविनुत सिरिय देविय ननुनयदि पोगल्वुदखिल भूतलवेल्ल ॥ ८ ॥ वचन ॥ श्रा महानुभावनवसानकालदोलु ॥ परमश्री जिनपादपङ्करुहमं सद्भक्तिथिं ताल्दि निउर्भरदिं पञ्चपदङ्गलं नेनेयुतं दुम्मेहसन्दोहमं । त्वरितं खण्डितं समाधिविधियिं भव्याब्जिनीभास्करं निरुत पेडे सिङ्गिमय्यनमरेन्द्रावास मं पोर्दिदं ॥ ८ ॥ समधिगतपश्च महाकल्याणाष्ट महाप्रातिहार्य चतुस्त्रिंशदतिशयविराजमान भगवदर्हत्परमेश्वर-परमभट्टारक - मुखकमलविनिर्गतसदसदा दिवस्तुस्वरूपनिरूपणप्रवण-राद्धान्तादिसकलशास्त्रपारावारगपरमतपश्चरण निरतरुमप्प प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवर गुड्डि नागियक सिरियव्वेयुं सकवर्ष १०४१ नेय सिद्धार्थसम्बत्सरद कार्त्तिक सुद्ध द्वादस सेामवारदन्दु महापूजेयं माडिनिशिधियं निरिसिद ॥
श्रीमन्मण्डलाचार्य
·
[ महाधर्मवान्, कीत्तिवान् और बलवान् दण्डनायक बलदेव और उसकी धर्मपत्नी बाचिकबे का पुत्र सिङ्गिमय हुआ जो उदारचरित और गुणवान् था । उसकी धर्मपत्नी का नाम सिरिय देवी था । सिमिय ने समाधिमरण कर स्वर्गलोक प्राप्त किया । मण्डलाचार्य प्रभाचन्द्र के शिष्य सिरियब्बे और नागियक ने सिङ्गिमय्य की स्मृति में शक सं० १०४१ कार्त्तिक सुदि १२ सोमवार को यह निषद्या निर्माण कराई ] [ नाट-- जैसा कि लेख नं० ११ के नोट में कहा जा चुका सं० १०४१ सिद्धार्थी नहीं था जैसा कि इस लेख में भी भूल गया है ]
है शक
से कहा
८७
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दद
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
५३ ( १४३ )
उसी मंडप में तृतीय स्तम्भ पर( शक सं० १०५० )
( पूर्वमुख )
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । जीयात्त्रैलोक्यूनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ १ ॥ श्रीमद् यादववंशमण्डनमणिः क्षोणीशरक्षामणिलक्ष्मीहारमणिः नरेश्वरशिरः प्रोक्तुङ्गशुम्भन्मणिः । जीयान्नोतिपथेक्षदर्पणमणिः लोकैक चूड़ामणि श्री विष्णु नियार्चिता गुणमणिः सम्यक्तचूड़ामणिः ॥ २ ॥
एरेदमनुजङ्गे सुर-भू
मिरुहं शरणेन्दवङ्ग कुलिशनगारं ।
परवनितेगनिलतनयं ।
धुरदालु पार्दङ्ग मृत्तु विनेयादित्यं ॥ ३ ॥
एने तानुं करे गुलङ्गले नितानुं जैनगेहङ्गलन्तनेतुं नार्कल नूर्गलं प्रजेगलं सन्तोषदिं माडिदं । विनयादित्यनृपालपोय्सलने सन्दिद्द बलिन्द्रङ्ग े मेलेने पेम्पं पागल्वन्ननावना महागम्भीरनं धीरनं ॥ ४ ॥ इट्टिगेगेन्दगल्द कुलिगल्करेयादव कल्लुगे गोण्ड पेरव्वेट्टु धरातलके सरियादवु सुण्यद भण्डि बन्द पे
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
ये पलमादुवेने माडिसिदं जिनराजगेहमं
नेट्टने पोयसले सनेने बणि परार्म्मले राजराजनं ॥ ५ ॥
कन्द || आ पोयसल भूपङ्ग महीपाल कुमारनिकरचूडारत्न | श्रीपति - निज-भुज - विजय-म
ही पति जनियिसिदनदटनेरेयङ्गनृपं ।। ६ ।। वृत्त ।। विनयादित्यनृपालनात्मजनिलाले । कैक कल्पदुभं मनुमार्ग जगदेकवीरनेरेयङ्गोब्र्वीश्वरं मिक्कनातनपु ं रिपुभूमिपालक मदस्सम्मर्दनं विष्णुवर्द्धन भूपं नेगल्दं धरावलेयदाल श्राराजकण्ठीरव ॥ ७ ॥
कन्दं ॥ [श्रा ने गल्देरेयङ्ग नृपा
लन सुनुवृहद्वैरिमर्दनं सकलधरि
श्री नाथनथि जनता -
भानुसुतं विष्णुभूपनुदय गेयदं ॥ ८ ॥
अरिनरप सिरास्फालन ---
{
करनुद्धतवैरिमण्डलेश्वरमदसं
हरणं निजान्वयैका
भरणं श्री बिट्टि देवनी वरदेव ॥ ८ ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरं । द्वारावतीपुरवराधीश्वर । यादवकुलाम्बरधुमणि । सम्यक्तचूड़ामणि । मलपरोलगण्ड । चलकेबलु गण्डन् । प्रालिंमुन्निरिव । सौर्यमं मेरे व । तलकाडुगोण्ड । गण्डप्रचण्ड
पट्टिपेरुमाल
--
८६
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
निजराज्याभ्युदयै करक्षणदक्षक अविनयनरपालक जनशिक्षक । चक्रगोट वनदावानलन् । अहितमण्डलिककालानल । तोण्डमण्डलिक मण्डलप्रचण्डदानल । प्रबलरिपुत्रलसंहरणकारण | विद्विष्टमण्डलिक मद निवारणकरण नालम्बवाडिगोण्ड | प्रतिपक्षनरपाल लक्ष्मियनिर्कुलिगोण्ड । तप्प तप्पुत्र । जय श्रीकान्तेयनप्पुव । कुरेकूप सौय्र्यमं ता । वीराङ्गनालिङ्गितदक्षिणदेोईण्ड । नुडिदन्ते गण्ड । श्रदियमनहृदयशूल । वीराङ्गनालिङ्गित लोल । उद्भूतारातिकञ्जवन कुञ्जर | सरणागतवज्रपञ्जर । सहजकीर्त्तिध्वज । सङ्ग्रामविजयध्वज | चेङ्गिरेय मनाभङ्ग | वीरप्रसङ्ग । नरसिङ्गवम्र्म्म निर्मूलनं । कलपालकालानलं । हानुङ्गल गोण्ड । चतुर्मुख गण्ड । चतुरचतुमुखन् । हरषण्मुख | सरस्वती कर्णावतंसन् । उन्नत विष्णुवंस | रिपुहृदयसेन | भीतरंकोल । दानविनोद | चम्पकामोद । चतुस्समयसमुद्धरण | गण्डराभरण । विवेकनारायण । वीरपारायण | साहित्यविद्याधर । समरघुरन्धर । पोय्सलान्वयभानु । कविजनकामधेनु । कलियुगपा । दुष्टर्गेधूर्त्त । सङ्ग्रामराम | साहस भीम । हयवत्सराज । कान्तामनोज । मत्तगजभगदत्तन् । अभिनवचारुदत्त | नीलगिरिसमुद्धरण | गण्डराभरण | कोङ्गरमारि । रिपुकुल तलप्रहारि । तेरेयुरनलेव । कोयतूरतुलिव । हे जेरुदिसापट्ट । सङ्ग्रामजत्तलट्ट । पाण्ड्यनंबेङ्कोण्ड | उच्चङ्गि गोण्ड । एकाङ्गवीर । सङ्ग्रामधीर | पोम्बुच्च निर्द्धारण | साविमले निर्दोगा। वैरिकालानलन् । प्रहितदावानल। शत्रुनरपाल
६०
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
दिशापट्ट मित्रनरपालललाटपट्ट । घट्टवनलिव । तुलुवर सेलेव । गोयिन्दवाडिभयङ्करन् । अहितबलसङ्खर । रोद्दवतुलिव । सितगरं पिडिव । रायरायपुरसूरेकार । वैरिभङ्गार । वीरनारायण। सौर्यपारायण । श्रीमतुकेशवदेवपादाराधक । रिपुमण्डलिकसाधकाद्यनेकनामावलीसमालङ्कतनुं गिरिदुर्गवनदुर्गजलदुर्गाद्यनेकदुर्गङ्गलनश्रमदि कोण्ड चण्डप्रतापदिं गङ्गवाडितोम्भत्तरु-सासिरमुमं लोक्किगुण्डिवर मुण्डिगे साध्य. म्माडि । मत्तं ॥ वृत्त-एलेयोलद्रुष्टरनुद्धतारिगल नाटन्दोत्ति बेङ्कोण्डुदो
बलदि देशमनावगं तनगे साध्य माडिरलु गङ्गमण्डलमेन्दोलेगे तेत्तु मित्तु बेसनं पूण्दिर्पिनं विष्णु पोयसलनिर्द सुखदिन्दे राज्यदोदविन्दं सन्ततोत्साहदि॥१०॥ एत्तिद नेत्तलत्तलिदिराद-नृपालकरल्कि बल्कि कण्डित्तु समस्तवस्तुगलनालुतनमंसलेपुण्दु सन्ततं । सुत्तलुमालगिप्परेने मुन्निनवर्गमनेकरादवगर्गत्तलगं पोगर्तेगेने बण्णिपनावनो विष्णुभूपनं ॥ ११॥
अन्तु त्रिभुवनमल्ल तलकाडुगोण्ड भुजबलवीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन पायसलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं बरं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि पिरियरसि पट्टमहादेवि सान्तलदेवी॥ (दक्षिणमुख)
स्वस्त्यनवरतपरमकल्याणाभ्युदयसहस्रफलभोगभागिनि
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९२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख द्वितीयलक्ष्मीलक्षणसमानेयु । सकलगुणगणानूनेयु । अभिनव रुगुमिणीदेवियुं। पतिहितसत्यभावेयुं। विवेकैकबृहस्पतियु। प्रत्युत्पन्नवाचस्पतियुं। मुनिजनविनेयजनविनीतेयुं । चतुस्समयसमुद्धरणेयुं । ब्रतगुणशीलचारित्रान्तःकरुणेयुं । लोकैक विख्यातेयुं । पतिव्रताप्रभावप्रसिद्धसीतेयुं । सकलवन्दिजनचिन्तामणियुं । सम्यक्तचूड़ामणियुं । उवृत्तसवतिगन्धबारणेयु। पुण्योपार्जनकरणकारणेयुं । मनोजराजविजेयपताकेयु। निजकलाभ्युदयदीपिकेयुं । गीतवाद्यसूत्रधारेयुं । जिनसमयसमदितप्राकारेयुं । जिनधर्मकथाकथनप्रमोदेयु । आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनोदेयुं । जिनधर्मनिर्मलेयुं । भव्यजनवत्सलेयुं । जिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्गयुमप्प ॥ कंद ।। आ नेगई विष्णुनृपन म
नो-नयन-प्रिये चलालनीलालकि चन्द्रानने कामन रतियलु
तानेणे तोणे सरिसमाने शान्तलदेवी ।। १२ ॥ वृत्त । धुरदोलु विष्णुनृपालकङ्ग विजयश्रीवक्षदोलु सन्ततं
परमानन्ददिनोतु निल्ब विपुलश्रोतेजदुद्दानियं । वरदिग्भित्तियनेयदिसलनेरेव कीर्तिश्रीयेनुतिर्मुदी धरेयोलु शान्तलदेविय नेरेये बािप्पण्णनेवण्णिपं ॥ १३ ॥ कलिकाल विष्णुवक्षस्थलदोलुकलिकाललक्ष्मि नेलसिदलेने शा
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख न्तलदेविय सौभाग्यमनेल गलबण्णि सुवेनेम्बनेवण्णिसुव ॥ १४ ॥ शान्तलदेविगे सद्गुणमन्तेगे सौभाग्यभाग्यवतिगे वचःश्रीकान्तेयुमगजेयुमच्युत---
कान्तेयुमेणेयल्लदुलिद सतियोरेये ॥ १५ ॥ अकर ॥ गुरुगल प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवरे पेत्ततायि गुणनिधि
माचिकब्बे पिरियपेगडे मारसिङ्गय्यं तन्दे मावनुं पेगेंडे सिनिमय्य। अरसं विष्णुवर्द्धननृपं वल्लभं जिननार्थतनगेन्दु मिष्टदेय्वं
अरसि शान्तलदेविय महिमेयंबसिलुबकुमभूतलदोलु।।१६। सकवर्ष १०५० मूरेनेय विरोधिकृत्सम्वत्सरद चैत्र शुद्धपञ्चमी सोमवारदन्दु सिवगङ्गेय तीर्थदलु मुडिपि स्वर्गतेयादलु ।। वृत्त । ई कलिकालदोल मनुबृहस्पतिवन्दि जनाश्रयं जग------
व्यापितकामधेनुवभिमानि महाप्रभुपण्डिताश्रयं । . लोकजनस्तुतं गुणगणाभरणं जगदेकदानियव्याकुलमन्त्रियेन्दुपोगल्गुं धरे पेगेंडे मारसिङ्गन ॥ १७ ॥ दोरेयेपेगेंडे मारसिङ्ग विभुविङ्गी कालदोलु [......] पुरुषार्थङ्गलोलत्युदारतेयोलं धर्मानुरागङ्गलोलु । हरपादाम्बुजभक्तियोलु नियमदोलु शीलङ्गलालु तानेनलु सुरलोकके मनोमुदंबेरसु पादं भूतलं कीर्तिसलु ॥ १८ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख कन्द ॥ अनुपम-शान्तल देवियु
मनुनयदि तन्दे मारसिङ्गय्यनुमिबिने जननि-माचिकब्बेयु
मिनिबरु मोडनोडने मुडिपि स्वर्गतरादरु ॥१६॥ लेखक बोकिमय्य । ( पश्चिममुख)
अरसि सुरगतियनेयदिदलिरलागेनगेन्दु बन्दु बेलुगोलदलु दुईर-सन्यासनदि [न्दं ]
परिणते तायि माचिकब्बे तानु तारेदलु ।। २० ।। घृत्त ।। अरेमगुल्दिर्दकण्मलगर्गलोदुव पञ्चपदं जिनेन्द्रनं
स्मरियिसुवोजे बन्धुजनमं बिडिपुन्नति सन्यसक्केव न्दिरलो सेदोन्दुतिङ्गलुपवासदोलिम्बिनेमाचिकब्बे तां
सुरंगतिगेय दिदलु सकलभव्यरसन्निधियोलु समाधियिं ॥२१॥ कन्द ।। प्रा मारसिङ्ग मय्यन
कामिनिजिनचरणभक्ते गुणसंयुते उदाम-पतिव्रते एन्दीभूमिजनं पोगले माचिकब्बेये नेगल्दलु ॥२२॥ जिनपदभक्ते बन्धुजनपूजितेयाश्रितकामधेनुकामन सतिगं महासतिगुणाग्रणि दानविनादे सन्ततं । मुनिजनपादपङ्कहभक्त जनस्तुते मारसिङ्गम--- .य्यन सति माचिकब्बे येने कीर्तिमगुंधरे मेचिनिश्चलुं ॥२३॥
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- चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख जिननाथं तनगाप्तनागे बलदेवं तन्दे पेत्तब्बे सद्वनिताग्रेसरे बाचिकब्बे येने तम्मं सिङ्गणं सन्दमानतनदिन्दग्गद माचिकब्बे सुर-लोककोदलेन्देन्दुमे
दिनियेल्लं पागलुत्तमिप्पु देने बण्णिप्पण्णनेवण्णिपं ॥२४॥ कन्द ।। पेण्डिसन्यासनं गोण्डवरोलगिनितंबल्लरारेम्बिनं कै
कोण्डागलुघोरवीरव्रतपरिणतेयं मेच्चि सन्तोषदिन्दं । पाण्डित्यं चित्तदोलु तल्तिरे जिनचरणाम्भोजमं भाविसुत्तं कोण्डाडलुधात्रितन्न सुरगतिवडेदलुलीलेयिं माचिकब्बे ॥२५॥ दानमननूनमं कः केनार्थी येन्दु कोट्ट, जिननं मनदोलु । ध्यानिसुतं मुडिपिदलिन नेम्बुदो माचिकब्बेयोन्दुन्नतियं ॥२६॥
इन्तु तम्म गुरुगलु प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवरं वर्द्धमानदेवरं रविचन्द्रदेवरं समस्तभव्यजनङ्गल सनिधियोलु सन्यसनम कैकोण्डवर पेल्व समाधियं केलुत्त मुडिपिदलु ।।
पण्डितमरणदिनी भूमण्डलदोलु माचिकब्बेयन्तेवालाकोण्डिन्तु नेगल्दल रिगल
खण्डितमं घोर-वीर-सन्यासनम ॥ २७ ॥ अवर वंशावतारमेन्तेन्दडे ।। कन्द ।। जिनधर्मनिर्मलं भ
व्य-निधानं गुणगणाश्रयं मनुचरितं ।
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९६
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख मुनिचरण-कमल-भृङ्ग
जन-विनुतं नागवम्मंदण्डाधीशं ॥ २८॥ .. वृत्त ।। अनुपम-नागवर्मनकुलाङ्गने पेम्पिन चन्दिकब्बे स--
जननुते मानिदानिगुणिमिक्कपतिव्रते सीलदिन्दे मे--- दिनिसुतेगं मिगिलुपोगललानरियें गुणदङ्ककार्तिय जिनपदभक्तेयं भुवनसंस्तुतेयं जगदेकदानियं ॥२६॥ अवगर्गे सुपुत्रं बुधजननिवहकार्तीव कामधेनु वेनुत्तं । भुवनजनं पागललु मि
कानुदयं गेयदनुत्तमं बलदेव ॥३०॥ वृत्त ॥ सकलकलाश्रयं गुणगणाभरणं प्रभु पण्डिताश्रयं
सुकविजनस्तुतं जिनपदाब्जभृङ्गननूनदानिलोकिकपरमार्थमेम्बेरडुमन्नेरे बल्लनेनुत्ते दण्डनायक बलदेवनं पोगल्वुदम्बुधि-वेष्टित-भूरि-भूतलं ॥३१॥ मुनिनिबहके भव्यनिकरके जिनेश्वर-पूजेगलो मिकनुपमदानधर्मदोदविङ्ग निरन्तरमोन्दे मागदि । मनेयोलनाकुलं मदुवेयन्दद पाङ्गिनोलुणबुदेन्दडिं मनुजनिधाननं पोगल्वने वोगल्वं बलदेवमाय॑न ॥३२॥ स्थिरने मेरु-गिरीन्द्रदिन्दे मिगिले गम्भीरने बाप्पु सागरदिन्दग्गल मेन्तु दानिये सुरोजिकमेलु भोगिये । सुरराजङ्गणे येन्दु कीर्तिपुदु कय कोण्डल्करिं सन्ततं : धरेयोल श्रीबलदेवमात्त्यननिलालोकैकविख्यातन ॥३३॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख कन्द ॥ बलदेव-दण्डनायक
नलङध्य-भुजबल-पराक्रमं मनुचरितं । जलनिधिवेष्टितधात्रीतलदोलु समनारो मन्त्रिचूड़ामणियोलु ॥३४॥
श्रीमत् बारुकीर्तिदेवर गुड लेखकबाकिमय्य बरद बिरुदरू वारि-मुखतिलक गङ्गाचारिय तम्म कांवाचारि कण्डरिसिद। (उत्तर मुख)
स्वस्त्यनवरतप्रबलरिपुबलविषमसमरावनिमहामहारिसंहारकरणकारण । प्रचण्डदण्डनायकमुखदर्पण । कथकमागधपुण्यपाठककविगमकिवादिवाग्मिजनतादारिद्रसन्तर्पण । जिनसमयमहागगनशोभाकरदिवाकर । सकलमुनिजननिरन्तरदान. गुणाश्रयश्रेयांस । सरस्वतीकर्णावतंस । गोत्रपवित्र। पराङ्गनापुत्र । बन्धुजनमनोरञ्जन । दुरितप्रभजन । क्रोधलोभानृतभयमानमदविदूर। गुत्तचारुदत्तजीमूतवाहनसमानपरोपकारोदार। पापविदूर। जिनधभनिर्मल। भव्यजनवत्सल । जिनगन्धोदकपवित्रीकृतोत्तमाङ्गन् । अनुपमगुणगणोत्तुङ्ग । मुनिचरणसरसिरुहभृङ्ग । पण्डितमण्डलोपुण्डरीकवनप्रसङ्ग । जिनधर्मकथाकथनप्रमोदनु। आहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनादनुमप्प श्रीमत् बलदेव दण्डनायकनेने नेगल्द ।।
श्रा बलदेव मृगशावेक्षणे यनिप बाचिकब्बेगव खिलोवझे-बन्धु पुट्टिदं गुणि
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख लोबरनदटलेव सिङ्गिमय्यनुदारं ॥३५॥ वृत्त ॥ जिनपतिभक्तनिष्टजनवत्सलनाश्रितकल्पभूरुहं
मुनिचरणाम्बुजातयुगभृङ्गनुदारननूनदानि मत्तिन पुरुषगर्गे पोलिसुबडार्दोरेयेम्बिनेगं नेगल्दनीमनुज निधाननेन्दु पोगल्गुं धरे पेग्गडे सिङ्गिमय्यन ॥३६।। जिनधमाम्बरतिग्मरोचि सुचरित्रं भव्यवंशोत्तमं सिष्टनिधान मन्त्रिचिन्तामणि बुधविनुतं गोत्रवंशाम्बराक । वनिताचित्तप्रियं निर्मलननुपमनत्युत्तमं कूरे कूर्प विनयाम्भोराशि विद्यानिधि गुणनिलयं धात्रियोल्सिङ्गिमय्यं ।।
॥ ३७ ॥ कन्द ॥ श्रीयादेवि गुणामणि
यी युगदोलु दानधर्मचिन्तामणि भूदेविय कोन्ती देविय दोरेयन्न सिङ्गिमय्यन वधुव ।। ३८ ॥
स्वस्त्यनवरतपरमकल्याणाभ्युदयसतसहस्रफलभोगभागिनि द्वितीयलक्ष्मीसमानेयुं । सकलकलागमानूनेयुं विवेकैकबृहस्पतियु मुनिजनविनेयजनविनीतेयु पतिव्रताप्रभावप्रसिद्धसीतेयु सम्यक्त चूड़ामणियु उदृत्तस वतिगन्धवारणेयु आहाराभयभैषज्यशास्त्र दानविनोदेयु अप्प श्रीमद्विष्णुवर्द्धन-पोयसलदेवर पिरियरसिपट्टमहादेवि शान्तलदेवियश्रीबेल्गोलतीर्थदोल सवतिगन्धवारण जिनालयमं माडिसियिदक्केदेवतापूजेगं रिषिसमुदायक्काहारदानक जीर्णोद्धारकं कल्कणिनाड मोटेनविलेयुमं गङ्गसमुद्रद नडुबयल
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख लयय्वत्तुकोलगगर्देय तोण्टमुमं नाल्वत्तुगद्याणपोन्ननिकि कट्टिसि चारुगिङ्ग विलसनकट्टमुमं श्रीमद्विष्णुवर्द्धन पायसलदेवरं बेडिकोण्डु सकवर्ष सायिरद नाल्वत्तयदेनेय शोभकृत्सम्वत्सरद चैत्रशुद्धपडिवबृहस्पतिवारदन्दु तम्म गुरुगल श्रीमूलसङ्घद देशियगणद पोस्तकगच्छद श्रीमन्मेषचन्दत्रैविद्यदेवरशिष्यरप्प प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवर्गे पादप्रक्षालनं माडि सर्वबाधापरिहारवागि बिट्टदत्ति । वृत्त ।। प्रियदिन्दिन्तिदनेय दे काव पुरुषग्र्गायु महाश्रीयुम---
केयिदं कायदे कायब पापिगे कुरुक्षेत्रोत्रियोल बायरासियोलेक्कोटिमुनीन्द्ररं कविलेय वेदाढ्यरं कोन्दुदो
न्दयशं सामिदेन्दु सारिदपुवी शैलाक्षरं सन्ततं ॥३॥ श्लोक ।। स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेति वसुन्धरां ।
। षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥४०॥
[यह लेख तीन भागों में विभक्त है । श्रादि से उन्नीसवें पद्य तक इसमें द्वारावती के यादव वशीय पोयसल नरेश विनयादित्य व उनके पुत्र और उत्तराधिकारी एरेयङ्ग व उनके पुत्र और उत्तराधिकारी विष्णुवर्द्धन का वर्णन है। विष्णुवद्धन बड़ा प्रतापी नरेश हुश्रा। इसने अनेक माण्डलिक राजाओं को जीतकर अपना राज्य-विस्तार बढ़ाया । इसकी पटरानी शान्तलदेवी जैनधर्मावलम्बिनी, धर्मपरायणा और प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या थी। इसने शक सं० १०५० चैत्र सुदि ५ सोमवार को शिवगङ्ग नामक स्थान पर शरीर त्याग किया । शान्तलदेवी के पिता का नाम मारसिङ्गय्य और माता का नाम माचिकब्बे था। इन्होंने शान्तलदेवी के पश्चात् शरीरत्याग किया।
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१०० चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख - लेख के दूसरे भाग में, जो पध २० से ३४ तक जाता है, शान्तल देवी की माता माचिकब्बे का बेल्गोल में श्राकर एक मास के अनशन व्रत के पश्चात् संन्यास विधि से देहत्याग करने का वर्णन है और पश्चात् उसके कुल का वर्णन है। दण्डाधीश नागवर्म और उनकी भार्या चन्दिकब्बे के पुत्र प्रतापी बलदेव दण्डनायक और उनकी भार्या बाचिकब्बे से ही माचिकब्बे की उत्पत्ति हुई थी। माचिकब्बे ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव, वर्धमानदेव और रविचन्द्र देव की साक्षी से संन्यास ग्रहण किया था।
लेख के अन्तिम भाग में बलदेव दण्डनायक और उनके पुत्र सिङ्गिमय्य की प्रशस्ति के पश्चात् शान्तलदेवी द्वारा सवति गन्धवारण नामक जिन मन्दिर निर्माण कराये जाने और उसकी श्राजीविका श्रादि के लिये विष्णुवर्द्धन नरेश की अनुमति से कुछ भूमि का दान दिये जाने का उल्लेख है। यह दान मूलसंघ, देशिय गण, पुस्तक गच्छ के मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को दिया गया था।]
. [नोट-लेख में शक सं० १०१० विरोधिकृत् कहा गया है। पर ज्योतिष गणना के अनुसार शक सं० १०१. कीलक व सं० १०५३ विरोधिकृत् सिद्ध होता है। श्रागे का लेख (५४) शक १०१० कीलक संवत्सर का ही है। दान शोभकृत् (शुभकृत्) संवत् में दिया गया था जो विरोधिकृत से आठ वर्ष पूर्व (शक सं० १०४४) में पड़ता है।]
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
५४ (६७) पार्श्वनाथ बस्ति में एक स्तम्भ पर
( शक सं० १०५०) ( उत्तरमुख)
श्रीमन्नाथकुलेन्दुरिन्द्र-परिषद्वन्द्यश्श्रुत-श्री-सुधा--- धारा-धौत-जगत्तमोऽपह-महः-पिण्ड-प्रकाण्ड महत् । यस्मानिर्मल-धर्म-वार्द्धि-विपुल श्रीवर्द्धमाना सता भभिव्य-चकोर-चक्रमवतु श्रीवर्द्धमाना जिनः ॥१॥ जीयादर्थयुतेन्द्रभूतिविदिताभिख्यो गणी गौतम-- . स्वामी सप्तमहर्द्धिभित्रिजगतीमापादयन्पादयोः ।। यद्वोधाम्बुधिमेत्य वीर-हिमवत्कुत्कीलकण्ठावुधा-- म्भोदात्ता भुवनं पुनाति वचन-स्वच्छन्द-मन्दाकिनी ॥२॥ तीर्थेश-दर्शनभवनय-हक्सहस्र-बिस्रब्ध-बोध-वपुषश्श्रु
तकेवलीन्द्राः। निर्भिन्दतां विबुध-वृन्द-शिरोभिवन्द्यास्फूर्जद्वचः-कुलिशतः
कुमताद्रिमुद्राः ॥३॥ वय: कथन्नु महिमा भण भद्रवाहोम्र्मोहोरु-मल-मद-मईन-वृत्तबाहोः । यच्छिष्यताप्तसुकृतेन स चन्द्रगुप्तश्शुश्रष्यतेस्म सुचिरं वन-देवताभिः ॥ ४ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख वन्द्योविभुर्भुवि न कैरिह काण्डकुन्दः कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः। यश्चारु चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्वके श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।। ५ ॥ वन्द्योभस्मक-भस्म-सास्कृति-पटुः पद्मावती-देवतादत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र-वचन-व्याहूत चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृद्य नेह काले कला
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ ६॥ चूर्णि ॥ यस्यैवंविधा वादारम्भसंरम्भविजृम्भिताभिव्यक्तयस्सूक्तयः॥ वृत्त ॥ पूर्व पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे भेरी मया ताड़िता
पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहु-भट विद्योत्कट सङ्कटं वादार्थो विचराम्यहन्नरपते शाईल-विक्रीडितं ॥७॥ अवटु-तटमटतिझटिति स्फुट-पटु-वाचाटधूर्जटेरपिजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्था
न्येषां ॥७॥ योऽसौ घाति-मल-द्विषद्वल-शिला-स्तम्भावली-खण्डनध्यानासिः पटुरहतो भगवतस्सोऽस्य प्रसादीकृतः । छात्रस्यापि स सिंहन्दि-मुनिना नाचेत्कर्ष वा शिलास्तम्भोराज्य-रमागमाध्व-परिघस्तेनासिखण्डो धनः ॥६॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख वक्रग्रीव-महामुने-ईश-शत-प्रोवोऽप्यहीन्द्रो यथा-- जातं स्तोतुमलं वचोबलमसौ किं भग्न-वाग्मि-ब्रजं । योऽसौ शासन-देवता-बहुमतो हो-वक्त्र-वादि ग्रह-- प्रोवोऽस्मिन्नथ-शब्द-वाच्यमवदद्मासान्समासेन षट् ॥१०॥ नवस्तोत्रं तत्र प्रसरति कवीन्द्राः कथमपि प्रणामं वज्रादी रचयत परन्नन्दिनि मुनौ । नवस्तोत्रं येन व्यरचि सकलाहत्प्रवचनप्रपञ्चान्तर्भाव-प्रवण-वर-सन्दर्भ सुभगं ।। ११ ॥ महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्तयासीत् पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदर्थनं कत्तु ॥ १२ ॥ सुमति-देवममुं स्तुतयेन वस्सुमति-सप्तकमाप्ततयाकृतं । परिहृतापथ-तत्त्व-पथाथिनांसुमति-कोटि-विवर्तिभवार्ति
हृत् ।। १३ ॥ उद्देत्य सम्यग्दिशि दक्षिणस्यां कुमारसेनेा मुनिरस्तमापत्। तत्रैव चित्रं जगदेक-भानोस्तिष्ठत्यसो तस्य तथा प्रकाशः ॥१४॥ धर्मार्थकामपरिनिवृतिचारुचिन्तश्चिन्तामणिःप्रतिनिकेतम
कारियेन। स स्तूयते सरससौख्यभुजा-सुजातश्चिन्तामणिर्मुनिवृषा
न कथं जनेन ॥१५॥ चूडामणिः कवीनां चूड़ामणि-नाम-सेव्य-काव्य-कविः । श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाहर्तु ।।१६।।
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१०४ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
चूर्णि ॥ य एवमुपश्लोकिता दण्डिना ॥ जह्रोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीबर्द्धदेव सन्धत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीं ॥१७॥ पुष्पास्त्रस्य जयो गणस्य चरणम्भूभृच्छिखा-घहनं पद्भ्यामस्तु महेश्वरस्तदपिन प्राप्तुं तुलामीश्वरः । यस्याखण्ड-कलावतोऽष्ट-विलसदिक्पाल-मौलि-स्खलत्-- कीति स्वस्सरिता महेश्वर इह स्तुत्य स्स कैस्स्यान्मुनिः
॥१८॥ यस्सप्तति-महा-वादान् जिगायान्यानथामितान् । ब्रह्मरक्षोऽर्चितस्सोऽयो महेश्वर-मुनीश्वरः ॥१६॥ तारा येन विनिर्जिता घट-कुटी-गूढावतारा समं बौद्धर्यो धृत-पीठ-पीडित-कुहग्देवात्त-सेवाञ्जलिः । प्रायश्चित्तमिवाङघ्रि-वारिज-रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलङ्कःकृती ॥२०॥ चूर्णि ॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकर्ण्यते । राजन्साहसतुङ्ग सन्ति वहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तुत्वत्सदृशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुल्लभाः। त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कला मद्विधाः ॥२१॥ नमो मलिषेण-मलधारि-देवाय ।।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१०५
(पूर्वमुख)
राजन्सर्वारि-दर्प-प्रविदलन-पटुरत्वं यथात्र प्रसिद्धस्तद्वख्यातोऽहमस्यां भुवि निखिल-मदोत्पाटन: पण्डितानां । नाचेदेषोऽहमेते तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महान्तो वक्तुंयस्यास्ति शक्तिः स वदतु विदिताशेष-शास्त्रो यदि स्यात् ॥
॥२२॥ नाहङ्कार-वशीकृतेन मनसा न द्वेषिणा केवलं नैरात्म्यं प्रतिपद्य नश्यति जने कारुण्य-बुद्धया मया । राज्ञः श्रीहिमशीतलस्य सदसि प्रायो विदग्धात्मनी बौद्धौघान्सकलान्विजित्य सुगतः पादेन विस्फोटितः॥२३॥ श्रीपुष्पसेन-मुनिरेव पदम्महिम्नो देवस्स यस्य समभूत्स भवान्सधर्मा। श्रीविभ्रमस्य भवनन्ननु पद्ममेव पुष्पेषुमित्रमिह यस्य सहस्रधामा ॥२४॥ विमलचन्द्र-मुनीन्द्र-गुरोगगुरु प्रशमिताखिल वादिमदं पदं । यदि यथावदवैष्यत पण्डितैननुतदान्ववदिष्यतवाग्विभोः
॥२५॥ चूणि ॥ तथाहि । यस्यायमापादित-परवादि-हृदय-शोकः पत्रालम्बन-श्लोकः ॥
पत्रं शत्रु-भयङ्करोरु-भवन-द्वारे सदा सञ्चरन्नाना-राज-करीन्द्र-बृन्द-तुरग-वाताकुले स्थापितम् । शैवान्पाशुपतास्तथागतसुतान्कापालिकान्कापिला
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१०६ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
नुद्दिश्योंद्धत-चेतसा विमलचन्द्राशाम्बरेणादरात् ॥२६॥ दुरित-प्रह-निग्रहाद्भयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र-वन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजतश्श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम्
॥२७॥ घट-वाद-घटा-कोटि-कोविदः कोविदां प्रवाक ।
परवादिमल्ल-देवा देव एव न संशयः ॥२८॥ चूर्णिं ॥ येनेयमात्म-नामधेय-निरुक्तिरुक्तानाम पृष्टवन्तं कृष्णराजं प्रति ॥
गृहीत-पक्षादितरः परस्स्यात्तद्वादिनस्ते परवादिनस्स्युः । तेषां हि मल्लः परवादिमल्लस्तन्नाममन्नाम वदन्तिसन्तः
॥२६॥ प्राचार्य्यवर्यो यतिरार्यदेवो राद्धान्त-कर्ता
ध्रियतां स मूनि । यस्स्वर्ग-यानोत्सव-सीनि कायोत्सर्गस्थितः
कायमुदुत्ससज ॥३०॥ श्रवण-कृत-तृणोऽसौ संयमं ज्ञातु-कामैः शयन-विहित-वेला-सुप्त-लुप्तावधानः । श्रुतिमरभसवृत्योन्मृज्य पिच्छेन शिश्ये किल मृदु-परिवृत्या दत्त-तत्कोट-वा॥३१॥ विश्व यश्श्रुत-बिन्दुनावरुरुधे भावं कुशाग्रीयया बुध्येवाति-महीयसा प्रवचसा बद्धं गणाधीश्वरैः । शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनान्सुगी
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १०७ स्तं वाचार्चत चन्द्रकीर्ति-गणिनं चन्द्राभ-कीर्ति बुधाः
॥३२॥ सद्धर्म-कर्म-प्रकृति प्रणामाद्यस्योग्र-कर्म-प्रकृति-प्रमोक्षः। तन्नाग्नि कर्म-प्रकृतिन्नमामो भट्टारकं दृष्ट-कृतान्त-पारम्
॥३३॥ अपि स्व-वाग्व्यस्त-समस्त-विद्यस्त्रविद्य-शब्देऽप्यनुमन्यमानः । श्रीपालदेवः प्रतिपालनीयस्सतां यतस्तत्व-विवेचनी धीः
॥३४॥ तीर्थ श्रीमतिसागरी गुरुरिला-चक्रं चकार स्फुरज्ज्योतिः पीत-तमर्पयः-प्रविततिः पूतं प्रभूताशयः । यस्माद्भू रि-परार्द्धव-पावन-गुण-श्रीवर्द्धमानोल्लसद्रत्नोत्पत्तिरिला-तलाधिप-शिरश्शृङ्गारकारिण्यभूत् ॥३५।। यत्राभियोक्तरि लघुल्ल घु-धाम-सोम-सौम्याङ्गभृत्स च भवत्यपि
भूति-भूमिः । विद्या-धनजय-पदं विशदंदधानो जिष्णु:स एव हि महा
मुनिहेमसेनः ॥३६।। चूण्णि ॥ यस्यायमवनिपति-परिषदि निग्रह-मही-निपात-भीतिदुस्थ-दुग्गर्व-पर्वतारूढ़-प्रतिवादिलोकः प्रतिज्ञाश्लोकः ।।
तक्के व्याकरणे कृत-श्रमतया धीमत्तयाप्युद्धता मध्यस्थेषु मनीषिषु तितिभृतामले मया स्पर्द्धया । यः कश्चित्प्रतिवक्ति तस्य विदुषो वाग्मेय-भङ्ग परं कुर्वेऽवश्यमिति प्रतीहि नृपतेहे हैमसेनं मतं ॥३०॥
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१०८ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
हितैषिणां यस्य नृणामुदात्त-वाचा निबद्धा हित-रूप-सिद्धिः । वन्द्यो दयापाल-मुनिः स वाचा सिद्धस्सताम्मूर्द्धनि यः
प्रभावैः ॥ ३८॥ यस्य श्रीमतिसागरो गुरुरसौ चञ्चद्यशश्चन्द्रसूः श्रीमान्यस्य स वादिराज-गणभृत्स ब्रह्मचारी विभोः । एकोऽतीव कृती स एव हि दयापालव्रती यन्मन--- स्यास्तामन्य-परिग्रह-ग्रह-कथा स्वे विग्रह विग्रहः ॥३६॥ त्रैलोक्य-दीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह । . जिनराजत एकस्मादेकस्मा द्वादिराजतः ॥४०॥ प्रारुद्धाम्बरमिन्दु-बिम्ब-रचितोत्सुक्यं सदा यद्यशश्छत्रं वाकचमरीज-राजि-रुचयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । सेव्य:सिंहसमज़-पीठ-विभवः सर्व-प्रवादि-प्रजा
दत्तोच्चैर्जयकार-सार-महिमाश्रीवादिराजाविदा ॥४१॥ चूर्णिं ॥ यदीय गुण-गोचरोऽयं वचन-विलास-प्रसरः कवीनां । नमोऽहते ॥ (दक्षिणमुख)
श्रीमच्चालुक्य-चक्रेश्वर-जयकटके वाग्वधू-जन्म-भूमौ निष्काण्डण्डिण्डिम: पर्यटति पटु-रटो वादिराजस्य
जिष्णोः। जा द्यद्वाद-दो जहिहि गमकता गर्व-भूमा जहाहि व्याहारेयो जहीहि स्फुट-मृदु-मधुर-श्रव्य-काव्यावलेपः
॥ ४२ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१०६
पाताले व्याल- राजा वसति सुविदितं यस्य जिह्वा सहस्रं निर्गन्ता स्वर्गतोऽसौ न भवति धिषणो वज्रभृद्यस्य शिष्यः । जीवेतान्तावदेता निलय-बल-वशाद्वादिनः केऽत्रनान्ये ग निर्मुच्य सर्व्वे जयिनमिन सभे वादिराजं नमन्ति
॥ ४३ ॥
वाग्देवीं सुचिरप्रयोग सुदृढ़- प्रेमाणमप्यादरादादते मम पार्श्वतोऽयमधुना श्रीवादिराजो मुनिः । भो भो पश्यत पश्यतैष यमिनां किं धर्म इत्युच्चकैरब्रह्मण्य-पराः पुरातनमुनेर्व्यावृत्तयः पान्तु वः ॥ ४४ ॥ गङ्गावनिश्वर - शिरोमणि - बद्ध-सन्ध्या - रागेोल्लसच्चरण- चारुनखेन्दु-लक्ष्मीः । श्रीशब्द - पूर्व्व - विजयान्त - विनूत-नामा धीमानमानुष - गुणोस्ततमः प्रमांशुः || ४५|| चूर्णि ॥ स्तुतो हि स भवानेष श्रीवादिराज - देवेन || यद्विद्या- तपसेाः प्रशस्तमुभयं श्री हेमसेने मुनौ प्रागासीत्सुचिराभियोग-बलता नीतं परामुन्नतिं । प्रायः श्रीविजये तदेतदखिलं तत्पीठिकायां स्थिते सङ्कान्तं कथमन्यथानतिचिराद्विद्य दृगीदृक् तपः ॥४६॥ विद्योदयोऽस्ति न मदोऽस्ति तपोऽस्ति भास्वनोप्रत्वमस्ति विभुतास्ति न चास्ति मानः । -यस्य श्रये कमलभद्र - मुनीश्वरन्तं यः ख्यातिमापदिह शाम्यदधैर्गुणौघैः ॥ ४७ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख स्मरण-मात्र-पवित्रतमं मनो भवति यस्य सतामिह तीर्थनां । तमतिनिर्मलमात्म-विशुद्धये कमलभद्रसरोवरमाश्रये
॥४८॥ सर्वाङ्ग र्यमिहालिलिङ्ग सुमहाभागं कलौ भारती भास्वन्तं गुण-रत्न-भूषण-गणैरप्यग्रिमं योगिनां । तं सन्तस्तुवतामलङ्कत-दयापालाभिधानं महासूरिं भूरिधियोऽत्र पण्डित-पदं यत्रैव युक्तं स्मृताः ॥४६॥ विजित-मदन-दर्पः श्रीदयापालदेवो विदित-सकल-शास्त्री निर्जिताशेषवादी । विमलतर-यशोभिर्व्याप्त-दिक-चक्रवालो जयति नत-महीभृन्मौलि-रत्नारुणा डिघ्रः ॥५०॥ यस्योपास्य पवित्र-पाद-कमल-द्वन्द्वन्नृपः पोय सलो लक्ष्मी सन्निधिमानयत्स विनयादित्यः कृताज्ञाभुवः । कस्तस्याहति शान्तिदेव-यमिनस्सामर्थ्य मित्थं तथेत्याख्यातुं विरलाः खलु स्फुरदुरु-ज्योतिर्दशा स्तादृशाः॥५१॥ स्वामीति पाण्डय-पृथिवी-पतिना निसृष्टनामाप्त-दृष्टि-विभवेन निज-प्रसादात् । धन्यस्स एव मुनिराहवमलभूभुगास्थायिका-प्रथित-शब्द-चतुमुखाख्यः ॥५२॥ श्रीमुल्ल र-विडूर-सारवसुधा-रत्नं स नाथो गुणे नाचूणेन महीक्षितामुरु-महःपिण्डश्शिरो-मण्डनः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १११ प्राराध्यो गुणसेन-पण्डित-पतिस्स स्वास्थ्यकामैजना यत्सूक्तागद-गन्धतोऽपि गलित-ग्लानिं गति लम्भिताः ॥५३॥ वन्दे वन्दितमादरादहरहस्स्याद्वाद-विद्या-विदां स्वान्त-ध्वान्त-वितान-धूनन-विधौ भास्वन्तमन्यं भुवि । भक्तया त्वाजितसेन-मानतिकृतां यत्सन्नियोगान्मनःपद्म सद्म भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्रा-भरं ॥५४॥ मिथ्या-भाषण-भूषणं परिहरेतद्धित्य...न्मुञ्चत स्याद्वादं वदतानमेत विनयावादीभ-कण्ठीरवं । नो चेत्तद्गु.. गर्जित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूपर्ण निग्रह-जीर्णकूप-कुहरे वादि-द्विपाः पातिनः ॥५५॥ गुणाः कुन्द-स्पन्दोड्डमर-समरा वगमृत-वा:प्लव-प्राय-प्रेय:-प्रसर-सरसा कीतिरिव सा। नखेन्दु-ज्योत्स्नाङघेन्नप-चय-चकोर-प्रणयिनी न कासां श्लाघानां पदमजितसेन व्रतिपतिः ॥५६।। सकल-भुवनपालानम्र-मूर्द्धावबद्धस्फुरित-मुकुट-चूड़ालीढ-पादारविन्दः । मदवदखिल-वादीभेन्द्र-कुम्भ-प्रभेदी
गणभृदजितसेना भाति वादीभसिंहः ॥५॥ चूर्णि ॥ यस्य संसार-वैराग्य-वैभवमेवंविधारस्ववाच स्सूचयन्ति ।
प्राप्तं श्रीजिनशासनं त्रिभुवने यदुर्लभं प्राणिनां यत्संसार-समुद्र-मग्न-जनता-हस्तावलम्बायितं ।
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११२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
यत्प्राप्ताः परनिर्व्यपेक्ष-सकल-ज्ञान-श्रियालङ्कतास्तस्मारिक गहनं कुतो भयवशः कावात्र देहे रतिः॥५८॥ आत्मैश्वयं विदितमधुनानन्त-बोधादि-रूपं तत्सम्प्राप्त्यै तदनु समयं वर्ततेऽत्रैव चेतः। त्यक्तान्यस्मिन्सुरपति-सुखे चक्रि-सौख्य च तृष्णा तत्तुच्छात्थैरलमलमधी-जोभनोकवृत्त : ।।५।। अजानन्नात्मानं सकल-विषय-ज्ञान-वपुष सदा शान्तं स्वान्तःकरणमपि तत्साधनतया । बही-रागद्वेषैः कलुषितमनाः कोऽपि यततां
कथं जानन्नेनं क्षणमपि ततोऽन्यत्र यतते ॥६॥ ( पश्चिममुख ) चूर्णि॥ यस्य च शिष्ययो:कविताकान्त-वादिकाला. हलापरनामधेययोः शान्तिनाथपद्मनाभ-पण्डितयोरखण्डपाण्डित्य-गुणोपवर्णनमिदमसम्पूण्णं ॥
त्वामासाद्य महाधियं परिगता या विश्व-विद्वज्जनज्येष्ठाराध्य-गुणाचिरेण सरसा वैदग्ध्य-सम्पद्गिरो । कृत्स्नाशान्त-निरन्तरादित-यशश्श्रीकान्त शान्ते न तां वक्तुं सापि सरस्वती प्रभवति बमः कथन्तद्वयं ॥६१।। व्यावृत्त-भूरि-मद-पन्तति विस्मृतापारुष्यमात्त-करुणारुति-कान्दिशीकं । धावन्ति हन्त परवादिगजास्त्रसन्तः श्रीपद्मनाभ-बुध-गन्ध-गजस्य गन्धात् ॥६२॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
दीक्षा च शिक्षा च यता यतीनां जैनंतपस्तापहरन्दधानात् कुमारसेनेाऽवतु यश्चरित्रं श्रेयः पथादाहरणं पवित्रं ||६३|| जगद्गरिम- घस्मर - स्मर-मदान्ध गन्ध-द्विपद्विधाकरण- केसरी चरण- भूष्य भूभृच्छिखः । द्वि-षड्-गुण- त्र पुस्तपश्चरण-चण्ड-धामोदयो दयेत मम मल्लिषेण मलधारिदेवा गुरुः ||६४ || वन्दे तं मलधारिणं मुनिपति मोह - द्विषद् - व्याहतिव्यापार-व्यवसाय-सार- हृदयं सत्संयमारु- श्रियं । यत्कायोपचयी भवन्मलमपि प्रव्यक्त-भक्ति-क्रमानम्राक-मना-मिलन्मल-मषि प्रक्षालनकक्षमं || ६५ || अतुच्छ तिमिर-च्छटा जटिल - जन्म - जीर्णाटवीदवानल - तुला- जुषां पृथु - तपः- प्रभाव- त्विषां । पदं पद - पयेोरुह - भ्रमित-भव्य-भृङ्गावलि
मल्लसतु मलिषेण मुनिरामना मन्दिरे ||६६|| नैर्मल्याय मलाविलाङ्गमखिल- त्रैलोक्य-राज्य श्रिये नैष्किञ्चन्यमतुच्छ - तापहृदयेन्यश्वद्धुताशन्तपः । यस्यासौ गुण-रत्न-रोहण-गिरिः श्री मल्लिषेणेो गुरुवन्द्यो येन विचित्र- चारु चरितैर्द्धात्री- पवित्री - कृता ॥ ६७ ॥ यस्मिन्नप्रतिमा क्षमाभिरमते यस्मिन्दया निर्दया
श्लेषा यत्र - समत्वधीः प्रणयिनी यत्रास्पृहा सस्पृहा । कामं निवृति-कामुकस्स्वयमथाप्यप्रेसरो योगिनामाश्चर्य्याय कथन्ननाम चरितैश्श्रीमल्लिषेणेो मुनिः ॥६८॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख यः पूज्यः पृथिवीतले यमनिशं सन्तस्स्तुवन्त्यादरात् येनान-धनु-जितं मुनिजना यस्मै नमस्कुर्वते। यस्मादागम-
निर्णयोयमभृतां यस्यास्ति जीवेदया यस्मिन्श्रीमलधारिणितिपती धर्मोऽस्ति तस्मै नमः ॥६॥ धवल-सरस-तीर्थे सैष सन्यास-धन्यां · परिणतिमनुतिष्ठं नन्दिमा निष्ठितात्मा। व्यसृजदनिजमङ्ग भङ्गमङ्गोद्भवस्य
प्रथितुमिव समूलं भावयन्भावनाभिः ॥७०॥ चूर्णि ॥ तेन श्रीमद जितसेन-पण्डित-देव-दिव्य-श्री-पादकमल-मधुकरी-भूत-भावेन महानुभावेन जैनागमप्रसिद्धसल्लेखनाविधि-विसृज्यमान-देहेन समाधि-विधि-विलोकनोचित-करण-कुतूहल-मिलित-सकल-सङ्घ-सन्तोष-निमित्तमात्मान्त:करण-परिणतिप्रकाशनाय निरवद्य पद्यमिदमाशु विरचितं ॥
आराध्यरत्न-त्रयमागमोक्तं विधाय निश्शल्यमशेषजन्ता: क्षमां च कृत्वा जिनपादमूले देहं परित्यज्य दिवंविशामः॥७१॥ शाक शून्य-शराम्बरावनिमिते संवत्सरे कीलके मासेफाल्गुनके तृतीय-दिवसेवारेसितेभास्करे । स्वाती श्वेत-सरोवरे सुरपुरं याता यतीनां पति
मध्याह्ने दिवसत्रयानशनतः श्री मल्लिषेणो मुनिः ॥७२॥ श्रीमन्मलधारि-देवरगुडूंविरुद-लेखक-मदनमहेश्वर मल्लिनाथ बरेदं विरुद-रूवारि-मुख-तिलकं गङ्गाचारि कण्डरिसिदं ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ११५
५५ (६६) कत्तिले बस्ती के द्वारे से दक्षिण की ओर
एक स्तम्भ पर
( लगभग शक सं० १०२२) ( पूर्वमुख)
श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघ-जाञ्छनं ।। जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे ।
अन्यवादि-मद-हस्ति-मस्तक-स्फाटनाय घटने पटीयसे ।।२। श्लोक ॥ श्रीमतो वर्द्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने ।
श्री कोण्डकुन्द-नामाभून्मूल सङ्घाग्रणी गणी ॥ ३॥ तस्यान्वये जनि ख्याते...देशिक गणे ।
गुणी देवेन्द्रसैद्धान्त-देवो देवेन्द्र-बन्दितः ॥ ४ ॥ तच्छिष्यरु ॥ जयति चतुर्मुख-देवो योगीश्वर-हृदय-बनज-बन
दिननाथः । मदन-मद-कुम्भि-कुम्भस्थल-दलनाल्वण-पटिष्ठ-निष्ठुर
सिंहः ॥ ५॥ योन्दोन्दु दिग्विभागदोलोन्दोन्दष्टोपवासदि कायोत्सगन्दलेने नेगल्दु तिङ्गलसन्दडे पारिसि चतुर्मुखाख्येयनाल्दरु ॥ ६॥
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११६ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
प्रवर्गलिग शिष्यरादप्रविमल-गुणरमल-कीर्ति-कान्ता-पतिगल । कवि-गमकि-बादि-वाग्मि-- प्रवर-नुतर्चतुरसीति-सङ्ख्य यनुल्लर् ॥ ७ ॥ अवरोलगे गोपन्दि - प्रवर-गुणरदिष्ट-मुद्राघातयशकविता पितामहत- . र्क-बरिष्ठवक्रगच्छदाल पेसर्वडेदर ॥ ८ ॥ जयति भुविगोपनन्दीजिनमतलसदमृतजलधितुहिनकरः
देशीयगणाप्रगण्यो भव्याम्बुज-पण्ड-चण्डकरः ।। ६ ।। वृत्त ॥ तुङ्गयशोभिरामनभिमान-सुवर्ण-धराधरं तपो
मङ्गल-लक्ष्मि-वल्लभनिलातलवन्दितगोपनन्दियावङ्गमसाध्यमप्प पलकालदनिन्द-जिनेन्द्र-धर्ममं गङ्गनृपालरन्दिन विभूतिय रुढियनेय्दे माडिदं ॥ १० ॥ जिनपादाम्भोज-भृङ्ग मदन-मद-हरं कर्म-निर्मूलनं वागवनिता-चित्त-प्रियं वादि-कुल-कुधर-वज्रायुधं चारु-विद्वजन-पात्रं भव्य-चिन्तामणि सकल-कला-कोविदंकाव्यकलासननेन्दानन्ददिन्दं पागले नेगल्दनी गोपणन्दितीन्द्र
॥११॥ मलयदे शालय मट्टविरु भौतिक पोङ्गि कडङ्गि बागदितॊलतालबुद्ध बौद्ध तले-दोरदे वैष्णवडङ्गडङ्ग वाग
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
बलद पाडर्पु वेड गड चार्श्वक चार्व्वक निम्म दर्पमं सलिपने गोपणन्दि - मुनिपुङ्गवनेम्ब मदान्ध सिन्धुरं ॥ १२ ॥ ( दक्षिण मुख )
तगयल जैमिनि- तिप्पिकोण्डु परियल वैशेषिकं पोगदुण्डिगेयोत्तल सुगतं कडङ्गि बले-गोयलक क्षपादम्बिडलूपुगे लोकायतनेयदे शाङ्ख्य नडसल्कम्मम्म षट्तर्क-वीथिगलालूतूल्दि तु गेापणन्दि - दिगिभ - प्रोद्भासि - गन्धद्विपं ॥
॥ १३ ॥
दिनुविन्यवादि- मुख-मुद्रितनुद्धतवादिवाग्बलोटूट-जय-काल-दण्डनपशब्द-मदान्ध - कुवादि- दैत्य-धूजटि कुटिल प्रमेय-मद-वादि-भयङ्करनेन्दु दण्डुलं स्फुट - पटु-घोषदिक्-तटमने यूदितु वाकु- पटु-गोपनन्दिय
कन्द || एननेननेले पेल्वेनण्ण स
-
परम- तपोनिधान वसुधैक-कुटुम्ब जैनशासनाम्बर - परिपूर्णचन्द्र सकलागम-तत्त्व-पदार्थ-शास्त्र-विस्तर वचनाभिराम गुण-रत्न- विभूषण गोपर्णान्द निनोरेगिनिस प्पडं दारेगलिल्ले - गाणेनिला [ तला ] प्रदालू
।। १५ ।।
न्मान दानिय गुण - तङ्गलं । दान - शक्ताभिमान - शक्ति विज्ञान-शक्ति सले गोपणन्दिय || १६ ||
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११८ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख अवर सधर्मरु ॥
श्रीधाराधिप भोजराज-मुकुट-प्रोताश्म-रश्मि-च्छटाच्छाया-कुङ्कम-पङ्क-लिप्त-चरणाम्भोजात-जक्ष्मीधवः । न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिशशब्दाब्ज-रोदोमणिस्थेयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणिश्रीमान्प्रभाचन्द्रमाः ॥१७॥ श्रोचतुम्मुख-देवानां शिष्योऽधृष्यःप्रवादिभिः ।
पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादि गजाशः ॥१८॥ अवर सधर्मरु ॥
बौद्धोव्वौधर-शम्बः नय्यायिक-कज-कुञ्ज-विधुबिम्बः । श्रीदामनन्दिविबुधः तुद्र-महा-वादि-विष्णुभट्टघरट्ट
॥१६॥ तत्सधर्मर ॥
मलधारिमुनीन्द्रोऽसौ गुणचन्द्राभिधानकः।
बलिपुरे मल्लिकामोद-शान्तीश-चरणार्चकः ॥२०॥ तत्सधर्मरु ।।
श्रीमाघनन्दि-सिद्धान्त-देवो देवगिरि-स्थिरः । स्याद्वाद-शुद्ध-सिद्धान्त-वेदी वादि-गजाङ्क शः ॥२१॥ सिद्धान्तामृत-वार्द्धि-वर्द्धन-विधुः साहित्य-विद्यानिधिः बौद्धादि प्रवितर्क-कर्कश-मतिःशब्दागमे भारतिः । सत्याधुत्तम-धर्म-हर्म्य-निलयस्सद्वृत्त-बोधोदयः स्थेयाद्विश्रुतमाघनन्दि-मुनिप श्रीवक्रगच्छाधिपः॥२२॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ११६ प्रवर सधर्मरु ॥
जैनेन्द्रे पूज्य [पादः] सकल-समय-तर्के च भट्टाकलङ्कः साहित्ये भारविस्स्यात्कवि-गमक-महावाद-वाग्मित्व-रुन्द्रः। गीते वाद्य च नृत्ये दिशि विदिशि च संवर्ति सत्कीर्ति
मूर्तिः स्थेयाशकीयोगिवृन्दार्चितपदजिनचन्द्रो वितन्द्रो
मुनीन्द्रः ।। २३ ॥ अवर सधर्मरु ॥ (पश्चिममुख)
वङ्कापुर-मुनीन्द्रोऽभूद् देवेन्द्रो रुन्द्र-सद्गुणः । सिद्धान्ताद्यागमार्थज्ञो सज्ञानादि-गुणान्वितः ॥ २४ ॥ अवर सधर्मरु ।।
वासवचन्द्र-मुनीन्द्रो रुन्द्र-स्याद्वाद-तर्क-कर्कश-धिषणः । चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरितिप्रसिद्धिप्राप्तः
॥२॥ इवर्गे सहोदर-सधर्मरु ॥ श्रीमान्यशःकीति-विशालकीतिरस्याद्वाद-ताज
विबोधनार्कः। बौद्धादि-वादि-द्विप-कुम्भ-भेदी श्रीसिंहलाधीश-कृतार्थ्य
पाद्यः ॥२६॥ अवर सधर्मरु ॥
मुष्टि-त्रय-प्रमिताशन-तुष्टःशिष्ट-प्रिय-स्त्रिमुष्टि-मुनीन्द्रः ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
दुष्टपरवादि-मल्लोत्कृष्ट श्रीगे। पनन्दि-यतिपतिशिष्यः ||२७|| अवर सधर्मरु ||
मलदा [धा ] रि हेमचन्द्रो गण्डविमुक्तश्च गौलमुनिनामा |
श्री गोपनन्दि-यति-पति- शिष्योऽभूच्छुद्ध-दर्शनज्ञानाद्याः ॥
॥ २८ ॥
१२०
कन्द || धारिणियालू मनसिजसं
हारिगलं नेनेयलुप्रपापं किडुगुं ।
सूरिगलन मल-गुण-स
न्धारिगलं गौल-देव- मलधारिगलं ।। २८ ।।
वर धर्मरु ||
श्री सूलसङ्घ गतदोषमेघे देशीगणे सच्चरितादिसद्गुणे । भारत्यतुच्छे वरवक्रगच्छे जातः सुभावः शुभकीत्ति' देवः ।।
11 30 11
आजिरगे कीर्त्ति - नर्त्त कि गाजिर भूगोलवागं शुभकीर्ति
बुधं ।
राजावलि - पूजितनें राजिसिदना वक्रगच्छ देशीयगणं
।। ३१ ।।
वर धर्म ||
श्री माघनन्दि सिद्धान्तामृत-निधि- जात- मेघचन्द्रस्य श्रीसोदरस्य भुवन ख्याताभयचन्द्रिका सुता जाता
॥ ३२ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १२१ प्रवर सधर्मरु ॥
कल्याणकीति नामाभूद्भव्य-कल्याण-कारकः ।
शाकिन्यादि-ग्रहाणां च निर्धाटन-दुर्द्धरः ॥ ३३ ॥ प्रवर सधर्मरु॥ सिद्धान्तामृत-वार्द्धि-सूत-सुवचा-लक्ष्मी-ललोटेक्षणः शब्द-व्याहृति-नायिकाम्ब(क)चकोरानन्दचन्द्रोदयः । साहित्य-प्रमदाकटाक्ष-विशिख-व्यापार-शिक्षागुरुः स्थेयाद्विश्रुत-बालचन्द्रमुनिपः श्रीवक्रगच्छाधिपः ॥३४॥ ओमूलसङ्घ-कमलाकर-राजहंसो देशीय-सद्गण-गुण-प्रवरावतंसः। जीयाज्जिनागम-सुधार्णव-पूर्णचन्द्रः श्रीवक्रगच्छ-तिलको मुनिबालचन्द्रः ॥३५॥ सिद्धान्ताद्यखिलागमार्थ-निपुण-व्याख्यानसंशुद्धियिं शुद्धाध्यात्मक-तत्वनिर्णय-बचा-विन्यास दिं प्रौढिसंबद्ध-व्याकरणार्थ-शास्त्र-भरतालङ्कार-साहित्यदि राद्धान्तोत्तम-बालचन्द्र-मुनियन्ताातरी लोकदोल
विश्वाशा-भरित-स्व-शीतलकर-प्रभ्राजितस्सागरप्रोद्भू तस्सकलानतः कुवलयानन्दस्सतामीश्वरः । काम-ध्वंसन-भूषितः तितितले जातो यथार्थाह्वयस्सोऽयं विश्रुत-बालचन्द्र-मुनिपस्सिद्धान्त-चक्राधिपः
॥ ३७ ।।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१२२
( उत्तरमुख )
श्रीसूलसङ्घद देशीयगणद वक्रंगच्छद केाण्डकुन्दान्वयद परियलिय वडदेवर बलिय । देवेन्द्र सिद्धान्तदेवरु | अवर शिष्यरु वृषभनन्द्याचार्य्यरेम्ब चतुर्मुखदेवरु । प्रवर शिष्यरु गोपनन्द - पण्डितदेवरु । अवर सधर्म्मरु महेन्द्र-चन्द्रपण्डित-देवरु | देवेन्द्र-सिद्धान्तदेवरु । शुभकीर्त्ति पण्डित देवरु - माघनन्दि- सिद्धान्त - देवरु | जिनचन्द्र पण्डित - देवरु | गुणचन्द्र-मलधारि-देवरु | अवरोलगंमाघनन्दि- सिद्धान्तदेवरशिष्यरु | त्रिरत्ननन्दि - भट्टारक - देवरु । अवर सधर्मरु कल्याणकीर्त्ति भट्टारक देवरु | मेघचन्द्र पण्डित - देवरु | बालचन्द्र-सिद्धान्त-देवरु । आ गोपनन्दि पण्डित - देवर शिष्यरु जसकी र्त्ति पण्डित - देवरु । वासवचन्द्र पण्डित - देवरु । चन्दनन्दि पण्डितदेवरु | हेमचन्द्र - मलधारि गण्डविमुक्त रेम्ब गौलदेवरु त्रिमुष्टि-देवरु |
[ यह लेख कुछ श्राचार्यों की प्रशस्तिमात्र है । लेख के अन्तिम भाग में उपरिवर्णित श्राचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति है । ये सब श्राचार्य मूलसंघ देशिय गए और वक्र गच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्तदेव के समकालीन शिष्य थे । चतुर्मुखदेव इसलिए कहलाये क्योंकि उन्होंने चारों दिशाओं की ओर प्रस्तुत मुख होकर आठ आठ दिन के उपवास किये थे । गोपनन्दि श्रद्वितीय कवि और नैयायिक थे जिनके सम्मुख कोई बादी नहीं ठहरते थे । प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजदेव द्वारा सम्माहुए थे | मावनन्दि, और जिनचन्द्र भारी कवि, नैयायिक और
नित
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१२३
वैयाकरण थे | देवेन्द्र वङ्कापुर के श्राचार्यों के नायक थे । वासवचन्द्र ने अपने वाद-पराक्रम से चालुक्य राजधानी में बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी । यशःकीर्त्ति सैद्धान्तिक सिंहल द्वीप के नरेश द्वारा सम्मानित हुए थे । त्रिमुष्टि मुनीन्द्र बड़े सैद्धान्तिक थे और तीन मुष्टि अन्न का ही आहार करते थे । मलधारि हेमचन्द्र और शुभकीर्त्तिदेव बड़े सदाचारी आचार्य थे । कल्याणकीत्ति शाकिनी आदि भूत प्रेतों को भगाने की विद्या में निपुण थे । बालचन्द्र श्रगम और सिद्धान्त के अच्छे ज्ञाता थे । ]
५६ ( १३२ )
गन्धवारण बस्ति के पूर्व की ओर
( शक सं० २०४५ )
त्रैविद्योत्तम मेघ चन्द्रसुतपः पीयूषवारा शिजः सम्पूर्ण क्षयवृत्तनिर्मलतनुः घुष्यद्बुधानन्दनः । त्रैलोक्य प्रसरद्यशश्शुचिरुचिर्य्यप्रस्तदोषागमः सिद्धान्ताम्बुधिवर्द्धनो विजयते पूर्व्व: प्रभाचन्द्रमाः ॥ १ ॥
श्रीसेोदराम्बुजभवादुदितेोऽत्रिरत्र
जातेन्दुपुत्र- बुधपुत्र- पुरूरवस्तः । प्रायुस्ततश्च नहुषो नहुषाद्ययातिः तस्माद्यदुर्यदुकुले बहवा बभूवुः ॥ २ ॥
ख्यातेषु तेषु नृपतिः कथितः कदाचित् कश्चिद्वने मुनिवरेश्व ( ध्व ) - चल : करालं ।
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१२४ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
शालकं प्रतिह पोयसल इत्यतोऽभूत्तस्याभिधा मुनिवचोऽपि चमूरलक्ष्मः ।। ३ ॥ ततो द्वारवतीनाथा पोयसला द्वोपिलाञ्छना। जाताश्शशपुरे तेषु विनयादित्यभूपतिः ॥४॥ स श्रीवृद्धिकरं जगज्जनहितं कृत्वा धरां पालयन श्वेतच्छत्रसहस्रपत्रकमले लक्ष्मी चिरं वासयन् । दोईण्डे रिपुखण्डनैकचतुरे वीरश्रियं नाटयन चिक्षेपाखिल दिक्षु शिक्षितरिपुस्तेज:प्रशस्तोदयः ॥ ५ ॥ श्रीमद्यादववंशमण्डनमणिः क्षोणीशरक्षामणिलक्ष्मीहारमणिः नरेश्वरशिरःप्रोत्तुङ्गशुम्भन्मणिः । जीयान्नीतिपथेक्षदर्पणमणिोकैकचूडामणि
श्रीविष्णुविनयार्जिता गुणमणिस्सम्यक्त्वचूड़ामणिः ॥६॥ कन्द ॥ एरेद मनुजङ्ग सुरभू
मिरुहं शरणेन्दवङ्ग कुलिशागारं । परवनितेगनिलतनयं धुरदोल पोणईङ्ग मृत्यु विनयादित्य ॥७॥ बलिदडे मलेदडे मलपरतलेयोल बलिडुवनुदितभयरसवसदि । बलियद मलेयद मलेपर-- तलेयोल कैयिडुवनोडने विनयादित्य ॥८॥
आ पोयसल भूपङ्ग महोपाल-कुमार-निकर-चूडारत्नं ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख श्रीपतिनिज-भुजविनयम
हीपति जनियिसिदनदटनेरेयङ्गनृपं ॥ ६ ॥ वृत्त ॥ अनुपमकीत्ति मूरेनेय मारुति नाल्कनेयुप्रवह्नियय
देनेयसमुद्रमारेनेय पूगणेयेलनेयुबैरेषनेण्टेनेय कुलाद्रियोम्भतनेयुदघसमेतहस्तिप---- त्तेनेय निधानमूर्तियेने पोल्ववरारेरेयङ्गदेवन ॥ १० ॥ अरिपुरदोल्धगद्धगिलदन्धगिलेम्बुदरातिभूमिपालरशिरदोल्गरिल्गरिगरीगरिलेम्बुदु वैरिभूतलेशर करुलोल चिमिल्चिमि चिमीचिमिलेम्बुदुकोपवह्निदु
चरतरमेन्दोडल्कुरदे कादुवरारेरेयङ्गदेवन ॥ ११ ॥ कन्द ॥ श्रा नेगल्द एरेग नृपालन
सूनु बृहद्वैरिमर्दन सकलधरित्री-नाथनर्थिजनताभानुसुतं जिष्णु विष्णुवर्द्धननेसेदं ॥ १२ ॥ उदेयं गेयलोडनोडनन्तुदितोदितमागे सकलराज्याभ्युदय । मदवदराति-नृपालक
पदविदलननमम विष्णुवर्द्धन भूपं ॥१३॥ वृत्त । केलरं किर्तिक्कि बेर बिदुईकेलरनत्युग्रसङ्ग्रामदोलुबा--
ल्दले गोण्डालेपदिन्दं केलर तलेगलं मेट्टि मिन्दुप्रकोपं । मलेवत्युवृत्तरंतोत्तलदुलिदु निजप्राज्यसाम्राज्यमं तो. लवलदि निष्कण्टकं माडिदनधिकबलं विष्णु जिष्णुप्रतापं॥१४॥
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१२६ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
दुर्बारारिधराधरेन्द्रकुलिशं श्रीविष्णुभूपालनाहेब्बंट्टिलु सेडेदोडि पोगि भयदिन्दाबन्दनीबन्दनेन्द् । उर्वीपालर कङ्ग लोकमनितुं तद्रूपमागिर्पिनं
सब विष्णुमय जगत्तेनिपिदें प्रत्यक्षमागिहुँ दो ॥१५॥ वचन ।। स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्दमहामण्डलेश्वरं द्वारावती
पुरवराधीश्वरं यादवकुस्ताम्बरधु मणि सम्यक्तचूड़ामणि मलपरोल्गण्डाद्यनेकनामावलीसमालङ्कतर्नु। मत्तं चक्रगोई तलकाडु नीलगिरि का नङ्गलि कालालं तेरेयूर कायतूरु काङ्गलिय उच्चङ्गि तलेयूरु पोम्बुर्चवन्धासुरचौक बलेयवट्टण येन्दिवुमोदलागनेक दुर्ग त्रयङ्गलनश्रमदि कोण्डु चण्ड-प्रतापदिं गङ्गावाडि ताम्भत्तरु सासिरमुमनुण्डिगे साध्य माडिसुखदि राज्य गेय्युत्तमिई श्रीमन्महामण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल्ल तलकाडुगोण्ड भुजबलवीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन पायसलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रबर्द्धमानमाचन्द्रार्क
तारं बरं सलुत्तमिरे ॥ कन्द ।। आ नेगई विष्णुनृपन म
नो नयनप्रिये चलालनीलालकि चन्द्रानने कामन रतियलु।
तानेणे तोणे सरि समाने शान्तल देवि ।। १६ ।। वृत्त । अग्गद मारसिङ्गन मनोनयनप्रिये माचिकब्बेय
न्तग्गदकीर्ति वेत्तेसेवरग्रतनूभवे विष्णुवर्द्धनङ्गग्गद चित्तवल्लभेयेनल्कभिवर्णिपरारो लक्ष्मिग
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१२७
न्तग्गलमप्प मान्तनद शान्तलदेविय पुण्यवृद्धियं ॥ १७ ॥
धुरदोल विष्णुनृपालकङ्ग विजयश्रीवच दोल्सन्ततं परमानन्द दिनोतु निल्य विपुल श्री तेजदुद्दानियं । वर दिग्भित्तियनेय दिसलनेरेव कीर्त्तिश्री येनुत्तिर्णुदीदरेयोलू शान्तलदेवियं नेरेये बण्णिप्पातने वण्यिपं ॥ १८ ॥
कन्द || शान्तल देविय गुणमं शान्तल देवियसमस्तदानान्नतिय" । शान्तलदेवियशीलम
चिन्त्यं भुवनैकदानचिन्तामणियां ॥ १८ ॥
वचन ॥
स्वस्त्यनवरतपरमकल्याणाभ्युदयशतसहस्रफलभोगभा
गिनी द्वितीयलक्ष्मी समानेयुं । सकलकलागमानूनेयुं । अभिनव रुग्मिणीदेवियुं । पतिहितसत्यभावेयुं । विवेकैकबृहस्पतियुं । प्रत्युत्पन्नवाचस्पतियुं । मुनिजनविनेयजन विनीतेयुं । पतिव्रताप्रभावप्रसिद्धसीतेयुं । सकलवन्दिजन चिन्तामणियुं । सम्यक्तचूड़ामणियु ं । उद्वृत्तसवतिगन्धवारेणेयुं । चतुःसमयसमुद्धरकरणकारणेयुं । मनोजराजविजयपताकेयुं । निजकुलाभ्युदय दीपयुं । गीतवाद्यनृत्यसूत्रधारेयुं । जिनसमय समुदितप्राकारेयुं । श्राहाराभयभैषज्यशास्त्रदान- विनोदेयुमप्प विष्णुवर्द्धनपोयूसलदेवर पिरियरसि पट्टमहादेवी शान्तलदेवि शकवर्ष सासिर ४० यूदेनेय शोभकृतु संवत्सरद चैत्रसुद्धपाडिव बृहस्पतिवार दन्दु श्री बेल्गोलद तीर्थदाल सवतिगन्धवारण जिना
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१२९
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख लयमं माडिसि देवता पूजेगर्षिसमुदायकाहारदानक कल्कणिनाड मोट्टेनविलेयं तम्म गुरुगल श्रीमूलसङ्घद देसियगणद पुस्तकगच्छद श्रीमन्मेषचन्द्र विद्यदेवर शिष्यर प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देवगर्गे पादप्रक्षालनं माडि सर्वबाधापरिहारवागि बिट्ट दत्ति ।। वृत्त ॥ प्रियदिन्दिन्तिदनेयदे कावपुरुषर्गायुं महाश्रीयु म- ..
केयिदं कायदे काय्व पापिगे कुरुक्षेत्रोबियोल बायरासियोलेर्कोटिमुनीन्द्ररं कविलेयं वेदाढ्यरं कोन्दुदो
न्दयसं सागुंमिदेन्दु सारिदपुवी शैलाक्षरंसन्ततं ॥ २० ॥ श्लोक ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेति वसुन्धरां ।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ।। २१ ॥
एलसनकट्टव केरेयागि कट्टिसि सवतिगन्धहस्तिबसदिगे सरुगिगे देवियरु जिनालयके विट्टरु ।। श्रीमत् पिरियरसि पट्टमहादेवि शान्तलदेवियरु तावु माडिसिद सवतिगन्धवारणद बसदिगे श्रीमद्विष्णुवर्द्धन पोयसल देवर बेडिकोण्डु गङ्गसमुद्रद केलगण नडुबयलयवत्तु कोलग गई तोटवं श्रीमत्प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवर कालं कर्चि धारापूर्वकं माडि बिट्ट दत्ति इदनलिदवं गङ्गय तडियोले हदिनेण्टु कोटि कविलेयं कोन्द महापातक । मङ्गलमहा श्री श्री ॥ ___ (दक्षिण पार्श्वपर) श्रीमत्प्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवर शिष्यरु महेन्द्रकीर्ति देवरु मुन्नरहदिमूरु कञ्चिन होलविगेय शान्तलदेविय बसदिगे माडिसि कोट्टर मङ्गलमहा श्री श्री ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१२६
[ यह लेख शान्तलदेवी के दान का स्मारक है । लेख में यादवकुल की उत्पत्ति ब्रह्मा और चन्द्र से बतलाई है । इस कुल में 'सल' नामक एक राजा हुआ। एक बार वन में किसी साधु ने एक व्याघ्र की ओर संकेत कर इस राजा से कहा 'पाय्सल' ( हे सल, इसे मारो ) । तभी से इस राजा का नाम पाय्सल पड़ गया और उसने सिंह का चिह्न अपने मुकुट पर धारण किया। तब से इस वंश का नाम पाय्सल पड़ गया । लेख में इस वंश के विनयादित्य, एरेयङ्ग और विष्णुवर्द्धन नरेशों के प्रताप का वर्णन है । विष्णुवर्द्धन की पटरानी शान्तलदेवी, जो पातिव्रत, धर्मपरायणता और भक्ति में रुक्मिणी, सत्यभामा, सीता जैसी देवियों के समान थी, ने सवति गन्धवारणबस्ति निर्माण कराकर श्रभिषेक के लिए एक तालाब बनवाया और उसके साथ एक ग्राम का दान मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को कर दिया । ]
[ नाट-लेख की ठीक तारीख़ 'सासिरद नल्वत्तयदनेय' है, परन्तु खोदने वाले की भूल से जब 'नत्वत्त' छूट गया और 'सासिरदयदनेय' खुद गया तब उसने 'सासिरद, के 'द' को ४० में बदलकर जितना अच्छा उससे हो सका उसे शुद्ध कर दिया । यद्यपि पढ़ते समय इससे ठीक अर्थ निकल आता है परन्तु देखने में यह बड़ा विचित्र मालूम होता है । ]
५७ (१३३ )
गन्धवारण वस्ति के उत्तर की ओर स्तम्भ पर । ( शक सं० ६०४ )
( उत्तर मुख )
संसारवनमध्येऽस्मिनृजूंस्तद्गान् जन- द्रुमान् । आलोक्यालोक्य सद्वृत्तान् छिनत्ति यमतक्षकः ॥ १ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
श्रीराजत्कृष्णराजेन्द्रन मगन मगं सत्यशैौचद्वयालङ्कारं श्रीगङ्गगाङ्गयन मगल मगं वीरलक्ष्मीविलासागारं श्रीराजचूड़ामणियलिय निदें पेम्पो पेलेन्दलम्पि भूरिदमाचक्रमुं बणिसे सले नेगल्दं रट्टकन्दर्पदेवं ॥ २ ॥ परभूमीश्वर भीकरं कर निशाताग्रासि शत्रुचितीश्वरविध्वंसपरं पराक्रमगुणाटोपं विपक्षावनी -- श्वरपक्षक्षयकारणं रणजयोद्योगं द्विषन्मेदिनीश्वरसंहारहविर्भुजं भुजबलं श्रीराजमार्त्तण्डन ||३|| इरियल्कण्मुबरीयलारररेबर पुण्डीवरारानुमातिरियल्कन्मरदाव गण्डगुणमावौदार्य मेन्दल्कदान्तिरिवरमुं पिरिदीव पेम्पुमेसेदाप्पिल्दप्पुवार्व्वणिसल् नेरेवब्बीरद चागदुन्नतिकेयं श्री राजमार्त्तण्डन ||४|| किडद जसक्के ताने गुरियादचलं नेरेदतिर्थ गमं । कुडुव चलं तादनुडियदिप चलं परवेण्णेोलतोदबड़द चलं शरण्गे वरेकाव चलं परसैन्यमं पेरडे गुडदट्टि कोल्व चलमाल्द चलं चलदङ्ककार्न ||५|| इरु पेरदेननिं पागलुतिल्द पुदीवनेगल्ते कल्पभूमिरुद्द दिनग्गलं नुड़ि सुराचलदिन्दचलं पराक्रमं । खरकरतेजदि बिसिदु चागल नन्निय बीरदन्दमीदारतेने बण्यिसलूनेरेवरारलवं चलदङ्ककारन ॥ ६ ॥ प्रोगसुग मल्लदुल्लुदने पेल्दपेनेन्दुमतविक्रमं मृगपति गल्लदिल्ले गड सन्द गभीरते वार्द्धिगल्ल दि
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
ल्लेगड जगत्प्रसिद्धि गेले. महान्नति - वे...ग...... 'मेल्ल मालवानरिवें......
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मुखाब्जनेत्रोत्पलालकालाल शिली
मुखनिकर - दिने सेवुदु पदनख
कमलाकरविलासमहितर जवन ॥ १० ॥
मन्त्रिसि पिरिदीवंताद
लं नुडियाडर्दु माणनल रिन्दमिदे
नुन्नतिवडेदुदो चागद
नन्निय बीरद नेगल्ते चलदग्गलिया ॥ ११ ॥ शरदमृत किरणरुचियिं चराचरव्याप्तियि जगज्जननुतिथि करमे से दिल्दपुदेनी
( पूर्वमुख )
दुस्थितेला कल्पतरुवेम्बुदु वैरिनरेन्द्रकुम्भकुम्भस्थल- पाटन - प्रवण - केस रिम्बुदु कामिनीजने - रस्थलहारमेम्बुदु महाकविचित्तसरोरुहाकरावस्थित हंस नेम्बुदु समस्त महीजनमिन्द्रराजनं ॥ ८ ॥ पुसिवुदे तक्कु कोट्टलिपि कोल्वुदे मन्तणमन्यनारिगाटिसुवुदे चित्तमीयदुदे विन्नणमारुमनेय्दे कुतुबविवुदे कल्त कल्पियेने मत्तवरं पेसर्गोण्डदेन्तु पलिसुवुदा पेलिमीगडिन राजतनूज रोलिन्द्रराजनं ॥ ८ ॥ निखिल विनमन्नरेश्वर
१३१
'11011
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१३२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
श्वरमूर्तिये कीर्ति कीर्तिनारायणन ॥ १२ ॥ नुडिवीरमनोन्दुगण्डु सेडेवर्चागकेमुवाम्परीवड़े पलगच्चुवरामे सोचिगलेमेन्दिपप्परस्रोयरोलगडणं नभिगे बीगुवर्नुडितादल दोसके पक्कादेदं
बडगण्डर कलिकालदोल कलिगलोल गण्डं बरंगण्डरे॥१३॥ ( दक्षिणमुख)
श्रीगे विजयक्के विद्देगे चागकदटिङ्ग जसके पेम्पिङ्गि नितकांगरमिदेन्दु कन्दुकदागमदोले नेगल्गुमल्ते बीरर बीर ॥ १४ ॥ पोलगं दक्षिण सुकरदुष्करमं पोरगण सुकरदुष्करभेदमं ओलगे वामद विषममनल्लिय विषम दुष्करम निन्नदर पोरगग्गलिके येनिपति विषममनदरतिविषम दुष्करमेम्ब दुष्कर्म एलेयोलोने चारिसल्बल्लंनाल्कुप्रकरणमुमनिन्द्रिराजं
॥१५॥ चारिसे नाल्कु प्रकरणचारणे मूनूर मूवतेण्टेनिसिदवाचारणेगलनमदिं चारिसुगुं कोटि तेरदिनेलेबेडेङ्ग ॥१६॥ बलसुवेरुव सुलिवगल्विन्तप्प चारणदोषमजदे पोट्टवदृलेगे समनागेगिरिगेय कोल्मुट्टि मिगलुंनेललुमणमीयदिन्तो
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख न्दलवियोल्बरे पोरगोलगेडदोलं बलदालं कडुगडुपिन्ने
बर्प वलयन्दप्पदे चारिसुवोजेयं रट्टकन्दर्पनन्ताव बल्लं ॥१७॥ मेलसिन निलिरिदु गिरिगेयनलेदो डोलोलोलगे पोरगणे मेलेवोल्पलवडे चारिप बहलिकेयलविदुकेवलमे कीर्त्तिनारायणन ॥ १८॥ गिरिगे मेलसिन्दं किरिदक्क कालोपु नाल्वरललविग
किरिदुमक्कतुरगं बेट्टदि पिरिदक्क वलयमुं भूवलयदिनत्त पिरिदुमक्के । गिरिगे कोल्वलि वलयमिन्तिनितुमं बगेवोङ्ग करमरि
दिन्तिवरोलइरदे पत्तेण्टुवलयं चारिसदन्नं भोगमिकक्नल्लनिन्द्रराज
॥१६॥ कडुपुगलुद्द वलंगड बेडेङ्ग गल बेरे भङ्गिगल ललिगलिदें। कडुजाणेने बदिकयवरमडईपुलेने विद्दमेलेरु मेलेवबेडेङ्ग ॥ २० ॥ नेगल्द मण्डलमाले त्रिमण्डल यामकमण्डलमर्द्धचन्द्रमार्ग बगेवोडरिदप्प सर्वतोभद्रमुद्दवलं चक्रव्यूह बल्मेगलं । पोगलिसल्तक पेरवु दुष्करदेलेपङ्गलनश्रमदिनेलेयोल
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
जगदेालेलेवबेडेङ्गनाने बल्ल... न्तारालं मान्तरमे ॥ २१ ॥
( पश्चिम मुख )
१३४
उद्दवल मेलेवरेम्बुदे
बिद्द मुलि कडुपिनालबहु विधदि
न्दुद्दवमेलेदु मुरिगुं ।
बिद्दमेनल्बलल पोरगनेलेवबेडेङ्ग ॥ २२ ॥
एरकमल्लदे पोल दागेरगि दोरेकोण्डे कोल्व तेरनल्लदे नेरेये बरले तक्कदियल्लि बीसुवल्लिये बीसलरिदेयिल्ल | परियनादिट्टे मुरिवल्लि कडुपिनालू मुरिदयिल्लिल्लिय बिन्त्रणवनेरेये कल्पदे बीररबीरनं गिडेगला - भरणनं नोडि कल्ला || २३ ॥
प्रसुवनं कूकुवनुं
बी सुवनुं गडये नेगल्द तक्कदियोलेनु
तासदेयु कुङ्कदेयुं
बिसन्देयु बिद्द मेलेगु मेलेवबेडेङ्ग ॥ २४ ॥
एरगल रियदे जिटुकम्म गुल्दुंबरलणम रियदेतप्पंपिन्दु तेरननरियदे भङ्गमनिक्कियुम्मूरदेगलदे कट्टाडियुं ।
मुरिये पोयिसिदनुरेयं कोन्दु धरेगेडे तगर्गड यिवनेनिस दे नेरेये कडुजायनेनिस के बक्कुमे गेडेगलाभरणन कल्लदन्नं
।। २५ ।।
कागल कयूगल तुरगद कागल तिथिवुगलोलखि बविसुतेलेगुं ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १३५ गेल्गुमेने नेगल्द मार्गदे गेल्गुमे पिणेदल्लि कीर्तिनारायणनं ॥२६।। वनधिनभोनिधिप्रमितसङख्ये शकावनिपाल
कालम। नेनेयिसे चित्रभानुपरिवर्तिसे चैत्रसितेतराष्टमीदिन-युत-भौमवार दोलनाकुलचित्तदे नोन्तु तल्दिद जननुतनिन्द्रराजनखिलामरराजमहाविभूतियं ।।२७।।
[यह लेख राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज (तृतीय) के पौत्र इन्द्रराज की मृत्यु का स्मारक है। इन्द्रराज गङ्गगाङ्गेय का दौहित और राजचूड़ामणि का दामाद था। 'रदकन्दर्पदेव' 'राजमार्तण्ड' 'कलिगलोल्गण्ड' 'बीरर बीर' आदि इन्द्रराज की प्रताप सूचक उपाधियां थीं। १४ वे से लगाकर २६ वें पद्य तक इन्द्रराज के एक गेंद के खेल में नैपुण्य का विवरण है। पर अनेक शब्दों का अर्थ अज्ञात होने के कारण इन पद्यों का पूरा-पूरा भाव स्पष्ट नहीं हो सका है। सम्भवतः यह 'पोला' के सदृश कोई खेल रहा है। क्योंकि उक्त पद्यों में गेंद, घोड़ों और खेल के दण्डों का उल्लेख है। इन्द्रराज की मृत्यु शक सं० १०४ चैत्र सुदिक भौमवार को हुई।]
५८ (१३४) तेरिन बस्ति के पश्चिम की ओर एक स्तम्भ पर
( लगभग शक सं०६०४) (उत्तर मुख)
........वार वेल्पडिगु......दन्ददे पोगलिसेम्बेने...
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१३६ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख गिय...दिसिमा...लदो...नु... मे...गदेन ...ब... तेसु,.. ' पोदिसुवेल्तेयुरि... बीडि... नगिसुगुवेम्ब... वपेद...केये मावन-गन्ध-हस्तिय ॥ .
अदिरदिदिर्चिनिन्दरि...नेने पायिसि तन्न मिण्उमुं कुदुरेय येम्बिवू बेरसि बील्वदु मेणिदिरे...देहु काल गुदि-- गोले ताने..... ( पूर्व मुख) ___ साधिसि पोग......निरदे............दिव......... बेरित.........न्तलिय......ल्दरि...लय.........ल्दन्तवस्त्री ......पेनकेल.........बोलगदोल्ताये.........उनता...... यविट्टनेवे......अलिपि,.....य..................ण्डलु
चलिदु निजाधिपं बेस सिदेबेंसनं कुसिदिमॆकेल्दुबाल्वलिपननव्यवस्थितननोर्बेसकल्कुव जोलगल्लरं पलियेदे यिल्लदोल्पलेयुतिप्पुदु मावन गन्धहस्तियं ॥ परबलवेयदि कयदुवेडेयाडुव ताणदोलल्लि बीरमं परवधु वट्टेलातरेडेयाडवताणदोलल्लि सौचमं । परिकिसि सन्दरिल्ल पेररोबरुवेनलिदण्मु सौचमेम्बरदरेल
...............॥ (दक्षिण मुख)
...........वागेदिटिगरन...वुद दोरेगे वामे मावनगन्धहस्तियं ॥ ओडनेय नायककुदिदु तागुमे...मल्व वक्कदोड्डुपु
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख एबडुविनविल्दु सन्दु सवकट्टलिदल्लिगे नङ्कि बीरमचलिविनमामे तल्तिरिदु गेल्देवरातियनेन्दु पोचरिनुडिवलिगण्डरं नगुवुदोद्दजि मावनगन्धहस्तियं ।। अणुगिनाले राजचूड़ामणिमाग्नेंडे मलनीये गेल्वे लेपद बि
नण......... ( पश्चिममुख )
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.. ललागे कणे पारुवल्लि बित्तरिसुवुदरियेंगतियनें एनेनेगल्द पिट्टगं बीडिनसोचीरनो प्रचण्डभुजदण्डमावनगन्धहस्ति कविजनविनुतं मोनेमुट्टे गण्डनाहवसौण्ड बरेचित्रभानुसम्वत्सरमधिकाषाढ़बहुल दसमीदिनदोल्गुरुचरणमूलदोलसुभपरिणामदे पिट्टनिन्द्रलोककोगद॥
[यह लेख एक मावन गन्धहस्ति नामक वीर योधा की मृत्यु का स्मारक है। युद्ध में अद्वितीय वीरता के कारण इसे एक राजा राजचड़ामणि मागेडेमल्ल ने अपनी सेना का नायक बनाया था। चित्रभानु सम्वत्सर की भाषाढ़ वदि १० को इस वीर का प्राणान्त हुश्रा। यह लेख बहुत घिस गया है इससे पूरा पूरा नहीं पढ़ा गया। शक सं० १०४ चित्रभानु संवत्सर था । लेज की लिखावट से भी यह समय ठीक सिद्ध होता है।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
५६ (७३) शासन वस्ति के सामने एक शिला पर।
(शक सं० १०३६) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधान-हेतवे ।
अन्यवादि-मद-हस्ति-मस्तक-स्फाटनाय घटने पटीयसे ॥२॥ नमो वीतरागाय नमस्सिद्धेभ्यः॥
स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महाशब्द-महामण्डलेश्वरं द्वारवतीपुरवराधीश्वरं यादव - कुलाम्बर-धु-मणि सम्यक्त-चूड़ामणि मलपरोलगण्डाद्यनेकनामावली-समालङ्कतरप्प श्रीमन्महामण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल्ल तलकाडुगोण्ड भुज-बल-वीर-गणविष्णुवर्द्धन-होयसल-देवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्ध मानमाचन्द्रार्कतारं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ वृत्त ॥ जनताधारनुदारनन्यवनितादूरं वचस्सुन्दरी
धन-वृत्त-स्तन-हारनुग्र-रणधीरं मारनेनेन्दपै । जनक तानेने माकणब्बे विबुध-प्रख्यात-धर्म-प्रयु.
क्त-निकामात्त-चरित्रे तायेनलिदेनेच महाधन्यनो ।। ३ ॥ कन्द ।। वित्रस्तमलं बुध-जन-मित्रं द्विजकुलपवित्रनेचं जगदोलु ।
पात्रं रिपु-कुल-कन्द-खनित्रं कौण्डिन्य-गोत्रनमलचरित्रं ॥४॥ मनुचरितनेचिगाङ्कन
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १३८ मनेयोलु मुनिजन समूहमु बुधजनमु। जिनपुजने जिनवन्दने । जिनमहिमेगलावकालमुसोभिसुगुं ॥ ५ ॥ उत्तम-गुण-ततिवनितावृत्तियनोलकोण्डुपेन्दु जगमेलम्कय्येत्तुविनममल-गुण-सम्पत्तिगे जगदोलगे पाचिकब्बेये नोन्तलु ॥६॥
अन्तेनिसिद् एचिराजन पाचिकब्बेय पुत्रनखिलतीर्थकरपरमदेवपरमचरिताकर्णनादीर्ण-विपुल-पुलक-परिकलित वारबाणनुवसम-समर-रस-रसिक-रिपुनृपकलापावलेप-लोप-लोलुप-कृपाणनुवाहाराभय-भैषज्य-शास्त्र-दान-विनोदनुं सकललोकशोकापनोदनुं । वृत्त ॥ वज्रवज्रभृतो हलं हलभृतश्चक्र तथा चक्रिण
शक्तिश्शक्तिधरस्य गाण्डिवधनुगाण्डीवकोदण्डिनः । यस्तद्वद्वितनोति विष्णुनृपतेष्कार्य कथं मादशै गङ्गो गङ्ग-तरङ्ग-रजितयशो-राशिस्स-वर्यो भवेतु ॥ ७ ॥ इन्तेनिप श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकं द्रोहघरट्टे गङ्गराज चालुक्य-चक्रवत्ति -त्रिभुवनमल्ल-पेाडिदेवन दलं पनिर्व
आमन्तāरसुकण्णेगाल-बीडिनलु बिट्टिरे ।। कन्द ।। तेगे वारुवमं हारुव
बगेय तनगिरुलबवरमेनुत सवङ्ग । बुगुव कटकिगरनलिरं
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१४० चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख . पुगिसिदुदु भुजासि गङ्ग-दण्डाधिपन ॥ ८॥.... वचन ॥ एम्बिनमवस्कन्दकेलियिन्द मनिबरु सामन्तरुम
भङ्गिसितदीय-वस्तुवाहन-समूहमं निजस्वामिगे तन्दु कोट्ट निजभुजावष्टम्भक मेच्चिमेच्चिदंबेदि कोल्लिमेने ।। कन्द ॥ परम-प्रसादम पडे--
दु राज्यमं धनमनेनुमं बेडदन ... स्वरमागे बेडिकाण्ड
परमननिदनहद नाञ्चित-चित्तं ॥६॥ अन्तु बेडिकोण्डुवृत्त । पसरिसे कीर्तनंजननि पोचलदेवियरर्थिवट्ट मा
डिसिद जिनालयकमोसेदात्म-मनोरमे लक्ष्मिदेवि माडिसिद जिनायलकमिदु पूजन योजितमेन्दु कोट्ट स
न्तोसमनजस्रमाम्पनेने गङ्गचमूपनिदेनुदात्तनो ॥ १० ॥ अक्कर ।। प्रादियागिप्पुदाईत-समयक्के मूलसङ्घकाण्डकुन्दा
स्वयं बादु वेडदं बलयिपुदल्लिय देसिगगणद पुस्तकगच्छद । बोधविभवद कुक्कुटासन-मलधारि-देवर शिष्यरेनिप पेम्पिङ्गादमेसेदिर्प शुभचन्द्र-सिद्धान्त-देवर गुड गङ्गचमूपति ११ गङ्गवाडिय बस दिगलेनितोलवनितंतानेयदे पोसयिसिदं गङ्गवाडिय गोम्मटदेवर्ग सुत्तालयमनेयदे माडिसिदं । गङ्गवाडिय तिगुलरं बेङ्कोण्डु वीरगङ्गङ्गनिमिर्चिकोर्ट गङ्गराजना मुभिन गङ्गररायङ्ग नूमडिधन्यनल्ते ॥ १२ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
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एत्तिदनेल्लिगल्लि नेलेवीडने माडिदनेल्लिगल्लि कण पतिदुदेनिगल्लि मनमा वेडेयेयदिदुदेल्लिगल्लि सम्पत्तिन जैनगेहमने माडिसे देशदेोलेल्लिगल्लिगेतेत्तलुमावगं पलेय माल्केवालादुदु गङ्गराजनिं ॥ १३ ॥ जिनधर्माणियत्ति मब्बरसियं लोकं गुणंगोल्वुदेकेने गोदावरि निन्द कारणदिनीगलु गङ्गदण्डाधिनानुम कावेरि पेचिर्च सुत्ति पिरितुं नीरोतियुं मुट्टितिल्लेने सम्यक्तद पेम्पनिंनेरेये पिण्णने वपिं ॥ १४ ॥ इन्तेनिप दण्डनायक गङ्गराजं सकवर्ष १०३८ नेय हेम म्बि संवत्सरद फाल्गुण शुद्ध ५ सोमवार दन्दु तम्म गुरुगलु शुभचन्द्र - सिद्धान्तदेवर कालं कचि' परमनं कोहरू ॥ दण्डनायक एचिराजनुं तनगभिवृद्धियागे सलिसिदं । परमन सीमान्तरं मूडलु सल्ल्यद कल्ल हल्लवे गडि । तेङ्कलु कडिद कुम्मरि होरगागि । हडुवलु बेर्कनोलगेरेय माविनकेरेय गद्देयोलगागि । बेलगोलके होद बट्टे गडि । बडगलु मेरे। नेरिल केरेय मूड को डियि तेङ्कण होसगेरेय च्चुगट्टादुदेल्लं । श्राहसगेरेय बडगण कोडियिन्दं मूड होद नीरुवक्कयिन्दं । प्रयुकनकट्टद । ताइवल्ल दिन्द ं । तेङ्कलादुदेल्ल विनितुं परमङ्ग सीमेयागि बिट्ट दति ॥ ईधर्म्ममं प्रतिपालि- सिद्दर्गे महापुण्यमक्कुं ॥
वृत्तं ॥
1
प्रियदिन्दिन्तिदनेयदे काव- पुरुषर्गायुं महाश्रीयुम क्केयिदं कायदे काय्व पापिगे कुरुक्षेत्रोर्व्वियात् बायरा
१४१
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१४२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
सियोलेल्कोटि मुनीन्द्ररं कविलेयं वेदाव्यरं कोन्दुदो.
न्दयसं सामुमिदेन्दु सारिदपु वीशैलाक्षरं सन्ततं ॥१५॥ श्लोक ॥
स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेद्वसुन्धरां । षष्टिवष सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ १६ ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरादिभिः । यानि यानि यथा धर्म तानि तानि तथा फलं ॥ १७ ॥ बिरुद-रूवारि-मुखतिलकं वद्ध मानाचारि खण्डरिसिदं ।
[ यह लेख एक दान का स्मारक है। मार और माकिणब्बे के पुत्र एचिराज हुए ! एचिराज और पोचिकब्बे के पुत्र महाप्रतापी गङ्गराज हुए। ये होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के महादण्डनायक थे। इन्होंने तिगुलों (तैलङ्गों) को परास्त कर गङ्गवाडि देश को बचा लिया तथा चालुक्य-नरेश त्रिभुवनमल्ल पेर्माडिदेव की सेना को जीतकर अपने भारी पराक्रम का परिचय दिया। उनकी स्वामि-भक्ति तथा विजय-शीलता से प्रसन्न होकर विष्णुवद्धन नरेश ने उन्हें पारितोषिक मांगने को कहा। उन्होंने 'परम' नामक ग्राम माँगा । इस ग्राम को पाकर उन्होंने उसे अपनी माता पोचल देवी तथा अपनी भार्या लक्ष्मीदेवी द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिरों की आजीविका के हेतु अर्पण कर दिया। यह लेख इसी दान का स्मारक है । गङ्गराज जैसे पराक्रमी थे वैसे धर्मिष्ट भी थे । इस दान के अतिरिक्त इन्होंने गङ्गवाडि परगने के समस्त जिन-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, गोम्मट स्वामी का परकोटा बनवाया तथा अनेक स्थलों पर नये-नये जिन-मन्दिर निर्माण कराये । लेख में कहा गया है कि इन कृत्यों से क्या गङ्गराज गङ्गराय (चामुण्ड राय-गोम्मट स्वामी के प्रतिष्ठाकारक) की अपेक्षा सौ गुने अधिक धन्य
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख नहीं कहे जा सक्त ? लेख में परम ग्राम की सीमा दी हुई है जिससे विदित होता है कि यह ग्राम श्रवण वेल्गोल के समीप ही ईशान दिशा में था । उक्त दान शक संवत् १०३६, फाल्गुण सुदि ५ सोमवार को दिया गया था। गङ्गराज कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पुस्तक गच्छ के कुक्कुटासन मलधारिदेव के शिष्य शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य थे। दान की रक्षा के हेतु लेख में कहा गया है कि जो कोई इस दान-द्रव्य में हस्तक्षेप करेगा वह कुरुक्षेत्र व बनारस में सात करोड़ ऋषियों, कपिल गौओं व वेदज्ञ पण्डितों के घात का पापी होगा ।
६० (१३८) बाहुबलि बस्ति के पूर्व की ओर प्रथम वीरगल पर
( लगभग शक सं० ८६२) श्रीगाश्रयवेने तेजकागरवेने नेगल्द गङ्गवज्रन लेङ्क ब्बेोगायचनेम्बरवरी
ल्बोगेय (बोयिग ) मार्पडेगारण्टनण्नन बण्ट ॥ १ ॥ रकसमणिय काणेयगङ्गन कालेगोल्तन्न सावं निश्चय्सि कालेगकिडे रक्कसमणिय कलिपि तन्त्र बलमुं मार्बलमुतन्नने पोगले।
ओडने कालग बयिसिद घोल यिलपरपिङ्ग मार्बलं बिडे कडिकरदा नूङ्कि किडे तन्न बलं पेरबागदल्लि बन्दडिगेडदन्दे वजियोले पायिसि मुलमेलमं पडल वडिसि पोगल्तेयं पडेदु णान्तुदु बोयिगनान्तानिचट ॥२॥ अदिरि...लिक वद्देगन काणेयगङ्गन मोत्तमेल्लमं
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
बेदरुविनं तेर ल्चि पलरुं तुलिलालगलनिक्कि तन्न बीरद... लदेल्लगेयं परबलं पागलल्बडिकं... मागि बिल्ददटिनलुर्केयं मेरेदु सावुदु बोयिगनन्तिलाग्र दोलू || ३ || नट्ट-सरलगलिन्दिदक (कन्वयको ) चिंकिडि के दुबेडिरोल्लिट्ट निसान्तहेतुगलिनादमगुर्व्विसिबट्टु बीलुवाताट्टने नान्दु बील्वेडेये ( लू नय्य) गोण्डु विमान म... लं मुट्टमित्तरित गल बोयिगनं दिविजेन्द्र कान्तेय ॥४॥
१४४
[ यह एक वीरगल है । इसमें उल्लेख है कि गङ्गवज्र ( नरेश ) अपर नाम रक्कमणि के बोयिग नाम के एक वीर योद्धा ने 'वहेग' और 'कोय गङ्ग' के विरुद्ध युद्ध करते हुए अपने प्राण विसर्जित किये । युद्ध में इसने ऐसी वीरता दिखाई कि जिसकी प्रशंसा उसके विपक्षियों ने भी की ]
६१ (१३८ )
उसी स्थान के द्वितीय वीरगल पर
( लगभग शक सं० ८७२ )
श्री युवतिगे निज - विजय
श्री -युवतिये सवतियेनिसे रण - मूर्ख नृपानायद लायद मेय्-गलि
बायकनेम्ब नेगल्तेयं प्रकटिसिदन् ॥ १ ॥ श्री- दयितन बायिकन म
ना-दयितेगे जभदालेसेद जाबय्यगे ताम्
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
प्रदर्शनयर्पेलल
मादुवरं दाखिलम्मनेम्बर् पेस रिं ॥२॥
अवरोड-वुट्टिदोलरिविन
तवरेने धर्मददगुन्तियेने नेगल्दल्भूभुवनक्के सावियब्बिगम् अवनिजेगं दोरेयेनल्के पंण्डिरुमोलरे ॥ ३॥ धोरन तनयं विबुधो
दारं धरेगेसेद लोक-विद्याधरनन्त् - रमणिगे पतियेने पेरर् प्रारुमनासतिय पेम्पिनालू पोलिदे ||४|| श्रावक - धर्मदोल दोरेयेनल पेररिल्लेने सन्द रेवतिश्रावकिताने सज्जनिकेयोल जनकात्मजे ताने रूपिनोलूदेवकि ताने पेम्पिनालरुन्धति ताने जिनेन्द्र-भक्ति- सद्भावदे सावियब्बे जिन शासन- देवते ताने काणिरे ||५|| उदयविद्याधरनप्प सायिब्बेन्द्र
( उसी पाषाण के शिखर पर )
• रियिसिददि
.. रदि ....... लिप
900
"मा मा
"न्दे मूप..
'द जन' मुयनि न प नुडिद
गिदन्दरागि पसियानिवगानादेनेदल्लि मुनाल कादि यलि विल्दवरन जननि सायिब्बे कण्डडिदरदे केय्यार जि... मालाग्रद······करिप'' लिनेतुमदे नुडियिडे "द्रागि नुडिदु
· · ·
१४५
....40
•
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख नुव गदल बगियुरल्लि सत्तल...'वेत्त'...'यब्बे सायलेन्दु पेण्डतिये....'वोत्तनलोगले पलाँतोल गिदरायद चल मसल बलगि गन्दिनिप्पण्डतियिन् ।
[यह भी एक वीरगल है जिसमें पराक्रमी और प्रसिद्ध बायिक और जावय्ये की पुत्री 'सावियब्बे' का परिचय है। सावियब्बे का पति 'धोर' का पुत्र 'लोक विद्याधर' था। यह स्त्री रेवती, देवकी, सीता, अरुन्धती श्रादि सदृश रूपवती, पतिव्रता और धर्मप्रिया थी। वह पक्की श्राविका थी। जिन भगवान् में उसकी शासन देवता के सदृश भक्ति थी। उसने 'बगियुर' नामक स्थान पर अपने प्राण विसर्जित किये]
[नोट-लेख का अन्तिम भाग जिसमें इस वीराङ्गना के प्राणत्याग का वर्णन है, बहुत घिस गया है इससे स्पष्ट नहीं है। ऐसा कुछ विदित होता है कि यह सती स्त्री अपने पति के साथ युद्ध में गई थी और वहाँ लड़ते-लड़ते इसने वीरगति पाई। लेख के ऊपर जो चित्र खुदा है उसमें यह स्त्री घोड़े पर सवार हुई हाथ में तलवार लिए हुए एक हाथी पर सवार वीर का सामना करती हुई चित्रित की गई है। हाथी पर चढ़ा हुश्रा पुरुष इस पर वार करता हुश्रा दिखाया गया है। *सायिब्बे' सावियब्बे का संक्षेप रूप है]
६२ (१३१) गन्धवारण वस्ति में शान्तीश्वर की मूर्ति के
पादपीठ पर (लगभग शक सं० १०४४) प्रभाचन्द्र-मुनीन्द्रस्य पद-पङ्कजषट पदा ।
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१४७
शान्तला शान्ति- जैनेन्द्र- प्रतिबिम्बमकारयत् || १ ||
( सिंहपीठ पर )
उक्तौ वक्त-गुणं दृशोस्तरलतां सद्विभ्रमं भ्रूयुगं
काठिण्यं कुचयोनितम्ब फलके धत्से ऽतिमात्र- क्रमम् । दोषानेव गुणीकरोषि सुभगे सौभाग्य-भाग्यं तव
व्यक्तं शान्तल- देवि वक्तुमवनौ शक्नोति को वा कविः ||२||
राजते राज-सिद्दीव पार्श्वे विष्णु महीभृतः । विख्याता शान्तलाख्या सा जिनागारमकारयत् ||३||
[ नोट- गन्धवारण वस्ति का निर्माण शान्तल देवी ने शक सं० १०४४ विरोधिकृत् संवत्सर में व उससे कुछ पूर्व कराया था । देखो लेख नं० ५३ (१४३ ) ]
६३ (१२० )
एरडु कट्टे वस्ति आदीश्वर की मूर्त्ति के सिंहपीठ पर
( लगभग शक सं० १०४० ) शुभचन्द्र- मुनीन्द्रस्य सिद्धान्ते सिद्ध-नन्दिनः । पद-पद्म-युगे लक्ष्मीर्लक्ष्मीरिव विराजते || १ || या सीता पतिदेवताव्रतविधौ क्षान्तौ क्षितिर्य्या पुनय वाचा वचने जिनाच्चनविधौ या चेलिनी केवलम् कार नीतिवधू रणे जय-वधूर्या गङ्गसेनापतेः
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१४८ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
सा लक्ष्मीर्वस तिं गुणैक-वसति ातीतनन्नतनाम् ।। २ ॥ श्रीमूलसङ्घद देसिग गणद पुस्तकान्वय ॥
६४ (७०) कत्तले वस्ति की ऊपर की मञ्जिल में आदीश्वर
की मूर्ति के सिहपीठ पर
(लगभग शक सं० १०४०) भद्रमस्तु श्रीमूलसवाद देशिकगणद श्रोशुभचन्द्रसिद्धान्त-देवर गुड्डु दण्डनायक-ग(ङ्गर)य्यनु तम्म तायि पाचव्वेगे माडिसिदी बसदि मङ्गलं ।।
[ दण्डनायक गङ्गरय्य (या गङ्ग पय्य ) शुभचन्द्रसिद्धान्तदेव के शिष्य, ने यह बस्ती अपनी माता पोचब्बे के लिए निर्माण कराई। ( धागे का लेख देखो)]
६५ (७४) शासन बस्ति में आदीश्वर की मूर्ति
के सिंहपीठ पर
(लगभग शक सं० १०४०) आचार्यश्शुभचन्द्रदेवयतिपो राद्धान्त-रत्नाकरस्तातोऽसौ बुधमित्रनामगदितो माता च पोचाम्बिका। यस्यासी जिनधर्मनिर्मलरुचिश्श्रोगङ्गसेनापतिज्जैन मन्दिरमिन्दिराकुलगृहं सद्भक्तितोऽचीकरत् ॥ १ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १४६
६६ (१२०) चामुण्डराय वस्ति में नेमीश्वर की मूर्ति
के सिंहपीठ पर
(लगभग शक सं० १०६०) गङ्गसेनापतेस्सूनुर् एचणो भारतीचणः ।
त्रैलोक्यररूजनं जैनचैत्यालयमचीकरत् ॥ १ ॥ बुधबन्धुस्सतां बन्धुरेचणः कमलाचणः । बाप्पणापरनामाङ्कचैत्यालयमचीकरत् ॥ २ ॥
६७ (१२१) ऊपर की मञ्जिल में पार्श्वनाथ की मूर्ति
के पादपीठ पर
(लगभग शक सं० ६६२) जिन गृहमं बेलगोलदोल जनमेल्लं पोगले मन्त्रि-चामुण्डन नन्दननोलविं माडिसिदं जिन-देवणनजितसेन-मुनिवर गुहूं ॥१॥
[चामुण्ड के पुत्र और अजितसेन मुनि के शिष्य जिनदेवण ने बेल्गोल में जिन मन्दिर निर्माण कराया।]
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
६८ (१५८) काञ्चिन दाणे के एक स्तम्भ पर
(शक सं० १०५६) (उत्तर मुख)
श्रीमत्-परम-गम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥
स्वस्ति समस्तगुणसम्पन्नरप्प श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल चलदङ्कराव हायसल-सेट्टियरु अय्यावलेय युण्डिगेय दम्मिसेट्टिय मगं मल्लि -सेट्टिगे चलदकराव-होयसलसेट्टिय एन्दु पेसरुकोट्टरिन्तु सकवर्ष १०५८ सौम्यसंवत्सरद माघ-मासद शुक्लपक्षद सङ्क,मणदन्दु तन्नवसानमनरिदु तन्न बन्धुगलं बिडिसि समचित्तदोलु मुडिपि स्वर्गस्थनादं ॥ (पश्चिम मुख)
प्रातन सति एन्तप्पलेन्दडे ॥
तुरखम्मरसग सुग्गवेग सुपुत्रि स्वस्ति श्रोजिन-गन्धोदकपवित्री - कृतोत्तमाङ्गयुरुपाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनोदेयरप्प चट्टिकब्बे तन्न पुरुष चलदकराव होयसल सेटिगं वनगं तन्न मग बूचणङ्ग परोक्ष-विनेयमागि माडिसिद निसिधिगे ॥
[त्रिभुवनमल्ल चलदङ्करावहोयसलसेट्टि ने दम्मिसेटि के पुत्र मल्लिसेट्टि को चलदङ्करावहोयसलसेट्टि की उपाधि प्रदान की । मल्लिसेट्टि 'अय्यावले' के एक राज्यकर्मचारी (युण्डिगेय ) थे। इनकी पत्नी जैनधर्म-परायणा चहिकब्बे थी जिसके पिता और माता के नाम
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १५१ क्रमशः तुरवम्मरस और सुग्गब्बे थे। इसी साध्वी स्त्री ने अपने पति की यह निषद्या निर्माण कराई।]
[नोट-अय्यावले सम्भवत: बम्बई प्रान्त के कलादि जिलान्तर्गत अाधुनिक ‘ऐहोले' का ही प्राचीन नाम है। लेख में शक १०१६ सौम्य संवत्सर का उल्लेख है। पर ज्योतिष-गणना के अनुसार शक १०५६ पिङ्गल संवत्सर था और सौम्य संवत्सर उससे आठ वर्ष पूर्व शक सं० १०११ में था। अतएव लेख का ठीक समय शक सं०१०११ ही प्रतीत होता है ]
६८ (१५८) काचिन दाणे के प्रवेशद्वार के निकट पड़े हुए
एक टूटे पाषाण पर
( लगभग शक सं० १०६२) (प्रथम मुख)
.........'व्यावृत्तविच्छित्तये । ...क्र...कलिकल्मषत्यनुदिनं श्रीबाल चन्द्रमुनि
पश्याम श्रुत-रत्न-रोहणधरं धन्यास्तु नान्ये वयं ॥१॥ प्रचुर-कलान्वितरकुटिलरचञ्चलसुद्द-पक्ष-वृत्तदेोषापचय-प्रकाशरेनेबालचन्द्र देवप्रभावमेनच्चरिये ।।२।। श्री बालचन्द्र..............
* यह पाषाण अब नहीं मिलता।
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१५२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख (द्वितीय मुख )
....... 'भद्रमप्प त्रिलो..... "वरविहितपूर्त नित्यकीर्ति.चित्य-समुचितचरितो य...र-धृत...धुविनू......यित्वाहं भुजबिम्बचितमणि .........कर त्वं चिरादिमु......सम... ......गतिभिस्स......क्षत्रियरुद्ध-श्रीकवि......नध...... श्रीवहं... ( तृतीय मुख) ___ ......राना बभा......चित्रतनूभृताम......यतेतरा...। सकल......वन्ध पादारविन्दं स...ममूर्ति सर्वसत्वा...बकदुरित-राशिभव्यद......नुविजित - मकरकेतु.........र्त्तिव्र - तीन्द्रं । भानो......सुविक...चक्रा......रो तत्पद् भव......
[यह लेख बहुत टूटा हुआ है। इसमें बालचन्द्र मुनि की कीति वर्णित रही है। द्वितीय पद्य पम्परामायण (श्राश्वास ! पद्य ८) में भी पाया जाता है।
७० (१५५) ब्रह्मदेव मन्दिर के निकट पड़े हुए एक
टूटे पाषाण पर
(लगभग शक सं० १०६२) ......दा...न्वयद हन...य बलिय श्रीगुणचन्द्रसिद्धान्तदेवरप्रशिष्यरु श्रीनयकीर्तिसिद्धान्त-चक्रवर्तिगल शिष्यरु श्री
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १५३ दावणन्दिविद्य-देवलं भानुकीर्तिसिद्धान्तदेवलं श्री अध्यामिबालचन्द्रदेवरु ।।
परमागमवारिधि (हिमकिर)णं राद्धान्तचक्रि नयकीर्त्तियमीश्वरशिष्यन......लचित् परिणतनध्यात्मि बा(लच)न्द्र मुनीन्द्रं ।। १ ।। बालचं...... [ यह लेख अधूरा ही पढ़ा गया है। हन (सोगे) शाखा के गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के प्रमुख शिष्य नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के दाम नन्दि त्रैविद्य देव, भानुकीति सिद्धान्तदेव और अध्यात्मि बालचन्द्र ये तीन शिष्य हुए। बालचन्द्र की प्रशंसा का जो पद्य यहाँ है वह उनकी प्राभृतत्रय की टीका के अन्त में भी पाया जाता है। देखो शिलालेख नं १ ० ( २४० ) पद्य २२]
__७१ (१६६) भद्रबाहु गुफा के भीतर पश्चिम की ओर
चट्टान पर* (नागरी अक्षरों में)
( लगभग शक सं० १०३२) श्रीभद्रबाहु स्वामिय पादमं जिनचन्द्र प्रणमतां । * यह लेख अब नहीं मिलता ।
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१५४
चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
७२ (१६७)
भद्रबाहु गुफा के बाहर पश्चिम की ओर चट्टान पर
( शक सं० १७३१ )
शालिवाहन शकाब्दाः १७३१ नेय शुक्लनामसंवत्सरद भाद्रपद व ४ बुधवारदनि । कुन्दकुन्दान्य (न्वय) देसि गणद श्री चारु । शिष्यराद अजितकी र्त्ति - देवरु अवर शिष्यरु शान्तिकीर्त्ति देवर शिष्यराद अजितकीर्त्तिदेवरु मासेोपवासवं सम्पूर्ण माडिई गवियल्लि देवगतरादरु |
पण्डितदेव ) के शिष्य श्रजितकीर्ति
[ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के चारु (कीर्ति अजितकीतिदेव के शिष्य शान्तकीर्ति देव के शिष्य देव ने एक मास के उपवास के पश्चात् शक सं० १७३१ भाद्रपद बदि ४ बुधवार को स्वर्गगति प्राप्त की । ]
७३ (१७०)
भद्रबाहु गुफा के मार्ग पर चरणचिह्न के पास चट्टान प
( सम्भवतः शक सं० ११३८ ) स्वस्ति श्री ईश्वर संवत्सरद मलयाल कादयु-सङ्करनु इल्लिई एच गय दडवण हुणिसेय मूरुगुण्डिगे
[ इस स्थान पर खड़े होकर 'मलयाल कोदयु सङ्कर' ने श्राई भूमि के पश्चिम की ओर इमली के वृक्ष के समीप की तीन शिलान
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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १५५ पर बाण चलाये। लेख में संवत्सर का नाम ईश्वर दिया हुआ है। शक ११३६ ईश्वर संवत्सर था ]
___७४ (१६५ ) प्राकार के बाहर दक्षिण भागस्य तालाब के
उत्तर की ओर चट्टान पर
( सम्भवतः शक सं० ११६८) स्वस्ति . श्रीपराभवसंवत्सरद मार्गसिर बहुल अष्टमी सुक्रवारदन्दु मलेयाल अध्याडि-नायक हिरियबेट्टदि चिकबेट्टकेच्च ॥
['मलयाल अध्याडि नायक' ने विन्ध्यगिरि से चन्द्रागिरि का निशाना लगाया। लेख में पराभव संवत्सर का उल्लेख है। शक ११६८ पराभव संवत्सर था]
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के
शिलालेख
७५ (१७६-१८०) गोम्मटेखर की विशालमूर्ति के वामचरण के पास
नागरी अक्षरों में श्री चावुण्डे-राजें करवियलें।
( लगभग शक सं० ६५०) श्रीगङ्गराजे सुत्ताले करवियले ।
( लगभग शक सं० १०३६) [चामुण्डराज ने ( मूति') प्रतिष्ठित कराई । गङ्गराज ने परकोटा निर्माण कराया।
७६ ( १७५,१७६,१७७ )
दक्षिणचरण के पास ( पूर्वद हले कन्नड़ अक्षरों में ) श्राचामुण्डराज माडिसिदं । (ग्रन्थ और वट्टेलुत्तु,, ,,) श्रीचामुण्डराजन् सेयन्वित्तान् । ( कन्नड अक्षरों में ) श्रोगङ्गराज सुत्तालयवं माडिसिदं ।
[ तात्पर्य पूर्वोक्त और समय भी पूर्वानुसार] .
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१५८
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
७७ (१८४)
पद्मासन पर
( लगभग शक सं० १०७२) स्वस्ति समस्तदैत्यदिविजाधिप-किन्नर-पन्नगानमन्मस्तक-रत्ननिर्गत-गभस्तिशतावृत-पाद......। प्रास्त-समस्त-मस्तक-तमः-पटलं जिनधर्मशासनम् विस्तरमागेनिल्के धरे-वारुधि-सूर्यशशाङ्कल्लिनं ॥ १ ॥ [जैनशासन सदा जयवन्त हो।]
७८ (१८२) वाम हस्त की ओर बमीठे पर
(लगभग शक सं० ११२२ ) श्रीनयकीर्तिसिद्धान्तचक्रवर्तिगल गुडु श्रोबसविसेट्टियरु सुत्तालयद भित्तिय माडिसि चव्वीसतीर्थकर माडिसिदरु मत्त श्री बसविसेट्टियर सुपुत्ररु नम्बिदेवसेट्टि बोकि सेट्टि जिन्निसेट्टि बाहुबलि-सेट्टि तम्मय्य माडिसिद तीर्थकर मुन्दण जालान्दरवं माडिसिदरु ॥
[नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य बसविसेट्टि ने परकोटे की दीवाल बनवाई और चौबीस तीर्थंकरों को प्रतिष्ठित कराया व उनके पुत्र नम्बिदेव सेटि, बोकिसेहि, जिनिसेष्टि और बाहुबलि सेट्टि ने तीर्थ करों के सन्मुख जालीदार वातायन बनवाया।]
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200
2023
।
S
विन्ध्यगिरि पर्वत ।
4430DSE18000IDE
RARRIA
।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १५६
७८ ( १८३) उपयुक्त लेख के नीचे जहाँ से मूर्ति के अभिषेक के लिए व्यवहार में लाया हुआ जल बाहर निकलता है
( लगभग शक सं० ११२२ )
श्रीललित सरोवर
८० ( १७८) दक्षिण हस्त की ओर बमीठे पर
(लगभग शक सं० १०८०) - श्रीमन्महामण्डलेश्वर प्रतापहोयसल नारसिहदेवर कैयलु महाप्रधान हिरियभण्डारि हुल्लमय्य गोम्मटदेवर पारिश्वदेवर चतुर्विशतितीर्थकर अष्टविधार्चनंग रिषियराहारदानक सवणेरं बिडिसि कोट्ट दत्ति ।
[महाप्रधान हुल्लमय्य ने अपने स्वामी होयसल नरेश नारसिंह देव से सवणेरु ( नामक ग्राम पारिनाषक में ) पाकर उसे गोम्मट स्वामी की अष्टविध पूजन और ऋषि मुनि आदि के आहार के हेतु अर्पण कर दिया ]
८१ ( १८६) तीर्थकर सुत्तालय में
( सम्भवतः शक सं० ११५३ ) ओमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥
स्वस्ति समस्तभुवनाश्रयं श्रोपृथ्वी-वल्लभ-महाराजाधिराजपरमेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरामणि सर्वज्ञचूडामणि मगरराज्यनिर्मूलनं चालराज्य प्रतिष्ठाचार्य श्रीमत्प्रतापचक्रवत्ति होयसल-श्रीवीरनारसिंहदेवरसरु पृथ्वीराज्यं गेय्युत्तिरलु तत्पादपद्मोपजीवियुं श्रीमन्नयकीति-सिद्धान्तचक्रवत्ति गल शिष्यरु श्रीमदध्यात्मबालचन्द्रदेवर गुडुं स्वस्ति समस्तगुणसम्पन्ननुं जिनगन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमाङ्गनुं सद्धर्मकथाप्रसङ्गनुं चतुर्विधदानविनोदनुमप्प पदुमसेट्टिय मग गोम्मटसेट्टि खरसंवत्सरद पुष्य शुद्ध उत्तरायण-सङ्क्रान्ति पाडिदिव बृहवारदन्दु श्रीगोम्मटदेवर चब्बीसतीर्थकर अष्टविधार्चनेगे अक्षयभण्डारवागि कोट्ट गद्याण ।। १२ ।।
[ होयसल नरेश नारसिंह के राज्य में पदुमसेट्टि के पुत्र व अध्यात्मि बालचन्द्र देव के शिष्य गोम्मट सेट्टि ने गोम्मटेश्वर की पूजार्चन के लिए १२ 'गद्याण' का दान दिया।]
[नोट-दान 'खर' संवत्सर की उक्त तिथि को दिया गया था। शक सं० १५३ खर संवत्सर था।]
८२ ( २५३) ब्रह्मदेव मण्डप में एक स्तम्भ पर
(शक सं० १३४४) ( दक्षिण मुख )
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छनं ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ श्रीबुक्करायस्य बभूव मन्त्री श्रोबैचदण्डेश्वरनामधेयः । नीतियदीया निखिलाभिनन्द्या निश्शेषयामास विपक्ष
लोकम् ॥२॥ दानं चेत्कथयामि लुब्धपदवी गाहेत सन्तानको वैदग्धिं यदि सा बृहस्पतिकथा कुत्रापि संलीयते । शान्ति चेदनपायिनी जडतया स्पृश्येत सर्व सहा स्तोत्रं बैचपदण्डनेतुरवनी शक्यं कवीनां कथं ॥ ३॥ . तस्मादजायन्त जगद्जयन्तः पुत्रास्त्रयो भूषितचारुशीलाः। यैठभूषितो जायत मध्यलोको रत्नस्त्रिभिज्जैन इवापवर्गः॥४॥ इरुगपदण्डनाथमथ बुक्कणमप्यनुजा स्वमहिमसम्पदाविरचयन् सुतरां प्रथिती । प्रतिभटकामिनीपृथुपयोधरहारहरो महितगुणोऽभवद् जगति मङ्गपदण्डपतिः ॥ ५॥ दाक्षिण्यप्रथमास्पदं सुचरितस्यैकाश्रयस्सत्यवागाधारस्सततं वदान्यपदवीसञ्चारजङ्घालकः । धर्मोपनतरुः क्षमाकुलगृहं सौजन्यसङ्केतभूः कीर्ति मङ्गपदण्डपोऽयमतनोज्जैनागमानुव्रतः ॥ ६ ॥ जानकीत्यभवदस्य गेहिनी चारुशीलगुणभूषणोज्वला । जानकीव तनुवृत्त-मध्यमा राघवस्य रमणीयतेजसः ॥ ७ ॥ प्रास्तां तयोरस्तमितारिवग्रौ पुत्री पवित्रीकृतधर्ममार्गी। जायानभूत्तत्र जगद्विजेता भव्याग्रणी बैचपदण्डनाथः ।।८।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख इरुगपदण्डाधिपतिस्तस्यावरजस्समस्तगुणशाली ।
यस्य यशश्चन्द्रिकया मीलन्ति दिवाप्यरातिमुखपद्माः॥६॥ वृत्त ।
ब्रह्मन् भाललिपि प्रमाञ्जय न चेद ब्रह्मत्व हानिर्भवेदन्यां कल्पय कालराजनगरी तद्वैरिपृथ्वोभृतां । वेताल ब्रज वर्द्धयोदरततिं पानाय नव्यासृजां युद्धायोद्धतशात्रवैर इरुगपक्ष्माप: प्रकोपोऽभवत् ॥१०॥ यात्रायां ध्वजिनीपतेरिरुगपक्ष्मापस्य धाटीधटद्घोटोघोरखुरप्रहारततिभिः प्रोद्धतधूलिव्रजैः । रुद्धे भानुकरेऽगमहिपुकराम्भोजं च संकोचनम् (पश्चिम मुख )
प्रापत्कीर्त्तिकुमुदती विकसनं दीप्तः प्रतापानलः ॥ ११ ॥ यात्रायामिरुगेश्वरेण सहसा शून्यारिसौधाङ्गणप्रोल्लास द्विधुकान्तकान्तशकले गच्छदद्वनेभाधिपः । हत्वा स्वप्रतिमां प्रतिद्विपमिति छिन्नैकदन्तस्तदा त्राहि त्राहि गजाननेति बहुधा वेताल वृन्दैस्स्तुतः ।। १२ ॥ को धात्रा लिखितं ललाटफलके वन प्रमाष्टु क्षमा वार्ता धूर्त्तवचोमयीमिति वयं वार्तान्न मन्यामहे । यद् धात्र्यामिरुगेन्द्रदण्डनृपती सजातमात्रे प्रियो निश्श्रीरप्यधिकश्रियाघटि रिपुस्सश्रीरपश्रीकृतः ।। १३ ।। यद् बाहाविरुगेन्द्रदण्डनृपतेर्बिभ्रत्यनन्ताधुरं शेषाधीशफणागणे नियमिता सस्वाङ्गनायास्सदा ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
गाढालिङ्गन सान्द्रसम्भव सुखप्रोद्भूतरे रामावलिः साहस्रों रसनामधात्तवगुणान् स्तोतुं कृतार्थः फणी ॥ १४ ॥ आहारसम्पदभयार्पणमैाषधं च
हिंसा नृतान्यवनिताव्यसनं स चौर्य
( पूर्वमुख )
शास्त्रं च तस्य समजायत नित्यदानम् ।
मूर्च्छा च देशवशतोऽस्य बभूव दूरे ।। १५ ।।
दानं चास्य सुपात्र एवं करुणा दीनेषु दृष्टिर्जिने भक्तिर्द्धर्म्मपथे जिनेन्द्रयशसामाकर्त्तनेषु श्रुती । जिह्वा तद्गुणकीर्त्तनेषु वपुषस्सैाख्यं च तद्वन्दने घ्राणं तच्चरणाब्जसौरभभरे सर्व्वे च तत्सेवने ।। १६ ।। यिरुगपदण्डनाथयशसा धवले भुवने मलिनिमसोस्तवः परमधीरदृशां चिकुरे । वहति च तस्य बाहुपरिघे धरणीवलयं परमितरीतराक्रम - कथापि च तत्कुचयोः ॥ १७ ॥ कन्नैर्व्विस्मृत कुण्डलैर तिलकासङ्गर्ललाटस्थलैराकीनैरलकैः पयोधरतटेर स्पृष्टमुक्तागुणैः । बिम्बोष्ठैरपि वैरिराजसुदृशस्ताम्बूलरागोज्झितै
र्थ्यस्य स्फारतरं प्रतापमसकृद् व्याकुर्व्वते सर्व्वतः ॥ १८ ॥
यत्कीर्त्तिभिरसुरधुनी परिलङ्घिनीभि
१६३
धैते चिराय निजबिम्बगते कलङ्क ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख स्वच्छात्मकस्तुहिनदीधितिरङ्गनाना
___मव्याजमाननरुचिं कबलीकराति ॥ १६ ॥ यत्पादाब्जरजःकणा प्रसुवते भक्त्या नतानां भुवं यत्कारुण्यकटाक्षकान्तिलहरी प्रक्षालयत्याशय । मोहाहङ्करणं क्षिणोति विमला यद्वैखरीमोखरी वन्द्यः कस्य न माननीयमहिमा श्रोपण्डितार्यो यतिः
॥२०॥ मन्दारद्रुममञ्जरीमधुझरीमजुस्फुरन्माधुरीप्रौढाहङ्कतिरूढिपाटवपरीपाटो काटी भटः । नृत्यद्रुद्रकपर्दगर्तविलुठत्स्वोककल्लोलिनीसल्लापी खलु पण्डिताय॑यमिनो व्याख्यानकोलाहलः
|| २१ ।। कारुण्यप्रथमावतारसरणिश्शान्तेन्निशान्तं स्थिरं वैदुष्यस्य तपःफलं सुजनतासौभाग्यभाग्योदयः । कन्दर्पद्विरदेन्द्रपञ्चवदनः काव्यामृतानां खनिज्जैनाध्वाम्बरभास्करश्श्रुतमुनिर्जागर्ति नम्रातिजित् ।। २२ ।। युक्तयागमानव विलोलनमन्दराद्रि
श्शब्दागमाम्बुरुहकाननबालसूर्यः । शुद्धाशयः प्रतिदिनं परमागमेन
संवर्द्धते अतमुनिठतिसार्वभौमः ॥ २३ ॥ तत्सन्निधौ बेलुगुले जगदप्रातीर्थे
श्रीमानसाविरुगपाहृय दण्डनाथः ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
श्रीगुम्मटेश्वर सनातनभागहेतो
मोत्तम बेलुगुलाख्यमदत्तधीरः ॥ २४ ॥ शुभकृति वत्सरे जयति कार्त्तिकमासि तिथौ । मुरमथनस्य पुष्टिमुपजग्मुषि शीतरुचौ ||२५|| सदुपवनं स्वनिर्मित नवीन तटाकयुतम् ।
सचिवकुलामणी र दिततीर्थवरं मुदितः || २६ || इरुगपदण्डाधीश्वर विमलयशः कलमत्रर्द्धन क्षेत्रं । आचन्द्रतारकमिदं बेलुगुलतीर्थ प्रकाशतामतुलं ॥२७ ।। दानपालनयेार्मध्ये दानात्योऽनुपालनं ।
दानात्स्वर्गमवाप्नोति पालनादच्युतं पदं ||२८||
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेश्च वसुन्धरां । षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते क्रिमिः ||२||
मङ्गल महा श्री श्री श्री श्री ॥
१६५
८३ (२४८)
नं० ८२ के पश्चिम की ओर मण्डप में एक स्तम्भ पर ( शक सं० १६२१ )
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामावलाञ्छनं ।
जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥
स्वति श्री विजयाभ्युदय शालिवाहन शकवर्ष १६२९ ने सलुव शोभकृत् संवत्सरद कार्त्तिक व १३ गुरुवारदल्लु
श्रीमन् महाराजाधिराज राजपरमेश्वर कर्नाटकराज्याभिषवथ
* लेख के नीचे का नोट देखा ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख परितृप्त . परमाह्लाद परममङ्गलीभूत षड्दर्शनसंरक्षयविचक्षणोपाय विद्वद्गरिष्ठदुष्टदुप्तजनमदविभजन महिशूर धराधिनाथरप्प दोडकृष्णराजबडेयरैयनवरु ॥ मत्तं ॥ वृत्त ।। जनताधारनुदारसत्यमदयं सत्कीर्तिकान्ताजयं विनयं धर्मसदाश्रयं सुखचयं तेजः प्रतापोदयं । जननाथं वरकृष्णभूवरलमत्प्रख्यातचन्द्रोदयं
घनपुण्यान्वितक्षत्रियाण्म पडेदं सद्धर्मसम्पत्तियं ॥२॥ कन्द ॥ श्रामबॅल्गुलदचल दि
सोमार्कर जरिव देवगोमटजिनपन । श्रीमुखववलोकिसलोड
नामोदवु पुट्टि हरुषभाजननुसुर्द ॥३॥ वचन ॥ पार्थिव कुलपवित्रनुं कृष्णराजपुङ्गवर्नु बेलुगुलद * जिनधर्मके बिटन्थ प्रामाधिग्रामभूमिगल । आईनहल्लियुं । होसहल्लियुं । जिननाथपुरं । वस्तियग्राममुं । राचनहल्लियुं । उत्तनहल्लियु । जिननहल्लियुं । कोप्पलुगल वेरसु कसबे-बेलुगुलसमेतं । सप्तसमुद्रमुल्लन्नेवर सप्तपरमस्था. नाधिपतियप्प गोम्मटस्वामियवर पूजोत्सवङ्गल पुण्यसमृद्धिसम्प्राप्त्यनिमित्त्यर्थवागियुं । अब्जाब्जमित्रर - साक्षिपूर्वकं सर्वमान्यवागि दयपालिसियु मत्त । कन्द ।। चिगदेवराजकल्या
णिय भागदोलिप अन्नछत्रादिगलिगे ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १६७ सुगुणियु कबालेग्रामव
जगदेरेयनु कृष्णराजशेखर नित्त ॥४॥ इन्ती बेल्गुलधर्मवु
अन्तरिसदे चन्द्रसूर्य्यरुष्लन्नेवरं ।। सन्तसदिन्देम्मय भू
कान्तरु रक्षिसलि धर्मवृद्धिय बेलेय ॥५॥ यी धर्ममं परिपालिसिदवर धर्मार्थकाममोक्षङ्गलं परम्परेयिं
पडेयुवर॥ वृत्त ॥ प्रियदिन्दी जिनधर्ममं नडेयि पर्गायुं महाश्रीयु
मक्केयिदं कायद नीचपापिगे कुरुक्षेत्रोवियोल बाणराशियोलेल्कोटि मुनीन्द्ररं कपिलेयं वेदाढ्यरं कोन्दुदो.
न्दयसं सार्गुमिदेन्दु कृष्णनृपशैलाक्षारगल नेमिसल ॥ इतिमङ्गलं भवतु ॥ श्री श्री श्री !!
[मैसूर-नरेश कृष्णराज प्रोडेयर ने गोम्मटेश्वर भगवान् के दर्शन किये और हर्ष से पुलकित होकर बेल्गोल में जैन धर्म के प्रभावानार्थ सदा के लिए उक्त ग्रामों का दान किया। इन ग्रामों में बेल्गुल
भी है ]
[नोट-लेख में शक सं० १६२१ शोभकृत् का उल्लेख है। पर शक १६२१ न तो शोभकृत् ही था और न उस समय कृष्णाराज प्रोडे. यर का ही राज्य था। लेख का ठीक समय शक सं० १६४६ है जो शोभकृत् था और जब कृष्णराज प्रोडेयर का राज्य था।]
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१६८ विन्ध्यगिरि पर्वत पर कं शिलालेख
८४ (२५०) उसी स्तम्भ की दूसरी बाजू पर
. (शक सं० १५५६ ) श्री शालिवाहन शकवरुष १५५६ नेय भावसंवत्सरद आषाढ़-शु-१३ स्थिरवार ब्रह्मयोगदलु श्रीमन्महाराजाधिराज राजपरमेश्वर मैसूरपट्टनाधीश्वर षड्दरुशन-धर्मस्थापनाचार्यराद चामराजवोडेयरु अय्यनवरु बेलुगुलद स्थानदवर क्षेत्रवु बहुदिन अडवु ागिरलागि आचामराजवोडेयरु-अय्यनवर यीक्षेत्रव अडवहिडिदन्तावरु होसवालल केम्पप्पन मग चन्नएन बेलुगुलद पायिसे ट्टियर मक्कलु चिकन चिगपायसेट्टि यिवरु मुन्ताद अडवहिडिदन्तावर करसि निम्म अडविन सालवनु तीरिसेनु यन्नलागि चन्नन चिकन चिगपायि सेट्टि मुद्दण्न प्रज्जण्णन पदुमप्पन मग पण्डेग्न पदुमरसय्य दाडुण्न पञ्चबाणकविगल मग बम्मप्प बोम्मणकवि विजेयग्न गुम्मण्न चारुकीर्ति नागप्प बेडदथ्य बाम्मिसेट्टि होसहलिय रायपन परियण्नगौड बरसेट्टि बरण्न वीरय्य इवरु मुन्ताद समस्तरु तम्म तन्देतायिगलिगे पुण्येवागलियेन्दु गोम्मटस्वामिय सन्निधियलि तम्म गुरु चारुकीर्तिपण्डितदेवर मुन्दे धारादत्तवागि यी-अडहिन पत्रसालवनु यी-अडव कोट्ट स्थातदवरिगे यी-वर्तकरु गौडुगलु यी-सालवनु धारापूर्वकवागि कोट्टेवु यी विट्टन्त पत्रसालवनु भावनादरु अलुपिदरे काशिरामेश्वरदल्लि
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १६६ साहस्रकपिलेयनु ब्राह्मणरनु कोन्द पापक्के होगुवरु येन्दु बरेद शिलाशासन ।। श्री श्री ।।
[ बेल्गुल मन्दिर की ज़मीन आदि बहुत दिनों से रहन थी। उक्त तिथि को महाराज चामराज प्रोडेयर ने चेन्नन्न आदि रहनदारों को बुलाकर कहा कि तुम मन्दिरों की भूमि को मुक्त कर दो, हम तुम्हारा रुपया देते हैं। इस पर रहनदारों ने अपने पूर्वजों के पुण्य-निमित्त बिना कुछ लिये ही श्रीगोम्मटस्वामी और अपने गुरु चारुकीर्ति पण्डित देव की साक्षी में मन्दिरों की भूमि रहन से मुक्त कर दी और यह शिलालेख लिखाया।
८५ ( २३४) गोम्मटेश्वर-द्वार की बाई ओर एक पाषाण पर
( लगभग शक सं० ११०२ ) श्रीगोम्मटजिननं नरनागामर-दितिज-खचर-पति-पूजितनं । योगाग्निहतस्मरनं
योगिध्येयननमेयनं स्तुतियिसुवें ॥१॥ क्रमदि मेवाणर्दारद क्रमदे मातं बिट्ट तन्निट्ट चक्रमदुं निःप्रभमागे सिग्गनोलकोण्डात्माग्रजङ्गोल्पु गेरदुमहीराज्यमनित्तु पोगि तपदि कारि विध्वंसियाद महात्मं पुरुसूनुबाहुवलिवोल मत्तारो मानोन्नतर् ॥२॥ धृतजयबाहुबाहुबलिकेवलिरूपसमानपञ्चविं
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१७० विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
शति-समुपेत-पञ्चशतचापसमुन्नतियुक्तमप्प तत्प्रतिकृतियं मनोमुददे माडिसिदं भरतं जिताखिलक्षितिपतिचक्रि पोदनपुरान्तिकदोल पुरुदेवनन्दनं ॥३॥ चिरकालं सले तजिनान्तिकधरित्रीदेशदोल्लोकभीकरणं कुकुटसर्पसकुलमसङ्ख्यं पुट्टे दल कुक्कुटेश्वर-नामन्तदघारिगादुदुबलिकं प्राकृतातगोचरमन्तामहि मन्त्रतन्त्रनियतर्कावर्गडिन्तुं पलर ॥४॥ केलल्कप्पुदु देवदुन्दुभिरवं मातेनो दिव्यानाजालं कालुमप्पुदाजिनन पादोद्यन्नखप्रस्फुरल्लीलादर्पणमं निरीक्षिसिदवकाण्बनिजातीत जन्मालम्बाकृतियं महातिशयमादेवङ्गिलाविश्रुतं ।।५।। जनदिं तजिनविश्रुतातिशयमं तां केल्दु नोल्पल्ति चेतनेयोल पुट्टिरे पागलुद्यमिसे दूरं दुर्गमं तत्पुरावनियेन्दार्यजनं प्रबोधिसिदोउन्तादन्दु तद्देवकल्पनेयिं माडिपेनेन्दु माडिसिदनिन्तीदेवनं गोमटं ।।६।। श्रुतमुं दर्शनशुद्धियु विभवमुं सवृत्तमुं दानमु धृतियु तन्नोले सन्द गङ्गकुल चन्द्रं राचमल्लं जगन्नुतनाभूमिपनद्वितीयविभवं चामुण्डराय मनुप्रतिम गोम्मटनले माडिसिदनिन्ती देवनं यत्नदि ॥७॥ अतितुङ्गाकृतियादोडागददरोल्सौन्दर्यमौनत्यमुं नुतसौन्दर्यमुमागे मत्ततिशयंतानागदौन्नत्यमुं । नुतसौन्दर्यमुमूर्जितातिशयमुं तन्नलि निन्दिई वें .
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १७१ क्षितिसम्पूज्यमा गोम्मटेश्वरजिनश्रीरूपमात्मोपमं ॥८॥ प्रतिविद्धं बरेयल मयं नेरेये नोडल नाकलोकाधिपं स्तुतिगेय्यल फणिनायकं नेरेयनेन्दन्दन्यराराप्'रि । प्रतिविद्धं बरेयल समन्तु तवे नोडल बनिसल निस्समाकृतियंदक्षिणकुक्कुटेशतनुवं साश्चर्यसौन्दर्यमं ।।६।। मरेदुपारदु मेले पत्तिनिवहं कक्षद्वयोद्देशदोल मिरुगुत्त पोरपाण्मुगुं सुरभिकाश्मीरारुणच्छायमीतेरदाश्चर्यमनीत्रलोकद जनं तानेटदे कण्डिई दारेवन्नेंट्टने गोम्मटेश्वरजिनश्री मूर्तियं कात्ति सल ॥१०॥ नेलगट्टानागलोकं तलमवनि दिशाभित्ति भित्तिनजं स्वस्तलभागं मुच्चएं मेगण सुरर विमानोरकरं कूटजालं । विलसत् तारौघमन्तरक्तितमणिवितानं समन्तागे नित्यं निलयं श्रीगोम्मटेशङ्ग निसिदुदु जिनोक्तावलोकं त्रिलोकं
॥११॥ अनुपमरूपने स्मरनुदप्रने निर्जितचाक मत्त दारने नेरे गेल्दुमित्तनखिलोवियनत्यभिमानिये तपस. स्थनुमेरबघियित्ततयोलिईपुदेम्बननूनबोधने विनिहतकर्मबन्धनंने बाहुबलीशनिदेनुदात्तनो ॥ १२ ॥ अभिमानस्थिरभावमं नमगे माल्कत्युद्घमानोन्नतं शुभसौभाग्यमनङ्गजं भुजबलावष्टम्भमं चक्रवर्तिभुजादपविलोपि बाहुबलि तृष्णाच्छेदमं मुक्तराज्यभरंमुक्तियनाप्तनिर्वृत्तिपदं श्रीगोम्मटेशं जिनं ॥१३॥
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१७२ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
स्फुरदुद्यत्सितकान्तियिं परिसरत्सौरभ्यदिन्दं दिशोस्करमं मुद्रिसुतुं नमेरुसुमनोवर्ष स्फुटं गोम्मटेश्वरदेवोत्तमचारुदिव्यशिरदोल देवर्कलिन्दादुदं धरेयेल्लं नेरे कन्डुदामहिमेयादेवङ्गदाश्चर्यमे ॥ १४ ॥ एनगायतीक्षिशलागदायतेनगे काणल्केम्बवोलाय्ते पेल्वनिताबालकवृद्धगोपततियु कण्डल्करिन्दार्विनं । दिनवोन्दावगमुद्धदिव्यकुसुमासारं महीलोकलोचन सन्तोषदमायतु गोम्मटजिनाधीशोत्तमाङ्गाग्रदोल ॥१५॥ मिरुगुव तारकप्रकरमीपरमेश्वरपादसेवेगेन्देरपुबे भक्तियिन्दमेने निर्मलिनं घनपुष्पवृष्टि बन्देरगिदुदभ्रदि धरेगदभ्रतराद्भुतहर्षकोटि कणदेरेदिरे सन्द बेल्गुलद गोम्मटनाथन पादपद्मदेोल ॥१६॥ भरतननादिचक्रधरनं भुजयुद्धदे गेल्द कालदोल दुरितमहारियौं तविसि केवलबोधमनाल्द कालदोल । सुरतति मुन्ने माडिदुदु पृमलेयोदोरेयकुमेम्बिनं सुरिदुदु पुष्पवृष्टि विभुबाहुबलीशन मेले लीलेयिं ।।१७।। केम्मगिदेके नाड पलवन्दद नन्दिद बिन्दिगलं नी मरुलागि देवरिवरेन्दवरं मतिगेट्ठ निन्ननेकम्म तालल्चिदप्पे भवकाननदोल परमात्मरूपनं गोम्मटदेवनं नेनेय नीगुवे जाति जरादिदुःखमं ॥१८॥ सम्महवागलाग कोलेयुं पुसियुं कलवु पराङ्गनासम्मतियु परिग्रहद काङ्क्षयुमेम्बिवरिन्दमादोडे
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १७३ न्टुं मनुजङ्गिरत्रेय परत्रेय केडेनुतुं महोच्चदोल गोम्मटदेवनिर्दु सले सारुवोलेसेदिईनीक्षिसै ॥ १६ ॥ एम्मुमनीवसन्तनुमनिन्दुवुमं न नेविल्लुमम्बुमं केम्मगनाथयूथमने माडि बिसुट्ट तपक्के पूण्दु निन्दिम्मि गिलप्पुदें पडेवुदेन्दतिमुग्धयरल्पनादमुं गोम्मटदेवनिन्नकि विगेरदवे निन्नवोलारो निःकृपर ॥२०॥ एम्मनिदेके नी बिसुटेयेन्देलेयुं लतिकाङ्गियकलुं । तम्मललिन्दे बन्दु बिगियप्पिदरेम्बिनमङ्गद नि पुत्तु मुरिदोत्ति तल्त लतिकालियुमोप्पे तपोनियोगदोल गोम्मटदेवनिर्दिरवहीन्द्रसुरेन्द्रमुनीन्द्रवन्दितं ॥ २१ ॥ तम्मनेपोदरंन्ननुजरेल्लरुमेय्दे तपक्के नीनुमि. न्तम्म तपक्के वादोडेनगीसिरियोप्पदु बेडेनुत्तु मनं मनमिल्दुमन्नुमिगेयुं बगेगोल्लदे दीक्षेगोण्डे नों गोम्मटदेव निन्न तरिसन्दलवार्यजनके गोम्मट ॥ २२ ॥ निम्मडियन्न धात्रियोलगिईपुर्वेबिदु वेड धात्रि तां निम्मदुमेन्नदु बगेवोडल्लदु बेरदु दृष्टिबोधवीर्य महितात्मधर्ममभवोक्तियोलम्ब निजाग्रजोक्तियि गोम्मटदेव नी मनद मानकषायमनेटदे तूल्दिदै ॥ २३ ॥ तम्मतपस्विगली कुतपस्थिति वेल्दवलाङ्गसङ्गतं तम्म शरीरमागे नेगल्बन्यतराप्तरशस्तवृत्तकं । कम्मरियोजनन्दमे वलं स्वपराक्षयसौख्य हेतुवं गोम्मटदेव नी तपमनान्तुपदेशकनादुदोपदे ॥ २४ ॥
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१७४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
नी मनमं निजात्मनोलकम्पितमागिडे मोहनीयमुख्यम्मणिदोडि बीले धनघातिबलं बलहकप्रबोधसौख्यं महिमान्वितं नेगले वर्त्तिसि मत्तमघातिघातदि गोम्मटदेवमुक्तिपदमं पडेदै निरपायसौख्यमं ।। २५ ॥ कम्मिदवप्प काड पोसपुगलिनर्चिसि पादपद्मम सम्मददिन्दे नोडि भवदाकृतियं बलगोण्डु बल्लपाझिं मनमोल्दु कीर्तिपवरें कृतकृत्यरो शक्रनन्ददिं गोम्मटदेव निन्ननरिदर्चिसुतिर्पवरें कृतार्थरो ।। २६ ॥ कुसुमास्त्रं कामसाम्राज्यद महिमेयनान्तिर्दोडं मुन्ने तन्नोल वसुधा साम्राज्ययुक्तं भरतकरविमुक्तं रथाङ्गास्त्रमुप्रांशु-समन्तत्रुद्घदोईण्डमनेल सिदोडं बिट्टवं मुक्तिसाम्राज्यसुखार्थ दीक्षेयं बाहुबलि तलेदनेम्मन्नरेनेन्दोमाण्बर ॥२७॥ मनदिं नुडियिं तनुविन्देनसु मुन्नेरपिदघमनल रिपेनेम्बीमनदिन्दमोसेदु गोम्मटजिननं स्तुतियिसिदनिन्तु सुजनोत्तंसं ॥ २८ ।। सुजनभव्यरे तनगवरजस्रमुत्तंसमप्प पुरुलिं बोप्पं । सुजनोत्तंसनेनिप्पं सुजनर्गुत्तंसमेम्ब पुरुलिन्देनिसं ॥ २६ !! ई-जिननुतिशासनम श्रीजिनशासनविदं विनिर्मिसिदं वि
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख द्याजितवृजिनं सुकवि समाजनुत विशदकीति सुजनोत्तंसं ॥ ३०॥ वरसैद्धान्तिक-चक्रश्वरनयकीर्त्तिव्रतीन्द्रशिष्यं निजचित्परिणतनध्यात्मकला
धरनुज्वलकीति बालचन्द्रमुनीन्द्रं ।। ३१ ॥ तन्मुनिनियोगदि ॥
पोडविगे सन्द गोम्मटजिनेन्द्रगुणस्तवशासनक्के कनडगविबप्पनेन्देनिप बाप्पणपण्डितनोल्दु पेल्दिवं । कडयिसिदं बलं कवडमय्यन देवणनल्तियिन्दे बागडेगेय रुद्रनादरदे माडिसिदं विलसत्प्रतिष्ठेयं ॥ ३२ ॥ [ इस लेख में बाहुवलि गोम्मटेश्वर की स्तुति है। बाहुवलि पुरुदेव के पुत्र तथा भरत के लघुभ्राता थे। इन्होंने भरत को युद्ध में परास्त कर दिया। किन्तु संसार से विरक्त हो राज्य भरत के लिये ही छोड़ उन्होंने जिन-दीक्षा धारण कर ली। भरत ने पोदनपुर के समीप १२५ धनुष । प्रमाण बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई। कुछ काल बीतने पर मूर्ति के श्रासपास की भूमि कुक्कुट सपो से व्याप्त और बीहड़ वन से आच्छादित होकर दुर्गम्य हो गई। रामचल्लनृप के मन्त्री चामुण्डराय को बाहुवति के दर्शन की अभिलाषा हुई पर यात्रा के हेतु जब वे तैयार हुए तब उनके गुरु ने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इस पर चामुण्डराय ने स्वयं वैसी मूर्ति की प्रतिष्ठा कराने का विचार किया और उन्होंने वैसा कर डाला।
लेख में चामुण्डराय-द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वर का बड़ा ही मनोहर वर्णन है। 'जब मूर्ति बहुत बड़ी होती है तब उसमें सौन्दर्य प्रायः
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१७६
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
नहीं आता । यदि बड़ी भी हुई और सौन्दर्य भी हुआ तो उसमें दैवी तीनों के मिश्रण से
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प्रभाव का प्रभाव हो सकता है । पर यहाँ इन गोम्मटेश्वर की छटा पूर्व हो गई है।' कवि ने एक दैवी घटना का उल्लेख किया है कि एक समय सारे दिन भगवान् की मूर्त्ति पर आकाश से 'नमेरु' पुष्पों की वर्षा हुई जिसे सभी ने देखा । कभी कोई पक्षी मूर्त्ति के ऊपर होकर नहीं उड़ता । भगवान् की भुजाओं के अधोभाग से नित्य सुगन्ध और केशर के समान रक्त ज्योति की श्राभा निकलती रहती है ।
बाहुवलि स्वामी ने किस प्रकार राज्य को त्याग कठिन तपस्या स्वीकार की, कैसा घोर तप किया, कर्म शत्रुओं को कैसा दमन किया आदि विषयों का वर्णन बड़ा ही चित्तग्राही है ।
लेख की कविता बड़े ऊँचे दर्जे की है । यह कन्नड़ कविराज बोपण पण्डित श्रपर नाम 'सुजनोत्तंस' की रचना है । इसे उन्होंने नयकीर्ति के शिष्य बालचन्द्र मुनि के शिष्य कवडमय्य देवन के श्राग्रह से रचा । ]
८६ ( २३५ )
उसी पाषाण के पश्चिम मुख पर
( लगभग शक सं० ११०७ )
स्वस्ति श्री बेलुगुलवीर्तद गोम्मटदेवर सुत्तालयदेोलु वडव्यवहारि मेासलेय बसविसेट्टियरु तावु माडिसिद चतुर्व्विसतितीर्थकर अष्टविधार्चनेगे मासलेय नकरङ्गलु वरिस निबन्धियागि कोडुव पडि नेमिसेट्टि बस विसेट्टि प ४ गङ्गर महदेव चिकमादि प २ दम्मिसेट्टि प ४ बिट्टिसेट्टि बीचिसेट्टि एलगिसेट्टि
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१७७
प ३ उयमसेट्टि बिदियमसेट्टि प ४ महदेव सेट्टि रट्टे सेट्टि प २ पारिससेट्टि बसविसेट्टि रायसेट्टि प ४ मारगुलिसेट्टि होय्सलसेट्टि २ नम्बिदेवसेट्टि प ५ चे किसेट्टि प ५ जिन्निसेट्टि प ५ बाहुबलिसेट्टि ५ पट्टण सामि अङ्किसेट्टि मालिसेट्टि प ३ महदेवसेट्टि गोविसेट्टि प २ बम्मिसेट्टि सूकिसेट्टि प २ माराण्डिसेट्ट महदेवसेट्टि प २ बैरिसेट्टि मारिसेट्टि प २ सेाविसेट्टि दुद्दिसेट्टि प २ हारुवसेट्टि हरदिसेट्टि प २ बम्माण्डि प २ सान्तेय प १ कूतैय्य प २ मास सेट्टि कृतिसेट्टि बसविसेट्टि प ३ चट्टिसेट्टि बस विसेट्टि प १ मल्लिसेट्टि प १ महदेव बयिर प २ बम्मेय मसण प २ कालेय गाडेय प २ गवुडुसामि मदवनिगसेट्टि प २ मालिसेट्टि पारिस सेट्टि प २ होल्लिसेट्टि बोकिसेट्टि प २ गङ्गिसेट्टि
सेट्टि देविसेट्टि (प) २ मालिसेट्टि दम्मिसेट्टि प २ मारिसेट्टि तमसेट्टि प २ मारज हरियण कालेय प २ मारगौण्डनहल्लिय गुम्मज्ज बैरेय प १ मा किसेट्टि बूविसेट्टि प १ एचिसेट्टि प १ कवेय महदेवसेट्टि पारिस्स सेट्टि प १ निडिय मल्लिसेट्टि प १...
[ मोसले के बड्ड व्यवहारि बसवसेट्टि द्वारा प्रतिष्ठापित चतुर्विंशति तीर्थकरों की श्रष्टविधपूजन के लिए मोसले के महाजनों ने उक्त मासिक चन्दा देने का संकल्प किया । ]
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१७८ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
८० (२३६ )
उसी पाषाण के पूर्व मुख पर
( लगभग शक सं० ११०७ )
श्रीबस विसेट्टियर तीर्थकर अष्टविधानेगे मेासलेय नकर ate निबन्धयागि चवुण्डेय जकण्ण किरिय-चवण्डेय प २ महदेवसेट्टि कम्बिसेट्टि प १ उयमसेट्टि पारिस सेट्टि प १ बोकिसेट्टि बूकिसेट्टि प १ माचिसेट्टि हो निसेट्टि सुग्गि सेट्टि प १ सूकिसेट्टि प १ रामसेट्टि हा बिसेट्टि (१) १ मश्विसेट्टि बस विसेट्टि ११ मल्लिसेट्टि गुडिसेट्टि चिक्कमल्लिसेट्टि (प) २ मसवि सेट्टि माचिसेट्टि अम्माण्डुिसेट्टि प २ अलियमारिसेट्टि मुद्दिसेट्टि प २ करिकिसेट्टि चिकमादि प २ करिय बम्मिसेट्टि मारिसेट्टि प १ मलिसेट्टि बिसेट्टि कालिसेट्टि प २ मणिगार माचिसेट्टि सेट्टिया प १ तेरखिय चैाण्डेय हेगडे वसवण्ण चन्देय रामेय हुल्लेय जकण प २ मालगौण्ड सेट्टियण माचय मारेय चिकण गोय प १ मादि-गण्ड गौण्डेय माचेय बम्मेय हान्नेय जगण्ड प १ [ तात्पर्य पूर्वोक्तानुसार ही है ]
८८ (२३७ ) पूर्वोक्त लेख के नीचे
( संभवतः शक सं० १११८ )
नल संवत्सरद उत्तरायण - सङ्करान्तियलु श्रीमन्महापसायितं विजयण्णनवरलिय चिकमदुकण्ण श्रीगोम्मटदेवर
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १७६ नित्यानेगे २० बासिग हूविङ्ग श्रीमन्महामण्डलाचार्यरु चन्द्रप्रभदेवर कैयलु मारुगोण्डु गङ्गसमुद्रदलु गद्दे स १ बेदलु के २०० नूरनुं कोण्डु कोट्ट दत्ति मङ्गलमहाश्री ।
[ उक्त तिथि को महापसायित विजयण्ण के दामाद चिक्क मदुकण्ण ने गङ्गसमुद्र की कुछ भूमि महामण्डलाचार्य चन्द्रप्रभदेव से खरीदकर गोम्मटदेव की प्रतिदिन की पूजन के हेतु बीस पुष्प मालाओं के लिए अर्पण की।
[नोट-लेख में नल संवत्सर का उल्लेख है। शक सं० 111 नल था]
८८ (२३८) पूर्वोक्त लेख के नीचे __ ( संभवतः शक सं० ११२० ) कालयुक्तिसंवत्सरद कातिक सु १ प्रा श्रीगोम्म टदेवर यर्चनेगे हुविन पडिगे श्रीमन्महामण्डलाचार्यरु हिरिय नयकीर्तिदेवर शिष्यरु चन्द्रप्रभदेवर कयलु यगलियद कबि सेट्टिय सोमेयनु गद्दे पडवलगेरेय गहे को १० गङ्गसमुद्रदल्लि कोम्म तगलि को १० आबदलु गुलेय केयमेगे गद्याण ओन्दुहान
बेदलु प्रकलुन सीमे। [उक्त तिथि को कविसंट्टि के (पुत्र) सोमेय ने उक्त भूमि का दान गोम्मटदेव की पुष्प-पूजन के हेतु हिरियनयकीर्ति देव के शिष्य महामण्डलाचार्य चन्द्रप्रभदेव को कर दिया ।]
[नोट-लेख में कालयुक्त संवत्सर का उल्लेख है। शक सं. ११२० कालयुक्त था।]
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१८० विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
८० ( २४०) गोम्मटेश्वर-द्वार के दाहिनी तरफ़ एक पाषाण पर
(लगभग शक सं० ११०० ) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥१॥ भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे । धन्यवादि मदहस्तिमस्तकस्फाटनाय घटने पटोयसे ॥२॥ नमोऽस्तु ॥ जगत्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने । नयप्रमाणवाग्रश्मिध्वस्तध्वान्ताय शान्तये ॥३॥ नमो जिनाय ॥
स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्दमहामण्डलेश्वरं । द्वारवती पुरवराधीश्वरं । यादव-कुलाम्बर-धुमणि । सम्यक्तवचूडामणि । मलपरोल गण्डाद्यनेकनामावलीसमालङ्कतरप्प श्रीमन्महामण्डलेश्वरं । त्रिभुवनमल्ल तलकाडुगोण्ड भुजबलवीर-गङ्गविष्णु-वर्द्धन-होयसलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमानमाचन्द्राक्र्कतारं सलुत्तमिरे तत्पाद पद्मोपजीवि ।। वृत्त ।। जनता धारनुदारनन्यवनितादूरं वचस्सुन्दरी
घनवृत्तस्तनहारनुपरणधीरं मारनेनेन्दपै । जनकं तानेने माकणब्बे विबुधप्रख्यातधर्मप्रयुक्तनिकामात्तचरित्रे तायेनलिदेनेच महाधन्यनो॥४॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १८१ कन्द ॥ वित्रस्तमलं बुधजन
मित्रं द्विजकुलपवित्रनेचं जगदोल । पात्रं रिपुकुलकन्द-खनित्रं कौण्डिन्यगोत्रनमल चरित्रं ॥५॥ मनुचरितनेचिगाङ्कन मनेयोल मुनिजनसमूहमुं बुधजनमुं । जिनपूजने जिनवन्दने जिनमहिमेगलावकालमुं शोभिसुगुं ॥६।। उत्तमगुणततिवनितावृत्तियनोलकोण्डुदेन्दु जगमेल्लं कय्येत्तुविनममलगुणस
म्पत्तिगे जगदोलगे पाचिकब्बेये नोन्तल ॥७॥ वचन ।। अन्तेनिसिद् एचिराजन पाचिकब्बेय पुत्रनखिलतीर्थ
करपरमदेव - परमचरिताकर्ननोदीन - विपुलपुलकपरिकलितबारबाणनुमसमसमररसरसिक-रिपुनृपकलापावलेपलो लुपकृपाणनुवाहाराभयभैषज्यशास्त्रदानविनोदनुं सकललोक
शोकापनोदनुं ॥ वृत्त । वजं वज्रभृतो हलं हलभृतश्चक्रं तथा चक्रिण
शक्तिश्शक्तिधरस्य गाण्डिवधनुर्गाण्डीवकोदण्डिनः । यस्तद्वद्वितनोति विष्णुनृपतेः कार्य कथं मादृशै
गङ्गो गङ्गतरङ्गरञ्जितयशोराशिस्स वण्र्यो भवेत् ॥८॥ वचन ।। अन्तेनिप श्रीमन्महाप्रधानं दण्डनायकं द्रोहघरट्ट
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१८२ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
गङ्गराज चोलन सामन्तनदियमं घट्टदि मेलाद गङ्गवाडिनाड गडिय तलकाड वीडिनोल पडियिप्पन्तिट्टचाल कोट्ट नार्ड कोडदे कादि कोल्लिमेने विजिगीषुवृत्तियिन्द
मेत्ति बलमेरडु सादिल्लि ॥ वृत्त । इत्तण भूमिभागदोलधन्यरदेके भवत्प्रतापस
म्पत्तिय वर्ननाविधिगे गङ्गचमूप जिगीषुवृत्तियिन्देत्तिद निन्न कय्य निशितासिय तामोने बेन बारनेत्तत्तिरे पोगि कञ्चि गुरियप्पिनमोडिद दामनेय्दने ॥६॥ कदनदोलन्दु निन्न तरवारिय बारिंगे मेय्यनोडुलारदे नलिदिन्नुवन्तदने जानिसि जानिसि गङ्ग तन्न नम्बिद सुदतीकदम्बदेर्दे पौवने वोगिरे पुल्ले वेच्चु वेचिदपनहनिशं तिगुलदामनरण्यशरण्यवृत्तियिं ।।१०।। एनितानुं बवरङ्गलोल्पलबरं बेङ्कोण्ड गण्डिन्दमोवेनिसुत्तं तलकाडोलिन्नेवरमिर्दीगल्करं गङ्गराजन खलगाहतिगल्कि युद्ध विधियोल्बेन्नित्तु नायुग्नदो.
डिनलुण्डिईपनत्त शैवशमिवोल्सामन्तदामोदरं ॥११॥ वचन ।। एम्बिनमोन्दे मेय्योलवयवदिनेयिद मुदलिसि धृतिगिडिसि
बेकोण्डु मत्तं नरसिङ्गवम मोदलागे घट्टदिं मेलाद चालन सामन्तरेल्लरं बेङ्कोण्डु नाडादुदेल्लमनेकच्छत्रदुण्डिगेसाध्यं
माडि कुडे कृतज्ञं विष्णुनृपति मेचि मेचिदें बेडिकोल्लिमेने कन्द ॥ अवनिपनेनगित्तपने
न्दवरिवरवोलुलिद वस्तुवं बेडदे भू
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १८३ भुवनं बपिनसे गोवि. न्दवाडियं बेडिदं जिनार्चन लुब्धं ॥१२॥ गोम्मटमेने मुनिसमुदायं मनदोल्मेचि मेचि बिच्चलिसुत्तुं । गोम्मटदेवर पूजेग
दं मुददि बिट्टनल्ते धीरोदात्त ॥१३॥ प्रकर ॥ आदियागिप्प्दाहतसमयके मूलसङ्घकाण्डकु
दान्वयं बादु वेडदं बलेयिपुदल्लिय देसिगगणद पुस्तकगच्छद । बोधविभवद कुकुटासनमलधारि देवर शिष्यरेनिप पेम्पिङ्गादमेसेदिर्प शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर गु९ गङ्गचमूपति
॥१४॥ गङ्गवाडिय वस दिगले नितोलवनितुमं तानेरदे पासयिसिदं गङ्गवाडिय गोम्मटदेवग्गे सुत्तालयमनेय्दे माडिसिदं। गङ्गवाडिय तिगुलरं बेङ्कोण्डु वीरगङ्गङ्गे निमिच्चि कोट्ट गङ्गराजनामुन्निन गङ्गर रायङ्ग नूमडि धन्यनल्ते ॥ १५ ॥ धर्मस्यैव बलाल्लोको जयत्यखिल विद्विषः । प्रारोपयतु तत्रैव सर्वोऽपि गुणमुत्तमं ।।१६।। श्रीमज्जैनवचोब्धिवर्द्धनविधुःसाहित्यविद्यानिधिस्सर्पदर्पकहस्तिमस्तकलु ठत्प्रोत्कण्ठकण्ठीरवः । स श्रीमान् गुणचन्द्रदेवतनयस्सौजन्यजन्यावनिस्स्थेयात् श्रीनयकीर्तिदेवमुनिपस्सिद्धान्तचक्रेश्वरः ॥१७॥
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१८४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
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कृतदिग्जैत्रविदं बरुत्ते नरसिंहचोणिपं कण्डु सन्मतिथिं गोम्मटपार्श्वनाथ जिनरं मत्तीचतुब्विंशतिप्रतिमाहमनितिवर्षे विनुतं प्रोत्साद्ददिं बिट्टनप्रतिमल्लं सवोरबेककग्गेरेयुमं कल्पान्तरं सल्विनं ॥ १८ ॥ नरसिं हहिमाद्रितदुद्धृतकलश हदक हुल्लकर जिह्निकेयानतधारागङ्गाम्बुनि नयकीति' मुनीश पादसरसीमध्ये ॥ १-६॥ ललनालीलेगे मुन्नवेन्तु कुसुमास्त्रं पुट्टिदों विष्णुगं ललितश्रीवधुविङ्गवन्ते नरसिंहक्षोणिपालङ्गवेचल देवीवधुगं परार्धचरित' पुण्याधिकं पुट्टियों बलवद्वैरिकुलान्तकं जयभुजं बल्लालभूपालकं ॥ २०॥ चिरकालं रिपुगल्गसाध्यमे निसिद्दुच्चङ्गियं मुत्ति दुर्द्धरतेजोनिधि धूलिगोटेयने कोण्डाकामदेवावनीश्वरनं सन्दोडेयक्षितीश्वरननाभण्डारमं स्त्रीयरं तुरगबातमुमं समन्टु पिडिदं बल्लालभूपालकं ॥ २१ ॥
स्वस्ति श्रीमन्नकिर्ति सिद्धान्तचक्रवर्त्तिगल गुडुं श्रीमन्महाप्रधानं सर्व्वाधिकारि हिरियभण्डारि हुल्लय्यङ्गलु श्रीमत्प्रताप चक्रवर्त्ति वीरबल्लालदेवर कय्यलु गोम्मटदेवर पार्श्वदेवर चतुर्व्विशति तीर्थकर र अष्टविधार्चनेगं रिषियराहारदानक बेडिकण्डु सवर बेक्ककग्गेरेय बिह दत्ति ॥
परमागमवारिधिहिमकिरणं राद्धान्तचक्रिनय कीर्त्तियमी
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १८५ श्वरशिष्यनमल निजचित्परिणतनध्यात्मिबालचन्द्रमुनीन्द्रं ॥ २२ ॥ कन्तुकुलान्तकालयमर्जितशासनमं निशिधिकासन्ततियं तटाक सरसीकुलमं नयकोत्ति देवसैद्धान्तिकरोल्परोक्षविनयङ्गलनीतेरदिन्द माल्परारिन्तिरे नोन्तरारेनिसिदं नयकीर्तिनिलाविभागदोल ॥२३॥
[ यह लेख श्रादि से आठवें पद्य तक लेख नं० १६ (७३ ) के पूर्वभाग के समान ही है। केवल इसमें तीसरा पद्य अधिक है। इस लेख में भी विष्णु नरेश के महादण्डनायक गङ्गराज के पराक्रम का अच्छा वर्णन है। उन्होंने तलकाडु पर घेरा डालनेवाले चोल सामन्त अदियम नरसिंह वर्मा, दामोदर व तिगुलदाम को भारी पराजय दी। इस पर विष्णुवर्द्धन ने प्रसन्न होकर उनसे पारितोषक माँगने को कहा। उन्होंने गोम्मटेश्वर की पूजन निमित्त 'गोविन्द वाडि' का दान मांगा। इसे नरेश ने सहर्ष स्वीकार किया।
गङ्गराज कुन्दकुन्दान्वय के कुक्कुटासन मलधारिदेव के शिष्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। उनके तिगुलों को हराकर गङ्गवाडि की रक्षा करने, गङ्गवाडि के गोम्मटेश्वर का परकोटा बनवाने व अनेक जैन बस्तियों का जीर्णोद्धार करने का लेख नं. ५६ के सदृश यहाँ भी उल्लेख है और यहाँ भी वे चामुण्डराय से सौगुणे अधिक धन्य कहे गये हैं। .
पद्य १७ और १८ में गुणचन्द्र देव के तनय नयकीति देव का उल्लेख करके कहा गया है कि नरसिंह नरेश ने दिग्विजय से लौटते हुए गोम्मटेश्वर के दर्शन किये और सदा के लिए पूजनार्थ तीन ग्रामों का दान दिया। इसके पश्चात् नरसिंह नरेश और एचल देवी से उत्पन्न होनेवाले बल्लाल नृप का कामदेव और ओडेय राजाओं को जीतने, उच्चङ्गि
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
का किला विजय करने तथा अपने प्रधान कोषाध्यक्ष, नयकीति देव के शिष्य 'हुल्लय' द्वारा उक्त तीने ग्रामों के दान को पूरा करने का उल्लेख है। ___अन्त में नयकीति देव के शिष्य अध्यात्मि बालचन्द्र के अपने गुरु के स्मारक अनेक शासन रचने व तालाब आदि निर्माण करवाने का. उल्लेख है।].
[नोट-पद्य १७ से ऐसा विदित होता है कि उसके लिखे जाने के समय नयकीर्ति जीवित थे। किन्तु अन्तिम पद्य से स्पष्ट होता है कि उनके लिखे जाने के समय नयकीति का स्वर्गवास हो चुका था। सम्भव है कि लेख का पूर्व भाग ( पद्य २१ तक ) नयकीति के जीवनकाल में ही लिखा गया हो और शेष भाग पीछे से जोड़ा गया हो ।
८१ ( २४१) उपर्युक्त लेख के नीचे
( लगभग शक सं० ११००) स्वस्ति समस्तगुणसम्पन्नरप्प श्रीबेलुगुलतीर्थद समस्त माणिक्य नखरङ्गलु श्रीगोम्मटदेवर पारिश्वदेवरिगे वर्षनिबन्नियागि हूविनपडिगे जातिहवलके तोलेगे ता १ करिदके वीस १ यिद आचन्द्रार्कतारं बरं सलिसुवरु ।। मङ्गल महा श्री श्री ॥
[ बेल्गुल के समस्त जौहरियों ने गोम्मट देव और पार्श्वदेव की पुष्प-पूजन के लिए अपने माणिक्यों पर उक्त वार्षिक चन्दा देने का संकल्प किया।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
८२ ( २४२) उपयुक्त लेख के नीचे
( लगभग शक सं० ११००) स्वस्ति श्री बेलुगुलतीर्थद गुमिसेट्टिय दसैय बिकैवेय केतय्य कोणन मरिसेट्टिय मग लखण्न लोकेयसहणिय मगलु सोमौवे मेलमेलद समस्तनखरङ्गलु गोम्मटदेवर हुविन पडगे गङ्गसमुद्रद हिन्दे गदे स १ आगोम्मटपुरद भूमियोलगे
आन्दुहोन्न बेदले गुलयकेय्य समुदायङ्गल कय्यलु मारुगोण्डु मा (म) लेगारगे प्राचन्द्रावतारं बरं सलुवन्तागि बरदुकोदृशासन ॥
[बेल्गुल के गुमिसेष्टि श्रादि समस्त व्यापारियों ने गङ्गसमुद्र और गोम्मटपुर की कुछ भूमि खरीद कर उसे गोम्मटदेव की पूजा के निमित्त पुष्प देने के लिए एक माली को सदा के लिए प्रदान कर दी।]
८३ ( २४३) उसी पाषाण की दूसरी बाजू पर
( सम्भवतः शक सं० ११६७ ) स्वस्ति श्रीभावसंवत्सरद भाद्रपद शुक्रवारदन्दु श्री गोम्मटदेवरिगेवु तीर्थकरिगेवु इविन पडिगे चनिसेट्टिय मग चन्द्रकीत्ति भट्टारकदेवर गुड्ड कल्लय्यनु अक्षयभण्डारवागि कोट्ट ग १ प २१ यि-मरियादेयलु कुन्ददे ६ बासिग-हुव्वनिकुवरु मङ्गलमहा श्री श्री ॥
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१८८ . विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
[चेन्निसेहि के पुत्र व चन्द्रकीति भट्टारक देव के शिष्य कल्लय्य ने कम से कम ६ पुष्प मालाएँ नित्य चढ़ाये जाने के हेतु उक्त तिथि को उक्त दान दिया।]
[नोट-लेख में भाव संवत्सर का उल्लेख है शक सं० ११६७ भाव संवत्सर था।]
८४ (२४४) उपर्युक्त लेख के नीचे
( सम्भवतः शक सं० ११६७ ) स्वस्ति श्रीभावसं बत्सरद पुष्य सुद्धबि () श्रीगोम्मददेवर नित्याभिषेकके श्रीप्रभाचन्द्रभट्टारकदेवर गुड्डु बारकनूर मेधाविसेट्टिगे परोक्षविनेयक्के अक्षयभण्डारक्के कोट्ट गद्याण नाल्कु यहोनिङ्ग अमृतपडिगे प्राचन्द्राक नित्यपाडि ३ य भान हाल नउसुवदु यि-धर्मव माणिक-नकरङ्गलुं एलयिगलुं पारैवरु मङ्गलमहा श्री श्री ।।
[प्रभाचन्द्र भट्टारक देव के शिष्य बारकनुर के मेधावि सेट्टि की स्मृति में गोम्मट देव के अभिषेकार्थ ३ 'मान' दुग्ध प्रति दिवस देने के लिए उक्त तिथि को ४ ‘गद्याण' का दान दिया गया।] [ नोट-लेख में भाव संवत्सर का उल्लेख होने से समय उपर्युक्त।]
८५ ( २४५) उपर्युक्त लेख के नीचे
( लगभग शक सं० ११६७ ) हलसूर सोयिसेटिय मग केतिसेटियरु गोम्मट-देवरिगे
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख नित्यपडि मूरुमान हालनु अभिषेकक्के कोट्ट ग ३ क्क होन्न बडिगे हाल नडयिसुवरु माणिकनखर नडेयिसुवरु प्राचन्द्रार्कवुल्लनक मङ्गलमहा श्री ॥
[गोम्मट देव के नित्याभिषेक के हेतु सोमि सेटि के पुत्र हलसूरनिवासी केति सेटि ने ३ 'मान' दूध के लिए ३ग का दान दिया जिसके व्याज से दूध लिया जावे ।]
८६ ( २४६ ) उसी पाषाण की दायीं बाजू पर
(शक सं० ११८६) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छन । जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ श्रीमत्प्रतापचक्रवर्ति होयसल श्रीवीरनारसिहदेवरसरु श्रीमद्राजधानिदोरसमुद्रदलु सुखसङ्कथा विनोददि राज्य गेटवुत्तमिरे शकवरुष ११८६ नेय श्रीमुखसंवत्सरद श्रावण सु १५
आदिवारदलु श्रीमन्महामण्डलाचार्यरु नयकीति देवर शिष्यरु चन्द्रप्रभदेवर कय्यलु हानचगेरेय मादय्यन मग सम्भुदेवनु सङ्गिसेट्टियर मग बोम्मण्न अग्गप्पसेट्टियर मक्कल दोरय चवुडय्यनवरु श्रीगोम्मटदेवर अमृतपडिगे मत्तियकेरेय नट्टकल्ल सीमामादेयोलगाद गद्दे सुत्तालयद चतुर्विंशतितीर्थकर अमृतपडिगे कोट्ट मोदलेरिय गहे सलगे वोन्दु-सहित सर्वबाधापरिहारवागि धारापूर्वकं माडिकोण्डु प्राचन्द्रावतारं बरं सल्वन्तागि कोट्ट दत्ति । मङ्गलमहा श्री श्री श्री ॥
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१-६०
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
[ होय्सल नरेश श्री वीर नारसिंह के समय में उक्त तिथि को होनचगेरे के मादय्य के पुत्र सम्भुदेव ने महामण्डलाचार्य नयकीति देव के शिष्य चन्द्रप्रभदेव से मात्तिय करे की उक्त भूमि खरीदकर उसे गोम्मट देव और चतुर्विंशति तीर्थंकर के दुग्ध पूजन के लिये प्रदान कर दी । ] ८७ (२४७)
उपर्युक्त लेख के नीचे
( सम्भवतः शक सं० ११६७ )
स्वस्ति श्रीभावस ंवत्सरद भाद्रपद सुद्ध ५ आदिवार दलु श्रीगोम्मटदेवर नित्याभिषेक के अमृतपडिगे श्रीप्रभाचन्द्रभट्टारकदेवरगुड्डु गेरसपेय गोविन्दसेट्टिय मग आदियन अक्षयभण्डारवागि इरिसिद गद्या नाल्कु तिङ्गलिङ्गो होङ्ग हा बडि प्रबडियलि नित्याभिषेकक्के वब्बल हाल नडसुवरु ई-होनिङ्ग माणिक्यनकर एल में ओडेयरु | प्राचन्द्रार्कतारं बरं सवन्तागि नडसुवरु | मङ्गलमहा श्री श्री श्री ॥
[ उक्त तिथि को गेरसपे के गोविन्द सेट्टि के पुत्र व प्रभाचन्द्र भट्टारक देव के शिष्य श्रादियण्ण ने गोम्मट्टदेव के नित्याभिषेक के लिए ४ गद्याण का दान किया । इस रकम के एक 'होन' पर एक ' हाग' मासिक व्याज की दर से एक 'बल' दुग्ध प्रति दिन दिया जाना चाहिए । ]
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
८८ (२२३) अष्टदिक्पालक मण्डप में एक स्तम्भ पर
(शक सं० १७४८) ( पूर्व मुख)
श्री स्वस्ति श्रीविजयाभ्युदय शालिवाहन शख बरुष १७४८ ने सन्द वर्तमानक्के सलुव व्ययनामसंवत्सरद फाल्गुण ब५ भानुवारदल्लु कास्यपगोत्रे अहनियसूत्रे वृषभप्रवरे प्रथमानुयोगशाखायां श्रीचावुण्डराज वंशस्थराद बिलिकेरे अनन्तराजै अरसिनवर प्रपौत्र तोटदेवराजै अरसिनवर पौत्र सत्यमङ्गलद चलुवै-अरसिनवर पुत्र श्रीमन्महिसूरपुरवराधीश श्रीकृष्णराजबडेयरवर सम्मुखदल्लि भारिगाटु कन्दाचार सवारकचेरि( उत्तर मुख)
यिलाखे भक्षि देवराजै अरसिनवरु श्रीगोमटेश्वरस्वामियवर मस्तकाभिषेकपूजोत्सवदिवस स्वर्गस्थराद्दक्के श्रीमठदिन्द वर्षप्रति वर्षदल्लु श्रीगोमटेश्वरस्वामिय वरिगे पादपूजे मुन्ताद सेवार्थ नडेयुवहागे यिवर पुत्रराद पुट्टदेवराजै अरसिनवरु १०० वरह हाकिरुव पुदुवट्टिन सेवेगे भद्रं भूयाद्वद्धतां जिनशासनं । श्री।
[काश्यप गोत्र, अहनिय सूत्र, वृषभ प्रवर और प्रथमानुयोग शाखा में चावुण्डराज के वंशज, बिलिकेरे अनन्तराजै अरसु के प्रपौत्र, तोटदेवराजै अरसु के पौत्र व सत्यमङ्गल के चलुवै अरसु के पुत्र, मैसूर नरेश श्री कृष्णाज बडेयर के प्रधान अङ्गरक्षक ( भक्षि ) देवराजै अरसु की मृत्यु गोम्मटेश्वर के मस्ताकाभिषेक के दिवस हुई। अतएव उनके
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१९२ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख पुत्र पुट्ट देवराजै अरसु ने गोम्मट स्वामी की वार्षिक पाद पूजा के लिए उक्त तिथि को १०० 'वरह' का दान किया।]
टट (२२४) उसी मण्डप में एक द्वितीय स्तम्भ के
पश्चिम मुख पर
(शक सं० १४५८) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १॥
सखवर्ष साविरद १४५६ तनेय विलम्बि संवत्सरद माघ शुद्ध ५ यलु गेरसोप्पेय चवुडिस टिरु अगणिबोम्मय्यन मग कम्भय्यनु तन्न क्षेत्र अडहागिरलागि चवुडिस टिरु अडनु बिडिसि कोट्ट दक्के वोन्दु तण्डक्के आहारदान त्यागद ब्रह्मन मुन्दण हूविन तोट वोन्दु पडि अक्कि अक्षतेपुञ्ज इष्टनु आचन्द्रार्कस्थायियागि नावु नडसि बहेनु मङ्गलम श्री श्री श्री श्री श्रो॥
[गेरसोप्पे के चबुडि सेटि ने मेरी भूमि रहन से मुक्त कर दी है इसलिए मैं अगणि बोम्मय्य का पुत्र कम्भिय्य सदैव निम्नलिखित दान का पालन करूँगा-एक संघ ( तण्ड ) को श्राहार, त्यागद ब्रह्म के सामने के बाग (की देख-रेख ) व अक्षत पुञ्ज के लिए एक पडि' तण्डुल ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१०० ( २२५) उसी स्तम्भ के दक्षिण मुख पर
(शक सं० १४५८) तत्संवत्सरदलु गेरसोप्पेय चौडिसेट्टिरिगे दोडदेवप्पगल मग चिकनु कोट्ट धर्मसाधन नमगे अनुमत्य बरलागि नीवु नवगे परिहरिसि कोट्टदक्के १ तण्डक्के आहार दानवनु प्राचन्द्रा. कस्थायि यागि नडसि बहेवु मङ्गलमहा श्री श्री श्री श्री श्री ॥
[ दोड देवप्प के पुत्र चिकण ने यह 'धर्म साधन' चौडि सेट्टि को दिया कि 'आपने हमारे कष्ट का परिहार किया है इसके उपलक्ष्य में मैं सदैव एक संघ (तण्ड ) को आहार दूंगा।]
१०१ ( २२६) नं० १०० के नीचे
(शक सं० १४५८) तत्संवत्सरदलु गेरसोप्पेय चावुडिसेट्टरिंगे कविगल मग बोम्मणनु कोट धर्मसाधन नमधि अनुपत्य बरलागि नीवु नवगे परिहरिसि कोट्ट दक्के वर्ष १ के प्रारतिङ्गलु पर्य्यन्त १ तण्डके आहारदानवनु प्राचन्द्रार्कस्थायियागि नडसि बहेवु मङ्गलमहा श्री श्री श्री श्री॥
[ 'कवि, के पुत्र बोम्मण ने चबुडि सेट्टि को यह 'धर्म-साधन' दिया कि 'आपने हमारी प्रापद् का परिहार किया है इसके उपलक्ष्य में मैं सदव वर्ष में छह मास एक संघ (तण्ड ) को अहार दूंगा।
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१६४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१०२ (२२७) उसी स्तम्भ के पूर्व मुख पर
(शक सं० १४५८) इ मोदल...तत्संवत्सरदलु गेरसोप्पेय चवुडिसट्टिरिगे हूविन चेन्नय्यनु कोट धर्मसाधनद सम्बन्ध नन्न क्षेत्रवु अड हाकिरलागि नीवु आक्षेत्रवनु बिडिसि को............... ।
[चेनय्य माली ( हूविन ) ने चवुडि सेट्टि को यह 'धर्म-साधन' दिया कि 'आपने मेरी जमीन रहन से मुक्त की है इसलिए मैं...।]
१०३ ( २२८) उसी मण्डप में तृतीय स्तम्भ
के पूर्व मुख पर
(शक सं० १४३२) सखवरुष१४३२ डनेय शुक्लसंवत्सरद बैशाख ब० १०लू मण्डलेश्वरकुलो ङ्ग चङ्गाल्वमहदेवमहीपालन प्रधानसिरोमणि केशव-नाथ-वर-पुत्र कुल-पवित्रं जिनधर्मसहायप्रतिपालकरह बोम्यणमन्त्रिसहोदररह सम्यक्तुचूड़ामणि चेनबोम्मरसन नजरायपट्टणद श्रावकभव्यजनङ्गल गोष्टिसहाय श्री गुम्मटस्वामिय बल्लिवाडव जीर्णोद्धारव माडिसिदरु श्री॥
[मण्डलेश्वर कुलोत्तुंग चङ्गाल्व महदेव महीपाल के प्रधान मन्त्री, केशवनाथ के पुत्र, वोम्यण मन्त्री के भ्राता चन्न बोम्मरस व नाराय पट्टण के श्रावकों ने गोम्मट स्वामी के 'बल्लिवाड' ( ? उपर की मजिल) का जीर्णोद्धार कराया।]
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १६५
१०४ ( १८५) गोम्मटेश्वर के दक्षिण की ओर कूष्माण्डिनी के पादपीठ पर
__(लगभग शक सं० ११००) श्रोनयकीर्ति सिद्धान्त-चक्रवर्तिगल शिष्यरु श्रीबालचन्द्रदेवर गुड्डु केतिसेट्टिय मग बम्मिसेट्टि माडिसिद यक्षदेवते।।
[नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य बालचन्द्र देव के शिष्य बम्मि सेट्टि, केटि सेट्टि के पुत्र, ने यह यक्ष देवता प्रतिष्ठित कराया। ]
१०५ ( २५४ ) सिद्धरबस्ती में उत्तर की ओर एक स्तम्भपर
(शक सं० १३२०) ( पश्चिम मुख)
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छन । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥१॥ श्रीनाभेयोऽजितःशम्भव-नमिविमलास्सुब्रतानन्तधर्माश्चन्द्राङ्कश्शान्तिकुन्थू ससुमतिसुविधिश्शीतला वासुपूज्यः । मल्लिश्श्रेयस्सुपाश्रु जलजरुचिरनिन्दनः पार्श्वनेमी श्रीवीरश्चेति देवा भुवि ददतु चतुर्विशतिर्मङ्गलानि ॥२॥ वीरा विशिष्टां विनताय रातीमितित्रैलोकैरभिवण्ठनेते यः निरस्तका निखिलार्थवेदी
पायादसौ पश्चिमतीर्थनाथः ॥३॥
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१९६ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख तस्याभवन सदसि वीरजिनस्य सिद्ध
सप्तर्द्धयो गणधराः किल रुद्रसङख्याः । ये धारयन्ति शुभदर्शनबोधवृत्ते
मिथ्यात्रयादपि गणान् विनिवर्त्य विश्वान् ॥४॥ इन्द्राग्निभूतीअपि बायुभूतिरकम्पनी मौर्य सुध
मपुत्राः। मैत्रेयमौण्ड्यौपुनरन्धवेलः प्रभासकश्चेति तदीय
संज्ञाः ॥५॥ पूर्वज्ञानिह वादिनोऽवधिजुषो धीपर्ययज्ञानिन: सेवे वैक्रियकांश्च शिक्षकयतीन्कैवल्यभाजोऽप्यमून् । इत्यग्न्यम्बुनिधित्रयोत्तरनिशानाथास्तिकायैश्शतै रुद्रोनैकशताचलैरपि मितान्सप्तैव नित्यं गणान् ॥६।। सिद्धिं गते वीरजिनेऽनुबद्ध-केवल्यभिख्यास्त्रयएव जाताः । श्रीगौतमस्ती च सुधर्मजम्बू यैः केवली वै तदिहानु
बद्धं ॥७॥ जानन्ति विष्णुरपराजितनन्दिमित्रो
गोवर्द्धनेन गुरुणा सह भद्रबाहः। ये पञ्चकेवलिवदप्यखिलं श्रुतेन
_ शुद्धा ततोऽस्तु मम धीः श्रुतकेवलिभ्यः ॥८॥ विद्यानुवादपठने स्वयमागताभि
विद्याभिरात्मचरितादमलादभिन्नाः ।
जोन
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विन्ध्य गिरि पर्वत पर के शिलालेख पूर्वाणि ये दशपुरूण्यपि धारयन्ति
तानौम्य भिन्नदशपूर्वधरान् समस्तान् ।। तेक्षधियः प्रोष्ठिल गणदेवी
जयस्तुधर्मा विजयो विशाखः । श्रीबुद्धिलाऽन्या धृतिषेणनागौ
सिद्धार्थकश्चेत्यभिधानभाजः ॥१०॥ नक्षत्रपाण्डू जयपालकंसा
चार्य्यावपि श्रीद्रुमषेणकश्च । एकादशाङ्गीधरणेन रूढा ये पञ्च ते मी हृदि मे वसन्तु ॥११॥ आचार-संज्ञा-भृतोऽभवंस्ते
__ लोहस्सुभद्रो जयपूर्वभद्रः । तथा यशोबाहुरमी हि मूल
स्तम्भा जिनेन्द्रागमरत्नहर्म्य ॥ १२ ॥ श्रीमान्कुम्भो विनीता
हलधरवसुदेवाचला मेरुधीरः सर्वज्ञः सर्वगुप्तो
महिधर-धनपालीमहावीरवीरौ। इत्याद्यानेक सुरिष्वथ सुपदमुपेतेषु दीव्यत्तपस्याशास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां
काण्डकुन्दा यतीन्द्रः ॥ १३ ॥ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्यऽपि संव्य जयितुं यतीशः ।
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१८ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गलं सः ॥१४॥ श्रीमानुमास्वातिरय' यतीश
स्तत्वार्थसूत्र प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोद्यतानां पाथेयमर्थ्य भवति प्रजानां।।१५।। तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिञ्छ-द्वितीयसंज्ञस्य बलाक
पिछः। यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके
मुक्तयङ्गनामोहनमण्डनानि ॥ १६ ।। समन्तभद्रस्स चिराय जीयावादीभवज्राशसूक्तिजालः । यस्य . प्रभावात्सकलावनीय वन्ध्यास दुर्वादुकवा
... तयापि ॥ १७ ॥ स्यात्कार-मुद्रित-समस्त-पदार्थ-पून व्यैलोक्य-हर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति। दुर्बादुकोक्तितमसा पिहितान्तरालं
सामन्तभद्र-वचन-स्फुट-रत्नदीपः ।। १८ ॥ तस्यैव शिष्यशिशवकाटिरिस्तपो लतालम्बनदेहयष्टिः । संसार-वाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलञ्चकार ।। १६ ॥ प्रागभ्यधायि गुरुणा किल देवनन्दी
बुद्ध्या पुनर्विपुल या स जिनेन्द्रबुद्धिः। श्रीपूज्यपादइति चैष बुधैः प्रचख्ये
- यत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः ॥ २०॥ भट्टाकलकोऽकृत सौगतादिदुर्वाक्यपङ्कस्सकलङ्कभूत ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १६६ जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकलङ्कमेव ॥२१॥ जीयाजगत्यां जिनसेनरिय॑स्योपदेशोज्ज्वलदर्पणेन । व्यक्तीकृत सर्वमिदं विनेयाः पुन्यं पुराणं पुरुषा
विदन्ति ॥ २२ ॥ विनय-भरण-पात्र भव्यलोकैकमित्रं विबुधनुतचरित्रं तद्गुणेन्द्राप्रपुत्र । विहितभुवनभद्रं वीतमोहोरुनिद्रं विनमत गुणभद्र तीर्न विद्यासमुद्रं ॥ २३ ॥ सयजनस्वरनभस्तनु लक्षणाङ्गच्छिन्नाङ्ग-भौम-शकुनाङ्ग-निमित्तकैय्य: । कालत्रयऽपि सुखदुःखजयाजयाद्य
तत्साक्षिवत्पुनरवैति समस्तमेव ॥२४ ।। यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे। फलप्रदानाय जगजनानां प्राप्तोऽङ्कराभ्यामिवकल्पभूजः॥२५॥ अर्हद्वलि स्सङ्घचतुर्विधं स श्रीकाण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ। कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥२६॥ सिताम्बरादी विपरीत-रूपे खिले विसङ्घ वितनोतु भेदं। तत्सेननन्दि-त्रिदिवेशसिंहसङ्घषु यस्तं मनुते
कुहक्सः ॥२७॥ सङ्घषु तत्र गणगच्छ-वलि-त्रयेण
लोकस्य चतुषि भिदाजुषिनन्दिसङ्घ
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२००
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
देशीगये धृतगुणेऽन्वित पुस्तकाच्छ
गच्छेङ्गुलेश्वर वर्ज्जियति प्रभूता ||२८|| तत्रासन्नाग- देवेादय- रवि जिन मेघ - प्रभा-बालचन्द्रा देवश्री भानुचन्द्रश्रुतनय गुणधर्म्मादयः कीर्त्ति देवाः । देश-श्रीचन्द्र-धर्मेन्द्र-कुल- गुण- तपो भूषणास्सुर
योऽन्ये विद्या दामेन्द्रपद्मामरवसु-गुण- माणिक्कनन्द्या
ह्वयाश्च ||२६||
( उत्तर मुख )
विहितदुरितभङ्गा भिन्नवादीभशृङ्गा
वितत - विविध-मङ्गाः विश्वविद्याब्जभृङ्गाः ।
विजितजगदनङ्गावेशदूरोज्वलाङ्गा
विशदचरणतुङ्गा विश्रुतास्ते स्तसङ्गाः ||३०|| जीयाच्छ्री नेमिचन्द्रः कुवलयलयकृत् कूटकोटीद्धगोत्रो नित्योद्यन्दृष्टिबाधाविरचन कुशल स्तत्प्रभाकृत्प्रतापः । चन्द्रस्येव प्रदत्तामृत-वचन - रुचा नीयते यस्य शान्ति धर्मव्याजस्य नेतुरस्वमभिमतपदं यश्च नेमी रथस्य ॥ ३१ ॥ श्रीमानन्दी विबुधा जगत्यामन्वर्त्यमेवा तनुतात्मनाम । समुल्लसत्संवर निर्ज्जरेण न येन पापान्यभिनन्दितानि ॥ ३२ ॥ तुङ्ग े तदीये धृत-वादिसिंहे गुरुप्रवाहान्नतवंशगोत्रे ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
२०१
प्रथेोदिताऽभून्निजपादसेवाप्रमादिलो को ऽभय चन्द्र देवः
॥ ३३ ॥
जयति जिततमोऽरिस्त्यक्तदोषानुषङ्गः
पदमखिल कलानपात्र - मम्भोरुहायाः ।
अनुगतजयपक्षश्चात्तमित्रानुकूल्य
स्सततमभयचन्द्रस्सत्सभारत्नदीपः || ३४॥ तदीयतनुजश्श्रुतमुनिर्गणि पदेशस्तपोभर नियन्त्रिततनुस्स्तु
तजिनेश: ।
ततोऽजनि जिनेन्द्रवचनास्तविषयाशस्तत स्वयशसा भूतसमस्तवसुधाश: ।। ३५॥
भव - विपिन कृशानुर्भव्य पङ्कजभानु
|स्स विततममसानु स्सम्पदे कामधेनुः ।
भुविदुरिततमोऽरिप्रोत्थ सन्तापवारि
श्रुतमुनिवर सुरिश्शुद्धशीला स्तनारिः ॥३६॥ चण्डोद्दण्डत्रिदण्डं परम सुख पदं पापबीजं परागावारागारोरुकार-त्रिविधमधिकृता गौरव गारव च ॥ तुल्यंभल्लान- शल्य-त्रयमतुलवपुश्शर्म्मममच्छिदं होभाषोन्मेष त्रिदोषं श्रुतमुनिमुनिपा निर्मुमोचैक एव ॥ ३७॥ प्रशिष्यगणेङ्गमा भुवितदीये प्रवर्द्धयति पूर्नकल इन्दु
रिवरस्म |
अनादिनिधनादि-परमागम-पयोधिमभूदभिनवश्रुतमुनि
णिपदे सः ॥ ३८ ॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
मार्गे दुर्गे निसर्गात्प्रतिभटकटुजल्पेन वादेन वापि श्रव्य काव्ये निव्ये मृदुमधुर पदैः शर्मदैर्भर्म्मदैश्च । मन्त्र तन्त्रेऽपि यन्त्रे नुतसकलकलायां च शब्दानवे वा को वान्यः कोविदोऽस्ति श्रुतमुनिमुनिवद्विश्व-विद्याविनोदः || ३८ ॥
शब्दे श्री पूज्यपादः सकल- विमत जित्तर्कतन्त्रेषुदेवः सिद्धान्ते सत्यरूपे जिन-विनिगदिते गौतमः काण्डकुन्दः । अध्यात्म वर्द्धमाना मनसिज-मधने वारिमुग्दुःखवन्हावित्येवं कीर्त्तिपात्रं श्रुतमुनिवदभूद्भूत्रये कोऽत्र कश्चित्
118011
२०२
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श्रद्धां शुद्धां प्रवृद्धां दधतमधिकृतां जैनमार्गे सुसग्र्गे सिद्धिं बुद्धेर्बुधर निव है रद्भुतामर्त्यमानां । मित्रं चित्रं चरित्रं भवचय-भयदं भव्यनव्याम्बु जानामध्ये न्यूनमेनं श्रुतमुनि मुनिपं चन्द्रमाराधयध्वं ॥ ४१ ॥ श्रोमानितोऽस्याभय चन्द्र सूरेस्तस्यानुजात [1] श्रुतकीर्त्ति
E
देवः । अभूज्जिनेन्द्रोदितलक्षणानामापूर्णलची कृत- चारु- वृत्तः ॥४२॥ विदित सकलवेदे वीत- चेता-विषादे
विजित - निखिल - वादे विश्वविद्याविनोदे ।
विततचरितमो विस्फुरच्चित- प्रसादे
विनुत - जिनप- पादे विश्वरतां प्रपेदे ||४३|| स श्रीमांस्तत्तनूजस्तदनु गणिपदे सन्न्यधाच्चारुकीर्त्ति :
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २०३ कीयाकीर्णत्रिलोक्या मुहुरयति विधुः कार्यमद्याप्यतुल्यः। (तृतीय मुख ) .
यस्योपन्यास-वन्य-द्विप-पटु-घटयोत्पाटिताश्चाटुवाचः पद्मासनात्तमित्रोवलतररुचयोऽप्युत्थितावादिपद्मा: ॥४४॥ चारुश्रीश्चारुकीर्तिः पदनतवसुधाधीश्वरोऽधोश्वरोऽयं गर्व कुर्वन्तमुश्विर-सदसि महावादिनं वादवन्ध्यं । चक्रे दिक्क्रीडदग्रेसरसरसवचा: साधिताशेषसाध्या प्रवेद्यावेद्याद्यविद्याव्यपगमविलसद्विश्वविद्याविनोदः ॥४५॥ बल्लाल-क्षोणिपालं वलित-बलि-बलं वाजिभिव्वे जिताजि रोगावेगाद्गतासु स्थितिमपि स हसोल्लाघतामानिनाय । प्रातीयॆव स्वयं सोऽखिलविदभयसूरेस्तथातारयत्तनिस्सोमाशेष-शास्त्राम्बुनिधिमभयमूरि परं सिंहणार्या
॥४६॥ शिष्टो दुष्टाघ-पिष्टी-करण-निपुण-सूत्रस्य तस्योपदेष्टुशिशष्यः पीयूष-निष्यन्दन-पटु-वचन: पण्डितः खण्डिताघः । सूरिस्सूरो विनेयाम्बुरुहविकसने सर्व दिग्व्यापिधामा श्रीमानस्थात्कृतास्थो बेलुगुलनगरे तत्र धर्माभिवृद्ध्यै ॥४७॥ यस्मिंश्चामुण्डराजा भुजबलिनमिनं गुम्मटं कर्मठाझं भक्तया शक्तया च मुक्तयैजित-सुर-नगरे स्थापयद्भद्रमद्रौ । तत्काल-त्रयोत्थोज्वल-तनु-जिन-बिम्बानि मान्यानि चान्यः कैलासे शीलशाली त्रिभुवन-विलसत्कार्ति-चक्रीव चक्रे ॥४८॥ स्थाने तत्स्थानमन्त्रीज्वलतरमतुलं पण्डितोऽलङ्करोतु
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२०४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
श्रीमानेषोऽकीर्तिन्नृप इव विलसत्सालसोपानकायैः। चित्रं शीर्षेऽभिषिच्य त्रिभुवनतिलकं तं पुनस्सप्तवारान् पङ्कोन्मुक्त विधायाखिलजगदुरुपुण्यैस्तथालञ्चकार ||४|| किंवा तीराभिषेकादुतनिजयशसो निर्मलाच्छङ्कराद्रीन गोत्राद्रीन्स्फाटिकी च तितिममरगजान्दिग्गजानेष धीरः । क्षीरोदान्सप्तसिन्धूनुदरिजलधरान्शारदानागलोकं शेषाकी विदी मृतकलशमपि स्वर्धितेने न विद्मः ॥५०॥ मेरी जन्माभिषेकं सुरपतिरिव तत्तथैवात्र शैले देवस्यादर्शयन्नो परमखिलजनस्यैष सूरिबिधाय । सन्मार्ग चाधुनैनं पिहितमपि चिरं वामदृग्वाक्तमाभिनिश्शे तानि पुर्व पुरुरिव पुनरत्राकलङ्कोऽपनीय ।।५१॥ रे रे काणाद कोणं शरणमधिवस सुद्रनिद्रानिवासं मैमांसेच्छामतुच्छां त्यज निजपटुवादेषु कृच्छाशुगच्छ । बौद्धाबुद्धे विमुग्धोऽस्यपसर सहसा साङ्ख्यमार
सङ्ख्ये श्रीमान्मथ्नाति वादीन्द्रगजमभयमूरिः परं वादिसिंहः॥५२॥ ऐश्वर्य वहतश्च शाश्वतमुखे धत्तश्च सर्वज्ञता बिभ्राते च गिरीशतां शिवतया श्रीचारुकीर्तीश्वरी । तत्रायं जिनभागसावजिनभाग्धीमानय मार्गणे हेमाद्रिं समधत्त मार्गणमुरुस्थेमा स हेमाचले ॥५३॥ स्फूज टि-भाल-लोचन-शिखि-ज्वालावलीढस्य ते हं हो मन्मथजीवनौषधिरभूदेषा पुरा शैलजा।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २०५ सर्वज्ञोत्तमचारुकोत्ति सुमुनेस्सम्यक्तपो-वह्निना निर्दग्धस्य चरित्रचण्डमरुतोद्धतस्य का ते गतिः ॥५४॥ पितामहपरिष्वङ्गसङ्गतैनःप्रशान्तयं । चारुकीतिवचोगङ्गालिङ्गिताङ्गो सरस्वती ॥५५॥ प्रास्यं वाणीनिवास्य हृदयमुरुदय स्वं चरित्र पवित्रं देहं शान्त्यैकगेहं सकलसुजनतागण्यमुद्भूत-पुण्य । अव्या भव्या गुणालिन्नि खिलबुधततेर्यस्य सोऽयं जगत्यां अत्यारूढ़प्रसादो जयतु चिरमय चारुकीर्त्तिव्रतीन्द्रः ।।१६।। मूढं प्रौढं दरिद्रं धनपतिमधर्म मानवं मानवन्त दुष्टं शिष्ट च दुःखान्धितमपि सुखिनं दुर्मदं धर्मशीलं ।
कुर्वन् सामन्तभद्रचरितमनुसरन्नम्र सामन्तभद्रं । (चतुर्थमुख) तन्वन् श्रीचारुकीत्ति जगति विजयते चन्द्रिका-चारु
__ कीत्तिः ॥५॥ रे रे चार्वाक गर्व परिहर बिरुदालिं पुरैव प्रमुञ्च साख्यासङ ख्येय-राजत्परिकर-निकरादाप्तघट्टोऽसि
भट्ट। पून काणाद तून त्यज निजमनिशं मानमापन्निदानं हिंसन्पुंसोऽभिशंस्यो ब्रजतियदपरान्वादिनःसिहणार्यः
॥५॥ तत्पण्डिताङ घ्रानुरता तदिलादिनाथी
सम्यक्तबोध-चरणोन्नतदाननिष्ठौ,
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२०६ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख जातावुभौ हरियणो हरिणाङ्कचारु
- ऑणिक्कदेवइतिचार्जुनदेवकल्पः ॥५॥ धन्या मन्ये न सन्यासपरमविधिना नेतुमेव स्वयं स्वं धर्म कारिमर्मच्छिदमुरुसुखदं दुर्लभं वल्लभं च । शान्ताश्शान्तेन्निशान्तीकृत-सकल जनाः सूक्तिपीयूषपूरैस्तेऽमी सर्वेऽस्तदेहास्सुरपदमगमन्ध्यात-जैनेन्द्र-पादाः ॥६॥ तत्र त्रयोदशशतैश्च दशद्वयेन
शाकऽब्दके परिमितेऽभवदीश्वराख्ये। माघे चतुर्दशतिथौ सितभाजिवारे
स्वाती शनेस्सुरपदं पुरु पण्डितस्य ॥६१॥ प्रासीदथाभिनवपण्डितदेवसरि
राशाननाच्छमुकुरीकृत कीर्तिरेषः । शिष्ये निधायनिजधर्मधुरीणभाव
यत्रात्मसंस्कृतिपदेऽजनि पण्डिता>ः ॥६२॥ तथ्य मिथ्या-कदम्बं सततमपि विधित्सुळथा ताम्यसीदं तत्त्वं ताथागतत्वं तरलजनशिरोरत्नतावत्प्रधाव । जीवं भद्राणि पश्यत्युरुजगदुदितात्त्यक्तवादाभिलाषा यस्माद्भस्मीकरात्यग्निरिव भुवितरून्वादिनः पण्डितायः
॥६३॥ संसारापारवाराकर-धर-लहरी-तुल्य-शल्योत्थ-देहव्यूहे मुह्यजनानामसुखजलचरैरद्दि तानाममीषां ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २०७ पोतो नीतो विनीतोऽद्भुतततिगतवन्नव्यभव्याचि ताङीघ्रभद्रोनिद्रस्सुमुद्रस्सततमभिनवोराजते पण्डिताय्यः॥६४॥ प्रयमथ गुरुभक्तयाकारयत्तन्निषद्यामपरगणिभिरुच्च गहिभिस्तैस्सहैव । शुभ-दिन-सुमुहूर्ते पूरितोद्घाखिलाश युगपदखिलवाद्यध्वानरत्नप्रदानः ॥६५।। इत्यात्मशक्तया निजमुक्तयेऽह द्वासोदितं शासनमेतदुर्व्या । शास्त्रोधकर्तृ-त्रयशंसनाङ्गमाचन्द्रतारा-रविमेरु जीयात्।। ६६ ।।
१०६ (२५५) उपर्युक्त लेख के नीचे
( शक सं० १३३१) श्रीमत्कर्नाटदेशे जयति पुरवर गङ्गवत्याख्यमेतत् सदानोपवासव्रतरुचिरभवत्तत्र माणिक्यदेवः । बाचायी धर्मपत्नी गुणगणवसतिस्तस्य सूनुस्तयोश्च श्रीमान्मायएननामाजनि गुणमणिभाक् चन्द्रकीतैश्च
शिष्यः ॥ १॥ सम्यक्तचूड़ामणियेनिसिद प्राभव्योत्तमनु स्वस्ति श्री शक वरुष १३३१ नेय विरोधिसंवत्सरद चैत्र ब ५ गु श्री गुम्मटनाथन मध्याह्नद अष्टविधार्चना निमित्तवागि बेलुगुलद गङ्गसमुद्रद करेय केलगे दानशालेय गद्दे ख २ गवनू बेलुगुलद माणिक्यनखरद हरियगौडन मग गुम्मटदेव माणिक्यदेवन
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
मग बोम्मन्ननोलगाद गौडुगल समक्षदलि देवरिगे पादपूजेय माडि क्रयवागि कोण्डुकोट्ट असाधारण वहन्त कीर्त्तियन् पुण्यवनू उपार्जिसि कोण्डनु मङ्गलमहा श्री श्री श्री ॥
[ कर्नाट देश की गङ्गवती नामक नगरी में माणिक्यदेव और उनकी भार्या बाचायि रहते थे। इनके मायण्ण नामक पुत्र हुआ जो चन्द्रकीर्त्ति का शिष्य था । मायण्य ने उक्त तिथि को बेल्गुल के गङ्गसमुद्र नामक सरोवर की दो खण्डुग भूमि खरीद कर उसे गोम्मट स्वामी के अष्टविध पूजन के लिये बेल्गुल के कई पुरुषों के समक्ष दात की। ] १०७ (२५६)
उपयुक्त लेख के नीचे ( लगभग शक सं० ११०३ )
शीलदि चन्द्रमौलिविभुवाचलदेवि निजोद्वकान्तेयालोलमृगाक्षि बेल्गुलद गुम्मटनाथन पाददचर्चा लगे बेडे बेक्कन शीमेयनित्तनुदारवीरबल्लाल - नृपाल कनुर्व्वियुमब्धियुमुल्लिनमेय्दे सल्विनं ॥ १ ॥ अन्तु धापूर्वक माडिकोटन्त ग्रामसीमे । मूड होनेनहल्लि तेङ्क बस्तिहल्लि देवरहल्लि पडुव चौलेनहल्लि हाडोनहल्लि ( पूर्व मुख के नीचे )
बडग मञ्चेनहल्लिय बिट्ट कोट ग्रामौ आचन्द्रार्कस्थायियागि सलुगे मङ्गलमहा श्री श्री श्री ॥
[ चन्द्रमौलि की पली आचल देवी की प्रार्थना पर वीरबलाल नृप ने 'बेक्क' नामक ग्राम का दान गोम्मटनाथ के पूजन के हेतु किया । लेख में ग्राम की सीमा दी हुई है ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २०६ नोट-आचल देवी के अन्य अनेक दानों का उल्लेख शक सं० ११०३ के लेख नं० १२४ (३२७) में है। अतएव प्रस्तुत लेख का समय भी शक सं० ११०३ के लगभग होना चाहिये। पर आश्चर्य यह है कि यह लेख इससे बहुत पीछे के दो लेखों ( नं. १० और १०६ ) के नीचे खुदा हुआ है। लिपि भी इसकी उतनी पुरानी प्रतीत नहीं होती। सम्भव है कि किसी प्राधार पर लेख पीछे से ही लिखा गया हो।
१०८ (२५८) सिद्धरबस्ती में दक्षिण ओर एक स्तम्भ पर
(शक सं० १३५५ ) (प्रथममुख)
श्री जयत्यजय्यमाहात्म्य विशासितकुशासनं । शासनं जैनमुद्भासि मुक्तिलक्ष्म्यैकशासनं ॥१॥ अपरिमितसुखमनल्पावगममय प्रबलबल हृतातङ्क ! निखिलावलोकविभवं प्रसरतु हृदये पर ज्योतिः ॥ २॥ उद्दीप्ताखिलरत्नमुद्ध तजडं नानानयान्तह सस्यात्कारसुधाभिलिप्ति जनिभृत्कारुण्यकूपच्छित । प्रारोप्य श्रुतयानपात्रममृतद्वोपं नयन्तः परानेते तीर्थकृतो मदीयहृदये मध्येभवाब्ध्यासतां ।।३।। तत्राभवत् त्रिभुवनप्रभुरिद्धवृद्धि:
श्रीवर्द्धमानमुनिरन्तिम-तीर्थनाथः । यद्देहदीप्तिरपि सन्निहिताखिलानां
पूर्वोत्तराश्रितभवान् विशदीचकार ॥४॥
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२१० विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख तस्याभवञ्चरमचिजगदीश्वरस्य
यो यौव्वराज्यपदसंश्रयतः प्रभूतः । श्रीगौतमोगणपतिर्भगवान्वरिष्ठः
श्रेष्ठ रनुष्ठितनुतिर्मुनिभिस्स जीयात् ।। ५ ॥ तदन्वये शुद्धिमति प्रतीते समग्रशीलामलरत्नजाले । अभूद्यतीन्द्रो भुवि भद्रबाहुः पयःपयोधाविव पूर्न
चन्द्रः ॥ ६॥ भद्रबाहुरग्रिमः समग्रबुद्धिसम्पदा
शुद्धसिद्धशासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दर। इद्धवृत्तसिद्धिरत्र बद्धकर्मभित्तपो
वृद्धिवर्द्धितपकीतिरुद्दधे महद्धिकः ।। ७ ।। यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्वश्रु तार्थप्रतिपादनेन ॥ ८॥ तदीय-शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः । विवेश यत्तीव्रतपःप्रभाव-प्रभूत-कीर्तिर्भुवनान्तराणि ॥ ६॥ तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्स कुण्डकुन्दोदित-चण्ड
दण्डः ॥ १० ॥ प्रभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृत येन जिनप्रणीत शास्त्रार्थजात मुनिपुङ्गवेन ॥११॥ स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृद्धपक्षान् ।
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२५१
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्ध
पिञ्च्छं ।। १२ ॥ तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो बलाकपिञ्च्छः स तपो
महर्द्धिः । यदङ्गसंस्पर्शनमात्रतोऽपि वायुर्विषादीनमृतीचकार ॥ १३ ॥ समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्नीचकार प्रतिवादिशेलान् ॥१४॥ श्री पूज्यपादो धृतधर्मराज्यस्तता सुराधीश्वर-पूज्य.
पादः। यदीयवैदुष्यगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धतानि ॥१५॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः
कृतकृत्यभावमनुबिभ्रदुच्चकैः । जिनवद्वभूव यदनङ्गचापहृत
सजिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्जितः ॥ १६ ॥ श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधद्धि
र्जीयाद्विदेहजिनदर्शनपृतगात्रः । यत्पादधीत जलसंस्पर्शःप्रभावा
कालायसं किल तदा कनकीचकार ।। १७ ।। ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
___ मग्रेसरोऽभूदकलङ्कसूरिः। मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलाया:
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः ।। १८ ॥
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२१२ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षी दिवःपतीन्नर्तुमिव प्रकृष्टान् । तदन्वयोद्भूतमुनीश्वराणां बभूवुरित्थं भुवि सङ्घभेदाः ॥१६॥ स योगिसङ्घश्चतुरः प्रभेदानासाद्य भूयानविरुद्धवृत्तान् । बभावयं श्रीभगवान जिनेन्द्रश्चतुम्मुखानीव मिथस्समानि ॥२०॥ देव-नन्दि-सिंह-सेन-सङ्घभेदवर्त्तिनां
देशभेदतः प्रबोधभाजि देवयोगिनां । वृत्ततस्लमस्ततोऽविरुद्धधर्मसंविना
मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दिसड इत्यभूत् ॥ २१ ॥ नन्दिसङ्घ सदेशीयगणे गच्छे च पुस्तके। इंगुलेशवलिर्जीयान्मङ्गलीकृतभूतलः ।। २२ ॥ तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रिय
स्सिद्धशासनबर्द्धनप्रतिलब्ध-कीर्तिकलापकः । विश्रुत-श्रुतकीर्ति-भट्टारकयतिस्समजायत
प्रस्फुरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिलहत्तमाः ।। २३ ॥ कृत्वा विनेयान्कृतकृत्यवृत्तीनिधाय तेषु श्रुतभारमुच्चैः ।
स्वदेहभारं च भुवि प्रशान्तस्समाधिभेदन दिवं स भेजे ॥२४॥ (द्वितीयमुख) गते गगनवाससि त्रिदिवमत्र यस्याच्छिता
न वृत्तगुणसंहतिवसति केवलं तद्यशः । यमन्दमदमन्मथप्रणमदुप्रचापाञ्चल
प्रतापहतिकृत्तपश्चरणभेदलब्धं भुवि ।। २५ ।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख श्रीचारुकीर्तिमुनिरप्रतिमप्रभाव
स्तस्मादभून्निजयशोधवलीकृताशः । यस्याभवत्तपसि निष्ठुरतापशान्ति
श्चित्त गुणे च गुरुता कृशता शरीरे ।। २६ ।। यस्तपोवल्लिभिर्वेल्लिताघद्रुमो
वर्त्तयामास सारत्रयं भूतले । युक्तिशास्त्रादिकं च प्रकृष्टाशय
शब्दविद्याम्बुधेवृद्धिकृञ्चन्द्रमाः ॥ २७ ।। यस्य यागीशिन: पादयोस्सर्वदा
सङ्गिनीमिन्दिरा पश्यतश्शाङ्गिणः ।। चिन्तयेवाभवत्कृष्णता वर्मण:
सान्यथा नीलता किं भवेत्तत्तनाः ॥ २८ ॥ येषां शरीराश्रयतोऽपि वातो रुजः प्रशान्तिं विततान तेषां । बल्लालराजास्थितरोगशान्तिरासीस्किलैतत्किमु
भेषजेन ।। २६ ॥ मुनिर्मनीषा-बलता विचारितं समाधिभेदं समवाप्य सत्तमः । विहाय देहं विविधापदां पदं विवेश दिव्य वपुरिद्ध
वैभवं ॥ ३० ॥ अस्तमायाति तस्मिन्कृतिनि यर्य
मिण नाभविष्यत्तदा पण्डितयति. स्सोमः वस्तुमिथ्यातमस्तामपिहितं
सर्वमुत्तमरित्यय वक्तृभिरूपाघोषि ॥ ३१ ॥
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२१४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
विबुधजनपालकं कुबुध-मत-हारकं । विजितसकलेन्द्रिय भजत तमलं बुधाः ॥ ३२ ॥ धवल-सरोवर-नगर-जिनास्पदमसदृशमाकृततदुरु
तपोमहः ।। ३३ ।। यत्पादद्वयमेव भूपतिततिश्चक्रे शिरोभूषणं यद्वाक्यामृतमेव कोविदकुलं पीत्वा जिजीवानिशं । यत्कीर्त्या विमलं बभूव भुवनं रत्नाकरणावृतं यद्विद्या विशदीचकार भुवने शास्त्रार्थजातं महत् ॥ ३४ ॥ कृत्वा तपस्तीब्रमनल्पमेधास्सम्पाद्य पुण्यान्यनुपप्लुतानि । तेषां फलस्यानुभवाय दत्तचेता इवाप त्रिदिवंस योगी ॥३५॥ तस्मिन्जातो भूग्नि सिद्धान्तयोगी
प्रोद्यद्वाचा वर्धयन सिद्धशास्त्रं । । शुद्ध व्याग्नि द्वादशात्मा करौघे
यद्वत्पद्मव्यूहमुन्निद्रयन्स्वैः ।। ३६ ।। दुर्वायु क्त शास्त्रजातं विवेकी वाचानेकान्तार्थसम्भूतया यः । इन्द्रोऽशन्या मेघजालोत्थया भूवृद्धा भूभृत्संहति वा
बिभेद ।। ३७ ।। यद्वत्पदाम्बुजनतावनिपालमौलि
रत्नांशवोऽनिशममुं विदधुः नरागं । तद्वन्न वस्तु न वधून च वस्त्रजातं
नो यौव्वनं न च बलं न च भाग्यमिद्ध ॥ ३८।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २१५ प्रविश्य शास्त्राम्बुधिमेष धीरो जग्राह पूर्व मकलार्थरत्न । परेऽसमर्थास्तदनुप्रवेशादेकैकमेवात्र न सर्वमापुः ॥३॥ सम्पाद्य शिष्यान्स मुनिः प्रसिद्धा
नध्यापयामास कुशाग्रबुद्धीन् । जगत्पवित्रीकरणाय धर्म
प्रवर्तनायाखिल संविदे च ॥ ४० ॥ कृत्वा भक्ति ते गुरोस्सर्वशास्त्रं
नीत्वा वत्स कामधेनुं पयो वा। स्वीकृत्याच्चैस्तत्पिबन्तोऽतिपुष्टाः
शक्तिं स्वेषां ख्यापयामासुरिद्धां ।। ४१ ।। तदीयशिष्येषु विदांवरेषु गुणैरनेकै तमुन्यभिख्यः । रराज शैलेषु समुन्नतेषु स रत्नकूटैरिव मन्दराद्रिः ॥ ४२ ॥ कुलेन शीलेन गुणेन मत्या शास्त्रेण रूपेण च योग्य एषः । विचार्य तं सूरिपदं स नीत्वा कृतक्रिय स्व
गणयाञ्चकार ।। ४३ ।। अथैकदा चिन्तयदित्यनेना: स्थिति समालोक्य निजायुषाऽल्पं । समर्प्य चास्मिन् स्वगणं समर्थे तपश्चरिष्यामि समाधि
योग्य ।। ४४ ॥ विचार्य चैव हृदये गणाग्रणीनिवेदयामास विनेयवान्धवः । मुनिः समाहूय गणाप्रवर्तिनं स्वपुत्रमित्थ श्रुतवृत्त
शालिन ।। ४५॥
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२१६
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
(तृतीयमुख)
मदन्वयादेष समागतोय गणो गुणानां पदमस्य रक्षा त्वयाङ्ग मस्क्रियतामितीष्टं समर्पयामास गणी गणं
स्व ॥ ४६॥ गुरुविरहसमुद्यदु :खदूनं तदीय
मुखमगुरुवचाभिस्स प्रसन्नोचकार । सपदि विमलिताब्द-श्लिष्ट-प्रांसु-प्रतानं
किमधिवसति योषिन्मन्दफूत्कारवातैः ॥ ४७ ॥ कृतिततिहितवृत्तस्सत्वगुप्तिप्रवृत्तो
जितकुमतविशेषश शोषिताशेषदोषः । जितरतिपति-सत्वस्तत्त्व-विद्या प्रभुत्व
स्सुकृतफल-विधेयं सोऽ गद्दिव्यभूयं ।। ४८ ।। गतेऽत्र तत्सरिपदाश्रयोऽयं
__ मुनीश्वरस्सङ्घमवर्द्धयत्तराम् । गुणैश्च शास्त्रैश्चरितैरनिन्दितैः
प्रचिन्तयन्तद्गुरुपादपङ्कजम् ।। ४६ ।। प्रकृत्य कृत्य कृतसङ्घरक्षो विहाय चाकृत्यमनल्पबुद्धिः । प्रवर्द्धयन् धर्ममनिन्दितं तद्गुरूपदेशान् सफलीचकार ।।५०॥ अखण्डयदयं मुनिबिमलवाग्भिरत्युद्धतान् अमन्द-मद-सञ्चरत्कुमत-वादिकोलाहलान् । भ्रमन्नमरभूमिभृद् भ्रमितवारिधिप्रोच्चलत् तरङ्ग-ततिविभ्रम-ग्रहण-चातुरीभिर्भुवि ।। ५१ ।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
२१७
का त्वं कामिनि कथ्यतां श्रुतमुनेः कीर्त्तिः किमागम्यते ब्रह्मन् मत्प्रियसन्निभो भुवि बुधस्सम्मृग्यते सर्व्वतः । नेन्द्रः किं सच गोत्रभिद धनपतिः किं नास्त्यसैौ किन्नर : शेष: कुत्रगतरस च द्विरसनो रुद्रः पशूनां पतिः ।। ५२ ।। वाग्देवताहृदय-रञ्जन - मण्डनानि
मन्दार - पुष्प-मकरन्दर सोपमानि ।
प्रानन्दिताखिल-जनान्यमृतं वमन्ति
कर्णेषु यस्य वचनानि कवीश्वराणां ॥ ५३ ॥
समन्तभद्रोऽप्यसमन्तभद्रः
श्री- पूज्यपादाऽपि न पूज्यपादः । मयूरपिच्छा ऽप्य मयूरपिच्छ
श्चित्रं विरुद्धोऽप्यविरुद्ध एषः ॥ ५४ ॥
एवं जिनेन्द्रोदितधर्ममुचैः प्रभावयन्तं मुनि वंश-दीपिनं । अदृश्यवृत्त्या कलिना प्रयुक्तो वधाय
रोगस्तमवाप
दूतवत् ।। ५५ ।। यथा खलः प्राप्य महानुभावं तमेव पश्चात्कबलीकरोति । तथा शनैस् सोऽयमनुप्रविश्य व पूर्व्वबाधे प्रतिबद्धवीर्यः ||५६ || अङ्गान्यभूवन् सकृशानि यस्य न च व्रतान्यद्भु त-वृत्त-भाजः । प्रकम्पमापद्वपुरिद्वरागान्न चित्तमावस्यक मत्यपूर्व ॥ ५७ ॥ समक्ष मागें रुचिमेष धीरो मुदं च धर्मे हृदये प्रशान्ति समादधे तद्विपरीतकारिण्यस्मिन् प्रसर्पत्यधिदेहमुच्चैः ५८
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२१८ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख अङ्गषु तस्मिन् प्रविज़म्भमाणे
निश्चित्य योगी तदसाध्यरूपतां । ततस्समागत्य निजाग्रजस्य
प्रणम्य पादाववदत् कृताञ्जलि: ।। ५६ ।। देव पण्डितेन्द्र योगिराज धर्मवत्सल
त्वत्पद-प्रसादतस्तमस्तमर्जितं मया । सद्यशः श्रुतं व्रतं तपश्च पुण्यमक्षयं
किं ममात्र वर्तित-क्रियस्य कल्प-काङ्गिणः ॥ ६० ॥ देहता विनात्र कष्टमस्ति किं जगत्तये
तस्य रोग-पीडितस्य वाच्यता न शब्दतः । देय एक योगता वधु-
सिर्जन-क्रमसाधु-वर्ग-सर्व-कृत्य वेदिनां विदांवर ॥ ६१ ॥ विज्ञाप्य कार्य मुनिरित्थमर्थ्य
मुहुम्मुहुर्वारयतो गणीशात् । स्वीकृत्य सल्लेखनमात्मनीनं
समाहिता भावयति स्म भाव्य ।। ६२ ।। उद्यद्-विपत्-तिमि-तिमिडिल-नक्र-चक्र.
प्रोत्तङ्ग-मृत्यमृति-भीम-तरङ्ग-माजि । तीव्राजवजव-पयोनिधि-मध्य-भागे
क्लिनात्यहन्निशमय पतितस्स जन्तुः ।। ६३ ॥ इदं खलु यदङ्गकं गगन-वाससां केवलं
न हेयमसुखास्पद निखिल-देह-भाजामपि ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
प्रतोऽस्य मुनयः परं विगमनाय बद्धाशया
यतन्त इह सन्ततं कठिन-काय तापादिभिः ॥ ६४ ॥
अयं विषयसञ्चयो विषमशेषदोषास्पदं
स्पृशज्जनिजुषामहो बहुभवेषु सम्मोहकृत् ।
अतः खलु विवेकिनस्तमपहाय सर्व्वं सहा
विशन्ति पदमक्षय विविध - कर्म्म हान्युत्थितं ॥ ६५ ॥
( चतुर्थ मुख )
उद्दीप्त-दुःख - शिखि सङ्गतिमङ्गयष्टिं तीव्राजवञ्जव-तपातप-ताप-तप्तां ।
स्रक चन्दनादि विषयामिष-तैल-सिक्तां
को वावलम्ब्य भुवि सञ्चरति प्रबुद्धः ॥ ६६ ॥ स्रष्टुः स्त्रीणामेनसां सृष्टितः किं
गात्रस्याधोभूमिसृष्ट्वा च किं स्यात् ।
पुत्रादीनां शत्रु कार्य किमर्त्य
सृष्टेरित्थं व्यर्थता धातुरासीत् ॥ ६७ ॥
इदं हि बाल्य बहु - दुःख - बीजमिय' वयश्रीर्धन - राग-दाहा । स वृद्धभावोऽमर्षास्त्रशाला
दर्शयमङ्गस्य विपत्फला हि ॥ ६८ ॥
२१-६
लब्धं मया प्राकूतन जन्म पुण्यात् सुजन्म सद्गात्रमपूर्व्वबुद्धि: ।
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२२०
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख सदाश्रयः श्रीजिन-धर्मसेवा
ततो विना मा च परः कृती क: ।। ६६ ।। इत्थं विभाव्य सकलं भुवन-स्वरूपं
योगी विनश्वरमिति प्रशमं दधानः । अर्द्धावमीलितहगस्खलितान्तरङ्गः
पश्यन् स्वरूपमिति सोऽवहितः समाधै। ।। ७० ॥ हृदय-कमल-मध्ये सैद्धमाधाय रूपं
प्रसरदमृतकल्पमूलमन्त्रैः प्रसिञ्चन् । मुनि-परिषदुदीन-स्तात्र-घोषैस्सहैव
श्रु तमुनिरयमङ्ग स्वं विहाय प्रशान्तः ।। ७१ ।। अगमदमृतकल्पं कल्पमल्पीकृतैना
विगलितपरिमोहस्तत्र भोगाङ्गकेषु ।। विनमदमर-कान्तानन्द-बाष्पाम्बु-धारा
पतन-हृत-रजोऽन्तर्दाम-सोपानरम्य ।। ७२ ।। यता याते तस्मिन् जगद जनि शून्य जनिभृतां
मना-मोह-ध्वान्तगत-बलमपूर्यप्रतिहत । व्यदीप्युद्यच्छोको नयन-जल-मुष्ण विरचयन्
वियोगः किं कुर्य्यादिह न महतां दुस्सहतरः ॥ ७३ ।। पादा यस्य महामुनेरपि न कैर्भूभृच्छिरोभिता
वृत्तं सन्न विदांवरस्य हृदय जग्राह कस्यामलं । सोऽय श्रीमुनि-भानुमान विधि-वशादस्त प्रयाता महान् __ यूय तद्विधिमेव हन्त तपसा हन्तु यतध्वं बुधाः ॥७४।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २२१ यत्र प्रयान्ति परलोकमनिन्द्यवृत्ता
स्स्थानस्य तस्य परिपूजनमेव तेषां । इज्या भवेदिति कृताकृतपुण्यराशेः
स्थेयादियौं श्रुतमुनेस्सुचिर निषद्या ।। ७५ ।। इशु-शर-शिखि-विधु मित-शक
परिधावि-शरद्वितीयगाषाढ़े सित-नवमि-विधु-दिनोदयजुषि
__ सविशाखे प्रतिष्ठितेयमिह ।। ७६ ॥ विलीन-सकल-क्रिय विगत-रोधमत्यूजित
विलचित-तमस्तुला-विरहित विमुक्ताशय । अवाङ -मनस-गोचर विजित-लोक-शक्त्यग्रिम
मदोय-हृदयेऽनिश वसतु धाम दिव्य महत् ।। ७७ ।। प्रबन्ध-ध्वनि-सम्बन्धात्सद्रागात्पादन-क्षमा । मङ्गराज-कबेवाणी वाणी-वीणायतेतरां ।। ७८ ॥
[ नोट-मंगराज कवि-कृत यह श्रुतमुनि की प्रशस्ति ऐतिहासिक उपयोगिता के अतिरिक्त अपने काव्य-सौन्दर्य में भी अनुपम है।
१०६ (२८१) त्यागदब्रह्मदेवस्तम्भ पर
(लगभग शक सं० ६५०) (उत्तर मुख)
ब्रह्म-क्षत्र-कुलोदयाचल-शिरोभूषामणिर्भानुमान ब्रह्म-क्षत्रकुलाब्धि-वर्द्धन-यशो-रोचिस्सुधा-दीधितिः ।
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२२२ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
ब्रह्म-क्षत्र-कुलाकराचल-भव-श्री-हार-वल्लीमणिः ब्रह्म-क्षत्र-कुलाग्निचण्डपवनश्चावुण्डराजा जनि ॥ १ ॥ कल्पान्त-जुभिताब्धि-भीषण-बलं पातालमल्लानुजम् जेतुं वज्विलदेवमुद्यतभुजस्यन्द्र-क्षितीन्द्राज्ञया । पत्युश्श्रीजगदेकवीर नृपतंजैत्र-द्विपस्याग्रता धावहन्तिनि यत्र भग्नमहितानीकं मृगानीकवत् ।। २ ।। अस्मिन् दन्तिनि दन्त-वज्र-दलित-विट -कुम्भि-कुम्भोपले वरात्तंस पुरानिषादिनि रिपु-व्यालाशे च त्वयि । स्यात्कोनाम न गोचरप्रतिनृपो मबाण-कृष्णारगप्रासस्येति नालम्बराजसमरे य: श्लाघितः स्वामिना ॥३॥ खात:तार-पयोधिरस्तु परिधिश्चास्तु त्रिकूटर पुरी लङ्कास्तु प्रति नायकोऽस्तु च सुरारातिस्तथापि क्षमे । त जेतुं जगदेकवीर-नृपते त्वत्तेजसेतिक्षणान्नियूंट रणसिङ्ग-पार्थिव-रणे येनोर्जित गर्जितम् ॥४॥ वीरस्यास्य रणेषु भूरिषु वय कण्ठग्रहोत्कण्ठया तप्तास्सम्प्रति लब्ध-निवृतिरसास्त्वत्खड्ग-धाराम्भसा। कल्पान्तरणरङ्गसिङ्ग-विजयी जीवेति नाकाङ्गना गीर्वाणी-कृत-राज-गन्ध-करिणे यस्मै वितीर्णाशिषः॥ ५ ॥ प्राक्रष्टु भुज-विक्रमादभिलषन् गङ्गाधिराज्य श्रियं येनादा चलदक-गङ्गनृपतिर्व्याभिलाषीकृतः । कृत्वा वीर कपाल-रत्न-चषके वीर-द्विषश्शाणितम् पातु कौटुकिनश्च काणप-गणा:
पूर्नाभिलाषीकृताः ॥६॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २२३ [नोट- केवल यही एक लेख है जिसमें चामुण्डराय मंत्री का स्वतन्त्र और विस्तृत रूप से वर्णन पाया जाता है। दुर्भाग्यवश यह लेख का एक खण्ड मात्र है। ज्ञात होता है कि अपना एक छोटा सा लेख नं० ११० (२८२) लिखाने के लिये हेगडे कण्णाने इस महत्त्वपूर्ण लेख की तीन बाजू घिसवा डाली है। यदि यह लेख पूरा मिल जाता तो सम्भव है कि उससे चामुण्डराय और गोम्मटेश्वर मूति के सम्बन्ध की अनेक बातें विदित हो जाती जिनके विषय में अब केवल अनेक अनुमान ही लगाये जाते हैं।
११०. ( २८२)
उसी स्तम्भ पर
। लगभग शक सं० ११२२.) ( दक्षिणमुख)
श्री-गोम्मट-जिन-पायद चागद कम्बक्के यक्षनं माडिसिदं। धीगम्भीरगुणाढ्य भोग-पुरन्दरनेनिप्प हेगडे करणं ॥
[गम्भीर बुद्धि और गुणवान् हेगडे कण्ण ने गोम्मट जिन के सन्मुख त्यागद स्तम्भ के लिये यक्ष देवता निर्माण कराया । ]
१११ (२७४) अखण्ड बागिलु के पूर्व की ओर चट्टान पर
(शक सं०.१२६५) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १॥
श्रीमूल-सङ्घपयःपयोधिवर्द्धनसुधाकराःोबलात्कारगणकमल-कलिका-कलाप-विकचन-दिवाकरा:...बनवा..तकीर्ति
१५
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२२४ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख देवाःतत्शिष्याः राय-भुजसुदाम......प्राचार्य महा-वादिवादीश्वर राय-वादि-पितामह सकल-विद्वजन-चक्रवत्ति देवेन्द्रविशाल-कीर्ति देवाःतत्शिष्या:भट्टारक-श्रीशुभकीर्तिदेवास्त शिष्या: कलिकाल-सर्वज्ञ-भट्टारक-धम्मभूषणदेवाः तशिष्याः श्री-अमरकीाचार्या: तशिष्याः मालिर्वा...ति-नृपाणां प्रथमानल ............रसित...नुत-पा.............यमुल्लासक ......देमक...चार्य्यपट्टविपुलायाचला ... करण-मार्तण्डमण्डलानां भट्टारक-धम्मभूषण-देवानां.. ...तत्वार्थ-वार्द्धिवर्तमान-हिमांशुना...वर्द्धमान-स्वामिना कारिताऽहं प्राचायाणां...स्वस्तिशक-वर्ष १२८५ परिधावि संवत्सर वैशाख-शुद्ध ३ बुधवारे॥
११२ ( २७३) उसी चट्टान पर
( लगभग शक सं० १३२२ ) श्री शान्तिकीर्तिदेवर शिष्यरु हेमचन्द्र-कीर्ति-देवर निसिद्धि ॥ मङ्गलमहाश्री॥
११३ (२६८)
उसी चट्टान पर
( सम्भवतः शक सं० १०६६) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥१॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
स्वस्ति समधिगत पश्च मद्दा-शब्द महा-मण्डलाचार्य्यादिप्रशस्तय- विराजित - चिह्नालङ्कृतरुं विसम्बोधावबोधितरुं सकल - विमल - केवल-ज्ञान- नेत्र-त्रयरु प्रनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य्य. सुखात्मकरु विदितात्म-सद्धम्र्मोद्धार करु एकत्व - भावना - भावितात्मरु उभ-नय- समर्थिसखरु त्रिदण्ड-रहितरु त्रिशल्य - निराकृतरु चतु कषा-विनाशकरुं चतुर्व्विधावुपसर्ग गिरिकन्दरादि- दैरेयसमन्वितरु ं पञ्च-दस-प्रमाद - विनास कत्तु 'गलुं पञ्चाचारवीय्याचार - प्रवीणरु सडुदरुशनद भेदाभेदिगलुं सटु-कर्म सार सप्तनयनिरतरु अष्टाङ्ग - निमित्त कुशलरु अष्ट-विध- ज्ञानाचारसम्पन्नरुं नव-विध-ब्रह्मचरिय-विनिर्मुक्तरुं दश-धर्म-शर्म-शान्तरु मेकादशश्रावकाचारखुपदेशव्रताचार - चारित्ररु
द्वादशातपनिरतरु द्वादशाङ्ग - श्रुतप्रविधान- सुधाकररुं त्रयोदशाचार-शीलगुण-धैर्यमं सम्पन्नरुं एम्बत- नालकु-लक्ष- जीव-भेद-प्राणरुं सर्व्वजीव- दया- पररु श्रीमत्काण्डकुन्दान्वय-गगन-मार्त्तण्डरु विदितातण्ड - कुष्ममाण्डरु देशिगण-गजेन्द्र-सिन्धूरमदधारावभासुररु श्री महादेश -गण-पुस्तक- गच्छ काण्ड-कुन्दान्वय श्रीमत् त्रिभुवनराज गुरु-श्रीभानुचन्द्र- सिद्धान्त- चक्रवर्त्तिगलुं श्रीसामचन्द्र- सिद्धान्त चक्रवर्त्तिगलं चतुर्मुखभट्टारक देवरु श्री सिंहनन्दिभट्टाचार्य्यरु श्री शान्तिभट्टारकाचार्य श्रीशान्तिकीर्त्ति... र... भट्टारकदेवरुं... श्रीकनकचन्द्रमलधारिदेवरु श्री नेमिचन्द्र मलधारिदेवरु चतुसङ्घ श्रीस फलगण-साधारण................ ड- देवधामरु कलियुग - गणधर - पश्चासत
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
मुनीन्द्ररुं अवर शिष्यरु गौरश्रीकन्तियरु सामश्रीकन्तियरु ... नश्रीकन्तियरु देवश्रीकन्तियरुं कनक- श्रीकन्तियर शिष्य... यिप्पत्त-एण्टुतण्ड - शिष्यरु वेरसु हेबणन्दि संवत्स रद फाल्गुणसुत्र श्री गोम्मटदेवर तीर्थनन्द... पञ्च
कल्याण
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[ इस लेख में कुन्दकुन्दान्वय, देशी गण, पुस्तकगच्छ के महाप्रभावी श्राचार्यों - त्रिभुवनराजगुरु भानुचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्त्ति, सोमचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्त्ति, चतुर्मुख भट्टारकदेव सिंहनन्दि भट्टाचार्य, शान्ति भट्टारकाचार्य, शान्तिकीर्त्ति भट्टारकदेव, कनकचन्द्र मलधारिदेव, और नेमिचन्द्र मलधारिदेव -- के उल्लेख के पश्चात् कहा गया है कि इन सब श्राचाय्य व अनेक गणों और संघों के श्राचार्य, कलियुग के गणधर पचास मुनीन्द्र, व उनकी शिष्यायों गौरश्री, सामश्री, देवश्री, कनकश्री व शिष्यों के अट्ठाइस संघों ने उक्त तिथि को एकत्रित होकर पञ्चकल्याणोत्सव मनाया । ]
नोट - लेख में संवत्सर का नाम हैबणन्दि दिया हुआ है जिससे सम्भवत: हेमलम्ब का तात्पर्य है । शक सं० १०६६ हेमलम्ब था । ] ११४ (२६८ )
एक शिला पर जो उस चट्टान के सामने खड़ी है ( सम्भवतः शक सं० १२३८ )
........
स्वस्ति श्रीमूल सङ्घदेशीगण पुस्तकगच्छ- काण्डकुन्दान्वय श्री विद्य-देवर शिष्यरु पद्मणन्दिदेवरु नल- स ंवत्सरद चैत्र-सु-१ सोमवार दन्दु नाक- श्रीमनस्सरोजिनीराजमरालरादरु मङ्गलमहाश्री ॥
[ उक्त तिथि को त्रैविद्यदेव के शिष्य पद्मनन्दिदेव ने समाधिमरण किया । ]
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
२२७
[ नोट -- लेख में नल संवत्सर का उल्लेख है । शक सं० १२३८ नल था ]
११५ (२६७ )
अखण्ड बागिलु की शिला पर
( लगभग शक सं० १०८२ )
स्वस्ति श्रीमन्महाप्रधान भव्य-जन- निधानं सेनेयङ्ककार रण-रङ्ग-नीर श्रीमन्मरियाने दण्डनाथानुजं दानभानुजनेनिसिद भरतमय्य-दण्डनायकनी - भरत बाहुबलि केव लिगल प्रतिमेगलुमनी - बस दिलुमातीर्थ-द्वार पक्ष -शोभात् माडिसिदनी - रङ्गद हप्पलिगेयुमनी महा सोपानपङ्कियुमं रचिसिदं श्रीगोम्मटदेवर सुत्तलु रङ्गम-हप्पलिगेयं बिगियिसिदनन्तुमल्ल देयुमी-गङ्गवाडिनाडोलल्लिगल्लिगेल्लि नोप्पड |
कन्द ॥ प्रकट-यशो - विभुवेण्ब
कन्ने- सदिगल नासेदु जीर्नोद्धार
♡
प्रकरम निन्नूर नल
किक- धृति माडिसिदने सेये भरत चमूपं ॥ १ ॥
भरत चमूपतिसुते सु
स्थिरे शान्तल - देवि बूचिराजाङ्गने तद्वरतनेयं मरि......
...नो सदु बरयिसिदनिदं ॥ २ ॥
[ मरियणे दण्डनाथ के लघु भ्राता महामंत्री भरतमय्य दण्डनायक ने ये भरत और बाहुबलि केवलि की मूर्तियां व ये बस्तियां इस तीर्थ -
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२२८
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
स्थान के द्वार की शोभा के लिये निर्माण कराई। उन्होंने रङ्गशाला की हप्पलिगे ( कटघर ? ) व महासोपान व गोम्मटदेव की रङ्गशाला की हप्पलिगे भी निर्माण कराये, तथा गङ्गवाडिभट में अस्सी नवीन बस्तियाँ बनवाई और दो सौ बस्तियों का जीर्णोद्वार कराया । भरत चमूपति की सुता शान्तल देवी 'ने यह लेख लिखवाया । ] ११६ ( ३१२ )
बागल बस्ति के पश्चिम की ओर चट्टान पर ( शक सं० १६०२ )
श्रीमतु शालिवाहन शकवरुष १६०२ सिद्धार्थ- संवत्सरद माघ- बहुल १० यल्लु मुनिगुन्दद सीमेय देश-कुलकरणियर मकलुवाङ्क होन्नप्पय्यन अनुज वेङ्कप्पैय्यन पुत्र सिद्दप्पैन अनुज नागप्पैय्यन पुण्यस्त्रीयराद बनदाम्बिकेयरु बन्दु दरुशनवादरु भद्रं भूयात् श्री ।। श्रुतसागर व निगल समेत विदे तिथियति माडिगूर गिडगप्प नागप्पन पुत्र दानप्पसेट्टर पुण्य-स्त्री. नागवन मैदुन भिष्टष्पनु दरुशनवादरु ||
[ उक्त तिथि को श्रुतसागर गणी के साथ उक्त व्यक्तियों ने तीर्थ वंदना की ।
११७ (२५८ ) कञ्च गुबि बागिलु के दक्षिण की ओर चट्टान पर ( सम्भवत: शक सं० १५३१ )
श्री सौम्यस वत्सरदालु विभवद आश्वयज ब ७ मियोलु तां श्री सोमनाथपुर वेनिसिद कोङ्गनाडिङ्गदं अनादिय ग्रामं ॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
२२६
- प्रामदल श्रीमत्पण्डित देवर शिष्यरु काश्यप गोत्रद द्विजकुल सम्पन्नरु सेनबोव सायन्ननवरु अवर मदवलिगे महदेविगल्ल प्रिय पुत्र हिरियण्ननू श्री गुम्मटनाथ - स्वामिगल दिव्य-श्रीपदवनू दरुशनवागि परमजिनेश्वर भक्तरु वर- गुणिगलु मुक्ति-पथवं पडदरू || श्री
[ कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण और पण्डित देव के शिष्य सेनबाव सायण्ण के पुत्र जिनभक्त हिरियण्ण ने उक्त तिथि को अनादि ग्राम कोङ्गनाडु की गणना की (?) और उसकी पत्नी महादेवी ने गोम्मटनाथ स्वामी के चरणारविंद की वन्दना कर मुक्ति-मार्ग प्राप्त किया । ]
[ नोट - लेख में सौम्य संवत्सर का उल्लेख है । १५३१ सौम्य था |
११८ (३१३)
चौबीस तीर्थंकर बस्ति में
( शक सं० १५७० )
(नागरी लिपि)
वों नम सिद्धेभ्यः गोमट - स्वामी: आदीश्वरः मुल्लनाईक : चोबीस तीर्थंकरं कि परतीमा: चारुकीरती पण्डितः धरमचन्द्रः बल्लातकार उपदसा: सके १५७० सर्वधारी - नाम- स वत्सरः वैशाख वदी २ सुकुरबार देहराङ्की पती स्य है... गेरवाल्लः यवरेगोत्र: जीनासा: धीवा सा का पुत्रः सदावनसाः व झाबूसाः व लामासाका पुत्रः ताकासा मनासा: कमुलपूरे सातसा भाससा...... वद.. इ... भोपतरसे राव......
...
शक सं०
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१९८ (२७७) अखण्ड बागिल का जानेवाले मार्ग के पश्चिम की
और चट्टान पर
(विक्रम सं० १७१६) (नागरी लिपि) _ संवत् १७१८ वर्षे वैसाष-सुदि ७ सेमे श्री काष्टा. सङ्घ मण्डितटगच्छे...श्री-राजकीत्तिः । तत्पट्टे भ श्री लक्ष्मीसेनस्तत्पट्टे भ श्री इन्द्रभूषणतत्पर्ट शोसू बघेरवाल जाती बारखज-बाई-पुत्र पं भा धनाई तया पुत्र पं खाम्फल पूजनाई तयो पुत्र पं वन जन पडाई स-परिवारे गोमट-स्वामि चा जात्रा......सफल
- १२० ( ३१८) पहाड़ी पर चढ़ने के मार्ग के पूर्व की ओर चट्टान पर
(लगभग शक सं० ११४०) अरकेरेय वीर वीरपल्लव-रायन मकं केदेसडर-नायक बेल्लुगोल प्घ...येच्च बेलबडिगर बेटके ।।
. १२१ (३२१) 'ब्रह्मदेव मण्डप के पीछे चट्टान पर
( सम्भवत: शक सं० १६०१ ) सिदात्ति स । कात्तिक सुद्ध २ रलु । श्री-ब्रह्म-देवरमटपवन हिरिसालि गिरिगाडना तम्म र.यन से वे ।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख २३१ [ उक्त तिथि को हिरिसालि के गिरिगौड के लघु भ्राता रङ्गैय्य ने ब्रह्मदेव मण्डप को दान दिया ! ]
[नोट-लेख में सिद्धार्थ संवत्सर का उल्लेख है। शक सं० १६०१ सिद्धार्थ था।
१२२ (३२६) पहाड़ी के दक्षिण मूल में चट्टान पर
(लगभग शक सं० ११२२) स्वस्ति प्रसिद्ध-सैद्धान्तिक-चक्रवर्तिगल त्रिविष्टपाबेष्टितकीर्तिगल काण्डकुन्दान्वयगगन-मार्तण्डरुमप्प श्रीमन् नयशीतिसिद्धान्त-चक्रवत्ति गल गुड्डु बम्मदेव-हेग्गडेय मग नागदेव-हेग्गडे नागसमुद्रमेन्दु केरेयं कट्टिसि तोटवनि किसिदडवर शिष्यरु भानुकीर्ति-सिद्धान्त-देवरु प्रभाचन्द्र देवरु भट्टारक-देवरु नेमिचन्द्र-पण्डित-देवरु बालचन्द्र देवर सन्निधियलु नागदेव हेग्गडेगे आ-तोट गद्दे अवरेहाल सर्बबाधा परिहारवागि वर्शक्के गद्याण ४ तेरुवन्तागि मक्कल मक्कलु पर्यन्त कोट्ट शासनार्थवागि श्री-गोम्मट-देवर अष्ट-विधार्चनेगे बिट दत्ति ॥
बम्मदेव हेग्गडे के पुत्र व नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवति के शिष्य नागदेव हेग्गडे ने नागसमुद्र नामक सरोवर और एक उद्यान निर्माण कराये । इन्हें अवरेहालु सहित नयकीति के शिष्य भानुकीति, प्रभाचन्द्र, भट्टारकदेव और नेमिचन्द्र पण्डितदेव ने नागदेव हेगडे को ही इस शत पर दे दिया कि वह सदैव प्रतिवर्ष गोम्मटदेव के अष्टविध पूजन के निमित्त चार गद्याण दिया करे।]
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२३२
विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख
१२३ (३७५)
चेन्नण्णन के
कुञ्ज
( लगभग शक सं० १५-८५ )
पुट्टसामि सट्टर श्री देवीरम्मन मग चेन्नण्णन मण्डूप प्रादि-तीर्त्तद कोलविदु हालु -गोलनोविदु अमूर्त-गोल नोविदु गङ्गे नदियो । तुङ्गबद्रियेोविदु मङ्गला गौरेया विदु रुन्दनवविदु सङ्गार-तोटा । अय प्रयिया अयि अयियेवले ती व ती जया जया जया जय ||
में एक चट्टान पर
[ यह पुट्टप्रामि और देवीरम्म के पुत्र चण्य का मण्डप और श्रादितीर्थ है। यह दुग्धकुण्ड है या कि अमृतकुण्ड ? यह गङ्गा नदी है या तुङ्गभद्रा या मङ्गलगौरी ? यह वृन्दावन है कि विहारोपवन ? ओहो ! क्या ही उत्तम तीर्थ है ? ]
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
१२४ (३२७ )
अक्कन वस्ति में द्वार के समीप एक पाषाण पर ( शक सं० ११०३ )
श्रीमत्परम- गम्भीर - स्याद्वादामोघ लाञ्छनं ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ १ ॥ भद्रम्भूयाज्जिनेन्द्राणां शासनायाघ- नाशिने । कुती - ध्वान्त-सङ्घात-प्रभेद - घन मानवे ।। २ ।। स्वस्ति श्री - जन्म - गेहं निभृत- निरुपमौनलोद्दाम-तेजं विस्तारान्तः कृतोव-तलममलयशश्चन्द्र-सम्भूति-धामं । वस्तु वातोद्भव स्थानक मतिशय सत्वावलम्ब गभीर प्रस्तुत्य नित्यमम्भोनिधि-निभमेसगुं होय सलोर्बीशवंशं ॥ ३ ॥ प्रदरोलु कौस्तुभ दोन्दनग्र्य-गुणमं देवेभदुद्दाम-सत्वदगुर्ब हिमरश्मियुज्वल - कला-सम्पत्तियं पारिजातदुदारत्वद पेम्पनाने नितान्तं ताल्दि तानल्ते पुट्टिदनुद्रेजित वीर-वैरि विनयादित्यावनी पालकं ॥ ४ ॥ कं ॥ विनय बुधरं रञ्जि से
घन-तेजं वैरि-बलमनल रिसे नेगल्दं ।
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२३४ श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
विनयादित्य- नृपालक
ननुगत-नामानमल कीर्त्ति - समर्थ ॥ ५ ॥
प्रा.विनयादित्यन वधु
भावोद्भव-मन्त्र- देवता- सन्निभे सद्
भाव-गुण-भवनमखिल-क
ला-विलसिते केलेयबर सियेम्बलु पेसरिं ॥ ६ ॥
आदम्पति तनूभव
नादं शचिगं सुराधिपतिगं मुन्ने
न्तादं जयन्तनन्ते वि
षाद- विदूरान्तरङ्गनेरेयङ्ग-नृप ं ।। ७ ।। नातं चालुक्य - भूपालन बलद भुजा दण्डमुद्दण्ड- भूपबात-प्रोतुङ्ग भूभृद् - विदलन - कुलिश वन्दि-सस्यौध-मेघं । श्वेताम्भोजात-देव- द्विरदन- शरद श्रेन्दु - कुन्दावदातख्यात - प्रोद्यद्यशश्री धवलितभुवनं धीरनेकाङ्गवीर ॥ ८ ॥ एरेयनेलेगेनिसि नेगल्दि
^
एरेयङ्ग नृपाल - तिलकनङ्गने चलव
ङ्गरेवट्ट, शील-गुणदि
रचलदेवियन्तु नान्तरुमालरे || ८ ||
एने नेगल्दवरिब्वर्ग
तनूभवने॑गल्दरल्ते बल्लाल वि-नृपाल कनुदयादि
त्यनेम् पेसरिन्दम खिल-वसुधा तलदाल ॥ १० ॥
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
२३५ अवरोल मध्यमनागियुं भुवनदोलु पूर्वापराम्भोधिये
रदुविनं कूडे निमिच्र्चुवोन्दु-निज-बाहा-विक्रम-क्रीडेयुद्भवदिन्दुत्तमनादनुत्तम-गुण-ब्रातैक-धामं धराधव-चूडामणि यादवाब्ज-दिनपं श्रीविष्णुभूपालक
॥ ११ ॥ एलेगेसेव कोयतूर्तत्
तलवनपुरमन्ते रायरायपुरं बल्वल बलेद विष्णु-तेजो
___ ज्वलनदे बेन्दवु बलिष्ठ-रिपु-दुर्गङ्गल ॥ १२ ॥ इनितं दुर्गम-वैरि-दुर्ग-चयमं कोण्डं निजापदि
न्दिनिबन्र्भूपरनाजियोल तविसिदं तन्नस्त्र-सङ्घातदिन्दिनिबर्गानतर्गित्तनुद्ध-पदमं कारुण्यदिन्देन्दुता
ननितं लेकदे पेल्वोडब्ज-भवन विभ्रान्तनप्पं बलं ।।१३।। कं ॥ लक्ष्मीदेवि खगाधिप
लक्ष्मङ्ग सेदिई विष्णुगेन्तन्ते वलं । लक्ष्मा-देवि-लसन्मृग
लक्ष्मानने विष्णुगग्रसतियेने नेगल्दल ॥ १४॥ अवगर्गे मनोजनन्ते सुदती-जन-चित्तमनील्कोलल्कसा
ल्ववयव-शोभेयिन्दतनुवेम्बभिधानमनानदङ्गनानिवहमनेच्चु मुय्वनणमानदे बीररनेच्चु युद्धदोल । .
तविसुवोनादनात्म-भवनप्रतिमंनरसिंह-भूभुजं॥१५॥
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२३६ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
पडे-माते बन्दु कण्डङ्गमृत-जलधि तां गर्बदिं गण्डवात . नुडिवातङ्गननेम्बै प्रलय-समयदोल मेरेयं मीरि बर्पाकडलन्नं कालनन्नं मुलिद कुलिकनन्नं युगान्ताग्नियन्नं
सिडिलनं सिंहदन्नं पुरहरनुरिगण्णननीनारसिंह
तदर्भाङ्ग-लक्ष्मि ॥ मृदु-पदेयेचलदेवी--
सुदतिये नरसिंह-नृपतिगनुपमसौख्यप्रदे पट्ट-महादेवी
पदविगे सले योग्येयागि धरेयोल नेगल्दल ।। १७ ।। वृत्त ॥ ललना-लीलेगे मुन्नवेन्तु कुसुमास्त्र पुट्टिदों विष्णुगं
ललित-श्री-वधु-विङ्गवन्ते नरसिहोणिपालङ्गवेचल-देवी-वधुगं परार्थ-चरित पुण्याधिक पुट्टिदों
बलवद्वैरि-कुलान्तकं जय-भुजं बल्लाल-भूपालकं ॥१८॥ रिपु-भूपालेभ-सिंहं रिपु-नृप-नलिनानीक-राका-शशाङ्क रिपु-राजन्यौघ-मेघ-प्रकर-निरसनाद्भुत-बात-प्रपातं । रिपु-धात्रीशाद्रि-वज़ रिपु-नृपति-तमस्स्तोम-विध्वंसनाई रिपु-पृथ्वीपालकालानलनुदयिसिदं वीर-बल्लाल देव॥१६॥ गत-लील लालनालम्बित-बहल-भयोग-ज्वरं-गजरंसन्धृत-शूलं गौलनुच्चैःकर-धृत-विलसत्पल्लवं पल्लव-प्रोझित-चेलं चालनादं कदन-वदन-दोलु भेरियं पोरसेवीराहित-भूभृजाल-कालानलनतुल-बलं वीर-बल्लाल-देव।२०॥
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख २३७ भरदिन्द तन्न दोर्ग+दिनोडेयरसं कायदु कादल्कणं पूण्डिरे बल्लाल-क्षितीशं नडदु बलसियुमुत्तेसेना गजेन्द्रोकर-दन्ताघात-सञ्चूर्णितशिखरदोलुचनियाल्सिल्किदंभासुर-कान्ता-देश-कोश-ब्रज-जनक-हयाघान्वितं पाएज्यभूपं
॥२१॥ चिरकाल रिपुगलासाध्यमेनिसिई चङ्गियं मुत्तिदु
र्द्धर-तेजो-निधि धूलि-गोटेयने कोण्डाकाम-देवावनीश्वरनं सन्दोडेय क्षितीश्वरननाभण्डारमं स्त्रीयर
तुरग-बातमुमं समन्तु पिडिदं बल्लाल-भूपालकं ॥२२॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरं द्वारचतीपुरवराधीश्वरं तुलवबल-जलधि-बडवानलं दायाद-दावानलं पारड्य-कुल-कमलवेदण्ड गण्ड-मेरुण्ड मण्डलिक-बेण्टेकार चौल-कटक-सूरेकार । सङ्ग्राम-भीम । कलि-काल-काम । सकलवन्दि-वृन्द-सन्तर्पण-समग्र-वितरणविनोद । वासन्तिका देवीलब्ध-बर-प्रसाद । यादव-कुलाम्बर-धुमणि । मण्डलिक. मकुट-चूडामणि कदन-प्रचण्ड मलपरोलगण्ड शनिवारसिद्धि गिरि-दुर्ग-मल्ल नामादि-प्रशस्ति-सहित श्रीमत्रिभुवन-मल्ल तलकाडु-काङ्ग-नङ्गलि-नालम्बवाडि-बनवसे-हानुङ्गल-गोण्डभुज-बल-वीर-गङ्ग-प्रताप-हाय्सल वीर-बल्लाल देवईक्षिणमण्डलमं दुष्ट-निग्रह-शिष्ट-प्रतिपालन-पूर्वकं सुखसङ्कथा-विनोददि राज्य गेय्युत्तिरे। तत्पाद-पद्मोपजीवि ॥
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२३८ श्रवण बेल्गोल नगर में कं शिलालेख
तनगाराध्यं हरं विक्रम-भुज-परिघं वीर-बल्लाल-देवावनिपालं स्वामि विभ्राजितविमल-चरित्रोत्करं शम्भु-देव। जनकं शिष्टेष्ट-चिन्तामणि जननि जगत्ख्यातेयकव्वेयेन्दन्दिनिसं श्री-चन्द्रमौलि-प्रभुगे सममे कालेय-मन्त्रीश वर्ग
॥ २३ ॥ पति-भक्तं वर-मन्त्र-शक्ति-युतनिन्द्रङ्गन्तु भास्वद्-बृहस्पति-मन्त्रीश्वरनादनन्ते विलसद्वल्लाल-देवावनीपतिगी-विश्रुत-चन्द्रमौलि-विबुधेशं मन्त्रियाद समुनत-तेजो-निलयं विरोधि-सचिवोन्मत्तेभ-पञ्चाननं ।। २४ ॥ वर-ताम्बुज-भास्करं भरत-शास्त्राम्भोधिचन्द्रं समुद्धर-साहित्य-लतालवालनेसेदं नाना-कला-कोविदं। स्थिर-मन्त्रं द्विज-वंश-शोभितनशेषस्तुत्यनुद्यद्यशं धरेयोल विश्रुत-चन्द्रमौलि-सचिव सौजन्य-जन्मालयं
। ॥ २५ ॥ तदर्धाङ्ग-लक्ष्मि ॥
घन-बाहा-बहलोमि-भासिते मुख-व्याकोश-पङ्केज-मण्डने हनीन-विलासे नाभिविततावrङ्के लावण्य-पावन-वास्तम्भृते चन्द्रमौलिवधुवी श्री प्राचियकं जग- ... जन-संस्तुत्ये कलङ्क-दूरे नुते गङ्गा-देवि तानल्लले ॥ २६ ।।
स्वस्त्यनवरत-विनमदमर-मौलि-माला-मिलित-चलन-नलिनयुगल-भगवदर्हत्परमेश्वर-लात-गन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमाङ्ग युं चतु
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २३६ विधानून-दान-समुत्तुङ्ग युमप्प श्रीमतु हिरिय-हेर्गडितियाचलदेवियन्वयवेन्तेन्दोडे । वरकीर्त्ति-धवलिताशा
द्विरदोघं मासवाडि-नाउ विनूत। परम-श्रावकनमल
धरणियोली-शिवेयनायकं विभुवेसेदं ।। २७ ॥ आतन सतिगे सीताम्बुज
शीतांशु-शरत्पयोद-विशदयशश्श्रीधौत-धरातलेगखिल-वि
नीतेगे चन्दव्वेगबल्लेयर्दोरेयुण्टे ॥ २८ ॥ तत्पुत्र ॥ जिन-पति-पद-सरसीरुह
विनमभृङ्ग समस्त-ललनानङ्ग । विनय-निधि-विश्व-धात्रियोल
अनुपमनी बम्म-देव हेग्गडे नेगल्दं ।। २६ ।। तत्सहोदरं ।। गत-दुरितनमल-चरितं
वितरण-सन्तर्पिताखिलार्थि-प्रकरं । क्षितियोल-बावेय-नायक
नति-धीरं कल्प-वृक्ष गेले वन्दं ॥ ३० ॥ तत्सहोदरि ॥ सरसिरह-वदने घन-कुचे
हरिणाक्षि मदोत्क-कोकिल-स्वने महव
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२४०
श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
करि-पति- गमने तनूदरि
धरेयाल कालव्वे रूपिनागर मादल ॥ ३१ ॥
तत्सहोदरि ॥
धरेयोल रूढिय मासवाडियरसं हेम्माडि- देव गुणाकरना- भूपन चित्त-वल्लभे लसत्सौभाग्ये राङ्गानिशाकर-ताराचल-तार-हार- शरदम्भोदस्फुरत्कीर्त्ति-भासुरेयप्पाचल- देवि विश्व भुवन प्रख्यातिय ताल्दिदलू ||
॥ ३२ ॥
तत्सहोदर ||
वर - विद्वज्जन कल्प-भूजनमलाम्भोरासि गम्भीरनुदूर र-दर्प- प्रतिनायक - प्रकर- तीव्र ध्वान्त-सङ्घात-संहरणार्क शरदभ्रशुभ्रविलसत्कीर्त्यङ्गनावल्लभ
धरेयोल सावण-नायकं नेगल्दनुद्यद्वैर्य-शौय्यीकर ।।
॥ ३३ ॥
कं ॥ गिरिसुतेगे जह्न कन्नेगे
धरणी-सुतेगन्तिमब्बे गनुपम-गुण-दो ।
दोरेयेन लिन्ती सकलो
र्व्वरेयोल बाचव्वे शीलवति सति नेगल्दल ॥३४॥
तत्पुत्रं ॥
परसैन्याहि-विहङ्ग नूर्जितयशस्सङ्ग जिनेन्द्रांघ्रि-पद्म-रज-भृङ्गनुदार-तुङ्गनेसेदं तन्नोप्पुवीसद्गुणो
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख २४१ करदिं देशिय-दण्डनायकनिलाभिष्टार्थसन्दायक
धरेयोल बम्मेय-नायकंनिखिलदीनानाथसन्त्रायकं ॥३५।। तद्वनिते ॥ शतपत्रेक्षणे मल्लिसेट्टि-विभुगं निश्शेष-चारित्र-मा
सितेगी माचवे-सेट्टिकव्वेगवन्नात्मीय-सौन्दर्य-निजित-चित्तोद्भवकान्तेयुद्भविसिदल दोचव्वे सत्कान्ते तार-तुषारांशु-लसद्यशो-धवलिताशा-चक्रेयोधात्रियोल ॥
॥३६॥ बम्मेय-नायकननुज ।। मारं मदनाकार
हार-क्षीराब्धि-विशद-कीर्त्याधार। धीर धरेयोल नेगल्दं
दूरीकृत-सकल दुरित-विमलाचारं ॥ ३७ ।। तदनुजे || हरिणी-लोचने पङ्कजानने घनश्रोणिस्तनाभाग-भा
सुरे बिम्बाधरे कोकिल-स्वने सुगन्ध-श्वासे चञ्चत्तनुदरि-भङ्गावलि-नीलकेशे कल-हंसीयानेयीकम्बुकन्धरेयप्पाचलदेवि-कन्तु-सतियं सौन्दर्य दिन्देलिपल्ल ।।
॥ ३८॥ तदनुजे ॥ इन्दु-मुखि मृग-विलोचने
मन्दर-गिरि-धैर्ये तुङ्ग-कुच-युगे भृङ्गी
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२४२ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख वृन्द-शिति-केश-विलसिते
चन्दव्वे विनूतेयादलखिलोवरेयोल ॥ ३६॥ तदनुजं ॥ हार-हरहास-हिम-रुचि
तारगिरि-स्फटिक-शङ्ख-शुभ्राम्बुरुहक्षीर-सुर-सिन्धु-शारद
नीरद-भासुर-यशोऽभिराम कामं ॥ ४० ॥ सिरिंग विष्णुगवेन्तु मुन्नवसमास्त्र पुट्टिदों शम्भुगं
गिरिस जातेगवेन्तु षड्वदननादों पुत्रनन्तीगलीधरणी-विश्रुत-चन्द्रमौलि-विभुगं श्रीयाचियक्कङ्गवु
डुर-तेजंगुणि सोमनुद्भविसिदं निस्सीम पुण्योदयं ॥४१॥ वर-लक्ष्मी-प्रिय-वल्लभ विजयकान्ताकर्नपूर विभा
सुर-वाणी-हृदयाधिपं तुहिन-तार-क्षीर-वाराशि-पाण्डरकीर्तीशनुदन-दुर्द्धर तुरङ्गारूढ़-रेवन्तनुदुर-कान्ता-कमनीयकामनेसेदं श्री सोमनी धात्रियोल
॥४२॥ परमाराध्यननन्त सौख्य-निलय श्री-मजिनाधीश्वर
गुरु-सैद्धान्तिक-चक्रवर्ति नयकीर्ति-ख्यात-योगीश्वरं । धरणी-विश्रुत-चन्द्रमौलि-सचिवं हृत्कान्तनेन्दन्दडा
रेयीयाचलदेविगिन्दु विशदोद्यत्कीर्त्तिगी धात्रियोल।४३॥ भरदि बेलुगोल-तीर्थ-दाल जिन-पति-श्री-पार्श्व-देवोद्धमन्दिरमं माडिसिदल विनूत नयकीर्त्तिख्यात-योगीन्द्रभा
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २४३ सुर-शिष्योत्तम-बालचन्द्र-मुनि-पादाम्भोजिनीभक्ते सु
स्थिरेयप्पाचलदेबि कोर्ति-विशदाशा-चक्रेसद्भक्तियि।४४। तद्गुरुकुल श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ काण्डकुन्दान्वयदोल ॥ कं ॥ विदित-गुणचन्द्र-सिद्धा
न्त-देव-सुतनात्म-बेदि परमत-भूभृद्भिदुर नयकोति-सिद्धा
न्त-देवनेसेद मुनीन्द्रनपगत-तन्द्र ॥ ४५ ॥ वर-सैद्धान्त-पयोधि-वर्द्धन-शरत्ताराधिपं तार-हा
र-रुचि-भ्राजित-कीत्ति धौत-निखिलोज़-मण्डलं दुर्द्धरस्मर-बाणाव लि-मेघ-जाल-पवनं भव्याम्बुज-त्रात-भा
सुरनी-श्रीनयकीत्ति देव-मुनिपं विख्यातियं ताल्दिदौ ४६ तच्छिष्यर ॥ वर-सैद्धान्तिक-भानुकीति -मुनिपी-मत्प्रभाचन्द्र दे..
वरशेषस्तुत-माघनन्दि-मुनि-राजर्पद्मनन्दि-व्रती. श्वररुवी-नुत-नेमिचन्द्र-मुनि-नाथातरादनिरन्तरवीश्रीनयकीति-देव-मुनि-पादाम्भोरुहाराधकर ॥
॥४७॥ स्मर-मातङ्ग-मृगेन्द्रनुद्ध-नयकीति-ख्यात-योगीन्द्र-भा
सुर-पादाम्बुरुहानमन्मधुकर चञ्चत्तपो-लक्ष्मिगीश्वरनादों नरपाल-मौलि-मणि-रुण्मालार्चिताध्रि-द्वयं
स्थिरनाध्यात्मिक-बालचन्द्र-मुनिपं चारित्र-चक्रेश्वरा४८।
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
गौरि तपङ्गलं नेगल्दु तां नेरेदल् गड चन्द्रमौलियेोल् नारियन्निदे - सबगु पेल्पलधुं भवदोल निरन्तरं । सार-तपङ्गल' पडेदु तां नेरेदं गड चन्द्रमौलि-गं
भीरेयेनिप्प तन्ननेनिपाचलेवाल सोबगिङ्ग नान्तरार् ॥४२॥ शकवर्षद सायिरद नूर नाल्केनेय लव-संवत्सरद पौष्य बहुल-तदिगेसुक्रवारदुत्तरायण संक्रान्तियन्दु || वृ ॥ शीलधि चन्द्रमौलि- विभुवाचल-देवि-निजेोद्ध-कान्तेयालोल-मृगाचि - माडिसिद बेल्गोल -तीर्थद पार्श्वदेवरचर्चा लगे बेडे बम्मेयनहल्लियनित्तनुदारि-वीर-बल्लालनृपाल कन्धरेयुम ब्धियुमुल्लिन मेय्दे सल्विनं ॥ ५० ॥ तदवनिपनित्त दत्तिय
२४४
नदनाचले बालचन्द्र-मुनि- राजश्री -
पद - युगमं पूजिसि चतु
रुदधि-वर निमिरे कीर्त्ति ' जिनपति गित्तल ॥ ५१ ॥ अन्तु धारा- पूर्व्वकं माडि को तामसीमे । मूड केम्बरेय कोट्ट द्दल्लं । अल्लि तेङ्क मेट्टरे । अलिं तेङ्क हिरिय हेद्दारि । अनि ते प्रालद-मर | अल्लितेङ्क मे लियज्जनोब्बे । अल्लि तेङ्कलङ्कदहालोब्बे । भल्लि तेङ्क नागर-कट्टक्के होद देदारि । अल्लि पडुव केतट्टिय हल्ल । अल्लि पडुव मर- नेल्लिय-गुण्डु | अल्लि पडुव मेरे । अल्लि पडुव पिरियरेय कल्लत्ति । अल्लि पडुवल कडवद कोल | अलि पडुव कल्लत्ति । अल्लि पडुव बण्डि-दारियाब्बे । अल्लि बडगलोणिय दारि । प्रल्लि बडग देवगन केरेय
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श्रवण बेल्गाल नगर में के शिलालेख ताटवल्ल । अल्लिं बडग हुणिसेय गुण्डु । अनि बडगवालद गुण्डु । अल्लिं मूडलोब्बे । अल्लिं मुड नट्ट-गुण्डु । अल्लिं मूडल्त. त्तेयलियनगुडे । अल्लिं मूडलालद-मर । अल्लिं मूडल केम्बरय हल्लम सीमे कूडित्तु ॥ स्थल वृत्ति ।। श्री-करणद केशियणन तम्म बाचन कैयिं मारं कोण्डु बेक्कन कील्केरेय चामगट्टम बिट्टरदर सीमे । मृड सागर । तेङ्क सागर । पडुव हुल्लगट्ट । बडग नट्ट कल । हिरिय जकियब्बेय केरेय तोट । केतङ्गरे । गङ्ग-समुद्रद कीलेरिय तोट । बसदिय मुन्दण अङ्गडि इप्पत्तु ।। नानादेसियुं नाडु नगरमुं देवरष्ट-बिधार्चनेगे बिट्टाय दवसद हेरिङ्ग बल्ल १ अडकेय हेरिङ्ग हाग १ मेलसिन हेरिङ्ग हाग १ अरिसिनद हेरिङ्ग हाग १ हत्तिय मलवेगे हागे १ सीरेय मलवेगे होङ्ग वीस १ एलेय हेरिङ्ग अरुनूरु ॥
दानं वा पालनं वान दानाच्छ्रे योऽनुपालनं । दानात्स्वर्गमवाप्नोति पालनादच्युतं पदं ॥ ५२ ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलं ॥ ५३ ।। स्व-दत्तां पर-दत्तां वा यो हरेति वसुन्धरां ।
षष्टिवर्ष-सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।। ५४ ।। मङ्गलमहा श्री श्री श्री ।।
[ इस लेख में चन्द्रमौलि मत्री की भार्या श्राचलदेवी (अपर नाम श्राचियक ) द्वारा निर्माण कराये हुए जिन मन्दिर (अक्कन वस्ति ) को चन्द्रमौलि की प्रार्थना से होयसल नरेश वीर बल्लाल द्वारा बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम का दान दिये जाने का उल्लेख है। प्रथम के वाइस
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२४६ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख पों में होयसल वंश के नरेशों का वर्णन है । जिनकी वंशावली इस प्रकार दी है
विनयादित्य केलेयबरसि
ऐरेयङ्ग-एचलदेवी
बल्लाल
विष्णुनगालक लक्ष्मीदेवी उदयादित्य नरसिंह-एचलदेवी
वीर बल्लाल देव विष्णुनृप की कीर्ति में कहा गया है उन्होंने कई युद्ध जीते और अपने शत्रुओं के प्रबल दुर्ग जैसे कि कोयतूर, तलवनपुर व रायरायपुर जला डाले।
वीर बल्लाल देव की युद्ध-दुन्दुभी बजते ही लाड नरेश की शान्ति भङ्ग हो गई, गुर्जर-नरेश को भीतिज्वर हो गया, गौड़-नरेश को शूल उठ श्राया, पल्लव-नरेश पल्लवाञ्जलि लेकर खड़े हो गये, और चोल-नरेश के वस्त्र स्खलित हो गये। प्रोडेयरस-नरेश ने अभिमान में प्राकर युद्ध करने की ठानी, पर बल्लाल-नरेश ने उच्चङ्गि दुर्ग के शिखरों को चूर्ण कर डाला और पाण्ड्य-नरेश को उसकी अङ्गनाओं-सहित कैद कर लिया ।
पद्य बाइस से आगे इन्हीं द्वारवती के यादव वंशी नरेश त्रिभुवनमल्ल वीर वल्लाल देव का परिचय है। लेख में इनकी अनेक प्रताप-सूचक पदवियों तथा इनके तलकाडु, काँगु, नङ्गलि, नालम्बवाडि, बनवसे और हानुंगल की विजय का उल्लेख है। शम्भुदेव और अक्कव्वे के पुत्र चन्द्रमौलि इन्हीं त्रिभुवन मल्ल वीरबल्लालदेव के मंत्री थे।
पद्य सत्ताइस से चालीस तक आचल देवी के वंश का वर्णन है जो इस प्रकार है
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चन्द्रमौलि की भार्या आचलदेवी की वंशावली
(मासवाडिनाडु के श्रावक ) शिवेयनायक-चन्दव्वे
al
बम्मदेवहेगडे बावेयनायक
कालवे आचलदेवी (मासवाडि नरेश हेम्माडि सोवणनायक---वाचव्वे
देव की पत्नी)
श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
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मार
चन्द्रमौलि-प्राचल देवी
चेन्दब्वे
काम
बम्मेयनायक-दोचब्वे
( मल्लिसेट्टि और माचन्चे की पुत्री)
२४७
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२४९ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
प्राचल देवी नयकीति के शिष्य बालचन्द्र की शिष्या थी। नयकीति सिद्धान्तदेव मूलसंघ, देशियगण, पुस्तक गच्छ, कुन्दकुन्दान्वय के गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य (सुत ) थे। नयकीति के शिष्यों में भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघनन्दि, पद्मनन्दि और नेमिचन्द्र थे। ]
१२५ (३२८) अकून बस्ति के प्रधान प्रवेश-द्वार के सामने की दक्षिणी दीवाल पर
(शक सं० १३६८) क्षयाह्वय-कु-वत्सरे द्वितय-युक्त-वैशाखके
मही-तनय-वारके युत-बलक्ष-पक्षतरे । प्रताप-निधि-देवराट प्रलयमाप हन्तासमा चतुर्दश-दिने कथं पितृपतेनिवार्य गतिः ।।
१२६ (३२६) उसी दीबाल के पूर्व काण पर
(शक सं० १३२६) तारण-संवत्सरद भाद्र-पद-बहुल - दशमियू सोमवारदलु हरिहररायनु स्वस्थनादनु ।
१२७ (३३०) उपयुक्त लेख के नीचे
(शक सं० १३६८) क्षयाख्य-शक-वत्सरे-द्वितय-युक्त-वैशाख के महीतन [य]- वारके यु..........
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श्रवण बेलगाल नगर में कं शिलालेख
२४६
१२८ (३३३) नगर जिनालय के बाहर
( ? शक सं० ११२८) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ।। १ ॥ भय-लोभ-द्वय-दूरनं मदन-घोर-ध्वान्त-तीव्रांशुवं नय-निक्षेप-युत-प्रमाण-परिनि ताथ-सन्दोहनं । नयनानन्दन-शान्त कान्त-तनुव सिद्धान्तचक्रेशनं
नयकीति बति-राजनं नेनेदोडं पापोत्करं पिङ्गगुं ॥ २ ॥ अवर तच्छिष्यरु ।। __ श्री-दामनन्दि त्रैविद्य-देवरु श्री-भानुकीर्ति-सिद्धान्तदेवरु बालचन्द्र-देवरु प्रभाचन्द्र-देवरु माघणन्दि-भट्टारकदेवरु मन्त्रवादि-पद्मणन्दि-देवरु नेमिचन्द्र-पण्डित-देवरु इन्तिवर शिष्यरु नयकीति -देवरु ॥
धरेयोल खण्डलि-मूलभद्र-विलसद्-वंशोद्भवरस्सत्य-शौचरतर सिंह-पराक्रमान्वितरनेकाम्भोधि-वेला-पुरान्तर-नाना व्यवहार-जाल-कुशलर विवख्यात-रत्न-त्रयाभरणर ब्बेल्गुल-तीर्थ-वासि-नगरङ्गल रूढ़िय ताल्दिदरु ।।
॥३॥ श्रीगोम्मटपुरद समस्त-नगरङ्गल्गे श्रीमतु-प्रताप-चक्रवर्ति वीरबल्लाल-देवर कुमार-सोमेश्वर-देवन प्रधानं हिरिय
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२५० श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख माणिस्य भण्डारि-रामदेव-नायकर सन्निधियलु श्रीमन्नय. कोति-देवरु कोट्ट शासनपत्थलेय-क्रमवेन्तेन्दडे गोम्मट-पुरद मनेदेरे अक्षय-सवत्सर मोदलागि प्राचन्द्रार्क-तार बर सलुवन्तागि हणवोन्दर मोदलिङ्ग एन्टुहणव तेत्तु सुखविप्परु तेलिगर गाणवोलगागि अरमनेय न्यायवन्यायमलब्रय एनु बन्दडं प्रास्थलदाचार्यरु तावे तेत्तु निनयिसुवरु ओकल कारण कथेयिल्ल ई-शासन-मर्यादेय मीरिदवरु धर्म-स्थलव कंडिसिदवरु ई-तीर्थद नखरङ्गलोलगे ओब्बरिब्बरु ग्रामिपिगलागि प्राचार्यरिगे कौटिल्य-बुद्धिय कलिसि वोन्दकोन्द नेनदु तोलसाटव माडि हाग वेलेयनलिहि बेडिकोल्लियेन्दु प्राचा
यंरिगे मनंगादृडे अवरु समय-द्रोहरु राजद्रोहरु बणजिगपगेयरु नेत्त-गयरु कोलेकवतेंगोडेयरु इदनरिदु नखरालु उपेक्षिसिदरादडे ई-धर्मव नखरङ्गले केडिसिदवरल्लदे प्राचार्यरुं दुर्जन; केडिसिदवरल्द नखरङ्गल अनुमतविल्लदे ओबरिबरु ग्रामिणिगलु प्राचार्य्यर मनेयनक्के अरमनेयनके होकडे समयद्रोहरु मान्य-मन्नणेय पूर्व-मर्यादे नडसुवरु ई-मर्यादेय किडिसिदवरु गङ्ग-तडिय कविलेयं ब्राह्मण कोन्द पापद होहरु ।
स्व-दत्तां पर दत्तां वा यो हरेति वसुन्धरां । षष्टिवर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ।। ४ ।।
[ नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य दामनन्दि, भानुकीर्ति, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र, माघनन्दि, पद्मनन्दि और नेमिचन्द्र हुए। इनके शिष्य नयकीर्तिदेव हुए। नयकीर्त्तिदेव ने वीरबल्लालदेव के कुमार
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २५१ सोमेश्वरदेव के मंत्री रामदेव नायक के समक्ष बल्गोल नगर के व्यापारियों को यह शासन दिया कि वे सदैव के लिये पाठ ‘हण' का टैक्स दिया करेंगे जिसका एक 'हण' व्याज पा सकता है। इसके अतिरिक्त वे और कोई टैक्स नहीं देवेंगे। यदि राज्य की ओर से कोई न्याय, अन्याय व मलब्रय टैक्स लगाये जावेंगे तो स्वयं बल्गोल के प्राचार्य ही उसका प्रबन्ध करेंगे। यदि कोई व्यापारी श्राचाय को छल-कपट सिखावेंगे तो वे धर्म के और राज्य के द्रोही ठहरेंगे। व्यापारियों को अपने अधिकार पूर्ववत् ही रहेंगे। ये व्यापारी खंडलि और मूलभद्र के. वंशज जैनधर्मावलम्बी थे।
[नोट-श्रवण बेग्गोल पर पूरा अधिकार जैनाचार्य का ही था। वहां के टैक्स श्रादि का भी वे ही प्रबन्ध करते थे।]
१२८ ( ३३४) नगर जिनालय में दक्षिण की ओर
( शक सं० १२०५) उक्तं श्री मूलसङ्कऽस्मिन्बलात्कार-ग......... ...............शास्त्रसाराख्य-शास्त्रकृत् ।। १ ॥ श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लान्छन । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ २ ॥ नम: कुमुदचन्द्राय विद्या-विशद-मूर्तये । यस्य वाक्-चन्द्रिका भव्य-कुमुदानन्द-नन्दिनी ॥ ३ ॥ नमो नम्नजनानन्द-स्यन्दिने माघन्दिने। जगत्प्रसिद्ध-सिद्धान्त-वेदिने चित्प्रमोदिने ॥ ४ ॥
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२५२ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
स्वस्ति श्री जन्म-गेहं निभृत-निरुपमौळनलोहामतेज विस्तारान्त:कृतो:-तलममल-यशश्चन्द्र-सम्भूति-धामं । वस्तु-बातोद्भव-स्थानकमतिशय-सत्वावलम्ब गभीरं प्रस्तुत्यं नित्यमम्भोनिधि-निभमेसेगुं होय्सलोव्वीर्श-वंश
स्वस्ति श्री-जयाभ्युदयं सकवर्ष १२०५ नेय चित्रभानु संवत्सर श्रावण सु १० बृदन्दु स्वस्ति समस्त-प्रशस्ति-सहितं श्रीमन्महा-मण्डलाचार्यरुमाचार्य-वर्यरुश्री-मूल-सङ्घदइङ्गलेश्वर देशिय-गणाग्रगण्यरुम् राज-गुरु-गलुमप्प नेमिचन्द्र-पण्डितदेवर शिष्यरु बालचन्द्र-देवरु श्रीमन्महामण्डलाचार्यरुमाचार्य वर्यरुं होयसल-राय-राज-गुरुगलुमप्प श्री-माघनन्दि-सैद्धान्तचक्रवर्तिगल प्रिय-गुड्डुगलुमप्प श्री-बेलुगुल-तीर्थद बलात्कारगणाग्रगण्यरुमगण्यपुण्यरुमप्प समस्त-माणिक्य-नगरङ्गलु नखरजिनालयद आदि-देवर अमृत-पडिगे राचेयनहल्लिय होलवेरेगोलगाद एडवल्लगेरेय केलगे पूर्वदत्ति मोदलेरिय तोटमुं अमृतपडिय गद्दे...प्रारर भूमिय सेरुवेगे आ-बालचन्द्र-देवर कय्यलु समस्त-माणिक्य-नगरङ्गलु बिडिसिकोण्ड वलय-शासनद क्रमवेन्तेन्दडे राचेयन-हल्लिय मल्लिकार्जुन-देवर देव-दानद गद्दे होरगागि आ-गहेयिं मूडलु नट्ट कल्लु । अल्लि तेन्क हासरे गल्लु । अल्लि तेङ्क गिडिगनालद गुण्डुगलि मूडण किरु-कट्टद गहें । नीरोत्तोलगाद चतुस्सीमे। प्रा-किरु-कट्टद पडुवण कोडियलु हुटु गुण्डिनलि बरद मुक्कोडे हसुबे नेट्टे अल्लि तेङ्क हिरिय बेहद
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख २५३ तप्पल हासरे-गल्लु । पाल्ल मूडय देवलङ्ग रेय तेङ्कण कोडिय गुण्डिनलि बरद मुक्कोडे हसुबे नेट्टे श्रा-केरे-नीरोतिले सीमे । पाकेरेय बडगण-कोडिय गुण्डि-नल्लि बरद मुक्कोडे हसुबे नेट्टे इन्तीकेरेयु किरु-कटे वालगाद चतुस्सीमेय गद्दे ॥
[ इस लेख में कुमुदचन्द्र और माघनन्दि को नमस्कार के पश्चात् होयसल वश की कीर्ति का उल्लेख है और फिर कहा गया है कि उक्त तिथि को इंगलेश्वर, देशिय गण, मूलसंघ के नेमिचन्द्र पण्डितदेव के शिष्य बालचन्द्रदेव और बेल्गोल के समस्त जौहरियों (माणिक्य नगरङ्गल) ने नगर जिनालय के श्रादिदेव की पूजन के हेतु कुछ भूमि का दान दिया । यह भूमि उन्होंने बालचन्द्रदेव से खरीद की थी। ये जौहरी होम्सलवश के राजगुरु महामण्डलाचार्य माघनन्दि के शिष्य थे। लेख के प्रथम पद्य में शास्त्रसार नामक किसी शास्त्र के कर्ता का उल्लेख रहा है । यह पद्य घिस जाने से प्राचार्य का नाम नहीं पढ़ा गया |
१३० ( ३३५) नगर जिनालय में उत्तर की ओर
(शक सं० १११८) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १॥ स्वस्ति-श्रीजन्म-गेहं निभृत-निरुपमावा॑नलोद्दामत्त विस्तारान्तःकृतोर्वीतलममल-यशश्चन्द्र-सम्भूति-धामं । वस्तु-बातोद्भव-स्थानकमतिशय-सत्वावलम्ब गभीर प्रस्तुत्यं नित्यमम्भा-निधि-निभमेसगुं होय्सलोज़श-वंश
॥२॥
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२५४ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
अदरोल कौस्तुभदोन्दनय॑गुणमं देवेभदुद्दाम-सत्वदगुर्व हिम-रश्मियुज्वल-कला-सम्पतिय' पारिजा. तदुदारत्वद पेम्पनोर्चने नितान्त ताल्दि तानल्ते पु
दृदनुढेजित-वीर-वैरि-विनयादित्यावनी-पालकं ॥ ३ ॥ क॥ विनयादित्य-नृपालन
तनु-भवनेरेयङ्ग-भूभुजं तत्तनयं । विनुतं विष्णु-नृपालं
जनपति तदपत्यनेसेदनीनरसिंहं ॥४॥ तत्पुत्र ॥ गत-लीलं लालनालम्बित-बहल-भयोग्र-ज्वर गूर्जर स
न्धृत-शूलं गौलनुच्चैः-कर-धृत-विलसत्पल्लवं पल्लवं प्रो. ज्झित चेलं चालनादं कदन-वदनदोल भेरियं पोय्से वीराहित-भूभृजाल-कालानलनतुलबलं वीर-बल्लाल-देवं
॥५॥ चिरकाल रिपु-गलगसाध्यमेनिसि१च्चङ्गियं मुत्ति दु.
र्द्धर-तेजा-निधि-धूलिगोटेयने कोण्डाकाम-देवावनीश्वरनं सन्दोडेय क्षितीश्वरननाभण्डारमं स्त्रीयर
तुरग-बातमुमं समन्तु पिडिदं बल्लाल-भूपालकं ॥६॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द-महा-मण्डलेश्वर द्वारवतीपुरवराधीश्वर। तुलुव-बल-जलधि बडवानल । दायाददावानल । पाण्ड्य कुल-कमल-वेदण्ड । गण्ड-भेरुण्ड । मण्डलिक - बेटेकार। चौल-कटक-सुरेकार । सङ्ग्राम-भीम ।
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २५५ कलि-काल-काम । सकल-वन्दि-बृन्द-सन्तर्पण-समग्र-वितरण विनोद । वासन्तिका-देवी-लब्ध-वर-प्रसाद । यादव-कुलाम्बर-धुमणि । मण्डलिक-मकुट-चूडामणि कदन-प्रचण्ड मलपरोल-गण्ड नामादिप्रशस्ति-सहितं श्रीमत्-~-त्रिभुवनमल्लतलकाडु काङ्ग-नङ्गलि नोणम्बवादि-बनवसे हानुङ्गल लोकिगुण्डि-कुम्मट-एरम्बरगेयोलगाद समस्त-देशद नानादुर्गङ्गलं लीला-मात्रदिं साध्यं माडिकाण्उ भुज-बल-वीर गङ्ग-प्रताप-चक्रवत्ति होयसल वीर-बल्लाल-देवर समस्त-मही मण्डलमं दुष्ट-निग्रह-शिष्ट-प्रतिपालन-पूर्वकं सुखसङ्कथाविनाददि राज्य गेय्युत्तिरे । तदीय-करतल-कलित-कराल-करवालधारा-दलन-निस्सपत्नीकृत-चतुपयोधि-परिखा-परीत-पृथुल-पृथ्वीतलान्तद्धतियुं श्रीमदक्षिण-कुक्कुटेश्वर-जिनाधिनाथ-पद-कुशेशयालङ्कतमु श्रीमत्कमठ-पार्श्वदेवादि-नाना-जिनवरागार-मण्डितमुमप्प श्रीमद् बेलगोल-तीर्थद श्रीमन्महा-मण्डलाचार्यरे. न्तप्परेन्दडे ॥
भय-लाभ-द्वय-दूरनं मदन-धार-ध्वान्त-तीब्रांशुवं नय-निक्षेप-युत-प्रमाण-परि-निर्दीतार्थ-सन्दोहन । नयनानन्दन-शान्त-कान्त-तनुव सिद्धान्त-चक्रेशन नयकीर्ति-प्रति-राजनं नेनेदाडं पापोत्करं पिङ्गगुं ।। ७ ।। तच्छिश्यर श्री-दामनन्दि-त्रैविद्य-देवरु । श्री भानुकीर्तिसिद्धान्त देवळं। श्री बालचन्द्र-देवरु । श्री-प्रभाचन्द्र देवरु । श्री माघनन्दि-भट्टारक-देवरु। श्री मन्त्रवादि-पद्म
नाम
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२५६
श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
नन्दि- देवरु | श्री नेमिचन्द्र पण्डित देवरु । श्री-मूल- सङ्घद देशिय गाद पुस्तक- गच्छद श्री काण्ड कुन्दान्वय- भूषणरप्प श्रीमन्महामण्डलाचार्य्यर श्रीमन्नयकीर्त्ति सिद्धान्त - चक्रव
र्त्तिगल गुडुं ॥ चितितल दाल राजिसिद
धृत- सत्य' नेगल्द नागदेवामात्यं ।
प्रतिपालित- जिन चैत्य
कृत-कृत्य' बोम्मदेव-सचिवापत्य ं ॥ ८ ॥
लद्रनिते ॥
मुददिं पट्टण-सामियेम्ब पेसरं ताल्दिद्द लक्ष्मी-समास्पदनप्प-गुण-मल्लि सेट्टि - विभुगं लोकोत्तमाचार-सस्पदेगी - माचेवे सेट्टिकव्वेगम नूनोत्साहमं ताल्दि पुट्टिद चन्दव्वे रमाम्र-गण्ये भुवन प्रख्यातियं ताल्दिदल || ६ || तत्पुत्र ||
परमानन्द दिनेन्तु नाकपतिगं पौलोमिगं पुट्टियों वर - सौन्दर्य जयन्तनन्ते तुहिन क्षीरे।द कल्लोल- भासुर- कीर्त्तिप्रिय नागदेव-विभुगं चन्दव्बेगं पुट्टिदां स्थिरनी-पट्टण-सामि विश्व - विनुतं श्रीमल्लिदेवादयं ॥१०॥ क्षितियोल विश्रुत नम्म देव- विभुगं जोगव्येगं प्रोद्भवत्सुतनी-पट्टस मिगार्ज्जित-यशङ्गी-मल्लि देवङ्गमूजितेगी- कामलदेविगं जनकनम्भोजास्येगुर्व्वीतलस्तुतेगी चन्दले नारिगीशनेसेद' श्रीनागदेवेात्तमं ॥ ११ ॥
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख कारिते वीरबल्लाल-पत्तन-स्वामिनामुना। नागेन पार्श्व देवाग्रे नृत्य-रङ्गाश्म-कुट्टिमे ॥ १२ ॥
श्रीमन्नयकीर्त्ति-सिद्धान्त-चक्रवर्तिगलो परोक्ष-विनयार्थबागिमुडिजमुमं निषिधियुमं श्रीमत्कमठ-पार्श्व-देवर बसदिय मुन्दण कलु-कट्टम नृत्य-रङ्गमुम माडिसिद तदनन्तर ।
श्री-नगर-जिनालयम श्री-निलयमनमल-गुण-गणम्माडिसिद। श्रीनागदेवसचिव
श्रो-नयकीर्त्ति-व्रतीश-पद-युग-भक्त ।। १३ ॥ तजिनालय-प्रतिपालकरप्प नगरङ्गल ।।
धरेयोल खण्डलि-मूलभद्र-विलसद्-वंशोद्भवरस्सत्य-शा. चरतर सिंह-पराक्रमान्वितरनेकाम्भोधि-वेला-पुरान्तर-नाना-व्यवहार-जाल-कुशलर विख्यात-रत्न-त्रयाभरणर ब्बेल्गोल-तीर्थ-वासि-नगरङ्गल रुढियं ताल्दिदर
॥१४॥ सकवर्ष १११८ नेय राक्षससंवत्सरद जेष्ठ सु १ बृहवार दन्दु नगर-जिनालयके यडवलगेरेय मोदलेरिय ताटमुं चारुसलगे-गद्देयु उडुकर-मनेय मुन्दण केरेय केलगण बेदले कोलग १० नगर-जिनालयद बडगण केति-सेट्टिय केरि प्रा-तङ्कण एरडु मने प्रा-अङ्गडि सेडेयक्कि गाण एरडु मनेगे हण अय्दु ऊरिङ्ग मल बिय हण मूरु ॥
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२५८ श्रवण बेल्गाल नगर में के शिलालेख
[ इस लेख में नयकीर्ति के शिष्य नागदेव मत्री-द्वारा नगर जिना. लय तथा कमठपार्श्वदेव बस्ति के सन्मुख शिलाकुट्ठम और रङ्गशाला बनवाने व नगर जिनालय को कुछ भूमि का दान दिये जाने का उल्लेख है। प्रादि में लेख नं० १२४ के समान होयसल वंश का परिचय है । वीरबल्लाल देव के प्रताप का वर्णन कुछ अंश छोड़कर अक्षरशः वही है। इसके पश्चात् नयकीर्तिदेव और उनके शिष्यों दामनन्दि, भानुकीर्ति, बालचन्द्र, प्रभाचन्द्र, माघनन्दि, पद्मनन्दि और नेमिचन्द्र का उल्लेख है। नागदेव के वंश का परिचय इस प्रकार है -..
बम्मदेव-जोगब्बे (वीर बलालदेव के पट्टण सामी) नागदेव-चन्दब्वे ( चन्दले )
(मल्लिसेट्टि और माचवे की पुत्री)
। (मल्लिदेव)
( कामल देवी) खंडलि और मूलभद्र के वशद व्यापारियों का भी उल्लेख है। ये ही व्यापारी जिनालय के रक्षक थे।
१३१ ( ३३६ ) नगर जिनालय के भीतरी द्वार के उत्तर में
(शक सं० १२०१ तथा १२१० ) स्वस्ति श्रीमतु-शक-वर्ष १२०३ नेय प्रमाथि-संवत्सरद मार्गशिर-सु (१०) बृदन्दु श्रोबेलुगुल-तीर्थद समस्त नखरङ्गलिग नखर-जिनालयद पूजाकारिगलु ओडम्बटु बरसिद
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २५६ सासनद क्रमवेन्तेन्दडं । नखर-जिनालयद आदि-देवर देव दानद गद्दे बेद्दलु एल्लि उल्लदनु बेलदकालदलु देवर अष्टविधाचर्चने अमृत-पडि-सहित श्रीकार्यवनु नकरङ्गलु नियामिसि कोट्ट पडियनु कुन्ददे नडसुवेवु प्रा-देव-शनद गद्दे बेहदनू प्राधिक्रय हालोते गुतगं एम्म वंशवादियागि मक्कलु मकलु दप्पदे आरु माडिदडं राजद्रोहि समयद्रोहिगलेन्दु वोडम्बट्ट, बरसिहशासन इन्तप्पुदक्के अवर वाप्प श्री-गोम्मटनाथ ॥ श्री बेलुगुल तीबंद नकर-जिनालयद आदिदेवर नित्याभिषेकके श्री-हुलिगेरंय सोवण्न अक्ष-भण्डार-बागि कोट्ट गद्यायं अयिदु-होनिङ्ग हालु ब १॥ - सर्वधारि संवत्सरद द्वितीय-भाद्रपद-सु ५ ब्रि। श्री-बेलुगुल-तीर्थद जिननाथ-पुरद समस्त-माणिक्य-नगरङ्गलु तम्मोलोडम्बटु बरसिद शासनद क्रमवेन्तन्दोडे । नगर-जिनालयद श्री-आदिदेवर जीर्णोद्धारचुपकरण श्री कार्यक्केवू धारापूर्वकं माडि आचन्द्रावतार बर मलुवन्तागि पा-येरडु-पट्टराएद समस्त-नखरङ्गलू स्वदेशि-परदेशियिन्दं बन्दन्तह दवण गद्याण-नरके गद्याणं वोन्दरोपादिय दवण प्रादिदेवरिगे सलुचन्तागि कोट्ट शासन यिदरोले विरहित-गुप्तवनारु माडिदडमवन सन्तान निस्सन्तान अव देव-द्रोहि राज-द्रोहि ममय-द्रोहिगलेन्दु वोडम्बट्ट, बरसिद समस्तनकरङ्गलाप्प श्रो-गोम्मट ।। .
यह लेख तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में उल्लेख है कि उक्त तिथि को नगर जिनालय के पुजारियों ने बेल्गोल के व्यापारियों
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२६० अवण बेलगाल नगर में के शिलालेख को यह लिखा-पढ़ी कर दी कि जब तक मदिर की देव-दान भूमि में धान्य पैदा होता है तब तक वे सदैव विधि अनुसार मदिर की पूजा करेंगे।
दूसरे भाग में उल्लेख है कि नगर जिनालय के श्रादि देव के नित्याभिषेक के लिये हुलिगेरे के सोवण्ण ने पांच गद्याण का दान दिया जिसके व्याज से प्रति दिन एक 'बल्ल' दुग्ध लिया जावे ।
तीसरे भाग में उक्त तिथि को बेल्गोल के समस्त जौहरियों के एकत्रित होकर नगर जिनालय के जीर्णोद्धार तथा बर्तनों श्रादि के लिये रकम जोड़ने का उल्लेख है। उन्होंने सौ गद्याण की आमदनी पर एक गद्याण देने की प्रतिज्ञा की । जो कोई इसमें कपट करे वह निपुत्री तथा देवः धर्म और राज का द्रोही होवे ।।
[नोट-लेख के प्रथम भाग में शक सं० १२०३ प्रमाथिसंवत्सर का उल्लेख है । पर गणनानुसार शक सं० १२०३ वृष तथा शक सं. १२०१ प्रमाथी सिद्ध होते हैं। लेख के तृतीय भाग में सर्वधारि सवत्सर का उल्लेख होने से वह शक सं० १२१० का सिद्ध होता है।
१३२ ( ३४१) मंगायि वस्ति के प्रवेश मार्ग के बायीं ओर
( लगभग शक सं० १२४७ ) स्वस्ति श्री-मूलसङ्घ देशिय-गण पुस्तक-गच्छ काण्डकुन्दान्वयद श्रीमदभिनव-चारुकीर्ति-पण्डिताचार्य्यर शिष्यलु सम्यक्त्वाद्यनेक-गुण-गणाभरण-भूषिते राय-पात्र-चूडामणि बेलुगुलद मङ्गायि माडिसिद भुिवनचूडामणियेम्ब चैत्यालयक मङ्गलमहा श्री श्री श्री ।।
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
२६१
[ श्रभिनव चारुकीत्ति पण्डिताचार्य के शिष्य, बेल्गोल के म'गायि के निर्माण कराये हुए 'त्रिभुवन चूड़ामणि' चैत्यालय का मंगल हो । ]
१३३ (३४०)
उसी वस्ति के प्रवेश मार्ग के दायीं ओर
+
( लगभग शक सं० १४२२ )
श्रीमतु पण्डित देवरुगल गुड्डगलाद बेलुगुलद नाउ-चित्रगोण्डन मग नाग- गोण्ड मुत्तगद हान्नेनहल्लिय कल-गोण्डनीलगाद गौडगलु मङ्गायि माडिसिद बस्तिग कोट्ट दौडनकट्टे गहे बेहलु यीधर्म के अलुपिदवरु वारणासियल सहस्र - कपिलेय कोन्द पापक्की होगुवरु मङ्गलमहा श्री श्री श्री ।।
[ पण्डितदेव के शिष्यों - नाग गौण्ड श्रादि गौडों ने मंगायि वस्त के लिये दोडून कट्टे की कुछ भूमि दान की 1
१३४ ( ३४२ )
सङ्गायि बस्ति की दक्षिण- भित्ति पर
( सम्भवतः शक्र सं० १३३४ )
श्रीमत्परम- गम्भीर - स्याद्वादामोघ लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन शासनं ॥ १ ॥ तारास्फाराल कौघे सुर-कृत- सुमनेावृष्टि - पुष्पाशयालिस्तोमाः क्रामन्ति दृह जधर पटलीडम्भता यस्य मूर्ध्नि
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख सोऽय श्री-गोम्मटेशस्त्रिभुवन-सरसी-रूजने राजहंसी भव्य...ब-भानुबेलुगुल नगरी साधु जेजीयतीर ॥२॥
नन्दन-संवत्सरद पुश्य-शु ३ लू गेरसोप्पेय हिरियआय्यगल शिष्यरु गुम्मटण्णगलु गुम्मटनाथन सन्निधियलि बन्दु चिक्क-बेट्टदल्लि चिक-बस्तिय कल्ल-कटिसि जीन्नोद्धारि बडग-वागिल बस्ति मूरु मङ्गायि-बस्ति वोन्दु हागे अयिदु-बस्ति जीर्णोद्धार वान्दु तण्डक्के अहारदान ।
[गुम्मटेश की प्रशस्ति के पश्चात् लेख में उल्लेख है कि उक्त तिथि को गेरसोप्पे के हिरिय- अय्य के शिष्य गुम्मटण्ण ने यहीं नाकर चिक बस्ति के शिला कुट्टम का, उत्तर द्वार की तीन बस्तियों का तथा मंगायि बस्ति का--कुल पाँच बस्तियों का-जीर्णोद्धार कराया।]
[नोट-लेख में नन्दन संवत्सर का उलेख है। शक सं. १३३४ नंदन था।
१३५ ( ३४३) उपर्युक्त लेख के नीचे
( सम्भवतः शक सं० १३४१ ) विकारि-सवत्सरद श्रावण शु१गेरसोप्पेय श्रीमति अव्वेग्लु समस्तरु-गोष्टिय कोटु ग ४ ।।
। उक्त तिथि को गेरसोप्पे की श्रीमती अव्वे और समस्त गोष्टी ने चार गद्याण का दान दिया। 1
[नोट-लेख में विकारी संवत्सर का उल्लेख है। शक सं. १३४१ विकारी था।
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
१३६ (३४४ )
भण्डारि वस्ति में पूर्व की ओर प्रथम स्तम्भ पर
(शक संo १२६० )
स्वस्ति समस्त - प्रशस्ति सहितं ॥
पाषण्ड- सागर महापडवामुखाग्निश्रीरङ्गराजचरणाम्बुज-मूल- दास | श्री विष्णु तोक-मणि-मण्टपमार्गदायी रामानुजेो विजयते यति-राज- राज || १ || क वर्ष १२८० तेय कीलक-संवत्सरद भाद्रपदशु १० बु० स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वर आरिराय-विभाड भाषेगे तपुत्र रायर गण्ड श्री वीरबुक्क - रायनु पृथ्वीराज्यव माडुव कालदल्लि जैनरिगू भक्तरिगू संत्राज वादलित प्रानेयगोन्दि होस-पट्टण पेनुगुण्डे कल्लेहद पट्टण बोलगाद समस्त-नाड भव्य-जनङ्गलु आ-बुक्क-रायङ्गे भक्तरुरुमाडुव प्रन्यायडुलनू बिन्नहं माडलागि कोविल तिरुम पे मालकोविल तिरुनारायणपुर मुख्यवाद सकलाचाय्यैरू सकल-समयि गलू सकलसात्विकरू मोष्टिकरु तिरुपणि-तिविडितपनीरवरु नालवत्तरेन्दु-जनङ्गलु सावन्त - बोवक्कलु तिरिकुल जाम्बुचकुल वोलगाद हृदिनेण्ड-नाड श्रीवैष्णवरकैय्यलु महारायनु वैष्णव दर्शनक्के-ऊ जैन दर्शनक्के - ऊ भेदविल्लवेन्दु रायनु वैष्णवर कैरयल जैनर कै-विडिदु कोट्टु यी जैन दर्शनक्के पुर्व्वमरियादे
२६३
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२६४ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख यलु पञ्चमहावाद्यङ्गलू कलशवु सलुबुदु जैनदर्शनक्के भक्तर देसे यिन्द हानि-वृद्धियादरू वैष्णव-हानि-वृद्धियागि पालिसुवरु यी- मर्यादेयलु यल्ला-राज्य-दोलगुल्लन्तह बस्तिगलिगे श्री-वैष्णवरु शासनव नट्ट पालिसुवरु चन्द्रार्क-स्थायियागि वैष्णव-समया जैन-दर्शनव रक्षि सिकोण्डु बहेउ वैष्णवरू जैनरू वोन्दुभेदवागि काणलागदु श्री तिरुमलेय तात य्यङ्गलु समस्त-राज्यद भव्य-जनङ्गल अनुमतदिन्द बेलुगुलद तिर्थदलिल वैष्णव-अङ्गरक्षेगासुक समस्त-राज्यदोलगुल्लन्तह जैनर बागिलुगट्टलेयागि मने-मनेग वर्षक्के १ हण कोट्ट प्रा-यत्तिद हान्निङ्ग देवर अङ्ग-रक्षेगेयिप्पत्तालनूमन्तविट्ट, मिक्क होनिङ्ग जीन जिनालयङ्गलिगे सार्थयनिकूदु यी-मरियादेयलु चन्द्रार्करुल्लन्नं तप्पलीयदे वर्ष-वर्षक्के कोट्ट कीत्ति यनू पुण्यवनू उपार्जिसिकोम्बुदु यी-माडिद कट्टतंयनु आवनोब्बनु मीरिदवनु राज-द्रोहिसङ्घ-सम्दायक्केद्रोहि तपस्वियागलि ग्रामिणियागलि यी-धर्मव केड सिदरादडे गङ्गेय तडियल्लि कपिलेयन ब्राह्मणननू कोन्द पापदल्लि हाहरु ।। श्लोक ।। स्वदत्तं परदत्तं वा या हरति वसुन्धरां ।
षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमि ॥२॥ ( पोछं से जोड़ा हुआ)
कल्लेहद हर्वि-सेट्टिय सुपुत्र बुसुवि-सेट्टि बुक्क-रायरिगे बिन्नहंमाडि तिरुमलेय-तातय्यङ्गल बिजय-गैसि तरन्दु जीर्णोद्धार
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २६५ व माडिसिदरु उभयसमयवू कूडि बुसुवि-सेट्टियरिनो सङ्घ-नायक पट्टव कट्टिदरु }}
वीर बुक्कराय के राज्य-काल में जैनियों और वैष्णवों में झगड़ा हो गया। तब जैनियों में से प्रानेयगोण्डि श्रादि नाडुओं ने बुक्कराय से प्रार्थना की। राजा ने जैनियों और वैष्णवों के हाथ से हाथ मिला दिये और कहा कि जैन और वैष्णव दर्शनों में कोई भेद नहीं है। जैन दर्शन को पूर्ववत् ही पञ्च महा वाद्य और कलश का अधिकार है। यदि जैन दर्शन को हानि या वृद्धि हुई ते। वैष्णवों को इसे अपनी ही हानि या वृद्धि समझना चाहिये । श्रीवैष्णवों को इस विषय के शासन समस्त राज्य की बस्तियों में लगा देना चाहिये। जैन और वैष्णव एक हैं, वे कभी दो न समझे जायें।
श्रवण वेल्गोल में वैष्णव अङ्ग-रक्षकों की नियुक्ति के लिये राज्य भर में जैनियों से प्रत्येक घर के द्वार पीछे प्रतिवर्ष जो एक 'हण' लिया जाता है उसमें से तिरुमल के तातय्य, देव की रक्षा के लिये, बीस रक्षक नियुक्त करेंगे और शेष द्रव्य जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार व पुताई श्रादि में खर्च किया जायगा। यह नियम प्रति वर्ष जब तक सूर्य चन्द्र हैं तब तक रहेगा। जो कोई इसका उल्लंघन करे वह राज्य का, संघ का और समुदाय का द्रोही ठहरेगा। यदि कोई तपस्वी व ग्रामाधिकारी इस धर्म में प्रतिघात करेगा तो वह गंगातट पर एक कपिल गौ और ब्राह्मण की हत्या का भागी होगा !
(पीछे से जोड़ा हुआ)
कल्लह के हवि सेटि के पुत्र बुसुवि सेट्टि ने बुक्कराय को प्रार्थनापत्र देकर तिरुमले के तातय्य को बुलवाया और उक्त शासन का जीर्णोद्धार कराया। दोनों सङ्घों ने मिलकर बुसुवि सेटि को संघनायक का पद प्रदान किया।
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२६६ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
१३७ (३४५) उसी स्थान में द्वितीय स्तम्भ पर
( लगभग शक सं० १०८०) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्यावादामोघ-लाञ्छनं ।
जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ।। १ ।। भद्रमस्तु जिन-शासनाय ।।
स्वस्ति-श्री-जन्म-गेहं निभृत-निरुपमौर्वानलोदाम-तेजं विस्तारान्तःकृतावीतलममल-यशश्चन्द्र-सम्भूति-धाम । वस्तु-बातोद्भव-स्थानकमतिशय-सत्वावलम्वं गभीरं प्रस्तुत्यं नित्यमम्मानिधि-निभमेसेगुं होय्सलोीश-वंशं
॥२॥ अदरोलु कौस्तुभदोन्दनय-गुणम देवेभदुद्दाम-मस्वदगुर्व हिम-रश्मियुज्वल-कला-सम्पत्तियं पारिजातदुदारत्वद पेम्पनोवने नितान्तं ताल्दि तानल्त पु
ट्टिदनुद्वेजित-वीर-वैरि-विनयादित्यावनीपालकं ।। ३ ।। क ॥ विनयं बुधर रजिसे
धन-तेज वैरि-बलमनललि से नेगल्द । बिनयादित्य-नृपालकननुगत-नामार्थनमल-कीर्ति-समर्थ ।। ४ ।।
आ-विनयादित्यन वधु भावोद्भव-मन्त्र-देवता-सन्निभेस
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख द्भाव-गुण-भवनमखिलकला-विलसिते-केलयबरसियेम्बलं पेसरि ।।५।। आ-दम्पतिग तनूभवनादं शचिगं सुराधिपतिगं मुन्नेन्तादं जयन्तनन्ते विषाद-विदुरान्तरङ्ग नेरेयङ्ग-नृपं ॥ ६ ॥ प्रात चालुक्य-भूपालन बलदभुजादण्डमुद्दण्ड-भूपबात-प्रोत्तुङ्ग-भूभृद्-विदलन-कुलिश वन्दि-सस्यौघ-मेघ । श्वेताम्भोजात-देव-द्विरदन-शरदभेन्दु-कुन्दावदातख्यात-प्रोद्यद्यशश्श्री-धवलित-भुवनं धोरनेकाङ्ग-बार ।। ७ ।। एरेयनेले गंनिसि नंगल्दिदुरेयग-नृपालतिलकनङ्गनचेल्विनरेवट शील-गुणदि नेरेदचलदेवियन्तु नान्तरुमालरं ॥८॥ एने नेगल्दव रिज़र्ग तनू-भवन्नेंगल्दरल्ते बल्लाल विष्णु-नृपालकनुदयादित्यनम्त्र पेस रिन्दमखिल-वसुधा-तल दाल ॥६॥ वृत्त ॥ अवरोल मध्यमनागियु भुवनदोल पृर्वापराम्भोधियं
यदुविन कूडे निमिर्चुवोन्दु निज-बाहा-विक्रमक्रीडयुद्भवदिन्दुत्तमनादनुत्तम-गुण-ब्रातैक-धामं धराधव-चूड़ामणि-यादवाब्ज-दिनपं श्री-विष्णु-भूपालकं ॥१०॥
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२६८ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख कन्द ।। एलेगेसेव कायतूर्त
तलवन-पुरमन्ते रायरायपुरववस्त बलेद विष्णुतेजोज्वलनदे बेन्दुवु बलिष्ठ-रिपु-दुर्गङ्गल ॥ ११ ॥ वृत्त ।। इनितं दुर्गम-वैरि-दुर्गचयमं कोण्डं निजाक्षेपदि
न्दिनिबन्र्भूपरनाजियोल्तविसिदं तन्नस्त्र-सङ्घातदिन्दिनिबग्नतभित्तनुद्घ-पदमं कारुण्यदिन्देन्दु ता
ननित लेकदे पेल्वोडब्ज-भवन विभ्रान्तनप्पंबलं ।। १२ । कन्द ॥ लक्ष्मी-देवि-खगाधिप
लक्ष्मङ्ग-सेदिई विष्णुगेन्तन्ते बलं लक्ष्मा-देवि-लसन्मृगलक्ष्मानने विष्णुगग्र-सतियेने नेगल्दल ॥ १३ ॥ अवर्गे मनोजनन्ते सुदती-जन-चित्तमनीलकालल्के साववयव शोभेयिन्दतनुवेम्बभिधानमनानदङ्गनानिबहमनेच्चु मुवनणमानदे बीररनेच्चु युद्धदोल तविसुवोनादनात्म-भवनप्रतिमं नरसिंह-भूभुजं ॥ १४ ॥ पड़े माते बन्दु कण्डङ्गमृत-जलधि तां गर्बदि गण्ड-वात नुडिवातङ्गेननेम्बै प्रलय-समय-दोल मेरेयं मीरिवर्याकडलन्न कालनन्न मुलिद-कुलिकनन्न युगान्तानियन सिडिलन सिंहदन्नं पुर-हर-नुरिगण्णननी नारसिंह ॥१५॥ रिपु-सर्पहर्प-दावानल-बहल-सिखा-जाल-कालाम्बुवाह रिपु-भूपोद्यत्प्रदोप-प्रकर-पटुतर-स्फार-झन्झा -समोरं ।
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
रिपु-नागानीक- तार्क्ष्य रिपु- नृप - नलिनी - पण्ड - दण्डरूपं रिपु-भूभृद-भूरि-त्रज्ञ ं रिपु-नृप-मदमातङ्ग- सिंहं नृसिंहं । १६ । स्वस्ति समधिगत पञ्च महाशब्द महामण्डलेश्वर । द्वारवती-पुरवराधीश्वर । तुलुव-बल- जलधि - बडवानल | दायाददावानल | पाण्ड्य-कुल- कमल - वेदण्ड । गण्ड-भेरुण्ड । मण्डलिक जेण्टेकार | चाल कटक - सूरेकार। संग्राम-भीम | कलिकाल काम । सकल- वन्दि-वृन्द-सन्तर्पण- समग्र वितरण - विनोद | वासन्तिका देवी लब्ध-वर प्रसाद यादव - कुलाम्बर यु मयि । मण्डलिक-मकुट-चूड़ामणि- कदन-प्रचण्ड मलपरोल गण्ड | नामादि प्रशस्ति सहित श्रीमत-त्रिभुवन मल्ल तलकाडु कोङ्ग, नङ्गलि नोलम्बवाडि बनवसे हानुङ्गल-गोण्ड भुज-बल वीरगङ्गप्रताप - होयसल - नारसि ह- देवर् दक्षिण-मही- मण्डलमं दुष्टनिग्रह - शिष्टप्रतिपालन- पूर्वकं सुख-सङ्कथा-विनाददिं राज्यं गेय्युत्तमिरं तदीय- पितृ-विष्णु- भूपाल-पाद-पद्मोपजीवि ||
आनेगल्द नारसिंह-ध
C
रानाथङ्ग मर-पतिगं वाचस्पतिवोल
ताने सेनुचित-कार्य-वि
धान-धर मान्य-मन्त्रि हुल्ल चमूपं ॥ १७ ॥ वृत || कलङ्क पितृवाजि-वंश-तिलकं श्रोयक्षराजं निजाबिके लोकाम्बिके लोक वन्दिते सुशीलाचारं देवन्दिवीश-कदम्ब-स्तुत-पाद-पद्मनरुह नाथ यदुक्षोणिपालक-चूड़ामणि नारसिंह नेनले पेम्पुल्लनो हुल्लपं ॥ १८ ॥
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२७० श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
धरयं गल्दिह तिण्पुल्लननुदधियनेनेम्ब गुण्पुल्लनं मन्दरमं माऊल्व पेम्पुल्लननमर-महोजातमं मिक्क लोकात्तरमप्पाप्पुल्लनंपुल्लननेसेव जिनेन्द्राङ्घि, पङ्कज-पूजास्कराल तल्पोयदलम्पुल्लनननुकरिसल मर्त्यनावोंसमर्थ १६ सुमनस्सन्तति-सेवितं गुरु-वचो-निदिष्ट-नीति-क्रम समदाराति-बल-प्रभेदन-कर श्री-जैन-पूजा-समाज-महोत्साह-पर पुरन्दरन पेम्पं ताल्दि भण्डारि-हलमदण्डाधिपनि पं महियालुद्यद्वैभव-भ्राजितं ।। २० ।। सततं प्राशि-वधं विनोदमनृतालापं वचः-प्रौढ़ि सन्ततमन्यास्र्थमनील्दु कोल्बुदे वलं तेजं पर-स्त्रीयराल । रति-सौभाग्यमनून-काङ २ मतियाटतेल्लार्गमापोल्तपब्बतरत्न-प्रकरक्के-शील-भट-रोल्गाहुल्लनं हल्लनं ॥२१ ।। स्थिर-जिन-शासनोद्धरणरादियोलारेन राचमल्ल-भूवर-वर-मन्त्रि-रायने बलिक्कं बुध-स्तुतनप्प विष्णु-भूवर-बर-मन्त्रिगङ्गणन मत्ते बलिक्क नृसिह-देव-भूवर-वर मन्त्रि हुल्लने पेरगिनितुल्लड पेललागदै ।। २२ ।। जिन्द-गदितागमार्थ-विदरस्त-समस्त बहिर प्रपञ्चरत्यनुपम-शुद्ध-भाव-निरतर्गत-मोहरेनिप्प कुक्कुटासन-मलधारि-देवरे जगद्गुरुगल गुरुगल निन-व्रतकेनेगुणगौरवक्के ताणेयारो चमूपति-हल्ल-राजना ।। २३ जिन-माहोद्धरणङ्गलिं जिन-महा-पुजा-समाजङ्गलिजिन-योगि-ब्रज-दान दिं जिन-पद-स्तात्र-क्रिया निष्ठयि
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
जिन - सत्पुण्य- पुराण-संश्रवणदिं सन्तोषमं ताल्दि भव्यनुत ं निच्चलुमिन्ते पाल्तुगलेवं श्री हुल्ल दण्डाधिपं ॥ २४ ॥ अर्नमादुद
कन्द || निप्पट
नुप्पट्टाय्तन महा-जिनेन्द्रालयम ।
निप्पोसतु माडिद कर
मोरे हुल्ल मनस्वि बङ्कापुरदालू ।। २५ ।। मन्तमल्लिये ||
वृत ॥ कलितनमुळे विटत्वमुमनुल्लवना दियोलोर्व्वनुर्व्वियाल कलिविटम्बनातन जिनालयम' नरे जीनमादुदं । कलि सलं दानदोलू परम सौख्य- रमारतियाल विटं विनिश्चलवे निसिद्द' हुल्लनदनेत्तिसिदं रजताद्रि-तुङ्गम ं ॥ २६ ॥ प्रियदिन्दं हुल्ल-सेनापति कोपण-महा-तीर्थदे।लू घात्रियुं वार्द्धियुमुल्लन्न चतुर्व्विशंति- जिन-मुनि सङ्घक्के निश्चिन्तमागक्षय-दानं सल्ब पाङ्गि बहु- कनक-मना- क्षेत्र - जर्गित्तु सट्टत्तिय निन्तीलोक मेल्लम्पोगले बिडिसिद पुण्य-पुञ्जैकधामं ॥
।। २७ ।।
प्राकल्लङ्ग रेयादि तीर्थ मदुमुन गङ्गरिं निर्मित लोक प्रस्तुतमाय्तु काल- बशदि नामावशेष बलिका कल्प - स्थिरमागे माडिसिदनी - भास्वज्जिनागारम श्री कान्त ं सलदिन्दमंयदे कलसं श्री हुल्ल-दण्डाधिपं ॥ २८ ॥
कन्द || पञ्च महा-वसतिगल
पञ्च- सुकल्याण- वान्छेयि हुल्ल-चमू
१८
२७१
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२७२ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
पं चतुरं माडिसिदं
काञ्चन-नग-धैर्य्यनेसेव केल्लङ्गेरेयोल ॥ २६ ॥ कन्द ॥ हुल्ल-चमूपन गुण-गण
मुल्लनितुमनारा नेरेये पोगलल नरेवर बल्ल दाललेदुदधिय जलमुल्ल नितुमनारो परणि वल नेरेवन्नर ॥ ३० ॥ संश्रित-सद्गुणं सकल-भव्य-नुतौं जिन-भासितार्थ-निसंशय बुद्धि-हुल्ल-पृतनापति कैरव-कुन्द-हंस-शुभ्रांशु-यश जगन्नुतदोली-बर-बेल्गुल तीर्थदोल चतु
विशति तीर्थकृन्निलयम नेरे माहिसिदं दलिन्तिदं ॥३१॥ कन्द ।। गोम्मटपुर-भूषणमिदु
गोम्मटमारतेने समस्त-परिकर-सहित । सम्मददि हुल्ल-चमू
पं माडिसिद जिनोत्तमालयमनिद ।। ३२ ।। वृत्त ॥ परिसूत्र नृत्य-गह प्रविपुल-विलसत्पत-देशस्थ-शैल
स्थिर-जैनावास-युग्मं विविध-सुविध-पत्रोल्लसद्-भाव-रुपास्कर-राजद्वार-हवें बेरसतुल-चतुर्विंश-तीर्थेशगेह परिपूर्न पुण्य-पुख-प्रतिममेसेदुदीयन्ददि हुल्लनिन्दं ॥३३॥
स्वस्ति श्री-मूल-सङ्घद देशिय-गणद पुस्तक-गच्छद काण्डकुन्दान्वय-भूषणरप्प श्री-गुणचन्द्रसिद्धान्त-देवर शिष्यरप्प श्री-नयकीर्ति-सिद्धान्त-देवरेन्तप्परेन्दोडे ।।
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख २७३ वृत्त ।। भय-मोह द्वय-दूरनं मदन-धोर-ध्वान्त-तीब्रांशुव
नय-निक्षेप-युत-प्रमाण-परिनिीतार्थ-सन्दोहनं । नयनानन्दन-शान्त-कान्त-तनुव सिद्धान्त-चक्रेशनं नयकीर्ति-ब्रतिराजनं नेनेदोडं पापोत्कर पिङ्गगुं ॥३४॥ कृत-दिग्जैत्रविधं बरुत्ते नरसिंह-क्षोणिपं कण्डु सन्मतियिं गोम्मट-पार्श्वनाथजिनर मत्तोचतुर्विशतिप्रतिमारोहमनिन्तिवर्क विनतं प्रोत्साहदि बिट्टनप्रतिमल्लं सवणेरनूरनभय कल्पान्तरं सल्विनं ।। ३५ ।।
प्रदर्के नयकीर्ति-सिद्धान्त-चक्रवर्तिगलं महा-मण्डलाचार्य रनाचार्याडि ॥ वृत्त । तवदाचित्यदे नारसिंह-नृपनि तां पेत्तुदं सद्गुणा
नवनी जैन-गृहक्क माडिदनचण्ड हल्ल-दण्डाधिपं । भुवन-प्रस्तुतनोप्पुतिर्प सवणेरेम्बूरनम्भोधियु रवियु चन्द्रनुमुर्वरावलयमुनिल्वन्नेगं सल्विनं ॥ ३६ ।।
ग्राम-सीमेयेन्तेन्दडे मूडण-देसेयोल सवणेर-बेक्कनेडेय सीमे करडियरे अल्लिं तेङ्क हिरियोब्बेयि पोगलु बिम्बि-सेट्टिय केरेय कोडिय कील-बयलु अल्लिं तेङ्क बरहाल करेयच्चुगट्ट मेरेयागि हिरियोब्बेय बसुरिय तेङ्कण केम्बरेय हुणिसे तेङ्कण देसेयोलु बिलत्तिय सवणेर एडेय एरेय दिणेय हुणिसेय कोल-हिरियाल अल्लि हडुवलु हिरियोब्बेय सेल्ल-मोरडिय हडुवण बल्लेय केरेय तेङ्कण-कोडिय बलरिय बन अल्लिन्दत्त तरिहडिय कलिय मनकट्टद तावल्ल जनवुरद हिरियकरेय ताबल्ल सीमे ।। हडवण
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२७४ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख देसेयोल जन्नवुरक सवणेरिङ्ग सागरमादे जन्नवर सवणेर केरेयेरिय नडुवण हिरिय हुणिसे सीमे बडगणदेसेयोल कक्किन कोहु अदर मूडम बीरजन केरे आ-केरेवालगे सवणेर बेडुगन हल्लिय नडुवे बसुरिय दोणे अल्लि मूडलालज्जन कुम्मरि अल्लिमूड चिल्लदरे सीमे ॥
ई-स्थलदिन्दाद द्रव्यमनिल्लियाचार्यरी-स्थानद बसदिगल खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारक देवता-पूजेगं रङ्गभोगकं बस दिगे बेस केय्व प्रजेगं ऋषि-समुदायदाहार-दानक सलिसुवुदु ।।
इदनावं निज-कालदोल सु-विधियिं पालिप्प लोकोत्तम विदित निर्मल-पुण्य-कीर्त्तियुगमता ताल्दुगु मत्तमिन्तिदनावं किडिपोन्दु कट्ट-बर्गय तन्दातनाल्दु गभीर दुरन्तो ......
....... ॥ ३७॥ इस लेख में होयसल वंशी नारसिंह नरेश के मन्त्री हुल्लराज द्वारा गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य नयकीति सिद्धान्तदेव को सवणेरु ग्राम दान करने का उल्लेख है। प्रारम्भ में हारपल वंश का वही वर्णन है जो लेख नं० १२४ में पाया जाता है । हुल्ल वाजिवशी यक्षराज और लेोकाम्बिके के पुत्र थे। वे बड़े ही जिनभक्त थे। 'यदि पूछा जाय कि जैन धर्म के सच्चे पोषक कौन हुए तो इसका उत्तर यही है कि प्रारम्भ में राचमल्ल नरेश के मन्त्री राय ( चामुण्डराय ) हुए, उनके पश्चात् विष्णु नरेश के मन्त्री गङ्गण (गङ्गराज ) हुए और अब नरसिंहदेव के मन्त्री हुल्ल हैं।' हुल्ल मन्त्री के गुरु कुक्कुटासन मलधारिदेव थे। मन्त्री जी को जैनमन्दिरों का निर्माण व जीर्णोद्धार कराने, जैनापुराण सुनने तथा जैन साधुओं को आहारादि दान देने की बड़ी रुचि थी। उन्होंने बंकापुर के भारी और प्राचीन दो मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया,
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख २७५ कोपण में नित्यदान के लिये 'वृत्तियों का प्रबन्ध किया, गङ्ग नरेशों द्वारा स्थापित प्राचीन 'केल्लभैरे' में एक विशाल जिन मन्दिर व अन्य पाँच जिन मन्दिर निर्माण कराये व बेल्गुल में परकोटा, रङ्गशाला व दो श्राश्रमों सहित चतुर्विशति तीर्थ कर मन्दिर निर्माण कराया। सवणेरु ग्राम का दान नारसिंह देव के विजययात्रा से लौटने पर इस मन्दिर की रक्षा के हेतु दिया गया था।
१३७ ( ३४६) उसी पाषाण की दायीं बाजू पर
( लगभग शक सं० १०८७ ) श्रीमत्सुपाव देवं भू-महित मन्त्रि हुल्ल राजङ्ग तद्भामिनि-पद्मावतिगं क्षेमायुर्विभव-वृद्धियं माल्कभबं ॥ १ ॥ कमनीयानन-हेम-तामरसदि नेत्रासिताम्भोजदिन्दमलाङ्ग-द्युति-कान्तियिं कुच-रथाङ्ग द्वन्द्वदि श्रो-निवासमेनलु पद्मल-देवि राजिसुतमिर्पल हुल्ल-राजान्तरङ्ग-मरालं रमियिप्प पद्मिनियवोलु नित्यप्रसादास्पदं ॥२॥ चल-भाव नयनक्के कार्यमुदरक्कत्यन्तरागं पदौष्ठ-लसत्पाणि-तलक्के कर्कशते वक्षोजक्के कार्य कचकलसत्व गतिगल्लदिल्ल हृदयकेन्दन्दु पद्मावतीललना-रत्नद रूप-शील-गुणमं पोल्वनराकान्तेयर ॥ ३॥
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२७६ अवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
उरगेन्द्र-क्षीर-नीराकर-रजत-गिरिश्री-सित-च्छत्र-गङ्गाहर-हासैरावतेभ-स्फटिक-वृषभ-शुभ्राभ्र-नीहार-हारामर-राज-श्वेत-पङ्क रुह-हलधर-वाकछसहंसेन्दु-कुन्दोकर-चञ्चकीर्ति-कान्तं बुध-जन-विनुतं भानुकीति
ब्रतीन्द्र ॥४॥ श्रो नयकीर्ति-मुनीश्वरसूनु श्री भानुकीर्ति-यति-पतिगित्तं । भूनुतनप्पाहुल्लपसेनापति धारयेरेदु सवणेरुर ॥ ५ ॥ [ इस लेख में हुल्लराज मन्त्री की धर्मपत्नी पद्मावती ( पालदेवी) की प्रशंसा के पश्चात् उल्लेख है कि हुल्लराज ने नयकीर्ति मुनि के शिष्य ( सूनु ) आनुकीत्ति को धारापूर्वक सवणेरु ग्राम का दान दिया।]
१३७ (३४७) उसी पाषाण की वायीं बाजू पर
(शक सं० १२०० ) स्वस्ति श्री-जयाभ्युदयश्व-शक-वरुषं १२०० नेय बहुधान्य-संवत्सरद चैत्र-सु १ सु भण्डारियय्यन बस दिय श्री-देवरबल्लभ-देवरिगे नित्याभिषेकक्के अक्षय-भण्डारवागि श्रीमनु महा-मण्डलाचारियरु उदचन्द्र-देवर शिष्यरु मुनिचन्द्र-देवरु ग२ प ५ कं हालु मान २ श्रीमतु चन्द्रप्रभ-देवर
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख शिष्यरु पदुमन्दि -देवरु कोट्ट पह, श्रीमन्महामण्डलाचारियरु नेमिचन्द्र देवर तम्म सातगानवर मग पदुमण्ननवरु कोट्ट ग १ प २ मुनिचन्द्र-देवर अलिय आदियण्न ग १ प २६ बम्मि सेट्टियर तम्म पारिस-देव ग १ प २३ जनवुरद सेनवोव मादय्य ग १ प २२ प्रातन तम्म पारिस-देवय्य सिंगण्न प ६, सेनबोव पदुमण्नन मग चिकन ग प १ भारतियक्कन नेम्मवेयक प १ अग्गप्पगे...
श्रीमन्महा-मण्लाचारियरु राजगुरुालुमप्प श्री-मूल-सङ्घद समुदायङ्गल दुम्मुखि-संवत्सरद आषाढ़ सु ५ मा ।। श्रीगोम्मट-देवर श्री-कमठ-पारिश्व-देवरु भण्डार्ययन बसदिय श्रोदेवरवल्लभ-देवरु मुख्यवाद बसदिगल देव-दानद गहे बेद्दलु सहित खाण अभ्यागति कटक-शेसें बसदि मनक्षतयिवु मुन्तागि येनुवर्नु कोलिवेन्दु बिट्ठ श्री-बेलगुल-तीर्थद समस्तमाणिक्य-नगरलु कब्बाहु-नाथ-अरुवणद गाडु-प्रजेगलु मुन्तागि श्रोदेवरवल्लभ-देवर हाडवरहल्लिगे सम्भुदेव अन्यायवागि मलब्रयवागि कोम्ब गद्याण अय्दनु आदेवरवल्लभ-देवर रङ्ग भोगक्के सलुवुदु साहल्लिय अष्ट-भोग-तेज-साम्य किरुकुल येना दोडं प्रादेवरवल्लभ-देवर रङ्ग-भोगक्के सलु ।।
[उक्त तिथि को भण्डारियय बस्ती के देवर वल्लभदेव के नित्या. भिषेक के लिए उदयचन्द्र देव के शिष्य मुनिचन्द्र देव आदि ने उक्त चन्दे की रकम एकत्रित की ।
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२७८ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
१३८ (३४८) भण्डारिबस्ति में पश्चिम की ओर
(शक सं० १०८१) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ।। १ ।। भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने । कुतीर्थ-ध्वान्त-सङ्घात-प्रभेद-घन-मानवे ।। २ ।। स्वस्तिहोयसलवंशाय यदुमूनाय यद्भवः । चत्र-मौक्तिकसन्तानर पृथ्वीनायक-मण्डनं ।। ३ ।। श्रीधर्माभ्युदयाब्जषण्डतरणिस्सम्यक्तचूड़ामणिौतिश्रीसरणिप्रतापधरणिर्दानार्थि-चिन्तामणिः । वंशे यादवनानि मौक्तिक-मणिर्जातो जगन्मण्डनः
क्षीराब्धाविव कौस्तुभोऽत्रविनयादित्यावनीपालकः ॥४॥ अपि च ॥ श्री कान्ता-कमनीयकलिकमलोल्लासात्सुनित्यादया
दन्धि-क्षितिपान्धकार-हरणाद् भूयर प्रतापान्वयात् । दिकचक्राक्रमणाद्विशत्कुवलय-प्रध्यसनाद्भूतले ख्यातोऽन्वर्थनिजाख्ययैष विनयादित्यावनीपालकः ॥५॥ धात्रा त्रिलोकोदर-सारभूतैरंशैन्मुंदा स्वस्य विनिर्मितेव । तस्य प्रिया केलियनामदेवी मनोज राज्य-प्रकृतिबभूव ॥६॥ तयोरभूभूनुतभूरिकीति पराक्रमाक्रान्तदिगन्तभूमिः । तनूभवः क्षत्रकुलप्रदीप: प्रतापतुङ्गोन्वेरेयङ्गभूपः ।। ७ ।।
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २७६ वितरण-लता-वसन्तप्रेमदारतिवार्द्धि-तारकाकान्तः । साक्षात्समरकृतान्ता जयति चिरं भूप-मकुट-मणिररेयः॥
॥८ ॥ अपि च ॥ शरदमृत-श्रुति-कोतिर्मनसिजमूर्ति
विरोधिकुरुकपिकेतुः। कलि-काल जलधि-सेतु
जयति चिरं क्षत्र-मौलि-मणिररेयङ्गः ।। ६॥ अपि च ।। जयलक्ष्मीकृत सङ्गः कृत-रिपु-भङ्गः प्रणूत-गुण-तुङ्गः।
भूरि-प्रताप-रङ्गो जयति चिरनृप-किरीट-मणिरेरेयङ्गः॥१०॥ अपि च ॥ लक्ष्मीप्रेमनिधिव्विदग्ध-जनता चातुर्य चर्चा-विधि
रिश्री-नलिनी-विकास-मिहिरो गाम्भीर्य-रत्नाकरः । कीति-श्री-लतिका-बसन्त-समयस्लौन्दर्यलक्ष्मीमय
स्सश्रीमानेरेयङ्ग-जुङ्गनृपतिः कैः कैर्न संवय॑ते ।। ११ ॥ अपि च ॥ कश्शनोत्यरेयङ्गमण्डलपतेहोर्विक्रमकोडनं
स्तोतुं मालव-गण्डलेश्वरपुरी धारामधाक्षीत् क्षणात् । दो:कण्डूल-कराल चाल कटक द्राक कान्दिशीकं व्यधान निर्धामाकृतचक्रगोट्टमकरोद् भङ्ग कलिङ्गस्य च ॥१२॥ कान्ता तस्य लतान्तवाणललना लावण्यपुण्यादयः सौभाग्यस्य च विश्वविस्मयकृतात्रोधरित्री-भृतः । पुत्रीवद्विलसत्कलासु सकलास्वम्भोजयोनेवधूरासीदेचल-नामपुण्यवनिता राज्ञी यशश्श्रीसखी ॥ १३ ॥
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२८० श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख अपि च ।। कुन्तल-कदली-कान्ता पृथु-कुच-कुम्भा मदालसा भाति
सदा। स्मर-समरसज्जविजयमतङ्गोद्भवचारु-मूतिरेचलदेवी।
॥१४॥ अपि च ॥ शचीव शक्रंजनकात्मजेव रामगिरीन्द्रस्य सुतेव शम्भु।
पाव विष्णुं मदयत्यजस्रं सानङ्गलक्ष्मीरेरेयङ्ग भूपं ॥१५॥ कौसल्यया दशरथो भुवि रामचन्द्र
श्रीदेवकीवनितया वसुदेवभूपः । कृष्णं शचीप्रमदयेव जयन्तमिन्द्रो
विष्णु तया स नृपतिजनयांबभूव ॥१६॥ उदयति विष्णौ तस्मिन्ननेशदरिचक्र-कुल मिलाधिपचन्द्रे । अधिकतर-श्रियमभजत्कुवलय - कुलमश्वदमलधाम्भोधिः।।
॥१७॥ अपि च । निर्दलितकायतूरा भस्मीकृतकाङ्ग-रायरायपुरः । ___घट्टित घट्ट-कवाट: कम्पितकाञ्चीपुरस्सविष्णुनृपालः॥१८॥ अपि च ।। अतुल-निज-बल-पदाहति-धूलीकृततद्विराटनरपतिदुर्गः। ____ वनवासितवनवासो विष्णुनृपस्सरलितोरु-वल्लूरः ॥१८॥ अपि च ।। निज-सेना-पद-धूलीकईमित-मलप्रहारिणीवारिः । कलपाल-शोणिताम्बु-निशातीकृत-निजकरासिरवनिप
विष्णुः॥२०॥ अपि च ।। नरसिंह-वर्म-भूभुज-सहस्रभुज-भूजपरशुरामोऽपि ।
चित्रं विष्णुनृपालश्शतकृत्वोऽप्याजिनिहित-शत्रु-क्षत्रः ॥२१॥
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २८१ अदियम-पृथुशौर्याय॑मराहुश्चेङ्गिरि-गिरीन्द्र-हति-पवि
दण्डः तलवनपुरलक्ष्मी पुनरहरजयमिव रिपोस्स विष्णु-नृपः
॥२२॥ अपि च । चक्रिप्रेषित-मालवेश्वरजगद्देवादिसैन्यानवं
घूर्नन्त सहसापिवत्करतलेनाहत्य मृत्यु-प्रभुः । प्राक पश्चादसिनाग्रहीदिह महीं तत्कृष्णवेण्यावधि
श्रीविष्णुर्भुजदण्डचूर्णितनितान्तोतुङ्गतुङ्गाचलः ॥ २३ ॥ अपि च ।। इरुङ्गोल-क्षोणी-पति-मृगमृगारातिरतुल:
कदम्ब-क्षोणीश-क्षितिरुह-कुलच्छेद-परशुः । निज-व्यापारक-प्रकटितलसच्चौर्यमहिमा
स विष्णुः पृथ्वीशो न भवति वचोगोचरगुणः ॥२४॥ साक्षालक्ष्मी-विपदपगमे विश्वलोकस्य नाना
लक्ष्मीदेवी विशदयशसा दिग्धदिकचक्रभित्तिः । दृप्यद्वैरि-क्षितिप-दितिजत्रात-विध्वस-विष्णोः विष्णोस्तस्य प्रणय-वसुधासीसुधानिर्मिताङ्गी ॥ २५ ॥ ब्रह्माण्ड-भाण्ड-भरितामलकीर्ति-लक्ष्मीकान्तस्तयोरजनि सूनुरजातशत्रुः । पृथ्वीश-पाण्डु-पृथयोरिव पुष्पचापो
दैत्य-द्विषत् कमलयोरिवनारसिंहः ।। २६ ।। अपि च ॥ गर्ब बर्बर मुञ्च काञ्चन-चयं चालाशु राशीकुरु
क्षमं भिक्षय चेर चीवरमुखा दूरेण विज्ञापय ।
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२८२ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख स्वगौडेति नृसिंह-भूरि-नृपतेमध्ये सदस्सर्वदा दुर्वारस्सरति ध्वनिः परिजनानिर्घात-
निर्घोष-जित ॥२७॥ अपि च ॥ शार्य नैष हरेः परत्र तरणेरन्यत्र तेजस्वितां
दानित्वं करिण : परत्र रथिनामन्यत्र कीति रदात् । राज्य चन्द्रमसर्परत्र विषमास्त्रत्वं च पुष्पायुधा
दन्यत्रान्य-जने मनाक च सहते श्रीनारसिंहानृपः ॥२८॥ अपि च ॥ स भुज-बल-बीर-गङ्ग-प्रताप-होयसलापर-नामा । पालयति चतुस्समय मादामम्बुनिधिरिवाति प्रीत्या
॥२॥ चागल-देवी-रमणो यादव-कुल-कमल-विमल-मातण्ड-श्रीः।।
छित्वा दृप्त-विरोधि-श-गहनं दिगजैत्र-यात्रा-विधावारुह्योदय-भूधरं रविरिवादिं दीप-वत्ति श्रिया । नत्वा दक्षिण-कुक्कुटेश्वर-जिन-श्री-पाद-युग्मं निधि राज्यस्याभ्युदयाय कल्पितमिदं स्वम्यात्मभण्डारिणा ॥ ३० । सर्वाधिकारिणा कार्य-विधी योगन्धरायणादपि दक्षेण नीतिज्ञगुरुणा च गुरोरपि ॥ ३१ ॥ लोकाम्बिकातनूजेन जक्कि-राजस्य सूनुना। ज्यायसा लोक-रक्षक-लक्ष्मणामरयारपि ॥ ३२ ॥ मलधारि-स्वामि-पद-प्रथित-मुदा वाजि-श-गगनांशुमता। हिम-रुचिना गङ्ग-मही-निखिल-जिनागार-दान-तोयधि-विभवै
॥३३॥
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २८३ दूरी-कृत-कलि-स्यूत-नृ-कलङ्कन भूयसा । चरित्र-पयसा कीर्ति-धवलीकृत-दिशालिना ॥ ३४ ॥ त्रिशक्ति-शक्ति-निर्भिन्न-मदवद्भरि-वैरिणा। हुल्लपेन जगन्नत-मन्त्रि-माणिक्य-मौलिना ॥ ३५ ॥ चतुर्विशति-जिनेन्द्र-श्री-निलय मलयाचलं । सद्धर्म-चन्दनोद्भूतौ दृष्ट्वा निर्मापितं ततः ॥ ३६॥ द्वितीयं यस्य सम्यक्तव-चूड़ामणि-गुणाख्यया। भव्य-चूड़ामणिन्नाम तस्मै प्रोत्या ददात्ततः ॥ ३७ ।। दानार्थ भव्य-चूड़ामणि-जिन-बसता वासिना सन्मुनीनां भोगार्थ चानुजीगोंद्धरण मिह जिनेन्द्राष्टविध्यर्चना । श्री-पार्श्व-स्वामिनां च त्रिजगदधिपतेः कुक्कुटेशस्य पत्युः । पुण्यश्री-कन्यकाया विवहन-विधये मुद्रिकामर्पयन्वा ॥३८॥
एकाशीत्युत्तर-सहस्र-शक-वर्षेषु गतेषु प्रमादिसंवत्सरस्य पुष्य-मास शुद्ध शुक्रबारचतुर्दश्यामुत्तरायणसंक्रान्ती श्री-मूल-संघदेशियगणपुस्तकगच्छसम्बन्धिनं विधाय ॥
नरसिंह-हिमाद्रितदुध्रित-कलश-हद-क-हुल्ल-कर-जिहिकेया नत-धारा गङ्गाम्बुनि सचतुर्विशतिजिनेश-पादसरसीमध्य। सवणेरुमदाद्भूपतिरगणित-बलि-कपन -नृपति-शिवि-खचर
पतिः प्रगुणित-कुबेरविभवत्रिगुणीकृत-सिंहविक्रमो नरसिंहः ।३॥
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२८४ श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख
अतःपरं ग्राम-सीमाभिधास्यते ।। तत्र पूर्वस्यां दिशि सवोरबेक्कन यडेय सीमे करडियरे अल्लिं तेङ्क हिरियोब्बेयिं पोगलु बिम्बिसेट्टियरेय कोडिय किम्बयलु ।। अल्लिं तेङ्क बरहालकेरेय अच्चुगट्ट मेरेयागि हिरियोब्बेय बसुरिय तेङ्कण केम्बरेय हुणिसे ।। दक्षिणस्यां दिशि बिलत्तिय सवणेर यडेय एरेय दिणेय हुणिसेय कोल हिरियाल । अल्लिं हडुवलु हिरियोब्बेय सेल्ल मोरडिय हडुवण बल्लेयकेरेय तेङ्कणकोडिय बलरिय बन॥ अल्लिन्दत्त तरिहलिय कलियमनकट्टद तायवल्ल जनवुरद हिरिय केरेय ताय्वल्ल सीमे ॥ पश्चिमायां दिशि जनवुरक्कं सवणेरिङ्ग सागरमरियादे जनवूर सवणेर केरेयेरिय नडुवण हिरियहुणिसे सीमे ।। उत्तरस्यां दिशि कक्किन कोहु अदर मडण बीरज्जन केरेयाकेरेयोलगे सत्रणेर बेडुगनहल्लिय नडुवे बसुरिय दोणे । . अल्लि मुडलालज्जन कुम्मरि अल्लि मूड चिल्लदरे सीमे ॥
सामान्योऽयं धर्म-सेतु पाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः सर्वानेतान् भाविनार्थिवेन्द्रान भूयो भूयो याचते
रामचन्द्रः ॥४०॥ स्वदत्ता परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । षष्टिं वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ ४१ ॥ न विषं विषमित्याहु वस्त्र विषमुच्यते । विषमेकाकिन हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रकं ।। ४२ ॥ शरज्ज्योत्स्ना-लक्ष्मी-वपुषि बहलश्चन्दनरसो दिशाधोशस्त्रीणां स्फुरदुरुदुकूलैकवसनं ।
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख २८५
त्रिलोकप्रासाद-प्रकटित-सुधा-धाम-विशदं यशो यस्य श्रीमान् स जयति चिरं हुल्लप - विभुः ॥ ४३ ॥ अस्तु स्वस्ति चिराय हुल्ल भवते श्री जैन-चूड़ाम भव्य - व्यूह - सरोज - षण्ड-तरणे गाम्भीर्य्य-वारान्निधे । भास्वद्विश्व कला विधे जिन नुत-तोराब्धि-वृद्धीन्दवे स्वाद्यत्कीर्ति-सिताम्बुजेोदरलस द्वारासि वा बिन्दवे ||४४ || श्री गेम्मट पुरद तिप्पेङ्गदल्लि अडकेय हेरिङ २०० हम्बे व उप्पु हे गे बिसि १ हसुम्बे गोफल ५ मेलसु हेरिङ्गबल्ल १ सुम्बेगं मान १ मरिपन्नायदनि एलेय.... ...... रेग हाग १ मेलेले २०० गायदेरे इनितुमं तम्म सुदधि कारदन्दु चतुर्व्विशति- तीर्थ करपू. . प्रधान सoafधिकारि हिरिय भण्डारि हुल्लय्यङ्गलु हेगडे लक्कय्यङ्गलं हेगडे .... . होय्सल नारसिंह- देवनकय्य बेडि
....
कोण्डु बिट्टरु || इप्पत्त- नाल्वर मनेदेर प तां नुडिदुदे सद्वाणि तन्न पेल्दन्ददे लाडदोड दे मार्गमेन्दडे
नडेदु...
शशियिन्दम्बरमब्जदि तिलि-गोलं नेत्रङ्ग लिन्दाननं पोसमावि बनमिन्द्रनिं त्रिदिवमासे...
... कीर्ति -देव-मुनि सिद्धान्त-चक्र देश-निदेसेगु श्री जिन धर्म मेन्दडे बलिक्कं वपिं बण्पिं ॥ ४५ ॥ .. तौ लव्या चमू-नायकः ॥ श्री हुल्ल
त
श्रोनय......
44.
रसवणेरुमेवमददादाच..
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२८६ श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख ......क्त्या मुदा धारापूर्वक मुद्धरा-स्तुति-भृ......... ............श्री श्री
भव्याम्भोरुह-भास्करस्सुरस रिनोहारवु ......... ..................निः पुरार्थ्य-रत्नाकरः ।
सिद्धान्ताम्बुधि-वर्द्धनामृतकरः कन्दर्पशैलाशनिस्सोऽयं विश्रुत-भानुकीर्ति-मुनि.........तभूतले ॥४६॥
[ इस लेख में भी होयसलवंशी नारसिंह देव के वंश-परिचय के पश्चात् उनका चतुर्विशति मन्दिर की वन्दना करने तथा हुल्ल द्वारा सवमेरु ग्राम का दान करने का उल्लेल है । इस लेख में हुल्ल के लघु भ्राता लक्ष्मण का व श्रमर का भी नाम आया है । नारसिंह देव ने उक्त बस्ती का नाम भव्यचूडामणि रक्खा । हुल्लराज की उपाधि सम्यक्तव चूडामणि थी। लेख का अन्तिम भाग बहुत घिस गया है। इसमें हुल्लय्य हेग्गडे, लोकय्य श्रादि द्वारा नारसिंह देव को प्रार्थनापत्र देकर गोम्मटपुर के कुछ टेक्सों का दान चतुर्विशति तीर्थ कर बस्ति के लिये कराने का उल्लेख है। अन्त में भानुकीर्ति मुनि का भी उल्लेख है।]
१३८ ( ३५१) मठ के उत्तर की गोशाला में
(शक सं० १०४१) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥१॥ स्वस्ति श्री-वर्तमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । . श्री-काण्डकुन्दनामाभूच्चतुरङ्गुलचारणः ॥२॥ .
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श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
तस्यान्वयेऽजनि ख्याते विख्याते देशिके गये । गुणी देवेन्द्र- सिद्धान्त-देवो देवेन्द्र वन्दितः ॥ ३ ॥
अवर सन्तानदोल ||
"
thing
वृत्त । पर-वादि क्षितिभृन्निशात- कुलिश श्री-मूल-सङ्घाब्जपट - चर' पुस्तकगच्छ देशिग गण प्रख्यात योगीश्वरा— भरण' मन्मथ-भञ्जनं जगदोलाद ख्यातनाद दिवाकरणन्दि प्रतिपं जिनागम-सुधाम्भोराशि-ताराधिपं ॥ ४ ॥ अन्तेन लिन्तेनल्क रियेनेय्दे जगत्त्रय-बन्धरप्पपे
पं तले दिर्दरेम्बुदने बल्लेनदल्लदे संयम चरित्रं तपमेम्बिवत्तलगमिन्तु दिवाकरनन्दि-देव-सिद्धान्तिगेन्दsोन्दु रसनेोक्तियोलानदनेन्तु व ि॥ ५ ॥ तत्शिष्यरप ||
नेरेये तनुत्रमिदिवालिर्द मलन्तिने मेय्यनाम्युं तुरिसुबुदिल्ल निद्दे वरे मग्गुल निक्कु बुदिल्ल बागिल । किरु तेरेयेम्बुदिल्लुगुल्वुदिल्ल मलङ्गुवुदिल्लहीन्द्रनुं नेरेवने दसगुण गावलियां मलधारि देवर ॥ ६ ॥ अवरशिष्यर ||
२८७
वृत्त । कन्तुमदापहर्क्स कल - जीव दया पर - जैन-मार्ग-राद्धान्त - पयोधिगलु विषय- वैरिगलुद्धत-कर्म-भञ्जनसन्तत-भव्य-पद्म-दिनकृत्प्रभर शुभचन्द्र-देव-सिद्धान्त-मुनीन्द्रर पोगवुदम्बुधि-वेष्टित-भूरि-भूतलं ॥ ७ ॥
१८
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२८८
श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
इन्तिवर गुरुगलप्प श्रीमद्वयाकरणन्दि- सिद्धान्त - देवरु || वृत || आ-मुनि दीक्षेय कुडे समग्र तपो-निधियागि दान-चिन्तामणियागि सद्गुण-गणामखियागि दया-दम क्षमाश्री मुख-लक्ष्मियागि विनयार्णव- चन्द्रिकेयागि सन्तत श्रीमति गन्तियन्नै गल्दरुर्व्विये । लुबरे कूर्त्त कीर्त्तिसलु ॥ ८ ॥ श्रीमति गन्तियर्ज्जित - कषायिगलुप्रतपङ्गलिन्द मिती महियाल पोगर्त्तगे नेगतेंगे नान्तु समाधियिं जगत्स्वामियेनिप्प पेपिन जिनेन्द्रन पाद-पयोज-युग्मम - प्रेमदे चित्तदा निलिसि देवनिवास - विभूतिगेरिददलु || || सक वर्ष १०४१ नेय विलम्बि सम्बत्सरद फाल्गुणुशुद्ध पञ्चमी- बुधवार- दन्दु सन्न्यसन - विधियि श्रीमति गन्तियम्मुडिपि देवलोकक्के सन्दर ॥
अगणितमेने चारु-तपं
प्रगुणिते गुण-गण-विभूषणालङ्कृते यिन्तगणित - निजगुरुगे -निसि
घिगेय माङ्कब्बे गन्तियम्र्म्माडसिदर् ॥ १० ॥
करुण ं प्राणि-गणङ्गलाल चतुरतासम्पत्ति सिद्धान्तदोल परितोष गुण-सेव्य-भव्य-जनदोल निर्मत्सरत्व' मुनीश्वररोल धीरते घोर-वीर-तपदाल कयूगण्मि पोमल दिवाकरणन्दि प्रति पेम्पनें तलेदना योगीन्द्र-वृन्दङ्गलाल ॥११॥
"
"
^
[ यह लेख देशिय गण कुन्दकुन्दान्वय के दिवाकर नन्दि और उनकी शिष्या श्रीमती गन्ती का स्मारक है । दिवाकर नन्दि बड़े भारी योगी थे ।
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श्रवण बेलगोल नगर में के शिलालेख २५६ वे देवेन्द्र सिद्धान्त देव की शाखा में हुए थे। उनके दो शिष्य मलधारि देव और शुभनन्द्र देव सिद्धान्त मुनीन्द्र थे। श्रीमती गन्ती ने उनसे दीक्षा लेकर उक्त तिथि को समाधिमरण किया। यह स्मारक माङ्कब्जे गन्ती ने स्थापित कराया।]
१४० ( ३५२) मठ के अधिकार में एक ताम्र-पत्र पर का लेख
(शक सं० १५५६) श्री स्वस्ति श्रो-शालिवाहन-सक-वरुष १५५६ नेय भावसंवत्सरद आषाढ़-शुद्ध १३ स्तिरवार ब्रह्मयोगदल्लु श्रीमन्महाराजाधिराजराजपरमेश्वर अरि-राय-मस्तक-शुल शरणागतवज्रपञ्जर पर-नारी-सहोदर सत्य-त्याग-पराक्रम-मुद्रा. मुद्रित भुवन-बल्लभ सुवर्ण-कलस-स्थापनाचार्य षङधर्म-चक्रेश्वरराद मैयिसूर-पट्टण-पुरवराधीश्वरराद चामराजु बोडेरैयनवरु देवर बेलुगुलद गुम्मट-नाथ-स्वामियवर अर्चन-वृत्तिय स्वास्तियनु स्तानदवरु तम्म तम्भ अनुपत्यदिन्दावर्तक-गुरस्तरिगे अडहुबोग्यवियागि कोटु अडहुगाररु बाहुकाला अनुभविसि बरुत्ता यिरलागि चामराजवोडेयरय्यनवरु विचारिसि अडहु बोग्याविय अनुभविसि बरुत्ता यिदन्त वर्तकगुरुस्तरनु करे यिसि। स्तानदवरिगे नीवु कोटन्थ सालवनु तीरिसि कोडिसिवु येन्दु हेललागि वत्तक-गुरस्तरु प्राडिद मातु तावु स्तानदवरिगे कोटन्थ सालवु तम्म तन्देतायिगलिगे पुण्यवागलियेन्दु धारदत्त
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२६० श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख वागिधारयनु येरदु कोट्टेवुयेन्दुसमस्तरु प्राडलागि। स्तानदवरिगे वत्त क-गुरस्तर कैयल्लु । गुम्मट-नाथ-स्वामिय सन्निधियल्लि देवरु-गुरु-साक्षियागि धारयनु यरिसि। प्राचन्द्राक-स्तायवागि देवतासेवेयनु माडिकोण्डु सुकदल्लि यीहरु एन्दु बिडिसि कोट्ट धर्म-शासन ॥ मुन्दे बेलुगुलद. स्तानदवरु स्वास्तियनु प्रवानानोब्बनु अडहु-हिडिदन्तवरु अडव कोटन्तवरु धरुशन धर्मक्के होरगु स्थान-मान्यके कारुणविल्ल । यिष्टक्कु मीरि अडवकोटन्तवर अडव हिडिदन्तवरनु ई-राज्यक्के अधिपतियागिहन्थ धोरेगल ई-देवर धर्मवनु पूर्व मेरेगे नडसलुल्लवरु ।। ई-मेरेगे नडसलरियदं उपेक्षेय दोरेगलिगे वारणासियल्लि सहस्र कपिलेयनु ब्राह्मणन्नु कोन्द पापक्कं हाहरु येन्दु बरेसि कोट्ट धर्म शासन मङ्गलमहा श्री श्री श्री ॥
[ कुछ विपत्ति के कारण देवर बेल्गुल के स्थानकों ने गुम्मटनाथ स्वामी की दान-सम्पत्ति महाजनों को रहन कर दी थी। महाजनों ने बहुत समय तक वह सम्पत्ति अपने कब्जे में रखकर उसका उपभोग किया : मैसूर के धर्मिष्ठ नरेश चामराज वोडेररय ने इसकी जांच-पड़ताल कर रहनदारों को बुलाया और उनसे कहा कि हम तुम्हारा कर्ज अदा करेंगे, तुम मन्दिर की सम्पत्ति को मुक्त कर दो। इस पर रहनदारों ने कहा कि अपने पितरों के कल्याण के हेतु हम स्वयं इस सम्पत्ति का दान करते हैं। तत्र नरेश ने वह दान करा दिया और आगे के लिये यह शासन निकाल दिया कि जो कोई स्थानक दानसम्पत्ति को रहन करेगा व जो महाजन ऐसी सम्पत्ति पर कर्ज देगा वे दोनों समाज से बहिष्कृत समझे जावेंगे: जिस राजा के समय में ऐसा कार्य हो उसे उसका न्याय करना चाहिये। जो कोई इस शासन का उल्लंघन करेगा
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श्रवण बेल्गोल नगर में के शिलालेख
२६१
वह बनारस में एक सहल कपिल गौत्रों और ब्राह्मणों की हत्या का भागी होगा।
१४१
मठ में श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथ स्य शासनं जिनशासनं ॥१॥ नाना-देश-नृपाल-मौलि-विलसन्माणिक्य-रत्नप्रभाभास्वत्पद्म-सरोज युग्म-रुचिरः श्रीकृष्णराज-प्रभुः । श्रोकर्णाटक-देश-भासुरमहोशूरस्थसिंहासनः श्रोचाम-तितिपाल-सूनुरवना जीयात्सहस्रं समाः ||२|| स्वस्ति श्रो-बर्द्धमानाख्ये जिने मुक्तिं गते सति । वह्नि-रन्ध्राधिनत्रैश्च वत्सरेषु मितेषु वै ।।३।। विक्रमाङ्क-समाम्विन्दु-गज-सामज-हस्तिभिः । सतीषु गणनीयासु गणितज्ञबुधैस्तदा ॥४॥ शालिवाहन-वर्षेषु नेत्र-वाण-नगेन्दुभिः । प्रमितेषु विकृत्यब्दे श्रावणे मासि मङ्गले ॥ ५ ॥ कृष्णापक्ष च पञ्चम्यां तिथी चन्द्रस्य वासरे। दोईण्ड-खण्डितारातिः स्व-कीति -व्याप्त-दिक्तटः ॥ ६ ॥ सश्रीमान् कृष्ण राजेन्द्रस्यायुःश्री-सुख-लब्धये । एतस्मिन्दक्षिणेकाशी नगरे वेल्गुलाहये ।। ७ ॥ विन्ध्याद्रौ भासमानस्य श्रीमता गोम्मटेशिनः । श्रीपाद-पद्म-पूजायै शेषाणां जिन-वेश्मनां ।। ८॥
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२८२
श्रवणबेलगोल नगर में के शिलालेख
सार्धं हेमाद्रि-पाव श चारु- श्री चैत्य - वेश्मना । द्वात्रिंशत्प्रमितानां श्री - सपय्र्योत्सव-हेतवे ॥ ६ ॥ जिनेन्द्रपश्वकल्याण- श्री रथे । त्सव सम्पदे । श्री चारुकीर्त्तियेोगीन्द्र- मट-रक्षण कारणात् ॥ १० ॥ आहाराभय-भैषज्यशास्त्र दानादि सम्पदे ।
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वेलगुलाख्यमहाग्राम विन्ध्य चन्द्राद्रिभासुरं ॥ ११ ॥ भूदेवी - मङ्गलादर्श. कल्याण्याख्य-सरोऽन्वितं । जिनालयैस्तु ललितैर्म्मण्डित गोपुरान्वितैः ॥ १२ ॥ स तदाकं स-चाम्पेय होस- हल्लिसमाह्वयं । ईशानदिकास्थत ग्राम शाल्याद्युत्पत्तिभासुरं ॥ १३ ॥ उत्तनहल्लीति विख्यात प्रतीच्यां ककुभि स्थितं । ग्राम कन्नालुनामानं ग्राम - गोपाल - संकुलं ॥ १४ ॥ पूर्व पूर्णा- सन्दत्तं कुमारे नृपती सति । इति प्रामान् चतुरसंख्यान् ददौ भक्तया स्वयं मुदा ।। १५ ।। स्वस्ति श्री दिल्लि हेमाद्रि-सुधा-संगीत-नामसु ।
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तथा श्वेतपुर क्षेमवेणु बेल्गुल रूढिषु ॥ १६ ॥ संस्थानेषु लसत्सिद्ध-सिंह- पीठ-विभासिनां । श्रीमतां चारुकीर्तीनां पण्डितानां सतां वशे ॥ १७ ॥ शासनीकृत्य तान् ग्रामानर्पयामास सादरं । एषः श्रीकृष्ण भूपालः पालिताखिल-मण्डलः ॥ १८ ॥
[ यह मूल सनद का मठ के गुरु द्वारा किया हुआ केवल संस्कृत भावानुवाद है । मूल शासन आगे नं० (३२४) के लेख में दिया जाता है । ]
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श्रवण बेलोल नगर में के शिलालेख २६३
१५२ (३६२) तावरेकेरे के उत्तर की ओर चट्टान पर श्रीशकवरूष १५६५ नेय श्रीमच्चारुसुकीर्ति-पण्डित यांतः सोभानुसंवत्सरे मासे पुष्यचतुर्दशी-तिथिररे कृष्णे सुपक्षे महान् । मध्याह्ने वर मूलभे च करणे भार्गव्यवारे धृवे योगे स्वर्ग-पुरजमाम मतिमान् विद्य-चक्रेश्वरः । श्रोः ।।
१४३ (३७७) नगर से पूर्व की ओर बाणावर बसवय्य के खेत में
एक शिला पर
(लगभग शक सं १०४२) स्वस्ति श्रीमत्तलकाडु-गोण्ड-भुज-बल-वीरगड - पोरसलदेवरु हिरिय-दण्डनायकलं राज्य उत्तरोत्तरवागे श्री-गोम्मटेश्वरदेवरबलद-दसेय हल्ला कण्डु चयदि चलदराव हेडे-जीय गवरेसेट्टिय मगं बेटि-सेट्टिय रावबेय मगंमचि-सेट्टि......जक्कि सेट्टि-मक्कल मडिसेहि मचिसेट्टि मदलाद यित्ररु तले-होरे उड कित..................वत्सरद चैत्र..................
[ इस लेख में भुजरल वीरगङ्गपोयस लदेव के राज्य में चलदङ्कराव हेडेजीव श्रादि के कुछ व्रत पाटने का उल्लेख है। लेख का अन्तिम भाग घिस गया है इससे पूरा भाव स्पष्ट नहीं हो सका । ]
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श्रवण बेल्गोल के आसपास
१४४ ( ३८४) जिननाथपुर में अरेगल बस्ति के पूर्व की ओर
(लगभग शक सं० १०५७) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्य-नाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १ ॥ भद्रमस्तु जिन-शासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधान-हेतवे । अन्य-वादि-मद-हस्ति-मस्तक-स्फाटनाय घटने-पटीयसे ॥२॥
स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-वल्लभ-महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुल-तिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत्रिभूवनमल-देवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमान माचन्द्रार्कतारम्बर सल्लुत्तमिरे ।।
विनयादित्य-नृपालं जन-विनुत पोयसलाम्बरान्वयदिनपं । मनु-मार्गनेनिसि नेगल्द
वन-निधि-परिवृत-समस्त-धात्री-तलदोल ॥ ३ ॥ तत्पुत्र ॥
एरेयङ्ग-पोरसलं तल्तरेयट्टि विरोधि-भूपर धुरदेडेयोल ।
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श्रवण बेल्गोल के आसपास तरिसन्दु गेल्दु वोरकरेवट्टागिर्दु सुखदे राज्य गेय्द ॥ ४ ॥ आनेगल्द एरंग नृपालन सूनु वृहद्वैरि-मईनं सकल-धरित्री-नाथनार्थ जनता
कानीनं धरेगे नेगल्द बल्लालनृपं ॥ ५ ॥ मातन तम्म ।।
काङ्गलं मलेयेलुम नङ्गय गलवडिसि लोकिगुण्डिवरं देशङ्गलनित्कुलि-गोण्ड नृसिङ्ग श्री-विष्णुवर्द्धनार्जीपाल ।। ६ ।।
स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरद्वारावतो पुरवराधीश्वर यादवकुलाम्बर-धुमणि सम्यक्त-चूडामणि मलपराल्गण्ड राज-मार्तण्ड तलकाडु-काङ्ग-नङ्गलिकोयतूर -तेरेयूर-उच्चङ्गि-तलेयूप्म्बु च्चमेन्दिवुमोदलागे पलवुदुर्गगलं कोण्डु गङ्गवाडि तोम्बत्तरुसासिरमं प्रतिपालिसि सुखदि राज्यं गेय्युत्तिरे तत्पाद-पद्मोपजीविगल ।। वृत्त ।। जिनधर्माग्रणि-नागवर्मन सुतं श्रीमारमय्य जगद्विनतु तत्सुतनएचि-राजनमलं कौण्डिन्य-सद्गोत्रनातनचित्तोत्सवे पोचिकव्वे अवर्गत्तुत्साहदि पुट्टिदर ..'बम्म-चमूपनेम्बनधटं श्रीगङ्गण्डाधिपं ।। ७ ।।..
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२६६
अन्तु ॥
प्रदटान्नति सत्यमाणमु चलमायुं सौचमौदार्य्यममु दिटं तन्नले निन्दुवेम्ब गुणसंघातङ्गलं ताल्दिलोकद वन्दि - प्रकरङ्गलं तणिपि कः केनार्थियेन्दित्तु चागद पेम्पिन्दमे गङ्ग- राजनेसेदं विश्वम्भराभागदोलू ॥ ८ ॥ तलकार्ड सेलदन्ते काङ्गनोलकोण्डाबं... यं तुल्दिदा
लदिं चेङ्गिरियं कलल्चि नरसिङ्गङ्गन्तकावासमं । निलयं माडि निमिचिर्च विष्णु- नृपनान्यामार्गदिं गङ्गमण्डलमं कोण्डन राति-यूथ-मृगसिङ्ग गङ्ग दण्डाधिपं ॥ ८ ॥
प्रातन पिरियण्न ॥
श्रवण बेल्गोल के आसपास
व्यापित- दिग्वलय-यश
श्री- पतिवितरण- विनोद - पति धनपति वि
द्यापतियेनिम बम्म च
मूपति जिनपतिपदाब्जभृङ्गननिन्द्य ॥ १० ॥
यातन सति ॥
परम-श्री- जिननाप्त
गुरु श्री भानुकीर्त्तिदेव लक्ष्मी
करनेनिप्प बम्स- देवने
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पुरुषनेनलु नागणब्बे पडेदले जसमं ॥ कन्द || भासतिगे पुण्यवतिगे वि
लासद कणि सकल-भव्य-सेव्यं गर्भा
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२६७
श्रवण बेलगोल के आसपास २६७ वासदिनुदयिसिदं ससि
भासुरतर-कीत्ति येचदण्डाधीश ॥१२॥ वृत्त ॥ माडिसिद जिनेन्द्रभवनङ्गलना कापणादि-तीर्थदलु
रूढियिनेलग-वेत्तेसेव बेल्गोलदलु बहु-चित्र-भित्तियिं । नोडिदरं मनङ्गोलिपुवेम्बिनमेच चमूपनर्थ कैगूडे धरित्रि कोण्डु कोनेदाडे जसम्नलिदाडे लीलेयिं ॥१३॥
अन्तु दान-विनोद जिनधर्मीभ्युदय-प्रमोदनुमागि पल काल सुखदलिदु बलिक सन्यासन-विधियिं शरीरमं बिट्ट, सुर-लोक निवासियादनित्त ।। वृत्त ।। मलवत्युद्धत-देश-कण्टकरनाटन्दोत्तिबेङ्कोण्डुदो
वलदि कोङ्गरनोत्ति वैरि-नृपरं बेन्नट्टि तूल्दोविसुत्तन्य-मं- .. डलमं तत्पतिगेये माडि जगदोलु बीर के तानिन्तुगुन्दलेयादं कलि गङ्गनग्रतनयं श्री बाप्प-दण्डाधिपं ॥१४॥
स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-सामन्ताधिपति महाप्रचण्डदण्डनायक वैरिभय-दायक द्रोह-घरट्ट संग्रामजत्तलट्ट । हयबत्सराज। कान्ता-मनोज । गोत्र-पवित्र । बुधजन-मित्र । श्रीमतु बाप्पदेव-दण्डनायकं । तम्मण्णनप्प एचि-राज दण्डनायकङ्ग परोक्ष-विनय निसिधिगेय निलिसि आतन माडिसिद बसदिगे। खण्ड-स्फुटितकवाहार-दानकं । गङ्गसमुद्र-दलु १० खण्डुग गदेयुं हूविन-तोटमुं बसदिय मुडण किरु-गेरेयुं । बेकनकेरेय बेद लेयु तम्म गुरुगलप्प श्रीमूलसङ्घद देसिग-गणद पुस्तक
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श्रवण बेलोल के आसपास गच्छद श्रीमतु शुभचन्द्रसिद्धान्त-देवर-शिष्यरप्प माध (ब) चन्द्र देवगर्गे धारा-पूर्वकं माडिकोट्ट दत्ति ।। श्लोक-स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां ।
षष्टिज़र्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ।।१५।। सीता-कान्तिगे रुक्मिणिगातत-येशनेविराजनाङ्गनेयेमातादोरे सरि समं तोणे भूतलदोलग एचिकब्बे क... रूपिं ।। १६ ।। दानदातभिमानदालीमानिनिगेयिल्ल सतिय...... केनार्थियेन्दु कुडुवले दानमन् एचब्बेयत्तिमब्बरसियवोल ॥ १७ ।।
इन्तु परम...राज-दण्डनायनदण्डनायकिति श्रीमतु शुभचन्द्र सिद्धान्त-देवर गुड्डि एचिकब्बेयु तम्मत्ते बागणब्बेडे शासनमं निलिसि महापूजेय माडि महादानं गेट्दु तेङ्गिन-तोण्टव बिहर मङ्गल श्रो॥
[ इस लेख में होरपलवंशी नरेश विष्णुवर्द्धन और उनके दण्डनायक प्रसिद्ध गङ्गराज के वशों का परिचय है। गङ्गराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव के पुत्र एच दण्डनायक ने कोपड़, बेल्गुल आदि स्थानों में अनेक जिनमन्दिर निर्माण कराये और अन्त में संन्यास विधि से प्राणोत्सर्ग किया। गङ्गराज के पुत्र बोप्पदेव दण्डनायक ने अपने भ्राता एचिराज की निषद्या निर्माण कराई तथा उनकी निर्माण कराई हुई बस्तियों के
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श्रवणबेलगोल के आसपास
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लिये गङ्ग समुद्र की कुछ भूमि का दान शुभचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य माधवचन्द्र देव को किया । एचिराज की भार्या एचिकब्बे व उसकी श्र araj ने यह लेख लिखाया । एचिकब्जे शुभचन्द्र देव की शिष्या थी । लेख में गङ्गराज की वंशावली इस प्रकार पाई जाती है
नागवर्म
1
मारमय्य
1 एचिराज -- पोचिकल्बे 1
बम्मदेव चमूप --- बागणब्जे
1
( भानुकीर्त्तिदेव की शिष्या ) पचिराज दण्डनायक एचिकब्जे
गङ्गराज दण्डनायक बोपदेव दण्डनायक
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श्रवण बेल्गोल और आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
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श्रवशिष्ट शिलालेखों का निम्न प्रकार समय
अनुमान किया जाता है
शक संवत् की
छठवीं शताब्दि
शक संवत् की सातवीं शताब्दि
शक संवत् की नवमी शताब्दि
शक संवत् की १४७, १४६. १५४, १५५, १७५, १६१, आठवीं शताब्दि | २५३, २५६,
२०
१५२, १८६.
( १५३, १५७, १५८, १५६, १६०, १६१, १६२, १६४, १६०, १२, १६३, १६४, १६५, १६६, १६७, १६८, २००, २०२, २०३, ०५, २०६, २०७, २०८, २१०, २११, २१२, २१३.२१४, २१५, २१७, २१८, २१६, २२०, २८४ ।
:
१४५, १३६, १५६, १७१, १८०, १८५, १८६, २०१, २०६. २२१, २२७, २३५, २३६, २३७, २५५,२७०, २८२ २८७, २६४, २६७, २६८
३०७, ३१५, ४०६, ४१० ।
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३०४ अवशिष्ट शिलालेखों का समय
। १४८, १५०, १५१, १६३, १६५, १६६, १६७,
१७२, १७३, १७४, १७७, १७८, १८३, २१६, २२३.२२८,२३६,२५४,२५७,२५८, २५६,
२६०, २६१, २६२,२६३,२६४,२६६, २७२, शक संवत् की
२७३,२७४,२७७,२७८,२७६,२८०,२८१, दसवीं शताब्दि
२८५, २८६,२८८,२८६,२६०,२६१,२६२, २६३, २६५, २६६, २६६,३०० ३०१,३०२, ३०३, ३०४.३०५, ३०६, ३०८, ३०६,३१०, ३११, ३१२, ३१३, ३१४,४६६,
। १६८, १६६, १७०, १७६, १८१,१८२, १८४,
१८८, १६६. २०४,२२२,२२४, २२५, २३०, शक संवत् की । २३१, २४०,२४१, २४२,२४६,२६५, २६६, ग्यारहवीं शताब्दि २६७, २७१, २७५.२७६, ३१६, ३५१.३६०,
३६८, ३६६, ४४५.४४६,४४७, ४५४, ४५६, ४६०.४७३, ४७८,४८८,४८६,
( १७६, १८७, २२६,२३२,२३३,२३४, २३८,
२४३, २४४, २४५,२४६,२५१,२८३, ३१७, शक संवत् की । ३१८, ३१६, ३२०,३२३, ३२४, ३२५, ३२६, बारहवीं शताब्दि । ३२७, ३२८, ३६१,४०१,४०८,४११, ४२६,
४३१, ४६१, ४६६, ४७१.४:५,४७६, ४८१,
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प्रवशिष्ट शिलालेखों का समय ३०५
( २४८, २५०, २५२,२६८,३३०,४०६,४१३, शक संवत् की तेरहवीं शताब्दि
४१४,४१८, ४२१,४३०,४३२, ४४२,४४३,
४६२,४६७,४७७,४८१,४८५। शक संवत् की । २४७, ३५६, ३५७, ३७१,३७२, ३०३, ३७४, चौदहवीं शताब्दि । ४२०,४२२ ४२३, ४२४,४२५, ४२८, ४२६ । शक संवत् की ३२१. ३२२. ३५२, ३५३, ३५४,३५५, ४०२, पन्द्रहवीं शताब्दि) ४८३, ४८४ ।
३३४,३३५,३७०,३७५ ३७६,३७७, ३८१, शक संवत् की । ३६८, ३६६, ४०२, ४०३, ४०४, ४१२, ४१६, सोलहवीं शताब्दि । ४१६,४४०,४४६,४५०, ४५१, ३५२.४५३,
। ४६३, ४६४,४६५, ४८२, शक संवत् की , ३४५, ३४८, ३६७, ३७८, ३०६,३८०, ३६१, सत्तरहवीं शताब्दि । ३६४,३६५,४२७, ५४४ । शक संवत् की ।
४१७,४३८, ४३६, ४४०। अठारहवीं शताब्दि।
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख पार्श्वनाथवस्ति के दक्षिण की ओर चट्टान पर १४५ ( ३ ) श्रीदेवर पद। वमनि... .. १४६ ( ४ ) मल्लिसेन भटारर गुहूं चरेङ्गय्यं तीर्थमंबन्दिसिदं। १४७ ( १० ) श्रीधरन् १४८ (४०८) नमोऽस्तु १४६ (४०६) श्रीरत्त १५० (४१०) सिन्दय्य १५१ (४११)......गिङ्घ...
कुन्द गङ्गर वण्ट...गद नण्ट
१५२ (११) .....................क्षिणान्पतिः । प्राचार्य......श्रीमान्शिष्यानेक-परिग्रहः ॥ १ ॥ ......विलासस्य निर्वाणा......जनि चलाचलविशेषस्य गुणैवी च कम्पिता ॥२॥ दीपैर्दू पैश्च गन्धैश्च साकरोदधिम् ..सान् । तत्र दिण्डिकराजोऽपि साक्षी सन्निहितोऽभवत् ।। ३ ।। परित्यज्य गणं सर्व चातुर्वर्ण-विशेषितं । माहारादिशरीरं च कटवप्र-गिराविह ॥ ४ ॥ प्राचार्योऽरिष्टनेमीशः शुक्लद्धयानोरु वारणं समारुहर गतस्सिद्धि सिद्ध-विद्याधरार्चितः ॥ ५॥
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३०७
चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
१५३ (१३)
राग-द्वेष-तमो-माल-व्यपगतशुद्धात्म संयोद्धकर वेगूरा परम-प्रभाव-रिषियरस्सव-भट्टारकर ...गादेव......न...डित...न्तब्बु......लग्रदोल श्री कीर्णामल-पुष्प.........र स्वर्गाप्रमानेरिदार [ रागद्वेष रूपी अन्धकार से विमुक, शुद्धात्म योद्धा बेगूरा वासी परम-प्रभावी ऋषि, सर्वज्ञ भट्टारक..................शिखर पर......
................अमल पुष्पों से श्राच्छादित .....स्वर्ग के अग्रभाग का आरोहण किया।
१५४ (१४ ) अरिष्टनेमिदेवर काल्बप्पु-तीर्थदोलु मुक्तकालम पडेदु मु...
१५५ ( १५ ) स्वस्ति श्री महावीर...प्राल्दुर तम्मडिगल सन्यसन दिन इ-तम्मजया निसिधिगे।
१५६ (१६)......पादपमनून......स-प्रव......
१५७ (१६) स्वस्ति श्री भण्टारक थिट्टगपानदा तम्मडिगल शिष्यर कित्तेरे-यरा निसिधिगे ।
१५८ ( २१) दक्षिण-भागदामदुरे उद्यम् इनिताव...शापदे पावु मुदिदोन लक्षणवन्तर एन्त एनलू उरग......ग ई महा परूतदुल अक्षय-कीर्ति तुन्तकद वार्द्धिय मेल अदु नोन्तु भक्तियिम्
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख प्रति-मणक रम्य-सुरलोक-सुकक्के भागि प्रा.. पल्लवाचारि-लिकि (खि) तम् । [ दक्षिण भाग की मदुरा (नगरी) से पाकर और शाप के कारण सर्प द्वारा सताये जाकर, परीक्षकों के विचार करते ही करते, अक्षयकीर्ति भक्तिपूर्वक इस शिखर पर व्रतों का पालन करते हुए दुःख-सागर को पार कर, रमणीक सुरलोक-सुख के भागी हुए।
पल्लवाचारि लिखित ] १५८ ( २२)
श्री । बाला मेल सिखि-मेले सर्पद महा-दन्ताप्रदुल सल्ववोल
सालाम्बाल-तपेोग्रदिन्तु नडदों नूरेण्टु-संवत्सरं केलीय पिन कट वप्र-शैलमडद एनम्मा कलन्तूरनं बाले पेग्डैरवं समाधि-नेरेदोन्नो-तेरिददार स्सिद्धियान ।। [ इस लेख में कालन्तूर के किसी मुनि के कटवन पर एक सौ पाठ वर्ष तक तप के पश्चात् समाधिमरण की सूचना है।]
१६० (२३)
नम स्वस्ति ।
... शास्त्रविदो येन गुणदेवाख्य-सूरिणे कल्वाप पर्वत-विख्याते...नम...तमाग... ...द्वादश-तपो नुष्ठा...... सम्यगाराधनं कृत्वा स्वर्गालय........
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३०६ [शास्त्रवेदी गुण देव सूरि को नमस्कार, जिन्होंने कलवाए पर्वत के शिखर पर द्वादश व्रत धारण कर और सम्यगाराधन का पालन कर स्वर्गलाभ किया]
१६१ (२७) श्री। मासेनर्परम-प्रभाव-रिषियर कूल्वप्पिना बेट्टदुल
श्रो-सङ्गङ्गल पेल्द सिद्ध-समयन्तप्पादे नोन्तिम्बिनिन् प्रासादान्तरमान्विचित्र-कनक-प्रज्वल्यदिन्मिक्कुदान सासिवर्वर-पूजे-दन्दुये प्रवर स्वर्गाग्रमानेरिदार ॥ [ इस लेख में परम ऋषि ‘मासेन' के समाधि मरण की सूचना है। १६२ (३६) श्री चिकुरापरविय गुरवर सिष्यर सर्वणन्दि
अवन् श्री बसुदेवन् । १६३ (३७) श्रीमद् गङ्गान्व । १६४ (३८) वीतरासि। १६५ (३८) श्रोचावुण्डय्य । १६६ (४०) ओकविरत्न । १६७ (४१) श्रीमद् अङ्कबोय । १६८ (४२) श्रीविदेपथ्य । १६८ (४३) श्रीमद् प्रकलङ्क
पण्डितर । १७० (४४) श्री सुब। १७१ (४५)...लम्बकुलान्तक बीरर बण्ड परिकरन किङ्ग। १७२ (४६) स्वस्ति श्री अण्नन कालेय पण्डिग कल्वप्प
तीर्थव बन्दि...
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३१०
चन्द्रगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख १७३ (४७) का...य भिजंग रायन कादगलै बन्तिलि
देवर बन्तिसिद । १७४ (४६) श्री दवणन्दि बलरर गुड़ मासु...बन्दु तीर्थव
बन्दिसिद । १७५ (५०) अलस कुमारो महामुनि । १७६ (५१) श्री कण्ठय्य । १७७ (५२) श्रीवर्म चन्द्रगीतय्य देवर बन्दिसिद १७८ (५३) श्री इसकय्य । १७६ (५४) श्री बिधिय्यम्म । १८० (५५) श्री नागणन्दि कित्तय्य देवर बन्दिसिदर । १८१ (५६) स्वस्ति समधिगतपञ्चमहासब्द महासामन्त
अग्रगण्य १८२ (५७) मारसन्द्र केय कोट...गलवेय बीर कोट । १८३ (५८) मालव अमावर ।
शान्तीश्वर वस्ति से नैऋत की ओर
१८४ (६०) श्री परेकरमारुग-बलर-चट्ट सुल बण्टरसुल । १८५ (६२) स्वस्ति श्री तेयङ गुडि......न्दि-भटारर सिष्य
.. गर-भटारर सिष्य क...र...मि-भटार अवर सिष्यर पट्टदेवा .....सि-भटार कुमा ...ल सिष्य न...सले मुनिबने मन्दि पमुमम्म निसिदिगे।
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
पार्श्वनाथ बस्ति में एक टूटे पाषाण पर
१८६ (६८) श्रीमत् बेट्टदवो...न मंगल वैजब्बे... लबप्पुलवू नान्तु सन्यसनं ।
ती
१८७ (७१)
चन्द्रगुप्त बस्ति में पार्श्वनाथ स्वामी के सन्मुख एक छोटी मूर्ति के पादपीठ पर
( लगभग शक सं० ११०० )
( प्रभाग )
श्रीमद्राजतिरीटको टिघटित... पादपद्मद्वयो देवो जैन... रविन्द दिन कृद्वागदेवता वल्लभ | ...ar...a-a¤faar ufagfa...... त्र - रत्नाकरः सेाऽय ं निज्जि'त...ता विजयतां श्रोभानुकीर्त्तिर्भूवि ॥ १ ॥
श्री - बालचन्द्र मुनिपादपयाज... जैनागमाम्बुनिधिवर्द्धन- पू.. दुग्धाम्बुराशि- हर हा
द्रः
३११
( पृष्ठभाग )
. मलश्रितं (बहु) कैवल्य मेम्बस.. ......ल्पमिनिते नर्गिरिय विश्वम... रिव महिमेयि वर्द्धमा जिन पतिगे वर्द्धमान मुनीं ...सुर नदिय तार हार सुर-दन्तिय रजतगिरिय चन्द्रन
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३१२ चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख बेल्पि पिरिदु वर...र्द्धमानर परमतपोध...रकीति ...मुझे जगदालु ॥
'च्छिध्यरु ॥ तीर्थाधीश्वर-व
[ इस लेख में भानुकीर्त्ति, बालचन्द्रमुनि और वर्द्धमान मुनि का उल्लेख है। अधूरा होने के कारण लेख का प्रयोजन ज्ञात नहीं हो सका।]
पृष्ठभाग का प्रथम पद्य पम्प रामायण श्राश्वास १ पद १५ से मिलता है।
१८८ (७२) चन्द्रगुप्त बस्ति में पार्श्वनाथ जिनालय के
क्षेत्रपाल के पादपीठ पर ( लगभग शक सं० १०६७ )
.........
...जनिष्ट.........रित्र...रखिला......माला-शिलीमुख-वि
राजित-पा...... ॥ १ ॥ तच्छिष्यो गुण... ‘त यतिश्चारित्र-चक्रेश्वरः तर्क-
व्यादि -शास्त्र-निपु' 'साहित्य-विद्या-नि... मिथ्या-वादि-मदान्ध-सिन्धुर-घटा-सङ.........रवो भव्याम्भोज ( यहाँ पाषाण टूट गया है )......॥२॥
___
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३१३ (उसी पीठ के बायें पृष्ठ पर )
..."ज्जिने शुभकीर्ति-देव-विदुषा विद्वेषि-भाषा-विष. ज्ज्वाला-जाङ्गलिकेन जिमित-मतिर्बादी वराकस्स्वयं ॥३॥ घन-दोन्नद्ध-बौद्ध-क्षितिधर-पवियी बन्दनी बन्दनी बन्दने सन्-नैय्यायिकाद्यत्तिमिर-तरणियी बन्दनी-बन्दनी बन्दने सन्-मीमांसकाद्यत्करि-करिरिपुयीब न्दनी बन्दनी बन्दने पो पो वादि-पोगेन्दुलिवुदु शुभकीत्तीद्ध-कीर्ति
प्रघोषं ॥४॥ वितथोक्तियल्तजं पशुपति शार्डियेनिप्प मूवलं शुभकीर्तिव्रति-सन्निधियोलु नामोचित-चरितरे तोडईडितर-वादिग
ललवे ॥ ५॥ सिङ्गद सरमं केल्द मतङ्गजदन्तलुकलल्लदे सभेयोलु पोङ्गि शुभकीर्ति-मुनिपनोलेङ्गल नुडियल्के वादिगल्गे
ण्टेल्देये। पोल्वुदु वादि वृथायासं विबुधोपहासमनुमानोपन्यासं निन्नी वासं सन्दपुदे वादि-वज्राशनाल ॥६॥
सत्सधर्मिगल ।। [ यह लेख टूटा हुआ है पर इसके सब पद्य अन्य शिलालेखों से पूरे किये जा सकते हैं। इसके छहों पद्य शिलालेख नं० ५० (१४०) के पद्य ६,७,३८,३६,४० और ४२ के समान हैं।
.
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चन्द्रगिरि पर्वत के भवशिष्ट लेख
१८६ ( ७५) कत्तले वस्ति के सन्मुख चट्टान पर ।
( लगभग शक सं० ५७२) ममास्तूपान्व......स कले......गद्गुरुः । ख्यातो वृषभनन्दीति तपो-ज्ञानाब्धि-पारगः ॥ १ ॥ अन्तेवासी च तस्यासीदुपवास-परो गुरुः । विद्या-सलिल-निद्धत-शेमुषीको जितेन्द्रियः ।। २ ।। ...स...त तपो.........तपसैोग-प्रभावोऽस्य तु चन्द्योऽनाहित-कामनो निरुपमः ख्याया स...ना... दृष्टा ज्ञान-विलोचनेन महता स्वायुष्यमेव पुनः पू.........गृह गुरुरसौ यो...स्थित...वशः ॥ ३ ॥ ......कटवप्र-शैल शिखरे सन्यस्य शास्त्र क्रमात् । ध्यान.:....दा...मणि-मुखे प्रक्षिप्य कर्मेन्धनं । ......दिव्य-सुखं प्रशस्तक-धिया सम्प्राप्य सर्वेश्वरज्ञानं...न्तमिदं किमत्र तपसा सर्व सुख प्राप्यते ॥ ४ ॥
१६० (७७)
(लगभग शक सं०६२२) सिद्धम्। श्री। गति:चेष्टा-विरह शुभाङ्गदे धनम्मारिटमान्विट्टवल यतिय पेल्द विधानदिन्दु तारदे कल्बप्पिना शैलदुल
___
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३१५ प्रथितार्थप्पदे नान्त निस्थित-यशा खायुः-प्रमा...यक स्थिति-देहा कमलोपमङ्ग सुभमुम स्वल्लॊकदि निश्चितम् ॥ [ इस लेख में किसी के समाधिमरण की सूचना है।]
१९१ (७८) सहदेव माणि ।
१६२ (७६)
( लगभग शक सं० ६७२ ) सुन्दरपेम्पदुप्रतपदोगिद.........वार्द्धदनिन्धमेन्दु पिन बन्दनुरागविन्दु बलगा...ण्डु महोत्सवदेरि शैलमान् । सुन्दरि सोचदार्यदेरदे...दु विमानमोडिप्पि चित्तदिम इन्द्र समानमप्प सुख.. ण्डदे 'क्षणदेरिद स्वर्गवा ॥ [ सौचदार्थ (? शुद्धमुनि ) ने पाकर हर्ष से पर्वत की वन्दना की और अन्त में यहां ही शरीर त्याग किया। ]
१६३ (८०)
(लगभग शक सं० ६२२) महादेवन्मुनिपुङ्गवन्नदर्पि कलु पईप महातवन्मरणमप्पे तनगा... कमु कण्डे... महागिरि म...गलेसलिसि सत्या...नविन्तीमहातवदोन्तु मलेमेल्वलवदु दिवं पोक्क
[ महादेव मुनिपुङ्गव ने मृत्युकाल निकट श्राया जान पर्वत पर तपश्चरण किया और स्वर्ग-गति प्राप्त की।]
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चन्द्रगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख
१६४ (८१)
( लगभग शक सं० ६२२) बोध्यातिरेच्य कैवल्य-बोध-प्राxि-महौजसे । ईशानाय नमो योगि-निष्ठायार परमेष्ठिने ॥१॥ ...रे कित्तर-सङ्घस्य गगनस्य महस्पतिः । परिपु...चारि..................वाण......
ख्यया... १६५ (८२) बलदेवाचार्य्यर पाउगमण । १९६ (८३) स्वस्ति श्री पद्मनन्दिमुनिप......अतुल......
...दनिमा कृतदेवा............अभव...देप.........मा... ................ लव ..... १६७ (८५) श्रीपुष्पणन्दिनिसिधिगे । १८६ (८६ ) ............ न तम्म......गे। १६७ (८७) श्री बाट। २०० (८६) कनादो......... -वंशा...कल्वप्पिन्दुर्ग...... २०१ ( ६० ) श्री बम्म । २०२ (६१) दल्लग पेल्दय्वन्पाल... २०३ (६२ ) स्वस्ति कालात्तर सङ्घदि विशोकभटारर
निसिधिगे। २०४ (६४) श्रीमद् गौड देवर पाद । २०५ (६५)......ब साधु-प्र...र धीरन्नत-संयता...मन्
इन्द्रनन्दि आचार्य......मे...र्म आमेह...न्तूरिदेर्पप्रव
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३१७
द्दि मोहमगल्द्
लान्तरि......भाव्यमन्वर्पिन्... ण्डे... इ-वलू - विषयङ्गलनात्म-वश-कमविदु कट. .....feerat
स्थिता
.. श्वररि...
नन......रेन्द्र - राज्य
राधिता...विमु विभूति - सास्वतमेदिदान् ।
.....
[ संयमी इन्द्रनन्दि आचार्य ने मोह विषयादि को जीतकर कट (a ) पर्वत पर समाधि मरण किया । ]
२०६ ( ८६ ) स्वस्ति श्री कालत्तर सङ्घदा देव ... खन्ति - यनिसि .. २०७ ( १७ ) नमिलूरा सिरिसङ्घद् प्राजिगणदा राशीमती - गन्तियार अमलम् नल्तद शीलदि गुणदिना मिक्कोत्तमम्मी लेदोरू । नमगिन्दोलित एन्दु एरि गिरियान्सन्यासनं योगदोलू नमा चिन्तयदु से मन्त्रमण्मरि ए स्वग्र्गलयं एरिदार् ॥ [ नमिलूर संघ, प्रजिगण की साध्वी राज्ञीमती गन्ति ने पर्वत पर संन्यास धारण कर स्वर्ग-गति प्राप्त की । ]
•
२०८ ( ६ ) श्री स्वस्ति
तनगे मृत्यु वरवानरिदे पेर्वाण-वंशदान कालनिगेकसुदे... प्पिन राज्य वीतिन् ।
घा...क... मोदसुता मता कच्चि निधानम...... सुर...ग-गतियुल नेले-काण्डन् ।
......
[ इस लेख में पेण वंश के किसी व्यक्ति के समाधि-मरण का उल्लेख है ]
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३१८ चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
२०६ (१००) परवतिमल । २१० (१०१)...मले-मेल प्रच......महा. .....बोल... २११ (१०२)......जन्नल नविलूर अनेकगुणदा श्रा
सङ्घ......दु... .............मेनल्तिलकं......ओ...राचार्य्यर । .......भिमानमेय्दे तोरदेन्दो राग-सौख्यागति ......ददोन्दु पञ्चपददे दोष निरासं.....
| नविलूर संघ के किसी प्राचार्य ने संन्यास धारण कर प्राणोत्सर्ग किया । २१२ (१०३) स्वस्ति श्रीमत् नविलूर सङ्घद पुष्पसेना
चारि...य निसिधिगे। २१३ ( १०४ ) श्री देवाचार्य......निसिधिो । २१४ (१८७ ) श्री वन्दनुरागदिनेरदु ग्रन्थेगल क्रमदरिशैल... वन्दनु मार्गदिने तिमिरा विधिये नविलूर सं...... चेन्ददे बुद्धिय हारमनि...तियु...य मावि-अब्बेगल .......लिप्पि नल सुरर सौख्यमनिम्मोडगोण्डराट्टमुम् । [ नविलूर संघ के मावि अब्चे ने समाधि मरण किया।] २१५ (१०६) श्री मेघनन्दि मुनि तान नमिलूवर सङ्घदा
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________________
द...
चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख .... तीर्त्यदि सिद्धियान्...
२१६ (११०) श्रीकण्ठय्य ।
२१७ (१११) श्री
......नेगर्तेयगुं सेदेणे - वडेसि द
दल
मुगिव नान्तुम्मेवाल... तपमं
...नि...... पौत्र नन्दिमुनिप.........
(
.. माय्य न यु... हमालो तल इदरुल नान्तु
२१
[ नन्दिमुनि ने यहाँ व्रतपाल सिद्धि प्राप्त की ]
२१८ (११२) श्री नविलूर सङ्घदा गुणमति-अव्वेगला निसिधिगे ।
२१८ (१२५) अनेक शील गुणदोप्पिदोरिन्तु लेकिक सुदुम् नेनेगेन्दोरु मुनियिन्दलू तपच्चले नान्तु ताम् तमगे मृत्युवरवानरिदं श्री पुर्त्तिय..
३१-८
......
सिद्धिस्थनादम् ।
...]
[ अनेक शील-गुण सम्पन्न पूर्त्तिय ने मृत्यु का आगमन जान... २२० (११६) ई - पूज्या... लमान्स रेति
वरदो रेल - नूर्व्वर' लक्ष्यमी
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३२०
चन्द्रगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख श्रीपुरान्वय गन्धवर्मनमित-श्रीसङ्घदा पुण्यदीसन्पौरा...निदे...रिवलघ...री-शिला-तल...... .........मान्नेरदुप................ [इस लेख में श्रीसंघ, पूरान्वय के पूज्य गन्धवर्मा द्वारा इस शिला पर कुछ किये जाने का उल्लेख रहा है।
कत्तले बस्ति के पीछे चट्टान पर २२१ (४१२) चन्दय्य । चामुण्डराब बस्ति के द्वारे के दक्षिण की शिला पर
२२२ (११६) श्रीमत् लक्खण देवर पाद । चामुण्डराय बस्ति के द्वारे के दोनों बाजू २२३ (१२२) श्रीं चामुण्डराज माडिसिदं चामुण्डराय बस्ति के द्वारे से बायीं
और शिला पर २२४ (१२३) (नागरी अक्षरों में) सान्तणन्दि देवर पाद २२५ (१२४) " श्रीमतुचन्द्रकीर्ति देवर
पाद । तेरिन बस्ति के बायीं ओर एक स्तम्भ पर २२६ (१३५) स्वस्ति श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ।।
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३२१ तेरिन बस्ति के नवरङ्ग में एक टूटे पाषाण पर
२२७ ( १३६ ) त...... "ति कल्बप्पिनल्लि । मलद कुमारणन्दिभटारर सिषित्तियर सायिब्बे-कन्तियर...... वप्पिदिगल । ( एक बाजू में ) विल..... 'स' 'सर्व......
तेरिन बस्ति के सम्मुख २२८ (४२६) 'स्वरेद बद्र 'नरगेद कोल
२२८ (१३७ ) तेरिन बस्ति के सम्मुख 'तेरु' के उत्तर मुख के
ऊपरी भाग पर
(शक सं० १०३६) भद्रं भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघ-नाशिने । कु-तीर्थ-ध्वान्त-सङ्घात-प्रभिन्न-धन-भानवे ॥१॥ सक वर्ष सायिरविं प्रकटमेनल्मूवतोम्भतु नडेयुतिरलु सुकरमेने हेमलम्बियोल
अकलङ्कद जेष्ट-सुद्ध-गुरु-तेरसियालु ॥ २ ॥ वृत्त ॥
धरणी-पालकनप्प पोयसलन राज-प्रेष्टिगल्तम्मुतिबरेनल पोय्सल-सेट्टियुं गुण-गणाम्भोरासियेम्बोन्दु सु
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३२२
चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
न्दर- गम्भीरद नेमि से [ट्टि] युमिव श्रीजैन-धर्म्मके तायगरंगल तामेने सन्द पेम्पसदलम्पर्व्विन्तु भू-भागदे लू || ३ ||
कन्द ||
अमल-यशरमल-गुण-गणरमलिन-जिन - शासन- प्रदीप करेने पे
पमरे पाय्सल - सेट्टियु
ममेय - गुणि नेमि सेट्टियु सुखदिनिरलु ॥ ४ ॥
प्रवर जननिय रेनल्की
भुवनतलं पोगले माचिकब्बेयुमुद्यद्विविध-गुणि शान्तिकब्बेयु
मवर्गलु जिन- जननिय नरुर्बीतल दोलू ।। ५ ।।
( उसी 'तेरु' के पश्चिम मुख के ऊपरी भाग पर ) जिन - गृहमं मना - मुददे माडिसि मन्दरमं विनिर्मिसि - ईनुपम - भानुकीर्त्ति - मुनि-से दिव्य पदाब्ज- मूलदालू । मनमादिर्व्वरुं परम- दीक्षेयनोप्पिरे ताल्दिदर्जंगज्जन-तति कीर्त्तिसल्के मरु देबियु [ मिम् ] बिने सान्तिकब्बे ॥ ६ ॥
श्री मूलसङ्गदाल मत्ता-महिमन्नतमेनिप्प देसिग - गणदेालु
तामिर्व्वरुमखिल-गुणो
हामेरेने नेगरिन्तु नान्तरुमोलरे ॥ ७ ॥
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चन्द्रगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख
जिन पतिगे पूजेयं स
न्मुनि-पतिगलुगन्न-दानमं भक्तियोलिम्बिने पाय्सल-सेट्टियुमालूपिन कणियेने नेमि सेट्टि
माडिसिदर् ॥
[ पोयसल नरेश के प्रसिद्ध सेठी पोयसल सेट्टि और नेमिट्टि की माताओं-माचिक और शान्तिकब्जे ने जिनमन्दिर और नन्दीश्वर निर्माण कराकर भानुकीर्त्ति मुनि से दीक्षा ली । उक्त सेठियों ने भक्तिपूर्वक जिन-पूजन किया और दान दिये । }
गन्धवारण बस्ति के समीप एक टूटे पाषाण पर
२३० ( १४४ ) नमस्सिद्धेभ्यः । शासनं जिनशासन .भ-चन्द्र
गन्धवारण बस्ति की सीढ़ियों के पास
२३१ (४२८ ) श्रीमतु रविचन्द्र देवर पाद
इरुवे ब्रह्मदेवमन्दिर के मार्ग पर
२३२ (१४६ ) नेमगन पाद ।
२३३ ( १४७ ) श्री सिवग्गय्य ।
२३४ ( १४८ ) श्री कलय्यन् ।
३२३
२३५ (१५० )
इरुवेब्रह्मदेवमन्दिर के द्वार की दक्षिण बाजू पर । ने सेवल्कुन्द गुबु... ट्टिसि पट्टम गुलिय... सिगेयिले सले गङ्ग
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३२४
चन्द्रगिरि पर्वत के अविशिष्ट लेख
राज्य.. . नेमदे मन्त्रि नरसिङ्ग ... तङ्गलियं विशेषदि ।
......
एरेगङ्ग-महामात्यं
... रेदं नत- गङ्ग-महिगे सफल-मतेयिं
गुलिपालनातनलियं
नेरे नेगल्दं नागवनवनीतलाल || १ ||
प्रातन पुत्रनब्धि-वृत धातृयोलितने रामदेव...न् ईतने वत्सराज निलेगीतने तां भगदत्तनागिविख्यातयसं तगुल्द कु... मं तारेदुन्नरे नान्तुमेतु
( शेष भाग टूट गया है )
[ गङ्गराज्य के मन्त्री नरसिंह के जामाता । ऐरेगङ्ग के प्रधान मन्त्री | जामाता नागवर्म के पुत्र ने जो रामदेव, वत्सराज व भगदत्त के समान जगत्प्रसिद्ध थे - वैराग्य धारण कर......]
उसी द्वार की बायीं बाजू पर
२३६ ( १५१ )....प्पिडिदुलुमारदो...... ... र्द्धदि... दृगचोल आकं जेगदिविमा... माडिसिह... उसी मन्दिर के सन्मुख चट्टान पर
२३७ ( १५२ ) चगभक्षणचक्रवर्त्ति गोग्गिय साव
नत्य......
.र
२३८ (१५३ ) ( नागरी अक्षरों में ) चन्द्रकीर्त्ति । २३८ ( १५४ ) श्रीमतु राचमल्ल देवर जङ्गिन सेनबोव सुबकरय्य बन्दिसिद
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख काञ्चिन दोगे के आस-पास
२४० ( १५६ )....मुडिपिदरवर गुड्डि सायिब्बे निसिदल पोल्कान्तियों......गे ।
२४१ (१५७ ) श्रीमतु गण्डविसिद्धान्तदेवर गुडुं श्रीधर वोज ।
२४२ (१६० )
श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलान्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ जगत्-त्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने । नयप्रमाण वागूरश्मि ध्वस्तध्वान्ताय शान्तये ॥ २ ॥ परमश्री जिनधर्मनिर्मलयशं भव्याब्जिनीभास्करं गुरुपादाम्बुजवृत्तनुद्धचरितं विप्रोम मेरुभूघरधैर्य गुणरत्नवाद्धि विलसत्सम्यक्तरत्नाकरं परमोत्साहदे रा.... .... म्बिलाभागदोलु || ३ ||
आ-पु............माण- गुणगले
३२५
२४३ ( १६१ ) श्रीधनकीर्त्तिदेवर मानस्तम्भद कम्भ | २४४ (१६२ ) मानभ मानन्द संवच्छदल्लि कट्टि
सिद दोथेयु ।
•
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३२६ चन्द्रगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख २४५ ( १६३) तम्मय्यङ्ग परोक्षविनयनिशिधि श्रीध
रङ्ग परोक्ष-विनय तम्मवेगे परोक्ष
विनयनिशिदि । २४६ ( १६४).........दलि क.........गो......
ग्गलं गङ्ग...निसिदिगेय निरिसिदन् । ............गमदे......गलिय...
सगि................ भद्रबाह गुफा के प्राग्य कान पर २४७ (१६८) श्रीमतु लक्ष्मीसेन भट्टारकदेवर शिष्यरु
मल्लिसेन-देवर निसिधि । चन्द्रगिरि की चोटी पर चरण-चिह्न के नीचे २४८ (१६६) श्री भद्रबाहुभलिस्वामिय पाद । चन्द्रगिरि के मार्ग पर चरण-चिह्न के नीचे २४६ (१७१ ) [ तामिल अक्षरों में ]
कोदइ-शङ्करनु मलयशारगलिङ्ग, निन्हें
कलनिक्कु मेर्कु निन् पुलिक्कु निरै । तोरनगम्ब के वायव्य में जिन-मूर्ति के पास २५० ( १७२ ) साम.........देवरु......
चामुण्डराय शिला पर मूर्तियों के नीचे २५१ ( १७३) श्रीकनकनन्दि देवरु पसि देवरु मलि
देवरु ।
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
चन्द्रगिरि की सीढ़ियों के बाईं ओर
२५२ (१७४ ) श्री नरवर जिनालय केरे । २५३ ( ४८१ ) श्री रणधीर
चन्द्रनाथ बस्ति के आस-पास
२५४ ( ४१३ )
२५५ (४१३ ) सेट्टपथ्य २५६ (४१५ ) सिवमारन बसदि ।
२५७ ( ४१६ ) बसह
• चामुण्डय्य
......
सुपार्श्वनाथ बस्ति के सन्मुख
२५८ ( ४१७ ) श्री वैजय्य २५८ (४१८) श्रीजक्कय्य २६० ( ४१ ) श्री कडुग
२६१ ( ४२० )........चनमा ।
चामुण्डराय बस्ति के दक्षिण की ओर
२६२ ( ४२१ )
२६३ ( ४२२ ) श्री बास
२६४ ( ४२३ ) बसवय्य
२६५ ( ४२४ ) श्रोमर......
२६६ ( ४२५ ) नरणय्य
२६७ ( ४२६ )......रसप वम...... य निषिधिगे
.......
३२७
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर के सन्मुख
२६८ (४३१ ) वबोजनु २६ ६ ( ४३२ ) मेलपय्य २७० (४३३ ) श्री पृथुव
२७१ ( ४३४ ) चन्द्रादितं ( चरणचिह्न ) २७२ ( ४३५ ) नागवर्म्म' बरंदं
३२८
२७३ ( ४३६ )... निगरजेयण तंशवत्रगण्ड २७४ (४३७ ) पुलियन २७५ (४३८ ) सालय्य २७६ ( ४३८ ) केसवय्य २७७ (४४० ) नमोऽस्तु २७८ ( ४४१ ) श्री ऐचय्यं विरोधिनिष्ठुरं
२७८ (४४२ ) बास
रडुक बस्ति के पूर्व में
२८० (४२७ ) कगूत्तर
शान्तीश्वर बस्ति के पीछे
२८१ ( ४३० ) श्रीमत् कम्मरचन्द प्रचिरग काञ्चनदाणे के पास
२८२ (४४३ ) मुरु कल्ल कदम्ब तरिसि...... परकोटे के पूर्वी द्वारे के पास
२८३ (४४४ ) जिनन दोखे
लक्किदा की पश्चिमी शिलापर
२८४ (४४५ ) श्री जिन मार्गन्नीतिसम्पन्न सर्पचूड़ामणि ।
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चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३२६ २८५ (४४६ ) श्री बिदरय्य २८६ (४४७) श्रीमद् अकचेयं २८७ (४४८) श्री परवेण्डिरण्नन् ईश्वरय्य २८८ (४४६) श्री कविरत्न २८८ (४५० ) श्री मचय्य २६० (४५१ ) श्री चन पास २६१ (४५२) श्री नागति पाल्दन दण्डे २६२ (४५३) श्री बासनण्न न दण्डे २६३ (४५४) श्री राजन चट्ट २६४ (४५५) श्री बडवर बण्ट २६५ (४५६ ) श्री नागवर्म २६६ ( ४५७ ) श्री वत्सराजं बालादित्यं २६७ (४५८) श्रीमत् मले गोल्लद अरिट्टनेमि पण्डितर
पर-समय-ध्वंसक। २६८ (४५६) श्री बडवर बण्ट २६६ (४६०) श्री नागय्य ३०० (४६१ ) श्री देवय्य ३०१ ( ४६२) श्री सिन्दय्य ३०२ (४६३) श्री गोवणय्या ब्यिल-चतुर्मुकं ३०३ (४६४) श्री...गिवर्म बावसि मला...ति मार्तण्डं
३०४ (४६५) श्री मलधारिदेवरय्यनप्प श्री नयनन्दिविमुक्तर गुड्डु मधुवय्य देवर बन्दिसिद॥
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३३० चन्द्रगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
विधु-विधुधर-हास-पयोम्बुधि-फेन-वियच्चराचलोपम-यशनभ्यधिकतर-भक्तियिन्द
मधुवं बन्दिल्लि देवर बन्दिसिद ।। [मलधारिदेव के पिता नयनन्दि के शिष्य मधुवय्य ने देववन्दना की।] ३०५ (४६६ ) कपनब्बरसिय तम्म चावय्यनुं दम्मडय्यनु
नागवमर्नु बन्दिल्लि देवर बन्दिसिदर ॥ ३०६ (४६७ ) श्री सन्द बेल्गोलदले निन्दु...डने विट्ठ
अन्दमारय्य मनदल अग्गल देवरेम्बर काण्ब बगेयिन्द । श्री पेगेंडे रेतय्यन वेदे
सङ्कय्य । ३०७ (४६८) श्रीमत् एरेयप गामुण्डनु मद्दय्यनु बन्दिल्लि
व्रतकोण्डर ३०८ (४६६) श्री पुलिक्कलय्य ३०६ (४७०) श्री काञ्चय्य ३१० (४७१) श्रीमन् एनगं क्रियद देव बसद ३११ (४७२) श्री मारसिङ्गय्य ३१२ (४७३) कत्तय्य ३१३ (४७४ ) पुलिचोरय्य महध्वजदोज...मणि-वितान
दोज तेज ३१४ (४७५) श्री कापण तीर्थद ३१५ (४९२) सासिर गद्याण
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३३१
विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३१६ (१८१) गोम्मटेश्वर के बायें चरण के समीप श्रो-बिटि-देवन पुत्र प्रताप-नारसिंह-देवन कय्यलु महा-प्रधान हिरिय-भण्डारि हुल्लमय्य गोमट-देवर पा...... ......वरवरू.........दानक्कं सवणेर बिडिसि कोट्टर ।
[ महामन्त्री हुल्लमय्य ने बिटिदेव के पुत्र नारसिंहदेव से (गाँव) प्राप्त कर गोम्मटदेव और दान के हेतु अर्पण किये।] ३१७ ( १८७) श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ
काण्डकुन्दान्वय नयकीर्त्ति सिद्धान्त
चक्रवत्ति गल गुड्डु बसविसेट्टि माडिसिदं । ३१८ (१८८) श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ
कोण्डकुन्दान्वय नयकीर्ति सिद्धान्त
चक्रवर्त्तिगल गुड्ड बसविसेट्टि माडिसिदं ।। ३१६ (१८६) श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ
काण्डकुन्दान्वयद श्रीनयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्तिगल गुड्डु बल्लेय[द]
ण्डना [य] के माडिसिदं ॥ ३२० ( १६० ) श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ
काण्डकुन्दान्वयद श्री-नयकीर्ति
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३३२
विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
सिद्धान्तचक्रवत्ति गल गुड बल्लेय
दण्डनायकं माडिसिदं ॥ ३२१ ( १८१ ) दुर्मुखि संवत्सरद पुष्यमासद
शुद्ध बिदिगे मङ्गलवार कापणपुरद... ..य-सेट्टि गुम्मटसेट्टि
दनद.........वादरु.... ३२२ (१६२) श्रोसंवत् १५४६ वर्ष जेष्ट सुदि ३ रवि नागरी लिपि में वासरि गोम्मट स्वामी की जात्रा कियो
गोमट बहुपालै प्रजौसवाले कदिकबंस
ब्रमचारी पुरस्थाने पुरी ब्रात्रुपुत्रसम... ३२३ (१६३) श्रोनयकीर्त्ति सिद्धान्तचक्रवर्ति गल
शिष्यरु श्रीबालचन्द्र देवर गुड्ड
अङ्किसेट्टि अभिनन्दन देवरं माडिसिदं । ३२४ ( १८४) श्रीमूलसङ्घ देसियगण पुस्तकगच्छ
काण्डकुन्दान्वयद श्रो-नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्तिगलगुडु कम्मटद रामि
सेट्टि माडिसिद ॥ ३२५ ( १६५) श्री नयकीर्त्ति सिद्धान्तचक्रवर्तिगल
शिष्यरु श्रीबालचन्द्र देवर गुडु सुङ्कद भानुदेव हेग्गडे माडिसिद अजितभट्टारकरु॥
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३३३ ३२६ ( १६६ ) श्रीनयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवत्ति गल
गुड्ड बदियमसेट्टि माडिसिद सुमति
भट्टारकरु॥ ३२७ ( १६७ ) श्री मूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ
काण्डकुन्दान्वय नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवति गल गुड्डु बसविसेट्टि चतुर्वि
शतितीर्थकर माडिसिद॥ ३२८ ( १८८) श्रीनयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवत्ति गल
शिष्यरु श्रीबालचन्द्र देवर गुड्डकललेय
महदेव सेट्टि मल्लिभट्टारकरं माडिसिद ।। ३२६ (१६६) शक वर्ष १२०२ नेय प्रमाधि संवत्सरद
कार्तिक शुद्ध १० सोमवारदन्दु श्रीमनुमहा-पसायत तिरुमप्प......धिकारि सम्भुदेवण्न-नवर...लु मल्लएननवरुश्रीगोम्मट ........................
...............मङ्गल महा श्री श्री ॥ ३३० (२००) सर्वधारि-संवचरद चैत्र-सुद्ध-पाड्य
बृहबार दन्दु श्रीगोमट-देवर नित्याभिषेकक्के बिटेयन हलिय मेणसिन सोयि सेटिय मग मादिसेटि कोट्ट...द्याण १ पण २ हालु मान ।
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३३१ (२०१ )संवत् १६३५...पिमतीच-स। फ [ नागरी लिपि में ] सुदीय सेनवीरमतजी श्री-जगतकरतजी
पदाभट्टोदराजी प्ररसटीवदव...उ...
मघोपदे श्री-रायसोरघजी। ३३२ (२०२) संवत् १५४८ पराभव सं. जे. सुद्द ३ [ नागरी लिपि में ] मूलसङ्घ अगुषजे श्री-जगद् त...ज्ञाकपड
......लं तडमत् मेदाराजद् सतराब ३३३ (२०३) संवत् १५४८ वरुषे चैत्र वदि १४ द [ नागरी लिपि में ] ने भटारक श्री अभयचन्द्रकस्य शिष्य
ब्रह्मधर्मरुचि ब्रह्मगुणसागर-पं ॥
की का यात्रा सफल । ३३४ ( २०४) गेरसोपेय अप-नायकर मग लिङ्गण्णनु
साष्टाङ्गवेरगिदनु ३३५ (२०५) प्रामाची रकम ठऊ [ठेऊ] [ नागरी लिपि में ] [२] तुमची कम घऊ [घेऊ ] [ ३३६ से ३५० तक के लेख नागरी अक्षरों में हैं ] ३३६ ( २०६ ) श्री गणशान नम शाओ हरखचन्ददसजी
शवत १८०० मीगशर वीदी १३ गराऊ। [श्री गणेशाय नमः । साव हरखचन्द्रदासजी संवत् १८०० मगसर वदि १३ गुरौ]
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विन्ध्यगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख
३३५
३३७ (२०७ ) श्री गणसा अ नमः साम्रा कपूरचन्द मेतीचन्द शतीदी रा सावत १८००
मगशरा वदी १३ गराऊ ।
| श्रीगणेशाय नमः । संवत् १८०० मगसर वदि
३३८ (२०८ ) सवत १८४२ मह सद ५ अतदस अगरवल दलवल पनपथय व सट भगवनदस जतरक अय ।
लाव कपूरचन्द मोतीचन्द शतीदी रा १३ गुरौ ]
[ संवत् १८४२ माह मुदी ५ श्रतदास अगरबाला दिल्लीवाला पनथिया वो सेठ भगवानदास जात्रा को आये ]
३३८ ( २० ) सवत १८०० पोस बद १४ मङ्गराय बालकी सनजी तेसुवको षण्डेलवाल
बुधलाल गङ्गरामज करणो भोग......
३४० ( २१० ) सवत १८०० मत असड सद १० सन
चरवर सतष रयज बलकसनज प्रजदतज चनरय व दनदयल प्रबट प्रजदतज इक जतर इसथन पठक अगरवल सरवग पनपथक गयलगत प्रयथ
[ संवत् १८०० मिली श्राषाढ़ सुदि १० शनीचरवार सन्तोषरायजी बालकिसनजी श्रजीतजी चैनराय व दीनदयाल व बेटा श्रजीतजी एक जातरा स्थान पेठका अगरवाला सरावगी पानीपत का गोयल गोत्री आये थे ]
२२
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३३६ विन्ध्यगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख ३४१ ( २११ ) सवत १८०० पस वद ६ मगलवर
वनवरलल दनदयल क बट । ३४२ ( २१२) सवत १८१२ बसह सद ११ वर मगल
बलरम रमकसन क बट अ [गरव ] ल सर [वग क ] स रय ग [ कल ]
गढय वसह......इ................ [संवत् १८१२ वैसाख सुदि ११ वार मङ्गल बलीराम रामकिसन का बेटा अगरवाला केसोराय गोकलगढिया वैसाख......] ३४३ ( २१३) सवत १८४३ मत मह वद ३ लष [म]
ण-रयक बट तइर मल नरठनवल नतमल गनरम धन......पै...
दज परप......नरक सहनवल [संवत् १८४३ मिती माह वदि ३ लक्ष्मणराय का बेटा तोडरमल नरठनवाला ( ?)[ नत ]थ[ मल गनीराम धन............] ३४४ ( २१४) सवत १८१२ मत वसह वद ८ वर सन
सठ रजरम रमकरसन मगत रयक बट गयल गत...र,.....सरपल सभनथ बट नय......क बट।
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३४५ (२१५)............सद मगल वर नय......
नरयनज वहड............रथथ,.....इ जहतय रमदनमल कसद.........बमदय
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
कसद जैनदरयज......वन.........ग
......रलम ......... ३४६ ( २१६ ) कसवराय का बेटा सवत १८१२ वसष
सद ११ वर मगल-वर समर-मलक बट मज
रम गगनय मदनगड़ पनपथय अगरवल । ३४७ (२१७ ) समत १८०० जट सद ३ करबधक सट
इमणपन थनय यमढ. र...लसराय...रयज इसरमज लसनय हलसरय बलकदस सरवग अगरवल
पनपथ गरगगत बनय सननय । ३४८ (२१८) उदसग वगवल रतत.... रजप......
पवल। ३४६ ( २१६) सवत १८१२ वसह सद ८ नवलरय
सकरदसक बट अयथ । ३५० ( २२०) सवत १८१२ मत वसष सद ८ सनच
रक दन सतपरयः मगनरमक बट जइकरनक पत सरवग
३५१ ( २२१) अष्ट-दिक्पाल मण्डप की छत के
मध्य भाग में गोलाकार ( उत्तर ) अरस-श्रादित्यङ्गवाचाम्बिके गवालविनि
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३३८ विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
पुट्टिदर पम्पराज हरिदेवं मन्त्रि-यूथाग्रणि
गुणि बल(पूर्व) देवण्यनेन्दिन्तिवम्मूवरुमुर्वी-ख्यात-कर्नाटिक
कुल-तिलकर्माचि-राजङ्ग मावन्दिररात्यु
च्चण्ड-शक्तर(दक्षिण)-जिनपति-पद-भक्तर्महाधारयुक्तर ।।
सकल-सचिव-नाथः साधिताराति-यूथः ।
परिहृत-पर-दारो (पश्चिम) .........भारती-कण्ठ-हारः ।
विदित-विशद-कीर्तिर्विश्रुतादार-मूत्ति
स्स जयतु बलदेवः श्री जिनेन्द्राति सेवः ।। [अरसादित्य (व नृप श्रादित्य) और प्राचाम्बिके को सुख देनेवाले तीन पुत्र उत्पन्न हुए--पम्पराज, हरिदेव और मन्त्रि-समूह में अग्रगण्य, गुणी बलदेव । ये लेोक-प्रसिद्ध कर्णाटक कुल के तिलक, माचिराज के पितृव्य, शत्रुओं के लिए प्रचण्ड-शक्ति, जिन-पद-भक्त महा साहसी थे। समस्त मन्त्रियों के नाथ, शत्रुओं को वश करनेवाले, परस्त्री-त्यागी, सरस्वती देवी के कण्ठहार, विशुद्ध कीर्ति, प्रसिद्ध और उदार-मूर्ति जिनेन्द्र-पद-सेत्री बलदेव जयवान् हो । ] ३५२ ( २२२) कालायुक्त संवत्सरद माघ ब १२ लु
गुम्मि सेट्टि मग..................सेट्टि दर्शनव आदनु ॥ कालायुक्त संवत्सरद माघब १२...पुट्टण्न मग चिकण्ननु दर्शनव प्रादरु ।।
___
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३३६ ३५३ ( २२६).........क-संवत्सर श्रावण सु ५...
...
सि......पाल......पा-ग्रामदल्लि ना... कियना...य...ग्रामक्के सलु...दलु...... कट्ट...डारम्भ-नीरारम्भ-सकल-सुवर्नादाय-सकल-दवसादाय आ......गरु आ-ग्राम......ग११... ..वरहगलनु ।
[ इस लेख में मय नगद और अनाज की आमदनी के किसी ग्राम के दान का उल्लेख रहा है।]
३५४ ( २३०) क्रु............फाल......... अनुभ...
को......य सीमेगे बेकद......कण्डुय ......वूलि .....प्रा-ग्रामके...वनु नीवे तेत्तुकोण्डु........ प्रा-ग्रामदलिन नमगे सलुव पत्तिगयनु पौत्रपारम्परे श्रा-चन्द्राक स्थायियागि अनुभविसिकोण्डु बरुवदु यी .........क्रय-साधन......यी-मर्यादि ......क्रयसाधन .......... - ..... नाग-गवुडन .........द स्थानीक...... ......साक्षिगलुन......हलिय...बाल मल्ले देवरु नज्जेगवुड हिन्दल......द
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३४० विन्ध्यगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख
कोत्तनगवुड बसट्टर गवुड......हलिय
तिर्त्तवन मुयि मर्या.. [यह किसी ग्राम का बैनामा सा ज्ञात होता है । ] ३५५ ( २३१ ) पण्डित देवरु माडित्तु माहाभिषेकदोलगे
हाल-मोसरोगे २ पुजारिगे १ भागि केलसिगलिगे कलुकुटिगरिगे भागि २ भण्डि
कारङ्ग १तप्पिदवर कै सास्ति चरु हरियाणी [लेख का भावार्थ कुछ संदिग्ध है। शायद इसमें महाभिषेक के लिए व पुजारियों, कारीगरों और मजदूरों को पण्डित देव के दान का उल्लेख है। ३५६ ( २३२ ) श्रीमतु व्यय संवत्सरद माग सुद्ध १३ नेय
त्रयोदसियलु करिय-कान्तणसेट्टियर मक्कलु करिय-बिरुमण सेट्टियर तम्म करियगुम्मट सट्टियरु बिडितियिन्द सङ्गव कुडिकोण्डु बेलुगुलदलु गुम्मटनाथन पादद मुन्दे रत्नत्रयद नाम्पिय उद्यापनेय माडि सङ्घयपूजेय
माडि कीर्तिपुण्यवनु उपार्जिसिकोण्डरु श्री। [उक्त तिथि को करिय कान्तण सेट्टि के पुत्र व करिय बिरुमण सेट्टि के भ्राता गुम्मटसेटि ने एक संघ सहित बेलुगल की वन्दना की और गोम्मटनाथ के दर्शन कर कीर्ति और पुण्य का उपार्जन किया।] ३५७ ( २३३ ) श्रीमतु करिय बोम्मणगे गुम्मटनाथ ने
गति कं।
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३४१
३५८ (२३८) संवत १८०० कत सद ६ सवत १८०० ( नागरी लिपि में ) पह-स २ पत दव पनपथ दनचद परवल क बप ।
३५८ ( २४८ ) सब १८०० मत पह सद ८ मंगलवर (नागरी लिपि में) कट रद्द व गरधर लल वजमल क बट व मगतरय कट रयक बट बणमल गमट सम क जत कर ।
३६० (२५१ ) ( यह लेख, शिलालेख नं० -६० (२४०) के प्रथम १५ पद्यों की हूबहू कापी मात्र है ) ३६१ ( २५२ ) स्वस्ति श्रीमतु वड्डव्यवहारि मोसलेय.. वि सेट्टियह तावु माडिसिद चवीस तीर्थकर अष्टविधार्चनेगे वरिषनिबन्धियागि माणिक्यनकर.. . शस-नकरङ्गलु कोट्ट पडिप... गे हाग ।... व सेट्टि बाचिसेट्टि चिक्क बाचिसेट्टि प २ सम्मेलेय केटि सेट्टि चन्दि सेट्टि गुम्मि सेट्टि चिक्कतम्म, प २ आादिसेट्टि चैौडिसेट्टि १ बाचिसेट्टि अथिबिसेट्टि जकयेमैदन बादिसेट्टि बाचि सेट्टि मारिसेट्टि वम्मिसट्टि प २ माचि सेट्टि नम्ब्रिसेट्टि मस रिसेट्टि केतिसेट्टि प २ केतिसेट्टि रेविसेट्टि हरियमसेट्टि कोम्मिसेट्टि प्रादिसेोट्ट चिक्क-केति
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
सेट्टि प २ पट्टण स्वामि चन्देसेट्टि सोमसेट्टि केतिसेट्टि प २ सोडलिसे सेट्टि बाकवेचट्टि.........केमि सेट्टि प १... ..द......चिक्क...हेगाडिति पट्टणस्वामि मलिसेट्टि कामवे प२ बम्मेय नायक दोचवे नायिकित्ति चिक्क पट्टण स्वामि प २ बाहुबलिसेट्टि पारिषसेट्टि बलविसेट्टि बरत बाहुबलि प २ सङ्कसेट्टि एचिसेट्टि चौडिसेट्टि बाचिसेट्टि सक्किसेट्टि प २ नागिसेट्टि करियशान्तिसेट्टि बवणसेट्टि बाप्पसेट्टि प २ मैलिसेट्टि महदेव सेट्टि हारुवसेट्टि प १ काविसेट्टिय पारिषसेट्टि प्रादिसेट्टि प १ ओडेयच्चसेट्टि जकिसेट्टि प १ तिप्पसेट्टिय बस विसेट्टि चिक्क तिप्पिसेट्टि ५ १.........य पदुमनसामिसेट्टि बमच्चि पदुम प १ देसिसेट्टि कलिसेट्टि केतिसेट्टि बन्मिसेट्टि प १... यटद राचमल्लसेट्टि यरु पट्टण स्वामि जकरसरु होयसलसेट्टि बीबसेट्टि पट्टण स्वामि मलिसेट्टि चाकिसेट्टि दासिसेट्टि प ३ नेमिसेट्टियरु प २ नाविसेटि देवि
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३४३
सट्टि चट्टिसेट्टि कातवेसेट्टिति प २ पट्टणस्वामि बोप्पिसेट्टि बाकिसेट्टि तम्म बोप्पिसेट्टि बसविसेट्टि राहुबलिसेट्टि जकवे अत्तियक प २ अङ्गरिक कालिसेट्टि सोमिसेट्टि चन्दिसेट्टि देविसेट्टि चिक्क कालिसेट्टि प २ साविसेट्टि चङ्गिसेट्टि बम्मिसेट्टि प १ हान्निसेट्टि पारिष सेट्टि कुप्पवे प २ माचिसेट्टि चट्टिसेट्टि गङ्गिसेट्टि कालिसेट्टि मारिसेट्टि प २ मङ्गिसेट्टि वर्द्धमानसोट्ट पारिष सेट्टि प २ काविसेट्टि देनिसेट्टि वम्मसेट्टि प १ गुम्मिसेट्टि माकिसेट्टि गोम्मटसेट्टि माचिसेट्टि प १ मस णिसेट्टि लकुमिसेट्टि प १ बहणिगेय बम्मवेय केटिसेट्टि प १ दनसेट्टिय म... वसेट्टि देमिसेट्टि चामवे प २ बाचिकवेय बम्मिसेट्टि पारिषसेट्टि चिक पारिषसेट्टि बेलिसेट्टि सामसेट्टि गोम्मट सेट्टि केतिसेट्टि पर सहदेवसेट्टिय चेट्टिसेट्टि रामिसेट्टि चट्टिसेट्टि प २ पदुमसेट्टि होल्लेसेट्टि गोम्मटसेट्टि लकुमिसेट्टि पाचम्म नाकिसेट्टि महदेवसेट्टि प २ नागर-नविलेय केति
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३४४ विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
सेट्टिय मग बम्मिसेट्टि गुज्जवे प २ सेलदि सेट्टि मसणिसेट्टि महादेवसेट्टि प १ वासुदेव नायक रामचन्द्र पण्डित चिक्कवासुदेव प २ सेनबोव-तिब्बसेट्टि प १ जयपिसेट्टि वम्मि सेट्टि पदुमिसेट्टि चिक्कजयपिसेट्टि प २ अङ्गडिय महदेवसेट्टि गोम्मटसेट्टि महदेवि सोमक्क प २ केतिसैट्टिय आदिसेट्टि प १......... ...य्य .,....मग अल्लडिप्प पडि...होङ्ग गद्याण नाल्क कोडुवरु ४ वर्द्धमान हेग्गडे नागवे हेग्गडिति बाहुबलि कलवे प २ कंदार वेग्गडे कन्नवे हेग्गडित्ति जक्कन हुरिय कडलेय केति सेट्टि जक्किसेट्टि प २ कालिसेट्टि मरुदेवि चागवे हेग्गडित्ति
बोकवे-हगाडित्ति प २ मोसले के बडुव्यवहारि बसवि सेट्टि के प्रतिष्ठित कराये हुए चतुर्विशति तीर्थङ्करों की अष्टविध पूजार्चन के हेतु उपयुक्त सज्जनों ने उपयुक्त वार्षिक चन्दा देने की प्रतिज्ञा की। ] ३६२ ( २५७ ) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं ।
जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासन।।१।।
स्वस्ति श्री शकवर्ष १३७१ नेय युव संवत्सरद वैशाख शुद्ध १० गु. स्वस्ति
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३४५
श्रीमतु चारुकीर्त्ति पण्डित देवरु -गलु अवर शिष्यरु अभिनव पण्डित - देवरुगलु बेलुगुलद नाड गवुडुगल माणिक्य नखरद हरु पण्डित स्थानिकरु वैद्यरु......
वरु
इसमें बेलुगुल के चारुकीर्त्ति पण्डितदेव
[ यह लेख अधूरा है। और अभिनव पण्डित देवका उल्लेख है ]
३६३ ( २६० ) सके १६५५ प्राश्वीज वदि ७... खेरापुत्र...... मखीसा.... .. श्री वानापोसा...
नागरी लिपि में ) मासा
. गया सफल श्री ।
सक.......
३६४ (२६१ ) सके १६५३ आश्वीज वद ७ खेरामासा ( नागरी लिपि में ) पुत्र हीरासाछा पोतुखखा जात्रा सफल । ३६५ ( २६२ ) सके १६६३ प्रवोज वद ७ खेरामासा ( नागरी लिपि में ) पुत्र धरमासाळा पौत्र जागा.........
जात्रा सफल ||
३६६ ( २६३ ) सके १६४३ पौस वदि १२ शुक्रवारे ( नागरी लिपि) भण्डेवेड कीर्त्ति सहित उघरवल जाती होरासा सुत हाससा सुत चागेवा
बाई राजाई गोमाई राधाई मन्नाई सहित जात्रा सफल करी कारज कर ।
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३४६
विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३६७ ( २६४ ) वेय नाम संवत्सरद कार्त्तिक सुद्ध अष्टमी
( खण्डवा गिलु के यि गुरुवार || बरामदे में )
३६८ (२६५ ) स्वस्ति श्री सूल सङ्घ देशियगण (द्वारे के पास भुज - पुस्तकगच्छ श्रीगण्डविमुक्त सैद्धान्तदेवर बलिस्वामी के पाद - पीठ पर ) गुड्ड भरतेश्वर दण्डनायक माडिसिद || ३६८ (२६६ )
[ लेख नं० ३६८ के ही समान ]
(द्वारे के पास भरते
श्वर के पादपीठ पर)
३७० ( २७० ) श्रीमतु प्रास्वैज सुद्ध ६ ल्ल बेगूर गामेय नरसप्पसट्टियर मग बैयखनु स्वामि-दरु
सनव माडि ई-कट्टे कट्टिय प्रवटिगे निलिसिदरु ||
[उक्त तिथि को बेगूर के गामेय नरसप्पसेट्टि के पुत्र बैयण ने स्वामी के दर्शन किये, यह कुण्ड बनवाया और उस पर छप्पर डलवाया । ] ३७१ ( २७१ ) सेामसेन देवर गुड्डु गापय बैचक्क ३७२ ( २७२ )... भुवनकीर्त्तिदेवर शिष्य कीर्तिदेवर निशिधि |
३७३ ( २७५ ) वनवासिवस्वा ३७४ (२७६ ) सि हनन्दि आचार्यरु || ३७५ (२७८) पूताबाई.. (नागरी लिपि में) सफल ॥
...रद... रा......
. जगदाई पणास जात्रा
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३७६ (२७६) पूननाई पुत्र पण्डि...पु.., (नागरी लिपि में) ३७७ ( २८०) श्रीमतु प्रास्वै बहुल १ यलु भारगवेय
नागप्प-सठर मग जिन्नणनु बेलुगुलद चारुकीति भटार श्री पादव के थिसि
दर श्रो॥ [ नं०३७८ से ४०४ तक के लेख नागरी लिपि में हैं । ] ३७८ ( २८३ ) चीतामनस उवरा माणकर ई-कर ३७६ ( २८४) सके १६४२ वैसाष वदी १३ बु गडासा
धर्मासा कोट्टसासोमानीकसाच नमस्कार
( कनाडी लिपि में ) माणिकसा ३८० ( २८५ )......सा......प्र......के १६४२...
क वदी १३ मरिवहीरा जात्रा सफल ।। ३८१ ( २८६ ) श्री काष्टसङ्घ । ३८२ ( २८७ ) शक १५६७ पार्थिव-नाम संवत्सरे वैशाष
मासे शुक्ल पक्षे चतुर्दशी दिवसे श्री काष्टसङ्घवघेरवाल जातीय गानासा गोत्रे सवदी बावुसार्या जायनाई तयो पुत्रौ द्वौ प्रथमपुत्र सन्नोजसार्या यमाई तया पुत्रा यरु...मध्य सीमा सङ्घवीन्या सङ्घवीन्यार्जुनसीत ग्रामे सम्प्रणमति द्वितीय पुत्र सङ्घवी पदीयार्या तानाई तयो पुत्री
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विन्ध्यगिरि पर्वत के प्रवशिष्ट लेख
द्रौ विट्ठमार्या कमलाजा पुत्र एशोजा पदाजी वो द्वितीय पुत्र गेसाजीति सम्प्रणमति हीरासा धरमासा माडगडी । ३८३ ( २८८ ) साके १५७४ चैत्र सुधी ५ आधा । जगस वाल्वान्त-पुसा त्याचे भाऊ गानसा समसनी धर्म वष्टल प्रा ॥
३८४ ( २८६ ) सक १५७४ चैत्र वद १० प । जीनासा सुत जीनदास
३८५ ( २८० ) चैत्र वदी ६ पं । सक १५७४ सा । अलीसा जात्रा सफल ||
३८६ ( २-६१ ) श्री काष्टसङ्घ माडवगडी १५७७ मनमथ नाम संवदसरे कार्तिक वदी १५ हीरासा घुमाई पुत्र धरमासा राई पुत्र सानसा व हीरासा वर्षातगडेसा तप दमा काघे जात्रा सफल माताई चे जात्रा ||
1
३४८
३८७ ( २८२ ) सके १५७७ मनमथ नाम संवत्सरे कारतिक वदी पाडिव १ तलीची मारमा कालावा मारमा जीवामा जीवाजी पाही घानयजी वानदीका जामखेडकर साता कातीमा करका जत्रा ।
३८८ ( २३ ) सके १६७४ चै, वदी ६ घघाउसा
मानीकसा जत्रा सफली ।।
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
३८६ ( २-६४ ) १७६४ सुरजन साफल ३८० ( २-८५ ) सके १७५४ चैत्र वदी ५ जत्र करी सफल ३८१ ( २-६६ ) सुपुजीश नेमाजी सामजी सरत योगोई ३-८२ ( २८७ ) सके १६४० फालगुन सुदी १ गु. देमासा मानकसागविल ( कनाड़ी में ) देमासा रजा
३-८३ (२-६८ ) सके १५८४ वैशाष सुदो ७ श्री काष्टासङ्घ पीतलागोत्रे लषता पु हीरासा
रामासा जात्रा सफल ।
३४८
३-८४ ( २८६ ) ब्रह्मरङ्ग सागर पं । जसवन्त । ३-५ (३०० ) प गोविन्दा माथ गङ्गाई
३-८६ ( ३०१ ) संवत् १७१८ वर्षे वैशाष सुदि ७ चन्द्रे श्री काटासङ्घ पण्डित
३-८७ (३०२ ) सके १५६८ सावछरे फालगुन वदि ६ .. पुत्र त्रीछक..
तदा.
यायसा....
अवार.
अ रघु
छा जीछक......
३८८ ( ३०३ ) लाम्ब्बाजी का जन्माजी का तप ३८६ ( ३०४ ) माघ सुदि ६ पेडेक... त्रा घडे... जात्रा
सफल ||
......
......
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३५० विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ४०० ( ३०५ ) संवत् १५६६ पार्थिव नाम संवत्सरे
माघ शुदी पाडिव : माचा......पुत्र
धावर...जात्रा सफल ।। ४०१ ( ३०६ ) सके १५६६ पार्थी नाम संवत्सरे मेगने
मासा तसे मायो जीवाई भीवझा जेट
सुध ३ ४०२ ( ३०७ ) १३५ जीवा सङ्गवी १३५ अडु सङ्गवीचा
गोगासा ४०३ ( ३०८) ब । शापसाजी ब्र । रत्नसागर ४०४ ( ३०६) गुडघटिपुर...गोविन्द जीवापेटी सवडी
सफली । ४०५ (३१० ) १५६२ श्रीमतु पार्तिव संवत्सरद वैशाख
सुद पञ्चमी कमल परद कमवोव्येनिम सुरप नगपन वलभ नम गोत्र मग जिनप
सुरप इगवलं चिखणद सेटि... ४०६ ( ३११ ) हालेजन मसणेय कट्टि बिडुवर गण्ड
वोडेयर हेण्डतिय गण्ड बोयसेट्टिय मद
कोड ४०७ ( ३१४) जिन वर्मन कसरिय ध्वनि किविवुगं
दुर्जनङ्ग भयमु सुजनङ्ग अनुरागमुमुदै. सुगुं घननाददिनेन्तु हंसेगं नविलिङ्ग
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३५१ ४०८ ( ३१५ ) कोलिपाके माणिक्यदेवन गुडु जिन
वर्म जोगि कङ्करि-जगदाल मोरमूर
आदिनाथ नमोऽस्तु । ४०६ (३१६ ) श्रामत् रूवारि बिदिगइ कम्मटद सुलेरिद
मुट्टिदर मेयिजायिले पेरगगिन् । ४१० ( ३१७ ) परनारी पुत्रक मण्टर तोल्तु केलेगे कुप्र्पात
पिसुणगडसर्पतोदल्दर बीव बावन बण्ट
गुण्डचक्र जेडुगं ४११ ( ३१६ ) स्वस्ति श्री पराभव-संवत्सरद मार्गशिर
अष्टमी शुक्रवारदन्दु कोमरच णा अकन तम्म मले पाल-अप्पाडि नायक इल्लिदु
चिक्कबेट्टकेच्च ॥ ४१२ ( ३२० ) गडिब गड़गे क ४० ४१३ ( ३२२) विजयधवल । ४१४ ( ३२३) जयधवल ४१५ (३२४) सके १५७५ मास्वा पाण्डव गोकेवा(नागरीलिपि में) सस्नोजीन्वो सफल जत्रा। ४१६ ( ३२५ ) माणि-वीरभद्रन पण्डरद नपा...कन
...बैरव बीरेव...हिब...न...तन... ४१७ (४७६ ) ओं नमो सिधव्य ॥ श्री गोमटेश प्रसन
धरणप्पासून ॥ हुब्बल्लि स्मरणार्थ चिं। मातप्पा अरपण हुब्बल्लि ।।
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३५२ विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख
[यह लेख एक घण्टे पर है । धरणप्पासूज की स्मृति में मातप्पा ने अर्पण किया ]
४१८ (४७७) श्रीमल्लिसेट्टिय मगलाद र...यिगल निसिधि ४१६ (४७८ ) काल...कर...ह...ल नेरुवाद...ल
अमर...वगे...चले...कस...य गडे गौडगं...नण्टर पं...न बान......रिद युगल न......चन्द...प्पं केञ्चगौड गरु
यङ्क......धार या,..द ४२० (४७६ ) पण्डितय्य ४२१ ( ४६५ ) विरोधिक्रतुसंवत्सरद जेष्ट शुद्ध १० श्री मूल
सङ्क देसिगण पुस्तकगच्छ कोण्डकुन्दान्वयद श्रीमद् अभिनव पण्डिताचार्य्यर शिष्य सम्यक्तचूड़ामणि एनिसिद आभव्योत्तमनु तलेहद नागि सेट्टिय सुपुत्र पाइसेटि श्री गुम्मटनाथ स्वामिय पूजेगे सम्पगेय मरन बलि समर्पसिद पल दिन्द जिनेश्वरन चरणस्मरणान्त-करणनु सुख समाधियिन्द सुगति प्राप्तनादुदके मङ्गल महा
श्री श्री श्री। ४२२ ( ४६६ ) स्वस्ति श्रीमतु जिनसिनि भट्टारक पट्टा
चार्यरु कालापुरद वरू सङ्घ सहवागि रौद्रि संवत्सरद वैशाख सुद्द १० सक्र
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विन्ध्यगिरि पर्वत के अवशिष्ट लेख ३५३
वार दिन दरुशनव माडिदरु ॥ सि...द
......कोट्ट...... ४२३ ( ४६७ ) श्री व्यय संवत्सरद माघ सुद्द १३ नेय
त्रयोदशियल प्रोजकुल...लसेट्टि पद्मावती वन कचा...क...मप्प नाउ अरु
मन्दि के...थ.........दके......द... ४२४ (४६८)......श्री व्यय संवत्सरद माघ सुद्द१३
नेय प्रयोदसियलु किरिय कालन सिटियर अलियिन्दिरु सेट्टि नेमणसेट्टियर मगसेट्टि ब्रमयसेट्टि गोम्मटनाथन पादद
मुन्दे तसा...यनागि कम्बय......दिदनु।। ४२५ (४६६) सुभमस्तु । विक्रम नाम संव......
राज्य.........सक.........न नमि... ...र...डिचलु...लु...
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श्रवण वेल्गुल नगर के अवशिष्ट लेख
४२६. ( ३३१) अक्कन वस्ति में पार्श्वनाथ की मूर्ति पर श्री.मूलसङ्घ-देशिगण-पुस्तकगच्छ-कोण्डकुन्दान्वयके सिद्धान्त-चक्रवर्ती नयकीर्ति-भुनीश्वरो भाति ॥१॥ तच्छिष्योत्तम-बालचन्द्र-मुनिप-श्री-पाद-पद्म-प्रिया सवोर्वी-नुत-चन्द्रमौलि-सचिवस्याओँङ्ग-लक्ष्मीरियं । प्राचाम्बा रजताद्रि-हार-हर-हासोद्यद्यशो-मञ्जरीपुखीभूत-जगत्रया जिन-गृहं भक्तया मुदाकारयत् ॥२॥ ४२७ ( ३३२ )...तातीराव सुदीपरा...पमघदेव ४२८ ( ३३७ ) श्रीमत्पण्डिताचाय्य गुड्डि देवराय
महारायर राणि भीमादेवि माडिसिद
शान्तिनाथ स्वामि श्री।। ४२६ ( ३३८ ) श्रीपण्डितदेवर गुडि बसतायि माडि
सिद वर्द्धमान स्वामि श्री।।
४३० ( ३३६) मङ्गायि वस्ति के द्वितीय दरवाजे की चोखट पर
स्वस्ति श्री मूलसङ्घ देशियगण-पुस्तकगच्छ-कोण्डकुन्दान्वय श्रीमद्-अभिनव-चारुकीर्ति-पण्डिताचार्य्यर शिष्ये
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नगर में के अवशिष्ट लेख ३५५ सम्यक्त्वचूड़ामणि रायपात्र-चूड़ामणि बेलुगुलद मङ्गायि माडिसिद त्रिभुवनचूड़ामणि येम्ब चैत्यालयक्के मङ्गल-महा श्री श्री श्री ।।
[श्री मूलसङ्घ देशिय गण, पुस्तक गच्छ, कोण्डकुन्दान्वय के अभिनव चारुकीर्ति पण्डिताचार्य के शिष्य बेलुगुलवासी सम्यक्त्व चूडामणि मङ्गायि द्वारा निर्मापित त्रिभुवन चूडामणि नामक चैत्यालय का मङ्गल हो।] ४३१ ( ३४८)............छनं . ...शासनं...परोक्ष
....."य्य... ......नुडि......... लान्तरक...लायदेवरु तसिष्य......ज्य ...दाता............तत्सिष्य ........ अभेयनन्दि.........सिद्धान्ति देवरु देव............द्धान्तिदेवरु......... वचन्द्र.........सुरकीति वि..... चन्द्र भट्टा......गुणचन्द्र
.........भट्टारक.........भट्टारकरु......कटका......व
.........त कमल.........प्रह .........ध्यालकल्पवृक्ष वासु - पू...य......सिक्षति...की ... ......दु......योगि तिल
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३५६
नगर में के अवशिष्ट लेख
.दं श्रीमा.........
त्मक तत्प्र.... . वे ।। श्रीकू ......
ताय...
तया
. यव
रमल.. .म्
अन्वयाभिधान अभिनव स्वार च चतु...
... चक्रवर्त्ति
......
......
मार..
...कंपडि..
४३२ ( ३५० ) पिङ्गल-सद्ध ५ लुस
.....न्दान्वयद.
गया पुस्त.. र्त्ति पण्डिताचा. मदवलिगे कि ....
....
मि सेण्टियर..
गु
......
.....
. प्रमे...
........
......
. तर कलगु..
.ङ्किपूर दन...... बेलुगुलके ब
४३३ ( ३५३ )
पूर्णेया की सनद जो कागज पर लिखी हुई बेल्गुल के मठ में है
शुक्ल-संवत्सरद फाल्गुन ब द बुधवारदल श्रीमत्त पूर्वैयनवरु किक्केरि सामील गवुडैयगे बरसि कलुहिस्त कार्य
.. र
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नगर में कं प्रवशिष्ट लेख
३५७
अदागि स... द कलगण धर्मस्तलदिन्दा कम रहेग्गडियवरु श्रवण बलगुलक्कं देवर दरुशनक्के बन्दु यिह हजूरिंगे बन्दु यिद्दु अरिके - माडिकोण्डदु पूर्वके कृष्णराज-वडयरवरु श्रवणबलगुलदल्लि रुिव चिक्कदेवराय - कल्याणि समीपद दानश्यालि- धर्मक्के किक्केरि तालुक कत्रालु यम्ब ग्राम-वन्नु नडसिकोण्डु बरुवन्ते सन्नदु वरशि कोट्टुद्दु हाजरु विधेयन्दु तन्दु तोरिशि दरिन्दा कट्ले मासि विधित्तु यी कबालु-ग्रामद हुहुवलि योग गु८०-यम्बत्तु वरहायिरु वदरिन्दा श्रवण बलगुलदल्लि free चिक्कदेवराय - कल्याणि समीपदनि नडव दानश्यालि- धर्मक्के गोमटेश्वर पूजिगे श्रवण बलगुलदल्लि विरुव मटद सन्न्याशि चारकीर्ति पण्डिताचार्यर मटक्के द वेच्चक्के सहा ग्रामवन्नु प्रमोदूत-संवत्सरद आरव्याग्राम यिवर ताबे माडस नेम्मदि-गूडि नडशि कोण्डु बरुवदू यो ग्रामदनि पालुबूमि सागुवलि मासिकाण्डु करे कट्टे कट्टिसि कोण्डु ग्रामक्के राजपन्तु तन्दु येनु जास्ति हुहुवलि यिवरु माडि कोण्डाग्यू सदर बरद मरद वेच्चक्के देवर पूजिगे दान-स्थालिये सहा उपयोगा- माडिको लुवदे होरतु सरकारद तण्टे माड कॅलसविल्ला सराग- गूडि नडसिकोण्डु बरुवदु तारीकु २८ ने माहे मार्चि साल १८१० ने यिस वीयल्लु सदि वरद मेरिगं नदै - शिhiण्डु बरुदु श्री ताजाकलं यी सन्नदु दप्तर के बरशि कोण्डु असल सन्नदुन्ने हिदक्के काडुवदु रुजु श्री पैवस्त कि पाल्गुण ब १० शुक्रवार स्तल दाकलु ।
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३५८
नगर में के प्रवशिष्ट लेख
.. [धर्मस्थल के कोमार हेग्गडि ने आकर कृष्णराज वडयर के समय की एक सनद पेश की जिसमें किक्करि तालुका के कबालु नामक ग्राम का बेल्गुल के चिक्कदेवराय के समीप की दानशाला के हेतु दान दिये जाने का उल्लेख था। इसी सनद के अनुसार उक्त तिथि को पूर्णय्य ने यह सनद दे दी कि उक्त ग्राम की श्राय, जो उस समय ८० वराह थी, उक्त दानशाला और बेल्गुल के सठ के हेतु काम में लायी जाय । भविष्य में श्राय में जो वृद्धि हो वह भी इसी हेतु खर्च की जाय यह सनद उक्त तिथि को सरकारी दफ्तर में नकल कर ली गई।।
४३४ ( ३५४)
मुम्मडि कृष्णराज ओडेयर की सनद उसी
मठ में कागज पर श्रीकण्ठाच्युत-पद्मजादि-द्विषद्-वक्रोद्ध-तेजःछटासम्भूतामतिभीषण-प्रहरण-प्रोद्भासि बाहाष्टकां । गर्जत्-सरिभ-दैत्य-पातित-महा-शूलां त्रिलोकी-भयप्रोन्माथ-व्रत-दीक्षितां भगवती चामुण्डिकां भावये ॥१॥ निदानं सिद्धानां निखिल जगतां मूलमनघं प्रमाण लोकानां प्रणय-पदमप्राकृतगिरां । पर वस्तु श्रीमत् परम-करुणासार-भरित प्रमोदानस्माकं दिशतु भवतामप्यविकल ॥२॥ हरेमला-वराहस्य दंष्ट्रा-दण्डस्स पातु नः । हेमाद्रि-कलशा यत्र धात्री छत्र-श्रियं दधौ ॥ ३ ॥
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नगर में के अवशिष्ट लेख
३५६ नमस्तेऽस्तु वराहाय लीलयोद्धरते महीं। खुर-मध्य-गतो यस्य मेरुः कणकणायते ॥४॥ पातु त्रीणि जगन्ति सन्ततमकूपाराद्धरामुद्धरन् क्रीडा-क्रोड-कलेवरस्स भगवान्यस्यैक-दंष्ट्राङ्करे । कूर्मः कन्दति नालति द्विरसनः पत्रन्ति दिग्दन्तिनो मेरुः कोशति मेदिनी जल जति व्योमापि रोलम्बति ॥५॥
स्वस्ति श्री विजयाभ्युदय-शालिवाह-शक-वर्षगलु १७५२ सन्द वर्तमान-विकृति-नाम-संवत्सरद श्रावण ब०५ सोमवारदल्नु प्रात्रेय-सगोत्र आश्वलावन-सूत्र रुकशाखानुवर्तिगलाद यिम्मडि-कृष्णराज-वडयर वर पौत्रराद चामराजवडयरवर पुत्रराद श्रीमत् सुमस्त-भूमण्डल-मण्डनायमान-निखिलदेशावतंस-कर्नाटक-जनपद-सम्पदधिष्ठानभूत-श्रीमन्महीसूर-महासंस्थान-मध्य-देदीप्यमानाविकल-कलानिधि-कुल - क्रमागत-राज - क्षितिपाल-प्रमुख- निखिल-राजाधिराज-महाराज-चक्रवर्ति-मण्डलानुभूत-दिव्य-रत्न-सिंहासनारूढ श्रीमद्-राजाधिराज-राजपरमेश्वर प्रौढ-प्रतापाप्रतिम-वीर-नरपति बिरुदेन्तेम्बर-गण्डलोकैकवीर यदु-कुल-पयःपारावार-कलानिधि शङ्ख-चक्रांकुश-कुठारमकर-मत्स्य-शरम-साल्व-गण्ड-भेरुण्ड-धरणीवराह-हनुमद्-गरुडकण्ठीरवाद्यनेक-बिरुदाङ्कितराद महीशूर श्री कृष्णराज-वडयरवरु श्रवण बेलगुलद चारुकीर्ति-पण्डिताचारी मठक्के श्रवण बेलगुलद देवस्थानगल पडितर-दीपाराधने बग्गे दागदोजिकेलसद बग्गे सहा बरसि को ग्राम-दान-शासन क्रमवेन्तेन्दरे ।
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नगर में कं अवशिष्ट लेख किक्केरि-तालुकु श्रवणबेलगुल दल्लिरुव दोड्ड-देवरु १ अल्लिरुव चिल्लरे-देवस्थान ७ चिक्कबेट्टद मेले यिरुव देवस्थान १६ ग्रामदल्लिरुव देवस्थान ८ सहा देवस्थान ३२ के सह पडितर-दीपाराधने-वग्गे नडेयुव नगदु तस्तीकु १२० शिवायि चारुकीर्ति पण्डिताचारी मठक्के नडयुव कब्बालु-ग्राम १ यिदरल्लि पडितरदीपाराधनेगे सालुवदिल्लवाद्दरिन्द मठक्के नडेयुव कब्बालु-ग्राम १ यिदरल्लि पडितर-दीपाराधनेगे सालुव-दिल्लवाहरिन्द मठक्के नडेयुव कब्बालु-ग्राम मात्र कायं माडिसि पडितर दीपाराधने नडेयुव बग्य श्रवण बेलगुल ग्राम १ उत्तैनहल्लि ग्राम १ होसहल्लि ग्राम १ यी-मूरु-ग्रामवन्नु सर्वमान्यवागि अप्पणे-कोडिसुबेकेन्दु अरमने समुरवद लक्ष्मी-पण्डितरु हजूरल्लरिक-माडिकोण्डद्दरिन्द सह नगदु तस्तीकु मोक्षोप माडिसि बिटु यीमूरु-ग्राम-गलन सह सदरि देवस्थानगल पडितर-दीपारादने मुन्ताद बग्ये चारुकीर्ति-पण्डिताचार्य मठद हवालु-माडिकोट्ट ई-ग्रामगल बेरीजु पञ्चसालु हुद्द्वलि पटि कलुहिसुवन्ते तालुकु मजकूर आमीलगे निरूपअप्पणे-कोट्टिद्द मेरे आमीलन रुजु मोहर दप्तर दाखले नीसि अर्जियल्लि मलफूपागि बन्द पट्टि पराम्बरिसि कटले-माडिसिरुव विवर बेरीजु ( ) कसबा श्रवण बेलगोल ग्राम असलि १ दाखले कोप्पलु २ करे १ कट्टे २ के सहा बेरीजु ( ) पैकि वजा जारि यिना-मति
(यहाँ तीनों प्रामों की आय का पाँच साल का पूरा व्यारा दिया है)
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नगर में के अवशिष्ट लेख ३६१ यी-मेरे यिरुव ग्रामगलु यिदर दाखले-ग्राम केरे कट्टे मुन्तागि सदरि बेलगुलदल्लिरुव दोडु-देवरु मुन्तागि ३२ देवस्थान मलयूरु-बेहद मेले यिरुव देवस्थान १ सहा मूवत्त-मूरु-देवस्थानद पडितर दीपाराधने रथोत्सव मुन्ताद बग्ये यी-देवस्थान गलिगे वर्षम्प्रति दागदाजि श्रागतकद्द, माडिसतक्क बग्ये सहा प्रात्रेय-सगोत्र आश्वलायन-सूत्र ऋक-शाखानुवतिगलाद यिम्मडि-कृष्णराज-वडयरवर पौत्रराद चामराज-वडयरवर पुत्रराद श्रीमत्समस्त-भूमण्डल-मण्डलायमान-निखिल-देशावतंसकर्नाटक जनपद-सम्पदधिष्ठानभूत श्रीमन्-महीसूर-महासंस्थानमध्य- देदीप्यमानाविकल- कलानिधि-कुल- क्रमागत-राज-क्षितिपाल-प्रमुख-निखिल-राजाधिराज-महाराज-चक्रवति - मण्डलानुभूत-दिव्य-रत्न-सिंहासनारूढ़ श्रीमद् राजाधिराज राज परमेश्वर प्रौढ-प्रतापाप्रतिम-वीर-नरपति विरुदेन्तेम्बर गण्ड लोकैक-वीर यदु-कुल-पय:-पारावार-कलानिधि शङ्खचक्राङ्क श-कुठार-मकरमत्स्य-शरभ-शाल्व-गण्डभेरुण्ड-धरणीवराह हनूमद्-गरुड-कण्ठीरवाद्यनेक-बिरुदाङ्कितराद महीसूर श्री-कृष्णराज-वडयरवरु सर्वमान्यवागि अप्पणे-कोडिसि-धेवेयाद-कारण यी-प्रामगलन्नू यी-विकृति-संवत्सरदारभ्य मठद हवालु-माडिकोट्ट निरुपाधिक-सर्वमान्य-वागि नडसिकोण्डु बरुवन्ते तालुकु मजकूर प्रामीलगे सन्नदु अप्पण-कोडिसिधोतागि सदरि सन्नदिन मेरे या मूरु-ग्रामगल यल्ले चतुम्सीमा-बलगण गद्दे बेहलु मने हण केम्पु-नूलु उप्पिन मोले योचलु-पैरु पुर वर्ग येरु-काणिक नाम
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३६२ नगर में के प्रवशिष्ट लेख काणिक गुरु-काणिक काणिके बेडिके कब्बिणद पोम्मु आले. पोम्मु हट्टि-पोम्मु मार्ग-करगपडि सुङ्क पोम्मु जाति-कूट समयाचार हुल्लु हरय चरादाय होरादाय सीगे मड्डि पतङ्ग पोप्पलि. गिड-गावलु ब्राह्मण-निवेशन शूद्र-निवेशन सोपिन तोट तिप्पेहल्ल श्रीगन्ध होरताद मर वलि फल-वृक्ष मदिक मुन्ताद प्रा. सकल स्वाम्यवन्नु रूहिसि कोल्लुत्ता श्रवण बेलगुल-प्रामदल्लि नेरेयुव सन्ते-सुङ्कद हुट्ट वलियन्नु तेग दुकोल्लुत्ता यी-ऐवजिनल्लि देवर सेवेगे उपयोग-माडिकोल्लुत्ता बरुवदु यी-ग्रामगलल्लि होसदागि करे कट्टे काल्वे अणे मुन्तागि कट्टिसि बाजे-बाबु मुन्तागि याव बाबिनल्लि येनु हेच्चु हुट्ट वलि माडि-कोण्डाग्यू सदरि देवर सेवे मुन्ताद्दक्के उपयोग-माडिकोल्लुवदु यम्बदागि श्रवण बेलगुलद चारुकीर्ति-पण्डिताचार मठक्के आत्रेय-सगोत्र आश्वलायन-सूत्र ऋक-शाखानुवर्ति-गलाद यिम्मति-कृष्णराज वडयरवर पौत्रराद चामराज-बडेयरवर पुत्रराद श्रीमत्समस्तभूमण्डल-मण्डनायमान - निखिल - देशावतंस-कर्नाटक - जनपदसम्पदधिष्ठानभूत-श्रीमन्महीशूर-महासंस्थान-मध्य-देदीप्यमानाविकल-कलानिधि - कुल-क्रमागत-राज-क्षितिपाल-प्रमुख- निखिलराजाधिराज-महाराज चक्रवति -मण्डलानुभूत-दिव्य रत्न -सिंहासनारूढ़ श्रीमद्-राजाधिराज राज-परमेश्वर प्रौढ़-प्रतापाप्रतिमवीर-नरपति बिरुदेन्तेम्बरगण्ड लोकैक-बीर यदु-कुल-पय:-पारावार-कलानिधि शङ्ख-चक्राश-कुठार-मकर-मत्स्य-शरभ-साल्वगण्डभेरुण्ड-धरणी-वराह-हनूमद्रुड-कण्ठीरवाद्यनेक-बिरुदाङ्कि
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नगर में के अवशिष्ट लेख ३६३ तराद महीशूर श्रीकृष्णराज-वडयर वरु बलगुलद देवस्थान गल पडितर दीपाराधने रथोत्सव वर्ष म्प्रति आगतक्क दाग-दोजिकेलसद बग्ये सहा बरेसि कोट्ट सर्वमान्य-ग्राम-साधन सहि ।। आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च
द्योभू मिरापो हृदयं यमश्च । अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये
धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तं ।। ६॥ स्वदत्ताद्विगुणं पुण्यं परदत्तानुपालनं ।
परदत्तापहारेण स्वदत्तं निष्फलं भवेत् ।। ७ ।। खदत्ता पुत्रिका धात्री पितृ दत्ता सहोदरी ।
अन्यदत्ता तु माता स्याद् दत्तां भूमि परित्यजेत् ॥५॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् ।
षष्टिं वर्ष-सहस्राणि विष्टायां जायते कृमिः ॥॥ मद्वंशजाः परमहीपतिवंशजा वा
ये भूमिपास्सततमुज्ज्वलधर्मचित्ताः । मधर्ममेव सतत परिपालयन्ति
तत्पादपद्मयुगलं शिरसा नमामि ॥ १० ॥ ब तारीख ने माहे आगिष्ट सन् १८३० ने यिसवि खत्त अरमने सुबराय मुनशि हजूरु पुरनूरु सदर अपणे-कोडिसिरुव मेरिगे असलि-ग्राम मूरु दाखलि-ग्राम यरडु केरे वन्दु कटे मूरक्के सह जारि यिनामति सिवायि सालियाना कण्ठिरायि वम्भैनूरु-अरुवतारु वरहालु व्याले बेरीजु उल्ल यी-ग्राम
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३६४ नगर में के अवशिष्ट लेख गलन्नु निम्म हवालु-माडिकोण्डु देवस्थानगल दीपाराधने पडितर उत्सव मुन्तागि निरुपाधिक-सर्वमान्यवागि नडसि-कोण्डु बरुवदु रुजु श्रीकृष्ण ।
( यहाँ मुहर लगी है) [ इस सनद का भावार्थ लेख नं० १४१ में गर्भित है। ]
४३५ ( ३५५ ) मठ में अनन्तनाथ स्वामी की प्रभावलि की पीठ पर
(शक सं० १७७८)
(ग्रंथ और तामिल ) श्रीमदनन्तनाथाय नमः
अष्टासप्तत्यधिकात्सप्तशतोत्तर-सहस्रकाद्गुणिते । शालिवाहन-शक-नृप-संवत्सरके समायाते ।। १ ।। एकानविंशतियुतात्पञ्च-शत-सहस्र युग्मकाद्गुणिते । श्री वर्द्धमान-जिनपति-मोक्षगताब्दे च सजाते ॥ २ ॥ एक-न्यून-शतार्द्धात्प्रभवादि-गताब्दक सङ्गगिते । एवं प्रवर्तमाने नल-जामाब्दे समायाते ॥ ३ ॥ मीने मासि सिते पक्षे पूर्णिमायान्तिथौ पुनः ।
अवाकाशीति विख्यात-बेल्गुले नगरे वरे ॥ ४ ।। ... भण्डार-श्री जैन-गेहे श्री-विहारोत्सवाय च । ... प्राजवजव-नाशाय स्व-स्वरूपोपलब्धये ॥ ५ ॥
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नगर में के अवशिष्ट लेख ३६५ श्रो चारुकीर्त्ति-गुरुराडन्तेवासित्वमीयुषाम् । मनारथ-समृद्ध सन्मतिसागर-वर्णिनां ॥ ६ ।। धरणेन्द्र शास्त्रिया शुम्भत्कुम्भकोणं उपयुषा ।
अनन्तनाथ-बिम्बोऽयं स्थापितस्सन्प्रतिष्ठितः ।। ७ ।। श्री-पञ्चगुरुभ्यो नमः।
४३६ (३५६) उसी मठ में गोम्मटेश्वर की प्रभावलि की पीठ पर (शक सं० १७८०)
(ग्रन्थ और तामिल ) श्री श्री-गोमटेशाय नमः
अशीत्यधिक-सप्त-शतेोत्तर-सहस्र-सङ्गणित-शालिवाहनशक-वर्षे एकविंशत्यधिक-पञ्चशतोत्तर-द्विसहस्र-प्रमित-श्रीमहति महावीर-वर्द्धमान-तीर्थङ्कर-मोक्षगताब्दे एकपञ्चाशद्गुणित-प्रभवादि-संवत्सरे-प्सति प्रवर्तमान-कालयुक्ति नाम-संवत्सरे दक्षिणायने ग्रीष्मकाले आषाढ-शुक्ल पूर्णिमायां शुभतिथौ श्री-दक्षिणकाशी-निर्विशेष-श्रीमद्-बेल्गुल-भण्डार-श्रीजिनचैयालये नित्यपूजा-श्रीविहारमहोत्सवार्थ श्रीमचारुकीर्ति पण्डिताचार्यवाग्रान्तेवासि-श्री-सन्मतिसागर-वर्णिनां अभीष्ट-संसिद्धार्थ श्रीमद्-गोमटेश्वर-स्वामि-प्रतिकृतिरियं श्रीतजपरीमधिवसद्भयां
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३६६
नगर में के अवशिष्ट लेख गोपाल-प्रादिनाथ-श्रावकाम्यां प्रतिष्ठापूर्वकं स्थापित ॥ भद्रं भूयात् ।।
४३७ ( ३५७ ) नवदेवता मूर्ति के पृष्ठ भाग पर
(प्रन्थ और तामिल )
श्री शालीवाहन शकाब्दाः १७८० प्रभवादि गताब्दाः ५१ ल शेल्लानिन्न कालयुक्ति नाम संवत्लर आषाढ़ शुद्ध पूर्णिमा-तिथियिल श्रीमद् बेल्गुल मठत्तिल श्रीमन् नित्य पूजा निमित्तं श्रीमत्पञ्चपरमेष्ठि प्रतिबिम्बमानदु तजनगरं पेरुमाल श्रावकराल सेवित्त उभयं ।। बर्द्धतां नित्य मङ्गलं ॥
[बेल्गुल के मठ में नित्य पूजन के लिए तज नगर के पेरुमाल श्रावक ने यह पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति उक्त तिथि को अर्पित की।
४३८ ( ३५८)
गणधर मूर्ति के पृष्ठ भाग पर
(प्रन्थ और तामिल ) वृषभसेन गणधर भरतेश्वर चक्रवर्त्ति गौतमगणधरन् श्रेणिक महामण्डलेश्वरन (कन्नड में ) कलसदल्लिरुव पदुमैय्यन धर्म ।
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नगर में के प्रवशिष्ट लेख
४३८ (३५६)
पञ्चपरमेष्ठि मूर्ति पर ( ग्रन्थ और तामिल )
बेलिगुल मटत्तुक्कु मन्नार्कोविल सिन्नु मुदलियार पेण्शादि
पद्मावतियम्माल उभयं शुभं ।
३६७
[ मन्नार्कोविल के सिन्नुमदलियार की भार्या पद्मावतियम्माल गुलम को अर्पित की ]
४४० (३६० )
चतुर्विंशति तीर्थङ्करमूर्त्ति के पृष्ठ भाग पर ( ग्रन्थ और तामिल )
स्वस्ति श्री बेल्गुलमठस्य तच्चूरू- प्रज्जिकाधर्मः
४४१ (३६१ )
अनन्ततीर्थंकर प्रभावली के पृष्ठभाग पर ( प्रन्थ और तामिल )
श्री शालिवाहन शकाब्दाः १७८० श्रीमत् पश्चिमतीर्थ - कर मोक्षगताब्दः २५२१ प्रभवादिगताब्द: ५१ लू शेल्लानिन्र कालयुक्ति नामसंवत्सर प्राषाडशुद्ध पूर्णिमा तिथियित् श्रीमत्बेलगुलनगर भण्डार जिनालयत्तित् अनन्तवृतोद्यापनानिमित्तं श्री
२४
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३६८ नगर में के अवशिष्ट लेख वृषभाद्यनन्ततीर्थकरपर्यन्तचतुर्दशजिनप्रतिबिम्बमानदु तजनगर शत्तिर प्रप्पावु श्रावकराल शेवित्त उभयं वर्द्धतां नित्यमङ्गलं ॥
[वेगुल नगर की भण्डार वस्ति में अनन्तव्रत के पूर्ण होने पर उक्त तिथि को तञ्जनगर के शत्तिरम् अप्पाउ श्रावक ने प्रथम चतुर्दश तीर्थंकरों की मूर्तियां अर्पित की।]
४४२ ( ३६३ ) श्री चामुण्डरायन बस्तिय सीमे । ४४३ ( ३६४ ) श्री नगर जिनालयद करे । ४४४ ( ३६५ ) श्री चिक्कदेवराजेन्द्रमहास्वामियवरकल्याणि ४४५ ( ३६६ ) स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल
तलकाडुगाण्ड भुजबलवीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन होयसलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्राक...
४४६ ( ३६७) जलिकट्टे के दक्षिण में एक चट्टान पर जिन
मूर्ति के नीचे श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघलान्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ।।
श्रोमूलसवाद देशियगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेवर गुड्डि दण्डनायक-गङ्गराजनत्तिगे दण्डनायक बोप्पदेवन
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नगर में के अवशिष्ट लेख
३६-८
तायि जक्कमव्वे मोक्ष -तिलकमं नान्तु नोम्बरे नयणद - देवर माडिसि प्रतिष्ठेय माडिसिहरु मङ्गलमहा श्री श्री ।
४४७ ( ३६८ ) स्वस्ति श्रीमत्सुभचन्द्र सिद्धान्तिदेवर गुड्डं श्रीमनु महाप्रचण्डदण्डनायक गङ्गपय्यगलत्तिगे शुभचन्द्र देवर गुडि जक्किमन्त्रे केरेय कट्टिसि नयणन्द देवर माडिसिदरु मङ्गलमहा श्री श्री ॥
४४८ (३६६ ) पुट्टसामि चेन्नयन कोलद मार्ग ४४८ ( ३७० ) चेन्नयन कोलद मार्ग |
४५० (३७१ ) पुटसामि सट्टर मग चेन्नणन हालुगोल । ४५१ ( ३७२ ) चेन्नयन अमृतकोल |
४५२ ( ३७३ ) चेन्नणन गङ्ग बावनी कोल ।
४५३ ( ३७४ ) श्री पुट्टसामि सट्टर मकलु चिकन तम्म चेन्नणन प्रदि तर्तद कोल जय जया ।
४५४ (३७६ ) श्री गोम्मट देवर प्रष्ट विधार्चनेगे... हिरिय ...यिकूल. .द.. ...लजन कयिकन्तिय .. ज बिट्ट दत्तिय श्रीमन्महा... चार्यरु हिरिय नयकीर्त्ति - देवरु चिकनयकीर्त्ति देवरु श्राचन्द्रार्कता रंबरं सलिसुतिहरु मङ्गलमहा श्री श्री श्री क्षयसंवत्सरद चैत सुद्ध ७ घ्रा । श्रीमन्महामण्डलाचार्यरु हिरियनयकीर्त्तिदेवर सिष्यरु चन्द्रदेवर
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नगर में के अवशिष्ट लेख सुतालयद चतुर्विशतीर्थकरिगे......रिय
कय्यलु सासनद सारिगे...... [ यह लेख अधूरा है। इसके ऊपर और नीचे का भाग बिलकुल ही घिस गया है । लेख में चतुर्विशति तीर्थंकरों की अष्टविध पूजन के लिए उक्त तिथि को कुछ भूमि के दान का उल्लेख है। इस दान को ज्येष्ठ नयकीति और लघु नयकीर्ति प्राचन्द्रार्कतारं नियत रक्खें । ]
४५५ (४८०) मठ में वर्द्धमान स्वामी को प्रभावली के पृष्ठ भाग पर
( ग्रंथ और तामिल ) श्रीवर्द्धमानायनमः । शालीवाहन शकाब्दः १७८० श्रीमत्पश्चिमतीर्थङ्करमोक्षगताब्दः २५२१ प्रभवादिगताब्दः ५१ ल शेल्लानिन कालयुक्ति नाम संवत्सर आषाढ़ शुद्ध पूणिमा तिथियिल श्रीमद् बेल्गुमठत्तिल नित्यपूजा-निमित्तमाग श्री सन्मतिसागरवणिगलुदैय अभीष्टसिद्धार्थ श्रीवीर-वर्द्धमान स्वामिप्रतिबिम्ब कश्चिदेशं शेणियम्बाक्कं अप्पासामियाल सैवित्त उभयं एधता नित्यमङ्गलं ।।
४५६ (४८१) चन्द्रनाथस्वामी की प्रभावली पर
(ग्रंथलिपि में)
(शक सं० १७७८) श्री चन्द्रनाथाय नमः।
प्रष्टा-सप्तत्यधिकात्सप्त-शतोत्तर-सहस्रकाद्गुणिते ।
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नगर में के अवशिष्ट लेख शालीवाहन-शकनृप-संवत्सरके समायाते ॥ १॥ एकान-विंशति-युतात्पञ्चशतसहस्रयुग्मकाद्गुणिते । श्री-वर्द्धमान-जिनपति-मोक्ष-गताब्दे च सजाते ॥ २ ॥ एकन्यूनशतार्धात्प्रभवादिगताब्दके च संगुणिते । एवं प्रवर्त्तमाने नलनामाब्दे समायाते ॥ ३ ॥ मीने मासि सिते पक्षे पूर्णिमायान्तिथौ पुनः । अवाक-काशीतिविख्यात-बेल्गुले नगरे मठे ॥ ४ ॥ श्रीचारुकीर्ति-गुरुराउन्तेवासित्व ईयुषां । मनोरथ-समृद्ध सन्मतिसागर-वर्णिनां ॥५॥ कुम्भकोण-पुरस्था श्री-नेक्का श्रावकी शुभा। स्थापयामास सद्विम्बं चन्द्रनाथ-जिनेशिनः ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठा-पूर्वकन्नित्य-पूजायै स्वोपलब्धये ।।
पञ्च-संसार-कान्तार-दहनाय शिवाय च ॥ ७ ॥ भद्रं भूयात् ।
४५७ (४८२) नेमिनाथस्वामी की प्रभावली के पृष्ठ भाग पर
(ग्रन्थ अक्षरों में )
(शक सं० १७७८) श्री नेमिनाथाय नमः।
अष्टासप्तत्यधिकात्सप्तशतोत्तरसहस्रकाद् णिते । शालीवाहनशकनृपसंवत्सरके समायाते ॥ १ ॥
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नगर में के अवशिष्ट लेख एकानविंशतियुतात्पञ्चशतसहस्रयुग्मकाद् णिते । श्रीवर्द्धमानजिनपतिमोक्षगताब्दे च सजाते ॥ २ ॥ एकन्यूनशतात्प्रिभवादिगताब्दकं च सङ्ग पिते । एवं प्रवर्त्तमाने नलनामाब्दे समायाते ॥ ३ ॥ मीने मासि सिते पक्षे पौर्णमास्यान्तिथौ पुनः । अवाक काशीतिविख्यातबेल्गुले नगरे वरे ।। ४ ।। भण्डारश्रीजैनगेहे श्रीविहारोत्सवाय च । अनन्तभवदावाग्नीशमनाय शिवाय च ॥ ५ ॥ श्रोचारुकीर्तिगुरुराउन्तेवासित्वमीयुषां । मनोरथसमृद्ध सन्मतिसागरवर्णिनां ॥ ६ ॥ शात्तनश्रेष्ठिना शुम्भत्कुम्भकोणमुपेयुषा । श्रीनेमिनाथबिम्बोऽयं स्थापितस्स प्रतिष्ठितः ।। ७ ।।
४५८ (४८३) पण्डित दौर्बलिशास्त्रि के घर शान्तिनाथ मूर्ति के पृष्ठभाग पर
(नागरी अक्षरों में ) सं १५७६ व० शा० १४४१५० कर प्र० कु. सहित पौ० मासे श्रीउस ज्ञा० सोनीसीहा भार्या धर्माई नाम्ना पुत्र सो सिङ्घारीया श्रेयोह। वि...मासे० शु० ५० ६ सोमे श्री शीतलनाथ बिम्बं कारितं । प्र० श्री. वृ० त० पाप । श्रीविलसामुस्कृरिभिः ।
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नगर में के प्रवशिष्ट लेख
४५६ (४८४ )
गरगट्टे विजयराज्यय्य के घर जिनमूर्त्ति के पाद पीठ पर
श्रीमद् देवन्दि भट्टारकर गुडि मालब्बे कडस तवादिय
तद बसदि कोट्टल
४६० (४८५ )
गरगट्टे चन्द्रव्य के घर जिनमूर्त्ति के पादपीठ पर
श्रीमत्कण्नबे कन्तियरु कलसतवादिय तीर्थद बसदिगे कोहर
४६१ ( ४८६ ) मल्लिषेण । ४६२ (४८७ ) वीरण्न । ४६३ (४८८) चिकणन सम्म चेन्नयन कोल ।
३७३
४६४ (४८६ ) पुटसामि चेन्नयन मण्टप कोल तोट । ४६५ ( ४-६० ) चिकणन त...... चेन्नणन कोल ! ४६६ (४८३ ) हालोरति ।
४६७ ( ४६४ ) श्री जिननाथ पुरद सीमे ।
४६८ (५०० )
मठ के दायीं ओर तेरिन मण्डप में रथ पर शालिवाहन शक १८०२ ने विक्रमनामसंवत्सरद माघ शुद्ध ५ ल्लु वीराजेन्द्रप्याटेयल्लू इरुव रायन्नशेट्र अत्तिगे जिनमन शेवर्त्त ।
[ वीर राजेन्द्रप्याटे के रायनसेहि की भावज ने प्रदान किया ]
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३७४
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
श्रवणवेल्गुल के आसपास के ग्रामों के शिलालेख । जिननाथपुर के लेख
४६८ (३७८ ) शान्तीश्वर बस्ती के द्वार पर
...
स्वस्ति श्रीजगनज... बलिय पुनकालर मगं जूनिकवन तम्म चोल पेमेडियर मरुलारद गण्ड... सा वितर देव...स... मुग ......रि......ल..लरनडि र कादि कोन्दुजाल...न्द्र गङ्गर बीडिन उर' कचेयरे भु... सेमर सुरिगेल कलगमेनितु रि... यिसि जसक्के कबन्दछ नि... तन्न मोम्मक्कलु... सुसिडिल त... मलू तुलिद... गेकान्तगोलू मरि सत्तलेङ्कर अन्द पेकिनेम्ब सि...... गङ्ग े परि ....... सा......र
क
....
. लल्लदे प... जिनतीर्थद बा...
. सन्दनाग..
• गुल तब्ब
गङ्गर चोल - स... पडवरिगे ॥
.ल्तल- अग्रगण्यनु...ङ्ग निलेगजन... लदत
.गु.. . दागि...... यदि जिन
...लु यवनल्प चन्दम पूजेयनेयदे माडिदं ॥... लगचित्र. .तनग.. ....... बिद...... ल स......न...दि महसन्यसनं गय्यनिप्प... तन्न... दिन बरनेरय .. .त सनु...
...... श्रमरिद बेम काम सले..... रद सन्यासनदि
... दिरन......म... प नेदृन्दवदि... सङ्ग नि... जर्विल्ले...
.....
बलेह... गाविगलात्म येन्तल चित्त... कुडेदेयनिरि...... मोद...
......तिदे......
......
......
.....
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आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ३७५ . [ इस अत्यन्त टूटे हुए लेख के प्रथम भाग में चोल और गङ्ग के नरेशों के बीच घोर युद्ध का और अन्तिम भाग में किसी के समाधिमरण का उल्लेख है ]
४७० ( ३७६) उसी बस्ती के रङ्गमण्डप में एक स्तम्भ पर श्री शुभमस्तु । ___ स्वस्ति सद्भुदय शालिवाहन सक वरुस १५५३ प्रजोत्पत्य संवत्सरद पाल्गुण सुध ३ लु कम्ममेन्य लोहित गोत्रद नर्ल मलि सेट्टि मग पालेद पदुमण्णनु यि-बस्ति प्रतिष्टे जी दार माडिदरु मङ्गल महा श्री श्री श्री
[उक्त तिथि को कम्ममेन्य लोहितगोत्र के नर्लमलिसेटि के पुत्र पालेद पदुमयण्ण ने इस बस्ति का जीर्णोद्धार कराया।
४७१ ( ३८०) शान्तीवर बस्ति में शान्तोश्वर की पीठिका पर
स्वस्ति श्री मूलसङ्घ-देशियगण-पोस्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वय कोल्लापुरद सावन्तन बस दिय प्रतिबद्धद श्री-माघनन्दिसिद्धान्त-देवर शिष्यरु शुभचन्द्र-त्रैविद्य-देवर शिष्यरप्प सागरणन्दि-सिद्धान्त देवरिगे वसुधेक-बान्धव श्रोकरणद रेचिमय्यदण्डनायकरु शान्तिनाथ-देवर प्रतिष्ठेय माडिधारा-पूर्वकं कोट्टरु
४७२ ( ३८१) सङ्गम देवन कोडगिय मने ४७३ ( ३८२) श्रीमतु त्रिकालयोगिगलु मठ मोदलो
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३७६
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
लिईरु श्री मूलसङ्घद अभयदेवरु नाम... दे तम्मुचिपदव... र इद्द ।।
४७४ ( ३८८३ ) स्वस्ति श्री विजयाभ्युदय शालिवाहन शक वरुष १८१२ नेय विरोधि नाम संवत्सरद वैशाख बहुल पञ्चमियल्लु श्रीमद् बेल्गुल निवासियागिद्द मेरुगिरि गोत्रजराद श्री बुजबलैय्यनवरिगे निश्रेय सुखाभ्युदय प्राप्त्यर्थ वागि प्रतिष्ठेय माडिसिदं ॥
[ यह लेख अगल बस्ति की प्रतिमा पर है ] ४७५ (३८५ ) जिननाथपुर में तालाब के निकट एक चट्टान पर
साधारण संवत्सरद श्रावण सु १ | श्रा । श्रीमन्महाम ण्डलाचार्यरु राज- गुरुगलुमध्य हिरिय - नयकीर्त्ति - देवर शिष्यरु नय कीर्त्ति - देवरु तम्म गुरुगलु बेक्कनलु माडिसिद बसदिय चेन्न - पारिश्वदेवर प्रष्ट विधार्चनेगे हिरिय-जक्कियंवेय- केरेय हिन्द नन्दन-वनदीलगे गदे सलगे ख २... व्र्वकं माडिकोट्टरु मङ्गल - महा श्री श्री श्री ।।
[ उक्त तिथि को महामण्डलाचार्य राजगुरु हिरिय नयकीर्त्तिदेव के शिष्य नयकीर्त्तिदेव ने अपने गुरु ब्रेक की बनवाई हुई बस्ति के चेन्नपार्श्वदेव की अष्टविध पूजन के लिए उक्त भूमि का दान दिया ।
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
४७७ (३८६ )
उसी ग्राम में एक चट्टान पर
... गिरे
...... 44....
.. दव्रतिय...... मुनिराज रिन्दविलु समाधि... मुं नाडुं प्रभु ब्रातमुं ।
नेरेदिन्तेल्लरुमिद्दु कोट्टर मलाम्भोराशियुं मेरु भूधरमुं चन्द्रनुमर्कनुं वसुधेयुं निल्वन्नेगं सल्विनं ॥ १ ॥
माडि...
भरदिन्द
.
......
इन्तु ई-धर्ममं किडिसिदवरु गङ्गय तडियले क्के टिमुनीन्द्रर कविलेयुं ब्राह्मणरुमं कोन्द ब्रह्मत्तियलु होहरु |
३७७
[ इस टूटे हुए लेख में किसी दान का उल्लेख है जिसके विच्छेद से गङ्गा के तीर पर सात करोड़ ऋषियों, कपिला गौधों और ब्राह्मणों की हत्या का पाप होगा ! ]
ง
ू
४७७ (३८७ ) श्रीमतु सिङ ग्यप नायकर कोमरन निरू[काले गौड की भूमि में] पदिन्द बेक्कन गुरुवप सावपनालगाद प्रभुगलचामुण्डरायन बस्तिगे समर्पिसिद सीमे श्री ।
[[सिङ्ग्ग्यप नायक की आज्ञा से बेक्कन के गुरुवप सोवप आदि' प्रभुश्रों' ने यह भूमि चामुण्डराय बस्ति को अर्पण की । ]
४७८ (३८८) श्रीविष्णुवर्धन देवर हिरियदण्डनायक गङ्गपय्य स्वामिद्रोह घरट्ट श्रीबेलुगुलद
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३७८
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
तीर्त्तदल जिननाथ- पुरवमाडि य... स्तयस ......रदलु......इ घरट्टनेम्ब कोलग... जगलवाडिद...... विष्णुवर्द्धन देवर... को परिहार || द्रोहघरट्ट - नेच्च कोलु |
[ इस टूटे हुए लेख में विष्णुवर्द्धन नरेश के प्रधान दण्डनायक गङ्गपथ्य द्वारा बेल्गुल में जिननाथपुर निर्माण कराये जाने का उल्लेख है ] ४७६ ( ३८९ )
जिननायपर में शान्तिनाथ बस्ति से पश्चिमोत्तर की ओर एक खेत में समाधिमण्डप पर
( शक सं० ११३६ )
नमः सिद्धेभ्यः ।
स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलाचार्यरु राज- गुरुगले निप बेलिकुम्बद श्रो- नेमिचन्द्र - पंडित देवरे न्तःपरेने ||
वृत ।
परमजिनेश्वरागम- विचार - विशारदनात्मसद्गुणो
तकर - परिपूर्ननुन्नत-सुखार्थि विनेय-जनोत्पल -प्रियं । निरुपम - नित्यकीर्त्ति धवलीकृतनेन्दु लोकमादरिपुदुसूरि... निधि चन्द्रमनं मुनि-नेमिचन्द्रनु ||
अवर प्रिय शिष्यरम्प श्रीमद्बालचन्द्र-देवर तनयन स्वरूप
निरूप......
. नन्तण्ान
वाग्विलासवाप..
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आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ३७६ तण्णन सच्चरित्र......गदोलु ॥ जन-जिन-मणि...निहा .........नियवे...न रूप-यौवन-गुणसम्पत्तियिन्दात वत्तिगु......भुवन-भूषण-बालचन्द्र...रुहक . ल . द्य ......बहल-चदु......गजराज......तीब-ज्वरो...कर्कशः प्रतिका...रिय...सक-वर्षद ११३६ नेय श्रीमुखसंवत्सरद कार्तिक शुद्ध ५सो। प्रभात-समयदोल सन्यसनसमन्वितं ।।
कन्द ।
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पञ्च-नमस्कार मन सञ्चलिसदेन्तोप्पुदु सकल... ...बदु......गरुह
......र दिविज-वधुगं वल्लभनादं ।। ...यम्म...सादरक............ ...य यल्लर ॥ अन्तु...देवर घि...यर दहन-स्तानदोल परोक्ष...निमित्तवागि बैराजनिं माडिसिद बालचन्द्र देवर मग...न शिलाकूट । मात.........शोल-बत... गुण......द विभव......भूतलदोल कालब्बेये सीतेगे रुग्मिणिगे रतिगे सरि दोरे सम......वेनिसिदा-महासति क्षयि......स्तानमनरिदे.........भाव-संवत्सरद जेष्टब । द्वि । निशान्तदोल सल्लेखन-विधियिं समाधिय पडेदु स्वर्ग-प्राप्तेयादलु ।। श्रीशान्तिनाथाय... ॥
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३८० आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
इस टूटे हुए लेख में बोले कुम्ब के महामण्डलाचार्य नेमिचन्द्र पण्डित देव के प्रिय शिष्य व बालचन्द्रदेव के तनय के उक्त तिथि को समाधिमरण का उल्लेख है। उनकी श्मशानभूमि पर यह शिलाकूट बनवाया गया। लेख के अन्तिम भाग में साध्वी कालन्धे के समाधिमरण का उल्लेख है।
जिन्नेनहल्लिग्राम के लेख ४८० ( ३६० ) श्री शकवर्ष १५८६ प्रमादी च संवत्स
। रद वैशाख बहुल ११ यल्लि समुद्रादीश्वर
स्वामियवर नित्यसमाराधने नित्योत्सह कोलतोट मण्टपद सेवेगे पुटसामि सेट्टियर मग चेन्नणनु बिट्ट जिन्नयन हल्लिय ग्राम
मङ्गल महा श्री श्री श्री। [उक्त तिथि को पुट सामि के पुत्र चेन्नण ने समुदादीश्वर ( चन्द्रनाथ ) स्वामी के नित्य पूजनोत्सव के 4 कुण्ड, उपवन और मण्डप की रक्षा के हेतु जिन्ने यन हल्लि ग्राम का दान किया ] ४८१ ( ३-६१ ) श्री चामुण्डरायन बस्तिय सीमे ॥ श्री
हालुमत्तिगट्ट ग्राम के लेख ४८२ ( ३९२) रुस...... विक......वरु...सङ्कण्नगं
कोडगि तोट......दा सिला ससन. करण वि...कन... ........सङ्कपनगवू
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३८१
चिकसङ्कण...प्र...न बरकोट कोडग...
.........ला ससन मङ्गल महा श्री श्री। [ इस टूटे हुए लेख में एक उद्यान के दान का उल्लेख है ] ४८३ ( ३६३ ) दे......य-नायकन मग मादेय नायक
माडिसिद नन्दि [मादेय नायक ने नन्दि निर्माण कराई 1
कण्ठीरायपुर ग्राम के लेख ४८४ ( ३६५ ) श्रीमतु पण्डितदेवरुगल गुड़ गलु बेलु
गुलद नाड चेन्नण-गोण्डन मग नागगोण्ड मुत्तगदहोन...लिय कल्लगोण्ड बैर गोण्डनालगाद गौडुगल मङ्गायि माडिसिद बस्तिर्ग कोट्ट वोडर कट्टेय गद्दे बेद्दलु यि-धर्मक्के तपिदवरु वारणासियलु... हस्रकपिलेय
कोन्द पापके होह......ल-महा श्री श्री श्री। [ पण्डितदेव के उक्त शिष्यों ने मङ्गायि की बनवाई हुई बस्ति को वड्डरकोहे की भूमि प्रदान की। जो कोई इस दान का विच्छेद करे उसे बनारस में एक हजार कपिला गौओं की हत्या का पाप हो।]
४८५ ( ३६६) श्री चामुण्डरायन बस्ति सीमे ।
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३८२ आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख
साणेन हल्लिग्राम के लेख
४८६ ( ३६७)
(शक सं० १०४१) श्रीमत्परम-गम्भीर स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात्रलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १ ॥ भद्रमस्तुजिनशासनाय सम्पद्यताम्प्रतिविधान-हेतवे ।
अन्यवादि-मद-हस्ति-मस्तक-स्फाटनाय घटने पटीयसे ।।२।। नम: सिद्ध भ्यः ।। नमो वीतरागाय ।। नमो अरुहन्ताय ॥
स्वस्ति श्रो-कोण्डकुन्दाख्ये विख्याते देशिके गणे। सिंहणन्दि-मुनीन्द्रस्य गङ्ग-राज्य-विनिर्मितं ॥ ३ ॥
आगे लेख की ५ से ४० पंक्ति तक गङ्गराज का वही वर्णन है जो लेख नं १० ( २४० ) के तीसरे पद्य से भागे १४ वे पद्य तक पाया जाता है।] ___ स्वस्ति समधिगत पञ्चमहाशब्द......नूमडि धन्यनल्ते ॥ १५ ॥ इससे आगे____ अन्तु बेडिकोण्डु श्री पार्श्वदेवर पुजेगं कुक्कुटेश्वर-देवगर्ग बिहर सक-वर्ष १०४१ नेय विलम्बि-संवत्सरद फाल्गुणशुद्ध दसमि ब्रहवारदन्दु शुभचन्द्र-सिद्धान्ति-देवर काल कर्चि विट्ट-दत्तिय गोविन्दवाडिगे मूडण-सीमे ईशाज्ञ-दिशेय एरेय को...तोण्टिगेरेय निरुह कुल्लहनहल्लिग होद बट्टेय
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अासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३८३ दिब्बेय सारण हुलुमाडिय गडि तेङ्कलु अर्हनहल्लियिन्दा... मदिपुरक्कं हिरिय-देवर बेट्टक्कं होद हेब्बट्टेये गडि हडुवलु हिरिय...हल्ल नजुगेरे बेक्कननिप...बडकलु गङ्गस मुद्रक्के चल्यद हडुवण दिण्नेयिं पडुवलु गडि यिन्ती-चतुस्सीमेयं पूर्वि ...बक्कन... प्रत्यधिवासद...पडु......गोम्मटपुरद पट्टणस्वामि मल्लि सेट्टियरु...सेट्टि गण्डनारायण-सेट्टियु मुख्यवाद नकर-समूहमुमिद माडिद मर्यादे यिन्तीधर्ममं प्रतिपालिसुवर्गे महा-पुण्य अक्कुं॥ वृत्त॥ प्रियदिन्दिन्तिदनेयदे काव पुरुषर्गायु महा-श्रीयुम
केयिदं कायदे कारख पापिगे कुरुक्षेत्रोवियोलु वारणाशियोलेक्कोदि-मुनीन्द्रर कविलेय वेदाढ्यर कोन्दुदोन्दयसंसारमेनुत्त सारिदपुदी-शैलाक्षर सन्ततं ॥ १६ ।। बिरुद-रूवारि-मुख-तिलक गङ्गाचारि खंडरिसिद॥
[ इस लेख में लेख नं. १० ( २५० ) के समान गङ्गराज के कीर्तिवर्णन के पश्चात् उल्लेख है कि उन्होंने विष्णुवर्द्धन नरेश से गोविन्दवाडि ग्राम को पाकर उसे पाश्व देव और कुक्कुटेश्वर की पूजा के हेतु उक्त तिथि को शुभचद्र सिद्धान्त देव का पादप्रक्षालन कर दान कर दिया। जो कोई इस दान का पालन करेगा वह दीर्घायु और वैभव सुख भोगेगा पर जो कोई इसका विच्छेद करेगा उसे कुरुक्षेत्र व बनारस में सात करोड ऋषियों, कपिला गौओं व वेदज्ञ पण्डितो की हत्या का पाप होगा। लेख को गङ्गाचारि ने उत्कीर्ण किया है।
४८७ ( ३८८) ...रिसिदेवगे बिट्ट दत्तिय गद्देय...... २५
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३८४
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
नडेत्ति कवि सेटियु मडना बिट गर्द सलगे प्रोन्दु कोलग |
[ इसमें कवि सेट्टि के कुछ भूमि के दान का उल्लेख है ] ४८८ (३६१ ) श्री वृषभस्वामि
( खण्डित मूर्त्ति के पादपीठ पर )
४८ (४०० ) श्री मूलसङ्गद देशिगयद पोस्तक गच्छद श्री सुभचन्द्र सिद्धान्त देवर गुडि जfreeod दण्डनाय किति साइलि ...... ट देव प्रतिष्ठेय माडि जक्कियवे... . डर मग पयमगद स...... . चुनरेय
दवाडिय.. . यलु सलगे बेद्दले कालगं ५ गोविन्द पडिय कोलग १ वेदले कण्डुग ।
......
[ शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या जक्कियन्त्रे ने मूर्ति की स्थापना कराई और गोविन्द वाडि की उक्त भूमि अर्पण की। ]
सुण्डहल्लिग्राम का लेख
४८० (४०७ )
. संवत्सरद मार्गशिर शु. १० ब्रहवार
...... न्महामण्डलाचाय्य रु नेमिचन्द्र पण्डितदेवरु पट्टणस्वामि नागदेव
trisa are its ...
न मग मार
......
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३८५
गौड केरेय कट्टिदनलेयेन्दु पात ......... हारिसुवुदिल्त ता तेरुव अय्दु हणविन दो... .....बेहले हडुवण मुत्तेरि सीमे प्रातन म......... पय्यन्त सलुवन्तागि
कोट पतले प्रलि हिदव कविलेय कोन्द ।। [ यह लेख कुछ भूमि का पट्टा है। इसमें महामण्डलाचार्य नेमिचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख करके कहा गया है कि मारगौड ने एक तालाब बनाया; इसके लिए नागदेव हेग्गडे और केञ्चगौड ने उसे सदा के लिए उक्त भूमि का पट्टा दे दिया।] बेक्कग्राम में बस्ती के सन्मुख एक पाषाण पर
(शक सं० १०६५)
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघवाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ श्रीकान्तापीनवक्षोरुह गिरिशिखरोज्जम्भमान विशालं
लोकोद्यत्तापलोपप्रवणविल सितं वीरविद्विड महीपानेकव्यामुक्तस जोवनबहुलितोद्यद्गुणस्तोममुक्तानीकं निष्कण्टकं निश्चलमेनलेसगुं होयसलतत्र
वंशं ॥ २॥ अदरोल्मौक्तिकदन्ते पुट्टिदनिलापालौघचूडामणि
त्वदिनुद्यद्गुणशोभेयिं स्वरुचियिं सवृत्तराराजित
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३८६ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
त्वदित्युन्नतजातिथिं सममेनल्सङ्गामरङ्गाप्रदालू
मदवद्वैरिकुलप्रतापिविनयादित्यं धराधीश्वरं ॥ ३ ॥
क || विनयादित्यन तनयं
जननुतन एरेयङ्गभूभुजं तत्तनुजं ।
विनुत ं विष्णुनृपालं
मनस्वि तदपत्यं नेग... नरसिंहं ॥ ४ ॥
वृ ॥ नतनरपालजालक विशाल विजृम्भितबालभासुरो
द्धततिल...
गलनाहवरङ्गरामनू
जित निज पुण्यपुञ्जबल साधित सर्व्व..
. महोन्नति केविन्देसेदं नरसिंह भूभुजं ।। ५ ।
.....
क || - नरसिंहनृपाङ्ग
भूते पट्टमहदेवि तत्स तियादल । मानिनिय एचल देविये
.
दानगुणख्यात कल्पलते वोल आ... ।। ६ ।। वृ ॥ ललनालीलेगे मुन्नवेन्तु मदनं पुट्टिईना- विष्णुगं विलसच्छ्रीवधुविङ्गवन्ते नरसिंहक्षोणिपालङ्गव एचलदेविप्रियेगं परार्थचरितं पुण्याधिकं पुट्टिदं बलवद्वैरिकुलान्तकं जयभुजं बल्लाल भूपालकं ॥ ७ ॥ गतलीलं लालनालम्बित बद्दलभय प्रज्वरं गूर्जर सन्धृतशूल' गौलनङ्गीकृतकृशतरसम्पन्नव पल्लव ं । प्रोज्झितचोलं चोलनादं कदनवदनदाल भेरियं पोटसेवीराहितभूभृज्जाल कालानलवतुलभुजं वीरबल्लालदेव' ||८||
A
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३८७ रिपुराजद्राजिसम्पत्सरसिरह शरत्कालसम्पूर्णचन्द्र रिपुभूपापारदीपप्रकरपटुतरोद्भूतभूरिप्रवात । रिपुराजन्यौघ...खलसौ......लोग्रप्रतापं रिपुपृथ्वीपाल जाल तुभितयमनिवं वीरबल्लालदेवं ॥६॥
स्वस्ति समधिगत पञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर । द्वारावतीपुरवराधीश्वर । तुलुवबलजलदविलयानिल। दायाददुर्गदावामल। पाण्ड्यकुलकुलकुधरकुलिशदण्डं । गण्डभेरुण्डं । मण्डलिकबेपटेकार । चोलकटकसुरेकार । सङ्ग्रामभीम । कलिकालकाम। सकलवन्दिजनमनस्सन्तप्र्पण प्रवणतरवितरणविनादं । वासन्तिकादेवीलब्धवरप्रसादं। यादवकुलाम्बरधु मणि । मण्डलिकचूडामणि । कदनप्रचण्ड । मलपरोल गण्ड नामादि प्रशस्तिसहित । श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल तल काडु-कांगु-नङ्गलिनालम्बवाडि-बनवसे-हानुङ्गलुगण्ड भुजबलवीरगङ्गप्रतापहोयसलबल्लालदेवरु दक्षिणमहीमण्डलमं दुष्टनिग्रह-शिष्टप्रतिपालनपूर्वकं सुखसङ्कथाविनोददि दोरसमुद्रहोल राज्यं गेय्युत्तिरे । तत्पितामहविष्णुभूपालपादपद्मोपजीवि ।। वृ॥ नुते लोकाम्बिके माते रूढजनकं श्रीयक्षराज यशो
न्विते यी-पद्मलदेवि वल्लभे जगद्विख्यातपुण्याधिपं । सुतनी-श्री नरसिहदेवसचिवाधीश जिनाधीशनीप्सितदैवं तनगेन्दोडें विदितनो श्रीहुल्लदण्डाधिपं ॥ १० ॥ क ॥ जनकतनुजातेथिन्दं
वनजोद्भववनितेयिन्दवग्गलवेनिपल ।
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३८८
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
जननुत पद्मलदेविय—
तत्पुत्र ||
नून - पतिव्रत दिनमलचतुरतेयिन्दं ।। ११ ।।
विनुतनयकीर्त्ति मुनिपदवनरुहभृङ्ग विदग्धवनिताङ्ग ।
कनकाचलगुणतुङ्ग
घन वैरिमदेभसिंहनी - नरसिहं ।। १२ ।।
स्वस्ति श्री मूलसङ्घनिलयमूलस्तम्भरुं निरवद्यविद्यावष्टम्भरु देशियगण गजेन्द्रसान्द्रमदधारावभासरु । परसमयसमुत्पादितसन्त्रासरूं । पुस्तकगच्छस्वच्छ सर सीस राजविराजमानरु' । hrusकुन्दान्वयगगन दिवाकररु । गाम्भीर्य्यरत्नाकररु । तपस्श्रीरुन्द्ररुमप्प गुणभद्र सिद्धान्तदेवर शिष्यर् म्महामण्डला चार्य नयकीर्त्ति सिद्धान्तदेव रेन्तप्परेन्दडे ||
वृ || स्मरशस्त्राम्बुजदण्डचण्डमदवेतण्डं दयासिन्धु
a
बन्धुरभूभृद्भरनुद्ध मोहबहलाम्भोरा सिकुम्भोद्भव । घरेयातां नेगब्दं भयक्षयकर लोभारिशोभाहर स्थिरनी - श्री नयकीर्त्तिदेवमुनिपं सिद्धान्तचक्रेश्वरं ॥१३॥ तच्छिष्य ॥
उरगेन्द्रतीरनीराकर रजत गिरिश्री सितच्छत्रगङ्गादरहासैरावतेभस्फटिकवृषभशुभ्रा भ्रनीद्दारद्दारा मरराजश्वेतपङ्केरुहहलधरवाक्शङ्खहंसेन्दुकुन्दो
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आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ३८६ स्करचञ्चत्कीर्तिकान्तं बुधजनविनुतं भानुकीर्त्तिव्रतीन्द्रं ।। १४ ॥ सिद्धान्तोद्धतवार्द्धिवर्द्धन विधा शुक्लै कपोद्गतस्ताराणामधिपो जितस्मरशर: पारार्थ्यपारङ्गतः । विख्यातो नयकीति देवमुनिपश्रोपादपद्मप्रियस्स श्रीमान्भुवि भानुकोत्ति मुनिपो जीयादपारावधि।।१५।।
शक वर्षद १०६५ नेय विजयसंवत्सरद पौष्यबहल चौतिमङ्गलवारदन्दु उत्तरायण सङ्क्रान्तियल्लि भानुकीर्ति सिद्धान्त देवरनधिपतिगलागि माडि तद्गुरुगलप्प नयकीर्तिसिद्धान्तचक्रवर्त्तिगलगेधारापूर्वकं माडि ।। वृ ।। अचलोयुतगोम्मटेशविभुगं श्रीपार्श्वदेवङ्गवु
द्व-चतुर्विंशतितीर्थकर्गवेसवी-सत्पूजेगं भोगकं । रुचिरानोकरदानकं मुददे बिट्ट बेकनेम्बूरनुद-चरित्रं सले मेरुवुल्लिनेगवी-बल्लालभूपोत्तमं ।। १६ ।। क्रमदि गोम्मटतीर्थपूजेगवशेषाहारदानकवुत्तमर मुख्यरनागि माडि विदित श्री भानुकीर्तीश्वर। विमदङ्गो-नयकीति-देवयतिगाकल्पं सलल्बेकनं सुमनस्कं विभुहल्लपं बिडिसिदं श्री वीरबल्लालनि ॥१७॥
ग्राम सीमे ॥ ( यहाँ सीमा का वर्णन है) इदु बेक्कन चतुस्सीमे ॥ स्वदत्ता परदत्तां वा ( इत्यादि)
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प्रासपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख
[चन्नरायपट्टन १४६ ] लेख नं० १९४ के समान होयसल वंश के परिचय व वीरबल्लालदेव के प्रतापवर्णन के पश्चात् बल्लाल नरेश के दण्डाधिपति हुल्ल का परिचय है। हुल्ल यक्षराज और लोकाम्बिके के पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम पद्मलदेवी और पुत्र का नरसिंह सचिवाधीश था। हुल्ल जिनपदभक्त थे। इसके पश्चात् कहा गया है कि उक्त तिथि को गुणभद् के शिष्य नयकीर्ति के शिष्य भानुकीर्त व्रतीन्द्र को बल्लाल नरेश ने पार्श्व
और चतुर्विशति तीर्थंकर के पूजन के हेतु मारुहल्लि ग्राम का दान दिया। इसके कुछ पश्चात् हुल्लप ने बल्लालदेव से बेक्क ग्राम का भी दान दिलवाया।]
४६२
हले बल्गोल में ध्वंस बस्ती के समीप
एक पाषाण पर
(शक सं० १०१५)
भद्रमस्तु जिनशासनाय सम्पद्यतां प्रतिविधानहेतवे । अन्यवादिमदहस्तिमस्तकस्फाटनाय घटने पटीयसे ।। १ ।।
स्वस्ति समस्तभुवनाश्रय-श्री-पृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरपरमभट्टारक सत्याश्रयकुलतिलकं चालुक्याभरणं श्रामत् त्रिभुवन-मल्लदेवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्क सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि। समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराधीश्वर यादवकुलाम्बरा मणि
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३६१ सम्यक्तुचूडामणि मलपरोलाण्डाद्यनेकनामावलीसमालङ्कत श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल-विनयादित्य-पोय्सलं ॥ श्रीमद्यादववंशमण्डनमणि : क्षोणीशरक्षामणि
लक्ष्मीहारमणि रेश्वरशिरःप्रोत्तङ्गशुम्भन्मणिः । जीयानोतिपथेक्षदर्पणमणि.कैकचिन्तामणि: श्रीविष्णुनियान्वितो गुणमणिस्सम्यक्तचूडामणिः
॥२॥ एरेद मनुजङ्ग सुरभू
मिरुहं शरणेन्दवङ्ग कुलिशागार। परवनितेगनिलतनेयं
धुरदोल्पोणर्दङ्ग मित्तु विनयादित्यं ।। ३ ।। रक्कस-पोटसलनेम्बा
रक्करमं बरेदु पटमनेत्तिदडिदिरोल । लक्कद समलेक्कदे मरु
वक्कं निन्दपुवे समरसङ्घट्टणदोल ॥ ४ ॥ बलिदडे मलेदडे मलपर ... तलेयोल्बालिडुवनुदितभयरसवसदि । बलियद मलेयद मलपर
तलेयोल्कैयिडुवनोडने विनयादित्यं ।। ५ ।। प्रा-पोयसलभूपङ्ग म
हीपालकुमारनिकरचूडारत्नं ।
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३६२ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
श्रीपति निजभुजविजय-म
हीपति जनियिसिदनदटन एरेयङ्ग नृपं ।। ६ ।। वृत्त । अनुपमकीर्ति मूरेनेय मारुति नाल्कनेयुप्रवह्नियय
देनेयस मुद्रमारेनय पूगणेयेलनेयुरेशनेण टनेय कुलाद्रियोम्भतनेयुगसमेतहस्ति पत्तेनेय निधानमूर्तियेने पोल्ववरार एरेयङ्गदेवनं ।। ७ ।। प्ररिपुरदोल्धगद्धगिलु धन्धगिलेम्बुदराति-भू... र शिरदोलु...ठगिल्ल......एम्बुदु वरिभूतलेश्वरकरुलोलु चिमिल्चिमिचिमिल्चिमिलेम्बुदु...पलिहि दु.
र्द्धरतरमेन्दोउल्कुरद पोलुवराम्मलेराजराजनं ॥८॥ कन्द ।। मुररिपुव पिडिव चक्रद
हतिगं केसरिंगमा-फणिध्वंसिय विफुरितनखहतिगमेरेगन
___ करवालामिदिर्चि बर्दुङ्कलार्परुमोलरे ।। ६| इमडि दधीचिमुनिगे प
दिर्मडि गुत्तगे चारुदत्तगत्तल । नूमडि रविसूनुगे सा
सिमडि मेलु दानगुणदिन एरेयङनृपं ॥ १० ॥ आ-महामण्डलेश्वरन गुरुगलेन्तप्परेन्दडे ।। श्लोक ।। श्रीमतो वर्द्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने ।
श्रीकाण्डकुन्दनामाभून्मलसङ्घाग्रणो [गणी] ॥ ११ ॥ तस्यान्वयेऽजनि ख्याते विख्याते देशि के गणे ।
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अासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३६३ गुणी देवेन्द्र सैद्धान्तदेवो देवेन्द्रवन्दितः ।। १२ ।। जयति चतुर्मुखदेवो योगीश्वरहृदयवनजवनदिननाथः । मदनमदकुम्भिकुम्भस्थलदलनोल्बणपटिष्ठनिष्ठुरसिंहः ।।१३।। तच्छिष्यो गोपनन्द्याख्या बभूव भुवनस्तुतः । वाणीमुखाम्बुजालोकभ्राजिष्णुमणिदर्पण: ॥ १४ ॥ जयति भुवि गोपनन्दी जिनमतल सज्जल धितुहिनकरः ।
देशियगणाग्रगण्यो भव्याम्बुजषण्डचण्डकरः ॥ १५ ॥ वृत्त ॥ तुझ्यशोभिरामनभिमानसुवर्णधराधर तपो
__. मङ्गललक्ष्मिवल्लभनिलातलवन्दित गोपनन्दिया. वङ्गम-साध्यमप्प पलकालदे निन्द जिनेन्द्रधर्ममं
गङ्गनृपालरन्दिन विभूतिय रूढियनेरदे माडिदं ।।१६।। जिनपादाम्भोजभृङ्ग मदनमदहर कर्मनिम्मूलनं वा.
ग्वनिताचित्तप्रियं वादिकुलकुधरवज्रायुध चारु विद्वजनपात्रं भव्यचिन्तामणि सकलकलाकोविद काव्यकजासननन्तानन्ददिन्द पोगले नेगल्दनी-गोपनन्दि
व्रतीन्द्रं ॥ १७ ॥ मलेयदे साङ्खन मट्टमिरु भौतिक पाङ्गि कडङ्गि बागदितौल ताल बुद्ध बौद्ध तलेदारदे वैष्णव उङ्गडङ्ग वाग्भरद पोडप्पु वेड गड चार्बक चार्वक निम्म दर्पम सलिपने गोपनन्दिमुनि पुङ्गवनंम्ब मदान्धसिन्धुर ॥१८॥ तगेयल जैमिनि तिप्पिकोण्डु परियल्वैशेषिकं पोगदुण्डिगे योत्तल्सुगतं कडङ्गि बलेगोयल्क अक्षपादं बिडल ।
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३६४ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
पुगे लेाकायतनेय्दे साय नसल्कम्मम्म षटतकवी. धिगलोल्तूल्दितु गोपनन्दिदिगिभप्रोद्भासिग
न्धद्विपं ।। १६॥ दिट नुडिवन्यवादिमुखमुद्रितनुद्धतवादिवाग्बलोद्भटजयकालदण्डनपशब्दमदान्धकुवादिदैत्यधूज्जटिकुटिलप्रमेयमदवादिभयङ्करनेन्दु दण्डुलं स्फुटपटुघोष दिक्तटमनेरिदतु वाक्पटु गोपनन्दिय ॥२०॥ परमतपोनिधान वसुधैवकुटुम्बक जैनशासनाम्बरपरिपूर्णचन्द्र सकलागमतत्वपदार्थशास्त्र-किस्तरवचनाभिराम गुणरत्न विभूषण गोपनन्दि नि.
नोरेगिनिसप्पडं दोरेगलिल्लेणे गाणेनिलातलाग्दोल ॥२१॥ क ॥ एननेननेले पेल्वेनण्ण स
न्मानदानिय गुणवतङ्गल। दानशक्तियभिमानशक्ति विज्ञानशक्ति सले गोपनन्दिय ।। २२ ।।
वच ।। इन्तु नेगल्द काण्डकुन्दान्वयद श्रीमलसङ्घद देशि गणद गोपनन्दि पण्डितदेवग्गे १०१५ नेय श्रीमुखसंवत्सरदपौष्यशुद्ध १३ आदिवार सङ्क्रान्तियन्दु श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लन एरेगङ्ग वारसलं गङ्गमण्डलम सुखसङ्कथाविनोददि राज्य गेय्युत्तमिहुँ बेलगोलद कबप्पुतीर्थद बस दिगल जीर्णोधारणकं देवपूजेगं प्राहारदानकं पात्रपावुलकं राचनहट मुमंबेलगोलपन्नेरडुम धारापूर्वकं माडि बिट्ट दत्ति ।।
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३६५
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख (स्वदत्तां परदत्ता वा-इत्यादि श्लोकों के पश्चात् श्रीमन्महाप्रधान हिरिय दण्डाधिप.........मय्यङ्ग..
[चन्नरायपट्टन १४८] इस लेख में होयसल नरेश विनयादित्य और उनके पुत्र एरेयङ्ग की कीत्ति के पश्चात् कहा गया है कि त्रिभुवनमल एरेयङ्ग ने उक्त तिथि को कल्बप्पु पर्वत की वस्तियों के जीर्णोद्धार तथा श्राहारदान व बर्तन वस्त्र आदि के लिए अपने गुरु मूलसंघ देशीगण कुन्दकुन्दान्वय के देवेन्द्रसैद्धान्तिक व चतुम्मुखदेव के शिष्य, गोपनन्दि पण्डितदेव को राचनहल्लै व बेल्गोल १२ का दान दिया। लेख में गोपनन्दि प्राचार्य की खूब कीर्ति वर्णित है। उन्होंने जो जैनधर्म स्थगित हो गया था उसकी गङ्गनरेशों की सहायता से विभूति बढ़ाई। उन्होंने सालय, भौतिक, वैशेषिक, बौद्ध, वैष्णव, चार्वाक जैमिनि आदि सिद्धान्तवादियों को परास्त किया इत्यादि । ]
चल्लग्राम के बयिरेदेव मन्दिर में ।
एक पाषाण पर
(शक सं० १०४७) श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्रलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥
स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवरेश्वर यादवकुलाम्बरा मणि सम्यक्तचूड़ामणि मलप
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३८६ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
रोलु गण्डनुद्दण्डमण्डलिक शिरोगिरिवज्रदण्ड तलकाडुगोण्ड वीर- विष्णुवर्द्धनदेवनात नन्वयक्रम'
यदुमोदलादनेकराजा
सन्तानकदिं बलिक्के ॥
यदुकुल कुलाद्रिशिखर दोल
उदयसिद दुर्भिरीक्षतेजोहृत स
म्पदरातिराजमण्डल
नुदात्तगुणरत्नवार्द्ध विनयादित्यं ॥ २ ॥
आतन तनय सकल-म
हीतल साम्राज्य लक्ष्मियुं तनगेक
श्वेतातपत्रमागे पु
रातननृपरेणेगे वन्दन् एरेयङ्ग नृपं ।। ३ ।।
प्रा- विभुगं नेगर्द एचल
श्रीविष्णुवर्द्धन
राविक्रमनिधिगलनुजन् उदयादित्य ॥ ४ ॥ नेनेयल्पापचयं नोडिदोड भिमत संसिद्धि सद्भक्तियिन्द मनमोल्दाराधिसलकासुकृतदादव नेवेल्वुदे म्बन्ने गम्मु
न्निन पुण्यं वीररप्पा - नलनहुष रोलन्यूननादं जगत्पावनसत्यत्यागशौचाचरणपरिणत वोरविष्णुक्षितीश ॥५॥ * निर वद्यक्षत्रधर्मान्वितरेनिप महाक्षत्रियल्लकदाल्नास्वरेमुन्न' श्री दिलीपं दशरथतनयं कृष्णराज बलिक्का* यहाँ एक पंक्ति की कमी है
देविगमादर्त्तनूभवल्लाल
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३६७ घर सादृश्यक वन्द यदुकुलतिलक वीर विष्णु क्षितीश ॥६॥ अदियमनोडिदोटमने रोडिसि कल्तु नृसिंहवर्मनाडिदनवनोटमगुणिसि चेङ्गिरि चेङ्गिरियल्लि कल्तु कोण्डदटिन कोङ्गरा-नेगर्द काङ्गरनीक्षिसि पाण्ड यनाडिदं
यतिलकङ्गविष्णुधरणीपतिगोडदरार्द्धरित्रयोल ॥ ७ ॥ व ॥ अन्तदियमनदटलेदु नृसिंहवर्मसिंहम कदनदोलेच्चट्टि
वैरिगल शिरोगिरिगलं दोईण्डवज्रदण्डदिन्दलरे पोटदु कल पाल कुलमं कलकुलं माडि तगुल्दङ्गरन सप्ताङ्गमुमनेलकुलिगोण्डु दक्षिणसमुद्रतीर बर समस्तभूमियुमने कच्छत्रछायेयिं प्रतिपालिसुत्त तलवनपुरदोत्सुख सङ्कथाविनोददि राज्य गेटयुत्तमिरे ।। श्रीवीर विष्णुवर्द्धन
देवं षटतक षण्मुख श्रीपालविद्यबतिगी-जै
नावसतमनधिकभक्तियि माडिसिदं ॥ ८ ॥ पोसतेने ता माडिसिदी
बस दियुमं बाडमिदरसम्बन्धियेनल्केसेवा......
बस दियुम तीर्थदल्लि कोर्ट मुददि ॥ ६ ॥ पाकुलतिलकङ्ग गुरुकुलमाद श्रीमद्रमिणगणद नन्दिसद-रुङ्ग लान्वयदाचार्यावलियेन्तेन्दोडे ।। क्रम ह...महावीर
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३६८ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
स्वामिय तीर्थक्के गौतम गणधर ।
आ-मुनियिं बलिकाद म
हा- महि मरेनि ..
श्रुतकेवलिगलु पलबरु
मतीतरादिम्बलिक्के तत्सन्ताना
11 80 11
नतिथं समन्तभद्र
"
व्रतिपर्त्तलेदरु समस्त विद्यानिधिगल ।। ११ ।। अवरिं बलिक्कम् एकसन्धि-सुमति-भट्टारकरवरिं बलिको वादी मसिंह श्रीमदकलङ्कदेवरवरिं वक्रग्रीवाचार्य्यवरि श्रीणन्याचार्य... यके राज्यवामुददि सिंहनन्द्याचार्यRafi श्रीपाल भट्टारकरवरिं श्रीकनकसेन वादिराज-देवRafi aarh ||
इतर व्या... लेके म... मनितुमिसु... प्रभा-संइतिथिन्दे वसुतिर्द्धनद्... अधिकमे
रिदद किञ्चित्कर किञ्चिन्न्यूनमेन्दु .
......नोप्पद......जगत्पूतमाचर्य्यभूतं ॥ १२ ॥ प्रवरं श्रीविजयर्भुवनविनूतरु शान्तिदेवर वरिं ......
वनद. न व्रतिपरु ||
आ-पुष्पसेन सिद्धान्तदेवरिं बलिक ।।
......
गतसर्वज्ञाभिमानं सुगतनपगताप्तप्रणादं कणाद
कृत ......
. पादा
नतनाद' मर्त्य मात्रङ्गल नुडिगलोल... नेनसल्पर्व्वि लोको
.........
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ३९६ ऋतनाय्तहन्मताम्भोनिधिविधुविभवं वादिराज...॥१३॥ ......शान्तिषेणदेवरवरिं बलिक्क ॥ पेरतें सप्तर्द्धि यिं सम्भविकुमोदबुगुं प्रातिहार्यङ्गलेल्लं नेरेदिक्कू रीतियिन्दे-समवसितियुमी-कष्टकालप्रभाव। पेरपिङ्गल्की-महायोगियोलेने तपमुं योग्यतालक्ष्मियुं कणदेरेदन्तागिऍदिन्दन्दनुपममपरातीतदिव्यप्रभाव ॥ १४ ॥ कन्तुवनान्तुमेरदे...यदोडिसि दुर्मदकर्मवैरि-विक्रान्तमनेटदे लङ्गिसि महापुरमाग...दि... । ...ना-तीर्थनाथरेने रूढियनान्त कुमारसेन सैद्धान्तिकरादमुज्वलिसिदजिनधर्मयशोविकासमं ॥ १५ ॥ सले सन्द योग्यतेय.
...लेसेद दुर्द्धरतपोविभूतिय पेम्पि । कलियुगगणधररेम्बुदु
नेलनेल्लं मल्लिषेण मलधारिगल ॥ १६ ॥ हृद्यस्याद्वादभूभृद्भुवननुपमषट्-तर्कभास्वनखम्पा
यदुद्यद्दान्धवादिद्विरदनघटेयं विक्रमप्रौढियिन्दं । विद्यासिंहीरतिव्याप्तियोले सुखियिसुत्तिप्पुदु उत्साहदि - विद्य-श्रीपाल-योगीश्वरनेनिप महावादिमत्तेभसिंह
॥१७॥ प्रावन विषयमो षट त
क्र्काविलबहुङ्गिसङ्गतं श्रीपाल२६
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आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख विद्यगद्यपद्य-व
चोविन्यासं निसर्गविजयविलासं ॥ १८॥ तमगाज्ञावशमादुदुनतमहीभृत्कोटि बि
प्रपमर्दत्ती-धरेगेयदे तम्म मुखदोल्पट-तर्कवारासि-विभ्रममापोशनमात्रमादुदेनलीमातेनगस्त्य प्रभा
वमुमं कील्पडिसित्तु पेम्पि...श्रीपाल-योगीन्द्रना॥१॥ वर्गत्यागद सूचित
माग्र्गोपन्यासदलवु माऊललन्ताभग्गङ्गमरिदेनल्के नि
रर्गलमादत्त...वीर्य बतियोल ॥ २० ।। इन्तु निरवद्यस्यावादभूषणरुं गणपोषणसमेतरुमागि वादीभसिंह वादिकोलाहल तार्किकचक्रवर्तियेम्ब निजान्वयनामङ्गलनोलकोण्डु अन्वयनिस्तारकरुं श्रीमदकलङ्क-मतावलम्बनरु षट तर्कषण्मुखरुमसारसंसारव्यापारपराङ्मुखरुमाद श्रीपाल विद्यदेवगर्गे।। शल्यत्रयरहितग्र्गी
शल्यप्राममनुपमं कोट्टरिनृपहशल्यं सकलकलान्वय
कल्य श्रीविष्णुभक्तियं तां मेरेदं ॥ २१ ॥ अन्ती-बसदिय खण्डस्फुटितजीर्णोद्धारकमी-सम्बन्धिय रिषिसमुदायदाहारदानकं कञ्चिगोण्ड वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन पोय्सलदेवंसकवर्ष१०४७ क्रोधिसंवत्सरद उत्तरायणसंक्रमणदलु
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४०१ कावेरी तीरद हुन्छ यहोलेयलु शल्यदुरुवं तीर्थदल्लि तम्म बसदियुम श्रीपालविद्यदेवगर्गे कैधारे येरेदु श्रीवीर-विष्णुवर्द्धनं कोट्टियूर सीमा सम्बन्धमेन्तेन्दोडे ( यहाँ सीमा का वर्णन है) इन्तीचतुस्सीमयिन्दोलगुलदं सर्वबाधापरिहारमागि बिट्ट को श्री वीरविष्णुवर्द्धनदेवं कोट्ट श्रीपाल विद्यदेवरु तम्म माडिसिद होयसल जिनालयक्के बिट्ट तलवृत्ति बेल्दले चूर मुन्दण हादरवालालगागि मत्तरु नाल्कु अत्तिकेरेयुम हिरियकेरेय केलगे गहे सलगे एलु तोण्ट आन्दु दाइगट्टद केरे वोलगागि चतुस्सीमेयुम बस दिगे माडि बिटु कोट्ट भूमि यिदर सीमे मृडलु केसरकेरेगिलिद मणल हल्ल तेङ्क होनमरके होद बट्टे हडुव हिरियकरेयोलगेरे बडग होन्नेमरक्के होद होलेय बढ़े।
[चनरायपट्टन १४६] [इस लेख में होय्सल वंश के विनयादित्य, एरेयङ्ग और विष्णुवर्द्धन के प्रताप-वर्णन के पश्चात् कहा गया है कि विष्णुवर्द्धन पोरसलदेव ने उक्त तिथि को वस्तिों के जीर्णोद्धार तथा ऋषियों को श्राहारदान के लिए श्रीपालविद्यदेव को शल्य नामक ग्राम का दान दिया। श्रीपाल विद्यदेव द्रमिण संघ व अरुङ्गलान्वय के प्राचार्य थे। इस अन्वय की परम्परा इस प्रकार दी हुई है। महावीर स्वामी के पश्चात् गौतम गणधर हुए। फिर कई श्रुतकेवलियों के पश्चात् समन्तभद्र व्रतीप हुए। उनके पश्चात् क्रम से एकसंधिसुमति भट्टारक, वादीभासंह अकलङ्कदेव, वक्रग्रीवाचार्य, श्रीनन्द्याचार्य, सिंहनन्द्याचार्य, श्रीपाल भट्टारक, कनकसेन, वादिराजदेव, श्रीविजय, शान्तिदेव, पुष्पसेनसिद्धान्तदेव, वादिराज, शान्तिसेनदेव, कुमारसेन सैद्धान्तिक, मल्लिपण मलधारि
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४०२ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख और त्रैविद्य श्रीपालयेागीश्वर हुए। कई जगह श्राचार्यों के नाम पढ़े नहीं गये इसलिए परम्परा का पूरा क्रम ज्ञात नहीं हो सका । ]
४६४
बोम्मेनहल्लि ग्राम में जैन बस्ती के
सन्मुख एक पाषाण पर
(शक सं० ११०४) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ।। १ ।। श्रीपति जन्मदिन्देसेव यादववंशदोलाद दक्षिणो
वीपतियप्पना सलनेम्ब नृपं सलेयिन्द कोपनद्विपियनन्दिनोवं मुनि पोय सलयेन्दडे पोटदु गेल्दु दि. ग्व्यापि-यशं नेगल्ते वडेदगड पोयसलनेम्ब नामदि
॥२॥ स्वस्ति श्रीजन्मगेहं निभृतनिरुपमोदात्ततेजोमहार्व
विस्तारान्तःकृतोर्वीतलमवनतभूभृत्कुलत्राणदक्ष । वस्तुवातोद्भवस्थानकममलयशश्चन्द्रसम्भूतिधाम प्रस्तुत्य नित्यमम्भोनिधिनिभमेसेगुं होय्सलोज़
शवंश ॥ ३ ॥ अदरोल्कौस्तुभदोन्दनयंगुणम देवेभदुद्दाम-स
त्वदगुर्व हिमरस्म्युज्वल कलासम्पत्तिय पारिजा
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प्रासपास के प्रामों के प्रवशिष्ट लेख ४०३ तदुदारत्वद पेम्पना+ने नितान्त ताल्दि तानल्ते पु
ट्टिदुनुवृ त्ततमोविभेदि विनयादित्यावनीपालकं ॥४॥ बुधनिधि विनयादित्यन
वधु केलेयब्बरसियेम्बलात्मास्यविभाविधुरितविधु परिजन-का
___ मधेनु नेगल्बल्सुसीलगुणगणधाम ॥ ५ ॥ अवगैरेयङ्गं जनियिसि
दवनेचलदेविगादनादम्पतिगुद्भविसिदरजेयबल्ला
ल-वीर-विष्णुप्रतापियुदयादित्यर् ॥ ६ ॥ अवरोल्मध्यमनागियु
मवर्गव विष्णु पदकनायकदन्तोप्पुवनुदितवीरलक्ष्मिय ___ सवति महापट्टदरसि लक्ष्मियधीश :। ७ ।। भूदेवसभोच्चारित
वेदध्वनिनिरतविष्णुभूपङ्गलक्ष्मादेविगमुदयिसिदं
श्रीदयितं नारसिंहदेवनृपालं ॥ ८ ॥ भूवल्लभविपुलयश
श्श्रीवल्लभनारसिंहनृपपट्टमहादेवियेनल्नेगल्देचल
देविगे बल्लालदेवनुयं गेरदं ॥ ६॥
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४०४ प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख हेसरुचङ्गियकोटेय
नसहशभुजबलदे मुन्ने कोण्डरसुगलारसहायशूरशनिवा
रसिद्धिगिरिदुर्गमल्लबल्लालनवाल ॥ १० ॥ एकाङ्गवीर शूद्रुक
नाकारमनोजनय॑िसुरतरु तुरगानीक-वर-वत्स-राजन
नेकपभगदत्तनल्ते बल्लालनृपं ।। ११ ।। गद्य ।। स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर। द्वारा
वती पुरवराधीश्वर। तुलुव बलजलधि बडवानल । पाण्ड्यकुलदावानल। मण्डलिकबेण्टकार चालकटकसूरेकार। वासन्तिकादेवीलब्धवरप्रसाद । वितरणविनोदं। यादवकुलाम्बरा मणि । मण्डलिकमुकुटचूडामणि । असहाय शूर नृपगुणाधार । शनिवारसिद्धि । सद्धर्मबुद्धि। गिरिदुर्गमल। रिपुहृदयसेल्ल । चलदङ्कराम । रणरङ्गभीम । कदनप्रचण्ड । मलपरोलाण्ड नामादिप्रशस्तिसहितं काङ्गुनङ्गलितलकाडु नोलम्बवाडि बनवासेहानुङ्गलगोण्ड भुजबलवीरगङ्गप्रतापहोयसलबल्लालदेवईक्षिणमहीमण्डलम सद्धर्म परिपालिसुत्तुदोरसमुद्रद नेलेवीडिनाल्सुखसङ्कथाविनोदं राज्यं गेय्युत्तुमिरे तत्पाद पद्मोपजीवि ।। भरतागमतर्कव्या
करणोपनिषत्पुराणनाटककाव्यो
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प्रासपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ४०५ करविद्वज्जननुतनेनिप
स्थिरपुण्य चन्द्रमौलिमन्त्रिललामं ॥ १२ ।। नुतबल्लालनृपालदक्षिणभुजादण्डं पयःपुरहा
र-तुषारस्फटिकेन्दुकुन्दकमनीयोद्यद्यशोवार्द्धिवे. ष्टितदिक्चक्रनपारपुण्यनिलय निश्शेष विद्वज्जन
स्तुतनप्पी-विभुचन्द्रमौलिसचिव धन्यं पेरर्द्धन्यरे
प्रा-चन्द्रमौलिगखिलक___लाचतुरङ्गमलकीर्तिगसदृशविभवगाचाम्बिके गुणवाड़ि स.
दाचारसमेते चित्तवल्लभेयादल ॥ १४ ॥ हरिणीलोचने पङ्कजानने धनस्रोणिस्तनाभोगभा
सुर बिम्बाधरे कोकिलस्वने सुगन्धश्वासे चञ्चत्तनूदरि भृङ्गावलिनीलकेशे कलहंसीयाने सत्कम्बुकन्धरेयप्पाचलदेवि कन्तु सतियं सौन्दर्यदिन्देलिपल
॥१५॥ त्रिकुलकं ॥ सुकविसुरतरुशिलेयना
यक चन्द्राम्बिकेय मगनेनिप सेोवण नायकनय्य तायि बाचा
म्बिकं देशिदण्डनायकं हिरियण्ण । १६ ।। भयलोभदुर्लभ बम्मेय
नायकनिद्धकीर्त्ति किरियपणं मा
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४०६ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख रेयनायकं भगिनि च
लियब्बरसि कामदेवनणुगिन तम्म ॥ १७ ।। भूविनुतनात्मजातं
सोवण्णचन्द्रमौलि पति तनगे कलाकोविदनेन्दन्दाचल
देवियवोल्नोन्त सतियरावसुमतियोल ॥ १८॥ गौरितपङ्गलं नेगल्दुतुं नेरेदलगड चन्द्रमौलिया
ल्नारियर्गिनवे सोबगु पेल्पलवु भवदोलिनरन्तरम् सारतपङ्गलं पडेदु ताम्नेरेदं गड चन्द्रमौलिगम्भीरेयेनिप्प तन्ननेनिपाचलेवोल्सोबगिङ्ग नोन्तरार
॥१६॥ तद्गुरुकुल श्रीमूलसङ्घ देशियगण पुस्तकगच्छ काण्डकुन्दान्वयदाल । क । विदित गुणचन्द्रसिद्धा
न्तदेव सुतनात्मवेदि परमतभूभृद्भिदुर नयकीर्तिसिद्धा
न्तदेवनेसेदं मुनीन्द्रनपगततन्द्र ॥ २० ॥ परमागमवारिधिहिम
किरणं राद्धान्तचक्रिनयकीर्तियमीश्वरशिष्यनमलनिजचि
त्परिणतनध्यात्मिबालचन्द्र मुनीन्द्रं ॥ २१ ॥
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प्रासपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ४०७ भरदि बेलुगुल तीर्थदोल जिनपतिश्रीपार्श्वदेवोद्धम
न्दिरमं माडिसिदल्बिनूत नयकीर्त्तिख्यातयोगीन्द्रभासुरशिष्योत्तम बालचन्द्रमुनिपादाम्भोजिनीभक्ते सुस्थिरेयप्पाचलदेवि कीर्तिविशदाशाचक्रे सद्भक्तियिं
॥२२॥ व ॥शकवर्षद सासिरदनूरनाल्कनेय प्लवसंवत्सरद पौषबहुलतदिगे शुक्रवारदुत्तरायणसंक्रान्तियन्दु ।। वृ ॥ शीलदि चन्द्रमौलिसचिव निजवल्लभेयाचिक्कना
लोलमृगाक्षि माडिसिद पार्श्वजिनेश्वरगेहदुद्धपूजालिगे बेडे बम्मेयनहल्लियनित्तनुदारि वीर-बलालनृपालकं धरेयुमब्धियुमुल्लिनमेटदे सल्विनं
॥२३॥ तदवनिपनित्त दत्तिय
नदनाचले बालचन्द्रमुनिराजश्रीपदयुगम पूजिसि चतु
रुदधिवर' निमिरे कीर्ति जिनपतिगित्तल ॥ २४ ॥ अन्तु धारापूर्वकमागि कोट्ट तग्रामसीमे ( यहां नौ पंक्तियों में सीमा आदि का वर्णन है)
श्रीमन्महामण्डलाचार्य्यनयकीर्तिदेवरु बम्मेयनहल्लियलु कन्नेवस दिय माडिसि श्रीपार्श्वनाथप्रतिष्ठेय माडि देवरष्टविधार्चनेगे सोमसमुद्रद केरेय केलगे मोदलेरियल्लि गद्दे सलगे येरडु बडगण हालिनलु बेदलु नानूरुवं नयकीर्तिदेवलं मारेय
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४०८
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
नायकन मग सेविनु गौड गौडनालगाइ प्रजेगलुं प्राचन्द्रतार' बर सवन्तागि बिट्ट दत्ति मङ्गल महा श्री ॥
[ चन्नरायपट्टन १५० ]
[ इस लेख में लेख नं० ५६ के समान होयसल वंश की उत्पत्ति व लेख नं० १२४ के समान होय्सलनरेशों का बल्लालदेव तक व बल्लालदेव के मंत्री चंद्रमौलि और उनकी धर्मपत्नी श्राचलदेवी के वंश श्रादि का वर्णन है । तत्पश्चात् कहा गया है कि श्राचलदेवी ने बड़ी भक्ति से बेल्ल तीर्थ पर पार्श्वनाथ मन्दिर निर्माण कराया और इसके लिए बल्लालदेव से बम्मेयनहल्लि ग्राम प्राप्त कर उसे अपने गुरु नयकीर्ति सिद्धान्तदेव के शिष्य बालचन्द्रमुनि की पादपूजा कर उस मन्दिर को दान कर दिया ।
लेख के अन्तभाग में उल्लेख है कि महामण्डलाचार्य नयकीर्ति देव ने मेनहल्लि में एक नई बस्ती निर्माण कराई और उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की और कुछ भूमि का दान दिया । ]
४-८५
कुम्बेन हल्लि ग्राम में अञ्जनेय मन्दिर के समीप एक पाषाण पर
( लगभग शक सं० ११२२ ) श्रीमत्परम- गम्भीर - स्याद्वादामोघ लाञ्छनं । जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनं ॥ १ ॥
नमस्तु ॥
श्रीपतिजन्मदिन्देसेव यादवव शदोलाद दक्षिणोoff पतियप्पन सलनेम्ब नृपं सेलेयिन्दे कोपन
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४०६ द्वीपियनोन्दनारी मुनि पोयसलयेन्दडे पोरदु गेल्दु दि
___ च्यापियशं नेगल्तेवडेदोगड पोयसलनेम्ब नामदिं ॥२॥ विनयादित्यनृपालन
तनूजनेरेयङ्गभूपनातन पुत्रं । कनकाचलेोन्नतं वि
ष्णुनृपाल...तनात्मजं ॥ ३॥ ......य सकल-म
हीतलसाम्राज्य लक्ष्मिय......। श्वेतातपत्रनागे पु
रातन नृपगर्गेणिसिद...बल्लालनृपं ॥४॥ एकत्र गुणिनस्सर्वे वादिराज त्वमेकतः ।
तवैव गौरवं तत्र तुलायामुन्नतिः कथं ॥५॥ सले सन्द योग्यतेयिन
गलिसिद दुर्द्धरतपोविभूतिय पेम्पिं । कलियुगगणधररेम्बुदु
जगवेल्लं मल्लिषेणमलधारिगलं ॥ ६ ॥ तमगाज्ञावशमादुदुन्नतमहीभृत्कोटि तम्मिन्दे बि___पमर्दत्ती-धरेगेय्दे तम्म मुखदोल्षतर्कवारासिविभ्रममापोशनमात्रमादुदेनलिं मातेनगस्त्यप्रभा
वमुमकील्पडिसित्तु पेम्पिनेसकं श्रीपालयोगीन्द्रना॥ अवरप्रशिष्यरु श्री वादिराजदेवरु तम्म सल्यद कुम्बयन हल्लियलु तम्म गुरुगलिगे परोक्षविनयमागि परवादिमल्लजिनाल
.
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४१० प्रासपास के प्रामों के प्रवशिष्ट लेख यमेन्दु कन्नेवसदिय माडिसि देवरष्टविधार्चनेगं प्राहारदानक हिरियकेरेय गाडियहल्लिगद्दे सल्लगे एरडु कोलग हत्तु अल्लिं तेङ्क बिट्टि सेट्टियकेरेयुं अदर केलद बंदते सलग एरडुवं सर्वबाधा परिहारमागि बिट्ट दत्ति ।। (स्वदत्तां परदत्तां आदि श्लोक)
श्रीमन्महाप्रधानं सर्वाधिकारि तन्त्राधिष्ठायकं कम्मटद माचय्य माव बल्लय्यनुं देवर नन्दादीविगेगे गाणद सुङ्कवं बिट्टरु ।। कण्डच्चनायकन मदवलिगे राचवेनायकितिय मग कुन्दाडहेग्गडे नयचक्रदेवर बेसदिं माडिसिद बसदि । स्वस्ति ओमन्महाप्रधान सर्वाधिकारि हिरियभण्डारि हुल्लयङ्गल मेटदुन प्रश्वाध्यक्षद हेग्गडे हरियण्ण कुम्बेयनहल्लिय देवर माडिसि कोट्ट॥
श्रोपाल विद्यदेवर शिष्यरु पदद शान्तिसिङ्ग पण्डित गर्गेयुअवर पुत्र परवादिमल्लपण्डितर्गेयुं अवर तम्म उमेयाण्डगं आतन तम्म वादिराजदेवङ्ग वादिराजदेवरु धारापूर्वकं माडि कोट्टरु ॥
[चन्नरायपट्टन ११७] [ इस लेख में पूर्ववत् बल्लालदेव तक होय्सल वंश के वर्णन के पश्चात् वादिराज मल्लिषेण मलधारि की कीर्ति का वर्णन है और फिर षड्दर्शन के अध्येता श्रीपाल योगीन्द्र का उल्लेख है। इनके शिष्य वादिराजदेव ने अपने गुरु के स्वर्गवास होने पर 'परवादिमल्ल जिनालय' निर्माण कराया और उसकी अष्टविध पूजन तथा आहार-दान के लिये कुछ भूमि का दान दिया।
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४११ महाप्रधान सर्वाधिकारी तन्त्राधिष्ठायक कम्मट माचय्य तथा उनके श्वशुर बल्लय्य ने जिनालय में दीपक के लिए तेल के टेक्स का दान दिया। ___कुण्डञ्चनायक की भार्या राचवे तथा नायकिति के पुत्र कुन्दाड हेगडे ने नयचक्रदेव की प्राज्ञा से बस्ती निर्माण कराई।
इसी प्रकार महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भण्डारी हुल्लय के साले अश्वाध्यक्ष ठरियण्ण ने कुम्बेयनहल्लि के देव की प्रतिष्ठा कराई।
वादिराजदेव ने ये दान श्रीपाल विद्यदेव के शिष्य शान्तिसिंगपण्डित व परवादिमल्लपण्डित व उमेयाड व वादिराजदेव को दिये । ]
४६६ चन्नरायपट्टन में गद्दे रामेश्वर मन्दिर के
सन्मुख एक पाषाण पर
(शक सं० ११०८)
[ ऊपर का भाग टूट गया है ] .....श्रेष्ठगुण पोगले सत्ययुधिष्ठिर......नवसेकाररधिष्ठायक......यण्णनं बुधनिधियं ।। सोगयिसुव गङ्गवाडिगे
मोगमेने . न...पुददरोल । मिग दिण्डिगूर शाखा
नगर बोटेनिपुदल्ते मोनेगनकट्टे ॥ १ ॥ कनकाचलकूटदवोलु
घनपथमं मुट्टि नेट्टनम प्पुविनं ।
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४१२ प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख मोनेगनकट्टदलार्जत
जिन गृहमं रामदेव विभु माडिसिदं ।। २ ।। तद्गुरुकुलमेन्तेन्दडे। श्रीनयकीर्तिसिद्धान्तचक्रवर्तिगस्तशिष्यरु। विदिताध्यात्मिकबालचन्द्रमुनिराजेन्द्रायशिष्यप्रंश
स्तिदवन्द्यर्मुनिमेघचन्द्रग्नघर्भास्वहयासागराभ्युदयोस्तकगच्छदेशिकगण श्रीकोण्डकुन्दान्वया
स्पददीपर्करमोप्पुवर्वसुधेयोल्शस्वत्तपोलक्ष्मियिं ॥३॥ शकवर्ष ११०८ नेय विश्वावसु संवत्सरदुत्तरायण संक्रान्तियादिवारदन्दु बनवसेकारर मोत्तदनायकरु दिण्डियूरवृत्तिय गावुण्डुप्रभुगलु मेलिसासिबरु शान्तिनाथदेवरष्टविधार्चनेगं खण्डस्फुटजीर्णोद्धारक्कं ऋषियराहारदानक्कं सर्वावाधपरिहारमागि मेघचन्द्रदेव, धारापूर्वकं माडि बिट्ट गद्देबेदलेस्थलङ्ग लेन्तेन्दडे। ( यहाँ दान का विवरण है )
[चन्नरायपट्टन १६६ ] [......गङ्गवाडि के मोनेगनकट्टे का दिण्डिगर एक शाखा नगर था। मोनेगनकट्टे में रामदेवविभु ने एक विशाल जिनालय निर्माण कराया। रामदेव के गुरु, नयकीर्तिसिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य अध्यास्मिक बालचन्द्र मुनि के प्रधान शिष्य मेघचन्द्र थे। उक्त तिथि को बनवसे के कर्मचारी मोत्तद नायक तथा दिण्डियूरवृत्ति के गौण्ड और प्रभुत्रों ने शान्तिनाथ भगवान के अष्टविधार्चन के तथा जीर्णोद्धार व श्राहारदान के हेतु उक्त भूमि का दान मेषचन्द्रदेव को कर दिया । ]
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
४१३
४-६७ तगडूरु ग्राम में पुरानी नगरी के स्थल पर
एक पाषाण पर ( लगभग शक सं० १०५०) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोघ-लान्छन । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥१॥
स्वस्ति श्री.........मेश्वर परमभट्टारक सत्याश्रयकुल. तिलकं चालुक्याभरण श्रोत्रिभुवनमल्ल देवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्राक्र्कतार सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरद्वारावतीपुरवराधीश्वर यादवकुलाम्बरा मणि सम्यक्तचूडामणि मले. परोलु गण्ड राजमार्तण्ड कोङ्गुनङ्गलि......तलकाडुबनवासे हानुङ्गलुगोण्ड भुजबलवीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन पोरसलदेवर... कुलगगनदिवामणिय ए......गदेवनवन मग..... विष्णु नृपं तद्भू मीश......तनूभवने......वाव...॥ पेसगर्गोण्डावावदेशङ्गलनेणिसुवुदावावदुर्गङ्गलं ब
पिणसि पेलुत्तिप्पु दावावनिपतिगलं लेक्किसुत्तिप्पु देम्बोन्देसकं......कडेवर'...............सा
धिसिदं भूलोक......तिलकं वीरविष्णुक्षितीश।।२॥ ...सङ्कथाविनोददि राज्य गेटवुत्तिरे तत्पादपद्मोपजीवि ।।
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४१४ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख भीमार्जुन-लवकुशरिव
रीमाल्केयेनल्के तम्मुति–र ......। श्रीमन्मरियानेयमु
दामगुण भरतराजदण्डाधिपरु ।। ३ ।। श्रीविष्णु पोयसलङ्गखि
लावनिय......दल.........साधिसि...। ...विदित भरत चक्रियन्
...विभुवेनयिसुगुमखिलधरेयोल्भरतं ॥ ४ ॥ मरुवक्कमनोडिसलु
नेरे राज्यश्रीविलासमं मेरेयलुवीमरियाने नेरगु........
......मेच्चे पट्टदानेयुमादं ॥ ५ ॥ प्रातन सति मुन्न नेगल्दा
सीतेगरुन्धतिगे वा...........
..दोरेयेनलल्लदे
भूतलदोले जक्कणब्बेगुलिदौरेये ।। ६ ॥ ......याने दण्णायकनेरेयन...न जक्कियन्वेगे सुतरत्न..
......एरगु... . ...भरतबाहुबलिगलेनिप्पर ॥ ७ ॥ अन्तवरेन्तेनं ।। श्रीमत्पेर्गडे माचिराजगिरियोल्पुट्टत्ते सन्मार्गदि
न्दामाश्रीमरुदेवियेम्ब नलिनीवासक्के सन्दाजन
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४१५ प्रेमे श्रोजिनमार्गदोन्देसकदानैर्मल्यदि पोईिदल चाम......पेर्गडेदेवसज्जलधियं पुण्यापगारूपदि
॥८॥ .... .रेय चामियकन
सादररापिरियाण्डनेम्ब......णनन्तादरद चन्दिय...........
......दलदी-बूचियणनुमेन्दिवरप्पर ।। ६॥ . परमजिनेश्वर मनदोलोप्पिरे तनयकीर्ति नाकदो
ल्परेदिरे दानधर्मविनयव्रतसीलचरित्रमेम्बलङ्करणद पेमें मानस के पोण्मे दयारसमुण्मे चित्तदोल्गुरुवभिवन्दनं मनदोलागददिक्कुंदु चामियक्कन
॥१०॥ भारद्वाज सुगोत्रा
लारुं मुन्नान्तरिल्ल नेरपल्जसमं । ताराद्रिसन्निभं तग
डूर जिनालयमदेसेये चामलेयेसेदल ॥ ११ ॥ जिनपूजाष्टविधार्चनक्के मुनियग्र्गाहारदानक्के त
जिजनचैत्यालयजीर्णदुद्धरणकं सल्वन्तिदंसोब-गौण्डन पुत्रकुलदीपकजननुतीरायगावुण्डनोल्मनदं मल्लयनायकं गुणगणख्यातर्महोत्साहदि
॥१२॥ २७
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४१६
आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
धारापूर्वकदि तग
दूरं वग्गल बम्मगट्टवं बसदिगे सले । धारिणियरिय बिट्ट
रविश शितारमेरुगल्नि विनेगं ॥ १३ ॥
परम जिनेश्वरपूजेगे
पिरिदु सद्भक्तिविन्दे कोडियकटयौं ।
वरगुणरायगवुण्डं
निरुतं कल्याणकीर्त्ति मुनिपङ्गितं ॥ १४ ॥
भूविनुतं कलि-बोप्पं
देवङ्ग' चरुगिङ्ग नेमवेडेय मगं ।
भूविदितमागे कोट्टं
तावरेगेरेयल्लि गद्दे खण्डुग वन्दं ।। १५ ।।
कल्याणकीर्त्ति कीर्त्तिसु
वल्ल्युदय मूरुल कम व्यापिसि के
वल्यदोडगुडि सले मा
गल्यमुमादत्तु चिन्ते चिन्त्यङ्गलवाल ॥ १६ ॥
( स्वदत्तां परदत्तां वा आदि श्लोक )
[ चन्नरायपट्टन १६८८ ]
[ इस लेख में चालुक्यत्रिभुवनमल्ल व विष्णुवद्धन पोरसलदेव के राज्य में नयकीर्त्ति के स्वर्गवास हो जाने पर चामले द्वारा तगडूर में. जिनालय निर्माण कराये जाने व श्रष्टविधार्चन,
श्राहारदान तथा
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४१७ जीर्णोद्धार के हेतु रायगवुण्ड और मल्लय नायक द्वारा 'तगडूर' और 'बम्मगुट्ट' का दान दिये जाने का उल्लेख है। रायगवुण्ड ने जिनपूजन के लिए 'कोड' की भूमि कल्याणकीर्ति मुनि को दी। लेख में अन्य दानों का भी उल्लेख है। अन्त में कल्याणकीर्ति की प्रशंसा के पद्य हैं।
४८८
गुडिव ग्राम के मदलहसिगे नामक स्थल में
एक स्तम्भ पर
( लगभग शक सं० १०००) भद्रमस्तु जिनशासनस्य । स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वरनधटरादित्य त्रिभुवनमल्ल चोलकाङ्गाल्वदेवर पादाराधक...तु-रावसेट्टिय मम्मगनदटरादित्य सावन्तबूवेय नायकनुत्तरायण संक्रमणदन्दु हडवण तुम्बिन मोदलेरियलु १३ खण्डुग बयलं २ खण्डुग अडविन मण्णुम पद्मणन्दिदेवरिगे धारा-पूर्वकं माडिविट्ट कोट्टनु । (स्वदत्ता परदत्तां आदि श्लोक)
[ होले नरसीपुर १६ ] [त्रिभुवनमल्ल चोलकोङ्गाल्वदेव के पादाराधक व रावसेट्टि के पौत्र बूवेय नायक ने उक्त तिथि को पद्मनन्दि देव को उक्त भूमि का दान दिया।]
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४१८ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
४६६ मललकेरे ग्राम में ईश्वर मन्दिर के सन्मुख
एक पाषाण पर
(शक सं० ११७०) श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १ ॥ भद्र भूयाजिनेन्द्राणां शासनायाघनाशिने ।
कुतीयध्वान्तसङ्घातप्रभिन्नघनभानवे ॥२॥ वृ ॥ यदुवंशतितिपालक शशपुरी वासन्तिका....
मदनागिर्पिन......बुराजित...मेल्पाये शा ल.. ...जैन मुनीश्वर पिडिद.. ......
............पोडेद......॥ ३ ॥ प्रा-होयसलान्वयदोल ॥ वृ॥ भूनाथासेव्यपाद निखिलरिपुमहीपालविवस केली
कीनाश वैरिभूभृन्मृगगहनदवन्ताने दुर्गप्र...... ...ना...रामनेत्रोभयश... ...श्रीललाम- .
तानेन्दीविश्वलोक...सलिसिद वीरबल्लालभूप
गोपतिगातपनिकर
गोपतिगे......वागोदड।
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आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख ४१६ गोपतियादन्ता ..
गोपति बल्लालगात्मजं नरसिंहं ॥ ५॥ वृ ॥ जित्वा वैरिनरेन्द्रचक्रमखिल संग्रामरङ्गऽभव
न्भूचक्र लवणाब्धिवेष्टितमिद स्वीकृत्य... ...श्वर वैष्णवाहुतमहो तन्मुख्य चक्रं सदा
श्रीसोमेश्वरदेव यादव............॥ ६ ॥ भामानीकामनोज
भीमाहितदैत्यततिगे दशरथराम । सोमसुजनसुधाब्धिगे
सोमेश्वरदेवनेन्दु वर्णिपुदु जगं ॥ ७ ॥ व ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर द्वारावती
पुरवराधीश्वर विद्विण्णिशाकरविधुन्तुदं । कलिङ्गमत्तमातङ्गमस्तकविदारणोत्कण्ठकण्ठीरव। सेवु ( णो ):पालारण्य-दावानल । मालवमहीपालाम्भोधिकुम्भसम्भव । वासन्तिकादेवीलब्धलसितप्रसाद । यादवकुन्ताम्बरा मणि । सम्यक्तवचूड़ामणि । मलेराजराज मलेपरोलु गण्ड गण्डभेरुण्ड कदनप्रचण्ड सनिवार-सिद्धि गिरिदुर्गमल्ल । चलदङ्करामनसहायशूरनेकाङ्गवीर। मगर... कुलिश...र। चोलराज्यप्रतिष्ठाचाय्य पाण्ड्यकुलसंरक्षणदक्षदक्षिणभुज । भुजबलार्जितानेक-नामप्रशस्तिसमालङ्कत श्रीमद्-गङ्गहोयसलप्रतापचक्रवर्त्तिवीरसेामे
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४२० आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख
श्वरदेवरु दक्षिणमण्डलम दुष्टनिग्रहशिष्टपरिपालनपूवकं राज्य गेटवुत्तमिरे ।
तत्पादपद्मोपजीवि सेनानाथशिरोमणि वन्दिजन-चिन्तामणि सुजनवनजवनपतङ्ग राजदलपत...स लिग कलिगतङ्कश स्वामिदण्डेशनेन्तेप्पनेन्दडे ॥ वृ॥ श्रीय विस्तीर्णवक्षस्थल निलयदो......
श्रीय कूर्जाल केलीसदनदोलोलविं ताल्दि विख्यातकीर्तिश्रीयिन्दाशान्तम रजिसे निजविजय...स्वान्तजात... ...यि सैन्याधिनाथ नेगल्दनुरुगुणस्तोमनुर्बीललाम'
॥
८
॥
प्रातननुजं ॥ क ।। ...रु देत्त....
...सिरम ब्रह्मसैन्यनाथं क्षिप्रं । धुरदालतिचतुर निज
...... 'वीर' 'तिगे सिरदा' 'तिय ॥६॥ मामन्त्रि ॥ मालिनी ।। मनुचरितनुदार वत्समन्त्रिप्रगल्भं
जिनसदनसमूहाधारसारानुशा...म् । तनगे...... ..प्पिदं पूर्णपुण्यं
जननुतविजयपणं मन्त्रिगोत्राग्रगण्यं ॥ १० ॥ क ॥ कामं कमनीयगुणं
धीमन्तसिरोजबन्धललित......।
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प्रासपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४२१ श्रीमज्जिनपदनलिन-शि
लीमुखनमृतांशुविशदकीर्तिप्रसर । ११ ।। तज्जननीजनकरु ।। लोकाश्चर्यनियोगयोगनिपुणं दुर्गाम्बिकावल्लभं
नाकय्यं भुवनाभिराम च...नेम्बिनं केाङ्ग-देशैकश्रीकरणाग्रगण्यनेसेदं तत्सूनु कामानु... शाकीर्णायतकीर्त्तिकान्तनेसेवौं सातं गुण ब्रातदि
॥ १२॥
प्राकामात्मजरु ॥ परमजिनचरणदाम
वरविद्वद्वार्द्धिसामनबलाकाम। करणगणाग्रणी सोम
कमलवाणीराम ॥ १३ ।। सुरकुजके कामधेनुगे
परुसक् इन-सुतगे सममे......। सुर...परिकिसे पुरुसरत्न
निरुपमनी-सोमनमलगुणगणधामं ।। १४ ॥ जीर्णजिनभवनम भू
वणिंसलुद्धरि...सरसगुण-मकीर्ति दिगन्ताकीर्णमेने धर्मसस्या
...र्ण...कर्ण.........संवर्ण्य ॥ १५ ॥
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४२२ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख प्रा-सातण्णनेन्तप्पं ।। सातिशयचरितभरितं
भूतभवद्भाविभव्यजनसंसेव्य । सातगणनमल गुणसं.
भूतं जिनपदपयोरुहाकरहंसं ।। १६ ॥ . मल्लिकामाले । देवदेवन शान्तिनाथन गेहमं पोसतागि स
द्वोधिप...ोल्दु निर्मिसे तन्न कीर्ति दिगन्तमन्तिन्ने भव्यचकोरिचन्द्रमनेन्दु बन्देले वर्णिसल
कावणावर विचित्र चरित्रसातणनोप्पुव ।। १७ ॥ क । सातगणन वनिते गुण
......रत्न...दि भूतलदोल । नोन्तिलवे बोघ...वे - सातिस...ख्यातियिन्दे रजिसुतिर्पल ।। १८ ।। अा-दम्पतिगल गर्भदो__ लाद करेसेव-काम-सातङ्गल विद्यादिगुणरूपिनोल्पि
न्दादु.........धरित्रिगाव पडेदं ।। १६ ।। स्वस्ति श्रोमूनसङ्घ देसियगण पास्तकगच्छद काण्डकुन्दान्वय सिद्धेश्वर...मानानूनचारुचरित्रं श्रोमाघणन्दिसिद्धान्तचक्रवर्ति.........तप्पं ॥ . वृ ॥ स्वान्तभवप्रसृति... रसं ।।
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४२३
.क-भा
वरचारित्रननून पुण्यजननं..... सुरनीरेज सुमित्रनार्ज्जितदया.. 1 पवित्रनेन्दु भुवनं सङ्कीर्त्तिसत्वर्त्तिपं वरसैद्धान्तिकमाघनन्दिमुनिपं श्रीकेाण्डकुन्दान्वयं
॥ २० ॥
.....
तच्छिष्यरु ॥
क । चारुतरकी र्त्तिदिग्वि
स्तारितनतनुप्रताप...... ।
.य भानुकीर्त्ति वि......
. बुधनिकर ॥ २१ ॥
आ-मुनिय शिष्यनखिल-कलामयनुदारचरितनतिविशदयशेो
......
धाम मुनिपुङ्गव
...... वर्णिपुदु माघणन्दिति ॥ २२ ॥ वृ || वरविद्यामद्दितं सुराचलदवाल, श्रीमाघणन्दित्रतीश्वरनिर्द..... .दद्रिसानु सुपरीतानून शिष्यौघम ।
. त्रितुलप्रभृतियन्तारय्ये ता.....कों
....
......मण्डल वेन्दोडिन्नवर पेम्पं पेल्वेनेनेन्दोडं ||२३|| व || यन्तु विराजिसुत्तिई समुदायदल्लि माघणन्दि-भट्टारकर गुडं सोवरस-सूनु सान्तण्यनुदेन्तपुदु ||
वृ ।। जगतीसम्भूतधर्म्माङ्कुर... देम्बन्ते भूकान्ते रा... जगदि पोतिर्ह पोगेल्सद कलसविदेम्बन्ते भव्यावली के -
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४२४ आसपास के ग्रामों के प्रवशिष्ट लेख
लिगे रम्यस्थानमेम्बन्तिरे सुकृतिसुधामृतिबिम्बोदयेन्द्री
नगवे बन्दावगं रजिसिदुदु वसुधाचक्रदोल जैनगेह ॥२४॥ क ।। प्रा-जिनभवनदोलोप्पुव
__ मूजगपतिशान्तिनाथ तन्नमलपदाम्भोजङ्गलोलदु भव्यस
माज'.. ...लिगे......नुदितोदयम ॥ २५ ॥ इन्तोल्दु मणलकेरेयोल
शान्तीशनिशान्तवेसेये निर्मिसि निखिलाशान्तायतकीर्ति.........
......सातनिप्पनुर्वीवर्ण्य ॥ २६ ॥ व ।। अन्तिई तनिष्टगोत्रमित्रपुत्रकलत्रादिसुखसम्भूतिनिमित्त सातगणनगण्यपुण्यप्रभाव शकवर्षद ११७० नेयप्लवङ्ग संवत्सरद फाल्गुण सु ५ प्रा श्रोशान्तिनाथस्वामिय प्रतिष्ठेय माडिया-जिनपरियर्चनेगमाहारदानक्कमेन्दु बिट्ट भूमि प्रा-नाडुसेनबोव विजयण्ण-सोवण्ण-मदुकण्णर्नु समस्तनाडुगौडगलू मुख्यवागि सोवण्णनु मलस्तकेरेयलि माडिसिद चैत्यालयक्के बिट्ट भूमिय सीमासम्बन्धवेन्तेन्दडे ( यहां सीमा-वर्णन और अन्तिम श्लोक हैं )
[अर्कल्गुद १२] [ इस लेख में प्रथम होयसलवश के बल्लालदेव, नरसिंह और सोमेश्वरदेव का वर्णन है। सोमेश्वरदेव के वर्णन में कहा गया है कि उन्होंने कलिङ्गनरेश का मस्तक विदीर्ण किया, सेवुण' राजा को नष्ट
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
४२५
किया, मालव- नरेश को जीता, मगर राज्य की नीव खोद डाली, चोल राज्य की प्रतिष्ठा की, पाण्ड्यवंश की रक्षा की, इत्यादि । इनके राज्यकाल में उनके सेनानाथ 'शान्त' ने शान्तिनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया । शान्त की भार्या का नाम 'भोगव्वे' तथा पुत्रों के नाम 'काम' और 'सात' थे। उनके गुरु की परम्परा इस प्रकार थी:- मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दान्वय में मावनन्दि व्रती हुए । उनके शिष्य भानुकीति और उनके शिष्य माघनन्दि भट्टारक हुए। इन माघनन्दि भट्टारक के एक गृहस्थ शिष्य सोवरस के पुत्र सातण्ण ने मनलकेरे में शान्तिनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया और उस पर सुवर्ण कलश की स्थापना कराई तथा उक्त तिथि को जिनाचेन व आहारदान के हेतु उक्त भूमि का दान दिया । ]
S
५००
सोमवार ग्राम में पुरानी बस्ती के समीप एक पाषाण पर
( शक सं० १००१ )
श्रीमत्परम- गम्भीर - स्याद्वादामोघ लाञ्छनं । जीयास्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥ १ ॥ श्रीप्रभाचन्द्रसिद्धान्तदेवो जीयाश्चिरं भुवि । विख्यातेाभयसिद्धान्तरत्नाकर इति स्मृतः ॥ २ ॥ अवनीचत्रके पूज्यं निजपदमेनिसित्तैदे सन्मार्ग...
.तोदात्तसैद्धान्तिक नेसेदपनम्मम्म काग्र्गण-प्रोद्भवनु..... घर कुलिशधर ं ..... । .वि... जिनागम...... नीराजहंस ॥ ३ ॥
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४२६ आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख
"
जगदाश्चर्यमिदत्यपूर्व्वमिदरन्दकब्जजं कूड बट्टिगेयन्तिट्टमिडल्कि देनेरेदने पेलेम्ब काङ्गाल्व जैनगृह' नाडे बेढङ्गुवेत्तदटरादित्यावनीनाथ की डिविलिन्तु तोदेने मत्ते वपिं पं || ४ || जगदाल्तानीव दा... नेगलल अदटरादित्य- चैत्यालयक्क्यै - दे गुणाम्भोराशि वीरामणि विजयभुजेोद्भासिदिव्याचे नक्कदुगडं सद्भक्तिविन्द तरिगलनिय मण्डल्लि नात्वत्तेरल्खण्डुगत्री जक्कित्तनत्युत्सव दिन अदटरादित्यनादित्यतेजं ||५|| इति सिद्धान्तदेवर्ग' नुनयदरिदाचन्द्रतारं सलुत्तेन्तेने धारापूर्वकं को, दनुदधिजलस्थूल कल्लोललीलावनचक्र पर्व्वित्तदनिदनुदनेनेन्दपै दानदोल्पावनुमं मिक्किर्पिनं माडिदिने सेये सद्धर्म केाङ्गावभूपं ||६|| स्वस्ति सकवर्ष १००१ नेय सिद्धार्थि संवत्सरं प्रवर्त्ति - सुत्तिरे स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वर मोरेयूर्षुरवराधीश्वर जटाचोलकुलोदयाचलगभस्तिमालि सूर्यवंश - शिखामणि शरणागत वज्रपञ्जर श्रीमद्राजेन्द्र पृथ्वीका - ङ्गाल्त्र ं राज्य ं गेय्युत्तु ं श्रोसूलसङ्घद काणूर्गणद तगरिगल्गच्छद गण्डविमुक्त सिद्धान्त देवर्गे बसदिय माडिसि देवर्चनासोग के तरिगलनेय मावुकलं हेदगेदा... वित्तुवट्ट कोट्ट भूमि ख ४२ । ( अन्तिम श्लोक ) चतुर्भावालिखित्थक विद्याधर सन्धिविग्रहि श्रीमन्नकुला बरेदं मङ्गल महा श्री ।
[ अर्कलगुद 84 ]
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आसपास के ग्रामों के अवशिष्ट लेख ४२७ [ इस लेख में उभयसिद्धान्तरत्नाकर प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के उल्लेख के पश्चात् कहा गया है कि कोङ्गाल्वनरेश अदटरादित्य ने जो 'श्रदटरादित्य चैत्यालय' निर्माण कराया था उसकी पूजन के हेतु राजा ने सिद्धान्तदेव को 'तरिगलनि' की ४२ खण्डुग भूमि दान कर दी ।
चोलकुल के सूर्यवंशी महामण्डलेश्वर राजेन्द्र पृथुवीकोङ्गाल्व ने मूलसंघ, कानूरगण, तगरिगल गच्छ के गण्डविमुक्तदेव के लिए एक बस्ती निर्माण कराई और देवपूजन के लिए उक्त भूमि का दान दिया।
यह लेख चार भाषाओं के ज्ञाता सान्धिविग्रहिक नकुलार्य का रचा हुअा है।]
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अनुक्रमणिका
79:०: इस अनुक्रमणिका में जैन मुनि, आर्यिका, कवि व संघ, गण, गच्छ और ग्रन्थोंके नाम ही समाविष्ट किये गये हैं। नाम के पश्चात् ही जो अंक दिये गये हैं उनसे लेख-नम्बर का अभिप्राय है। भू. के पश्चात् जो अंक दिये गये हैं वे भूमिका के पृष्ठ-नम्बर हैं। इस अनुक्रमणिका में निम्न लिखित संकेताक्षरों का प्रयोग किया गया है:
उ०-उपाधि । गं० वि०=गंडविमुक्त । त्रै० च० विद्यचक्रवर्ती । त्रै यो० त्रैकाल्ययोगी । पं०=पंडित । पं० आ०=पंडिताचार्य । भ०= भट्टारक। म०-मलधारी। म० दे०=मलधारि देव । सि० च०=सिद्धान्तचक्रवर्ती । सि० दे० सिद्धान्त देव । सै० सैद्धान्तिक । श्वे० श्वेताम्बर ।
अजितसेन व अजितभट्टारक ३८,५४, अकम्पन १०५. भू. १२५.
६०. भू० २६, ७२-७४, १४०, अकलंक ४०, ४७, ५०, ५४, १०८, १५२.
४९३. भू० ७९, ११२, १३५, अध्यात्मि बालचन्द्र, नयकीर्ति के शिष्य
१३७, १३९, १४४, १४५. (देखो बालचन्द्र) ७०, ८१, ९०. अकलंक त्रैविद्य, देवकीर्ति के शिष्य ४०. अनन्तकवि, बेल्गोलद गोम्मटेश्वर चरित अकलंक पंडित १६९. भू० ११७, ___ के कर्ता भू० ५, २७, ३३, ४८. १५३.
अनन्तकीर्ति, वीरनन्दि के शिष्य, ४१. अक्षयकीर्ति १५८ भु. १५१. अनन्तामति गन्ति ( आर्यिका) २८. अग्निभूति १०५ भू० १२५. अनुबद्धकेवली १०५. अचल १०५ भू० १२८.
| अन्धवेल १०५ भु० १२५. अजितकीर्ति, चारुकीर्ति के शिष्य ७२ | अपराजित १, १०५ भू० ६०, ६२, भू. १६२.
१२५. अजितकीर्ति, शान्तिकीर्ति के शिष्य | अभयचन्द्र, नन्दि माघनन्दि के शिष्य ७२.
४१, १०५, भु० १३०, १३५. अजितपुराण. कविचक्रवर्तिकृत भू० अभयचन्द्र, त्रै०च०, गोम्मटसारवृत्ति के ११७.
__कर्ता भू० ७२.
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अभयचन्द्रक ३३३ भू० १६१. इन्द्रनन्दि ५४, २०५ भू० ७७, १२०, अभयनन्दि पण्डित २२ भू० ११८, १२८, १३९, १४५, १४८, १५२. १५३.
इन्द्रभूति ( देखो गौतम) ५४, १०५ अभयदेव ४७३ भु. १५६.
भू१२५. अभयनन्दि,त्रै यो के शिष्य ४७,५०. इन्द्रभूषण, लक्ष्मीसेन के शिष्य, ११९. अभयसूरि १०५.
भू० १६१. अभिनवचारुकीर्ति पं० आ० १३२, भू० ईशान १९४.
४६, १६०. अभिनव पं० पंडितदेव के शिष्य, उग्रसेन गुरु, पट्टिनिगुरु के शिष्य, ८
१०५, ३६२. भू. १३५, १६१. ___ भू. १५०. अभिनव पं० आ० ४२१ भू० १६०. | उत्तरपुराण, गुणभद्रकृत, भु०३०,७६. अभिनव श्रुतमुनि १०५ भू० १३५. उदयचन्द्र ४२,१०५,१३७, भू. १५९. अमरकीर्ति, धर्मभूषण के शिष्य, १११ उपवासपर, वृषभनन्दिके शिष्य, १८९. भू. १३६.
उल्लिकलगुरु ११ भू० १५०. अमरनन्दि १०५. अरिट्टनेमि पं. २९७ भू० ११८. ऋषभसेनगुरु १४. अरिडोनेमि २५ भू० १४. अरिष्टनेमि गुरु १५२ भू० १११, १४९. एकत्वसतति पद्मनन्दिकृत भू० ११२. अरुङ्गलान्वय ४९३ भू० १३६, १४८. एकसंधिसुमतिभट्टारक ४९३, भू. अर्जुनदेव १०५.
१३७. अर्हद्दास कवि १०५ भू० ३८. अर्हद्वलि १०५ भू० ५९, १३४. कण्णब्बे कन्ति (आर्यिका) ४६०. अविद्धकर्ण, पद्मनन्दि व कुमारदेव गोला- कनकचन्द्र ११३ भू० १३७.
चार्य के शिष्य ४० भू. १३२. कनकनन्दि ४०, ४४, २५१ भू० ९०, अविनीत भू० १२८.
१५५, १५८. आजीगण २०७.
कनकश्री कन्ति (आर्यिका) ११३. आर्यदेव ५४ भू० १३९.
कनकसेन, बलदेवमंत्रीके गुरु, १५
भू० १४९. इङ्गुलेशबलि १०५, १०८, १२९ भू० | कनकसेन-वादिराज ४९३ भू० १३५ १३५, १४६. .
कमलभद्र ५४ भू. १३९.
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-
कर्मप्रकृति भ. ५४ भू. १३९. कुमारसेन सै० ५४, ४९३ भू. १३७, कलधौतनन्दि, देवेन्द्र के शिष्य, ४२, १३८, १४०. . ४३, ५०.
| कुमुदचन्द्र १२९ भू० १५९ कल्याणकीर्ति, माघनन्दिके शिष्य, ५५, | , भू० १४३. __ भू० १३३, १४३.
कुम्भ १०५ भू० १२८. कल्याणकीर्तिमुनि ४९७ भू० १५५. । कुलचन्द्र, कुलभूषणके शिष्य, ४० भू० कविचक्रवर्ति, अजितपुराणकर्ता भू० १३२. ११७.
कुलभूषण, पद्मनन्दिके शिष्य, ४०, कविताकान्त-शान्तिनाथ ५४.
४१, १०५ भु० १३०, १३२. कविरत्न १६६, २८८ भू० ११७.। कृत्तिकार्य १ भू० ६२, १२६. कंसाचार्य १०५ भू० १२६. कोण्डकुन्दान्वय ( कुन्दकुन्दान्वय ) काणूरगण ५०० भू. १४८.
४०, ४१, ४२, ४५, ५४, ५५, कालाविर्गुरु १३ भू० १५०.
५९, ९०, १०५, ११३, ११४, काष्ठासंघ ११९, ३८१, ३८२, ३८६, । १२२, १२४, १३०, १३२, १३७,
३९३, ३९६ भू. ११९, १४८. १३९,३१७,३१८,३१९,३२०, कित्तरसंघ १९४ भू० १४७.
३२४, ३२७, ३६०, ४२१, ४२६, कुक्कुटासन ४३.
४३०,४७१,४८१,४८६,४९१, ,, • मलाधारि (गण्डविमुक्त | ४९२, ४९४, ४९९, भू. ९०, म० ) ४५, ५९, ९०, १३७, १२९, १३०, १३७. ३६० भू. १५६.
| कोलत्तूरसंघ ३३, २०३, २०६ भू. कुक्कुटेश (बाहुबलि ) ८५, १३०, | १४७. १३८, ४८६.
कौमारदेव ४०. कुन्दकुन्दाचार्य (कोण्डकुन्द०) पद्म- क्षत्रिकार्य भू० १२६.
नन्दि ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, क्षत्रिय १०५ भू० १२६. ७२, १०५, १०८, ४९२ भू. १२७-१२९, १३३, १३४, १३८ | गङ्गदेव १०५ भू. १२६. १४०, १४४.
गच्छ १०५. , जिनचन्द्र के शिष्य भू० १२८. | गण १०५. कुमारदेव-अविद्धकर्ण पद्मनन्दि ४०. गणधर ५०, १०५. कुमारनन्दि २२७ भू० १५२.. गणभृत् ( उ०) भू० १४१.
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१५५.
।
७२.
गण्डविमुक्त, माघनन्दिके शिष्य, ४०, | बाहुबलि ४५, ५९, ८०-९६, २४१, ३६८, ३६९, भु० १३२, १०३, १०५-१०७, ११०, ११३,
११५, ११८, ११९, १२२, गण्डविमुक्त म. कुक्कुटासन म०, १३१, १३४, १३७, १४०,
दिवाकरनन्दिके शिष्य ४३. १४३, ३१६, ३२२, ३२९, गण्डविमुक्त गौलमुनि-म० हेमचन्द्र, ३३०, ३५६, ३५७, ३५९, ५५, भू० १३३.
३६०, ४१७, ४२१, ४२४, गण्डविमुक्त ( वादि चतुर्मुख रामचन्द्र) ४३३, ४३६, ४५४,४८६.
देवकीर्तिके शिष्य, ४० भू० ११२. | गृद्धपिञ्छ ४०,४२,४३, ५०, १०५, गण्डविमुक्त सि० दे० ५०० भू० ३९, १०८, २२९ भू० १४०.
९३, ९४, ११०, ११८, १५३. | गोपनन्दि, चतुर्मुखके शिष्य ५५, गुणकीर्ति ३० भू० १५१.
४९२ भू० ५३, ७५, ८७, १३३, गुणकीर्ति १०५.
१४२, १५३. गुणचन्द्र (भद्र) ४२, ५५, ७०, ९०, गोम्मटसारवृत्ति ( अभयचन्द्रकृत) भू०
१२४, १३७, ४९१, ४९४, भू. ९६, ९७, १३३, १४६. गोम्मटेश्वरचरित (अनन्तकविकृत) भू० गुणचन्द्र ४३१ भू. १५९. ... २३, २७, ४८, १०७. गुणचन्द्र म० दे०, शान्तीश के शिष्य, ! गोल्लाचार्य ४०, ४७, ५०, भू० १३१, __ भू. ८२.
१३२, १४२. गुणदेव ४७७.
गोवर्धन १, १०५, भू. ५६, ५७, गुणदेवसूरि १६० भू० १५१. ६०, ६२, १२५. गुणनन्दि, बलाकपिञ्छके शिष्य ४२, गौतम १, ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, ४३, ४७, ५०, १०५.
५४, १०५, १०८, ४३८, ४९३, गुणभद्र, जिनसेनके शिष्य १०५ भू० भू० ६२, १२९-१३१, १३६,
१३८. गुणभूषित २१ भू० १५०.। गौलदेव, "मुनि-म० हेमचन्द्र, गोपगुणसेन ९, ५४ भू० १४०, १५०. | नन्दिके शिष्य, ५५. गुप्तिगुप्त भू० ६५, १२८. गुम्मट, देव, नाथ, "स्वामी, "टेश्वर, चतुर्मुख (वृषभनन्दि) ५५, ४९२,
गोमट, देव, "टेश, "टेश्वर इत्यादि= भू० ११३.
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चतुर्मुखदेव ५४ भू० ११२, १४०, चारुकीर्ति श्रुतकीर्ति के शिष्य, १०५,
१४३.
१०८, ३६२, ३७७, भू० १००, १३५, १६१.
चतुर्मुख भ० ११३ भू० १३७. चन्द्रकीर्ति ४२, ४३, ५४, ९३,
चारुकीर्ति गुरु भू० १०६. चारुकीर्ति पं० ११८.
चारुकीर्ति पं० ८४, ४३३, ४३४
भू० ३४, ४१, ४८, ५२, १६१, १६२.
चन्द्रगुप्त १७, ४०, ५४,
१०८,
भू० ५४-७०, १३०, १३१, चारुकीर्ति पं० १४२, १६१. चावुण्डराज ( देखो चामुण्ड ) ७५,
१०५, १०६, २२५, २३८, भू० ११७, १२१, १३९,
१५३,
१५८, १५९.
१३८, १४९.
९८, १०९.
चन्द्रदेवाचार्य ३४ भू० १५१. चन्द्रनन्दि, गोपनन्दिके शिष्य, ५५ चिकुरापरविय गुरु १६२ भू० १५१. चिक्क नयकीर्तिदेव ४५४. चन्द्रप्रभ, हिरिय नयकीर्ति के शिष्य, चिदानन्द कवि ( मुनिवंशाभ्युदयकर्ता) भू० २७, ४५, ५९, १०५. चिन्तामणि काव्य ( चिन्तामणिकृत )
भू० ११३.
८८, ८९, ९६, १३७भू० १२०, १५८, १५९.
चन्द्रभूषण १०५.
चन्द्राङ्क १०५.
चरितश्री ३ भू० १५०.
चामुण्ड, राज, राय, चावुण्डराय, ६७, ७६, ८५, १०५, २२३ भू० ९, १५, २३-२९, ३२, ३८, ४०, ४८, ७३, ७४, ७८, ९०, ९५, १०६, १०८, १०९, ११७.
चामुण्डराय पुराण भू० २८, ३२, ७३. चारुकीर्ति ७२, ४३५, ४३६ भू०
५४, भू० १३८.
चिन्तामणि ५४ भू० १३८. चूडामणि काव्य ( वर्धदेवकृत ) ५४ भू० १३८.
ज
जगतकरतजी = जगत्कीर्तिजी ३३१. जम्बुनायगर ( आर्यिका ) ५. जम्बू १, १०५ भू० ६०, ६२, १२५. जय १, १०५ भू० ६२, १२६. जयधवल ( ग्रंथ ) ४१४ भू० ४४. जयपाल १०५ भू० १२६, १२७,
१६२. चारुकीर्ति शुभचन्द्रके शिष्य ४१, ५३, भू० १३०, १५५.
छ
छंदःशास्त्र ( पूज्यपाद कृत ) ४० भू०
१४१.
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जयभद्र १०५ भू० १२६, १२७.
जलजरुचि १०५.
जसकीर्ति यशःकीर्ति, गोपनन्दि के त्रैकाल्ययोगी ४७३ भू० १५६. त्रैकाल्ययोगी गोल्लाचार्य के शिष्य ४०,
शिष्य, ५५, १३३.
जिनचन्द्र ५५, १०५ भू० १३३,
१४२ः
जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द के गुरु भू० १२८. जिनसेन ४७, ५०, १०५, ४२२ भू० २४, ७६, १३४, १६१. जिनेन्द्रबुद्धि - देवनन्दि ४०,
१०५,
१०८ भू० १४१.
जैनाभिषेक ( पूज्यपादकृत ) ४० भू०
१४१.
जैनेन्द्र ( व्याकरण पूज्यपादकृत ) ४०,
५५, भू० १४१.
ส
तगरिल गच्छ ५०० भू० १४८. तत्त्वार्थसूत्र ( उमास्वातिकृत ) १०५
S
भू० १४१.
तपोभूषण १०५.
तार्किक चक्रवर्ति उ० ४९६.
तीर्थद गुरु १२. त्रिदिवेशसंघ = देवसंघ १०५. त्रिभुवनदेव, देवकीर्ति के शिष्य, ३९,
त्रिलोकसार ( नेमिचन्द्रकृत ) भू० ३०. त्रिलोक प्रज्ञप्ति ( ग्रंथ ) भू० ३०.
४० भू० ९६, १५७. त्रिमुष्टिदेव, गोपनन्दि के शिष्य, ५५,
भू० १३३. त्रिरत्ननन्दि, माघनन्दि के शिष्य ५५,
भू० १३३.
४७, ५० भू० १३२, १४२. त्रैविद्य ४७, ५०, ५४, ५६. त्रैविद्यदेव ११४.
द
दक्षिणाचार्य = भद्रभाहु भू० ५९, ६०. दक्षिणकुक्कुटेश्वर = गुम्मट १३८. दयापाल, मतिसागर के शिष्य, ५४ भू०
भू० १४०.
शिष्य ) १२८, १३० भू० १५६. तत्त्वार्थसूत्रटीका (शिवकोटिकृत ) १०५ दामनन्दि, चतुर्मुखदेव के शिष्य, ५५,
१३९.
दयापाल पं० ( महासूरि ) ५४ भू०
१३९.
दर्शनसार ( देवसेनकृत ) भू० १४८. दामनन्दि, रविचन्द्रके शिष्य ४२,
४३, १०५.
दामनन्दि-दावनन्दि, (नयकीर्तिके
भू० १३३, १४२. दिण्डिगूरशाखा ४९६ भू० १४७. दिवाकरनन्दि, चन्द्रकीर्तिके शिष्य ४३,
१३९, भू० १५४.
देवकीर्ति, गण्डविमुक्तके शिष्य, ३९, ४०, १०५, भू० ५२, ९६, ११६, १३२.
देवचन्द्र ४०, १०५, भू० ६०. देवणन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि, पूज्यपाद, ४०,
१०५, ४५९ भू० ७२, १३२, १३४, १४१, १५३.
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देवश्री कन्ति (आर्यिका) ११३. धर्मभूषण, अमरकीर्तिके शिष्य १११ देवसंघ १०५, १०८ भू० १४५. भू० १३६. देवसेन ( दर्शनसार कर्ता) भू० १४८. धर्मभूषण शुभकीर्तिके शिष्य १११ देवेन्द्र (श्वे०) भू० १४३.
भू. १३६.। देवेन्द्र, गुणनन्दिके शिष्य ४२, ५०, धर्मसेन ७ भू० १२६, १२७, १५०.
५५, ४९२ भू० १३३, १५३. धवल (ग्रंथ) भू० ४४. देवेन्द्र, चतुर्मुखदेवके शिष्य ५५, भू० धृतिषेण १, १०५ भू० ६२, १२६. १३३.
ध्रुवसेन भू० १२६, १२७. देवेन्द्र विशालकीर्ति १११ भू० १३६. देशभूषण १०५.
नकुलार्य (लेखक) ५००. देसि, देसिग, देसियगण ४०-४३, नक्षत्र १०५ भू० १२६.
४५-५०, ५३, ५५, ५६, ५९, नन्दिगण, संघ, °आम्नाय, ४०, ४२, ६३, ६४, ७२, ९०, १०५, ४३, ४७, ५०, १०५, १०८, १०८, ११३, ११४, १२४, १३०, ४९३. भू० ६५, १२८-१३१, १३२, १३७, १३८, १३९, १४४, १३६, १४४, १४५-१४८. २२९, ३१७-३२०, ३२४, ३२७, नन्दिमित्र १०५ भू० ६०, १२५. ३६०,३६८,३६९,४२१, ४३०, नन्दिमुनीप २१७ भू० १५१. ४४६, ४७१, ४८६, ४८९, ४९१, नन्दिसेन २६ भू० १५१. ४९२, ४९४, ४९६, ४९९ भू० | नयकीर्ति, गुणचन्द्र के शिष्य ४२, ७०,
१३१, १३३, १३७, १४४. ७८,८१, ८५, ९०, ९६, १०४, द्रमिणगण ४९३ भू० १३६, १४८. १०५, १२२, १२४, १२,८१३०, द्रव्यसंग्रह (नेमिचन्द्रकृत) भू० ३२. । १३७, ३१७-३२०, ३२३-३२८ द्रुमषेणक १०५, भू० १२६, १२७. ४२६, ४९१, ४९४, ४९६,४९७,
भू० १३, ३५, ३७, ४५, ४६, धण्णे कुत्तारेवि गुरवि ( आर्यिका ) १०. ८९, ९६-९६, १११, १४६, धनकीर्ति २४३ भू० १५७.
१५५, १५६. धनपाल १०५ भू० १२८. नयकीर्तिदेव, हिरिय नयकीर्तिके शिष्य, धर्म १०५.
१२८, ४७५ भू० १५७. धर्मचन्द्र, चारुकीर्तिके शिष्य ११८ नयनन्दिविमुक्त ३०४ भू० ११८, १५२ . भू० १६१.
नमिलर, नविलूर, निमिटर व मयूरसंघ,
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________________
२७, २८, ३१, २०७, २१२, । पण्डिताय ८२, १०५ भू० ३८, १०४, २१५, २१८ भू० १४७.
११२, ११६. नवस्तोत्र ५४.
पण्डितेन्द्र १०८. नाग २५४ भू. १२६.
पद्मनन्दि=कुन्दकुन्द ४०, ४२, ४३, नागचन्द्र १०५.
४७, ५० भू. १२९, २३१. नागनन्दि' १०८.
पद्मनन्दि १०५, १९६ भू. १५२.. नागमति गन्ति ( आर्यिका ) २. पद्मनन्दि चन्द्रप्रभके शिष्य १३७ भू. नागवर्मकवि २९५.
१५९. नागसेन १४ भू० ११२, १२६, १५०. पद्मनन्दि त्रैविद्यदेवके शिष्य ११४ भू० नानार्थ रत्नमाला ( इरुगपकृत) भू० १०४.
पद्मनन्दि नयकीर्तिके शिष्य ४२, १२४, नीतिसार (इन्द्रनन्दिकृत ) भू० १४५, १२८, १३० भू. १५७. १४८.
| पद्मनन्दि शुभचन्द्रके शिष्य ४१ भू. नेमिचन्द्र १०५, १२९, १३७,४७९, ११२.
४९० भू० २६, ३२, ४०, ४८, पद्मनन्दि देव ४९८ भू० १५२.
१०६, १३४, १५८. | पद्मनाभपंडित, अजितसेनके शिष्य नेमिचन्द्र नयकीर्तिके शिष्य, ४२, १२२ | ५४ भु० १४०.
१२४, १२८ भू० १५७. पनसोगेबलि हनसोगेबलि भू. १४६, नेमिचन्द्र म० दे० ११३ भू. १३७. १४७. न्यायकुमुदचन्द्रोदय (ग्रंथ) भू० १४१. | परवादिमल्ल ५४, ४९५ भू० ८०,
१३९, १५८. पञ्चबाणकवि ८४ भू० २६, ३३,.१०५. परवियगुरु १६२. पट्टिनिगुरु ८ भू० १५०. परिशिष्टपर्व (श्वे० ग्रंथ) भू० ६६, ६७. पण्डित, चारुकीर्तिके शिष्य १०५, पाण्डु १०५ भू० १२६. १०८ भू० १३५.
पात्रकेसरि ५४ भू० १३८. पण्डितदेव, ११७, १३३, ३५५, ४२९, | पानपभटार ६ भू० १५०
४०४, भू० ४७, १६१. | पुत्र १०५ भू. १२५. पण्डितयति १०८ भू० ४६.
पुन्नाटसंघ भू. १४७ फु. नो. पण्डिताचार्य ४२८ भू० ४६, १०३, | पुष्पदन्त, अर्हद्वलिके शिष्य, १०५ भु०
। १२९, १३४.
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युष्पदन्त (महापुराणकर्ता ) भू० ७७. प्रभाचन्द्र मेघचन्द्र के शिष्य ४३,४४, पुष्पनन्दि १९७ भू० १५२. - ४७, ५०, ५१, ५२, ५३, ५६, पुष्पसेन ५४ भू० १३९.
६२, भू० ९२, ११६, १५४. पुष्पसेनाचार्य २१२ भू० १५२. प्रभाचन्द्र भट्टारक ९७ भू० १५९. पुष्पसेन सि० दे० ४९३ भू० १३७. प्रभाचन्द्र सि० दे० ५०० भू० ११०, पुस्तकगच्छ ४०-४३, ४५-५०,५३, १५३, १५६.
५६, ५९, ६३, ९०,१०५, १०८, प्रभावक चरित (श्वे. ग्रंथ) भू० १४३. ११३, ११४, १२४, १३०, १३२, प्रभावती (आर्यिका ) २७. १३७, १३८,१३९, १४४,३१७, प्रभासक १०५ भू० १२५. ३१८,३१९,३२०,३२४, ३२७, प्रोष्ठिल १, १०५ भू० ६२, १२६.. ३६८,३६९, ४२१,४२६, ४३०, ४४६, ४७१,४८६,४८९, ४९१, बलदेवगुरु, धर्मसेनके शिष्य, ७, भू० ४९४, ४९६, ४९९, भू० १३७, १५०. १४४, १४६.
| बलदेवमुनि, कनकसेनके शिष्य १५भू० पूज्यपाद देवनन्दि ४०, ४७, ५०, १४९.
५५, १०५, १०८ भू० १४१. बलदेवाचार्य १९५, भू० १५८. पूरान्वय ( श्रीपूरान्वय) २२० भू. | बलर (भट्टारक) १७४. १४७.
बलाकपिञ्छ, गृद्धपिञ्छके शिष्य, ४०, पूर्तिय गुरु ११५.
४२, ४३, ४७, ५०, १०५, पेरुमालु गुरु १०.
१०८, भू० १३१, १३४, १४०. पोल्लव्वे कान्तियर ( आर्यिका ) २४०. | बलात्कारगण १११, १२९ भू० १३५, प्रथमानुयोगशाखा ९८.
१३६, १४६. प्रभाचन्द्र चन्द्रगुप्त १ भू० ६२-६४. बालचन्द्र ( दखो अध्यात्मि°), नयकीप्रभाचन्द्र १०५.
र्तिके शिष्य, ४२, ५०, ६९, ८५, प्रभाचन्द्र चतुर्मुख के शिष्य, ५५ भू. १०४, १०५, १२२, १२४, १२८, ११२, १३३, १४२.
१३०, १८७, ३२३, ३२५, प्रभाचन्द्र नयकीर्ति के शिष्य ४२,१२२, ३२८, ४२६, ४९४, ४९६, भू. १२४, १२८, १३०.
३७, ९७-९९, १५६. प्रभाचन्द्र पद्मनन्दि के शिष्य ४० भू. बालचन्द्र, नेमिचन्द्र के शिष्य, १२९, १३२.
४७९, भू० ५२, १६०.
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बालचन्द्र, अभयचन्द्रके शिष्य, ४१ भू० । भद्रबाहुबलिस्वामी २४८. १३०.
भरत व भरतेश्वर ७५, ११५, ४३८. बालचन्द, माघनन्दिके शिष्य, ५५ भू० | भानुकीर्ति, गण्डविमुक्तदेवके शिष्य, ४० १३३.
भू०.१३२. बालसरस्वती उ०, ५५ भू० ८३. भानुकीर्ति, नयकीर्तिके शिष्य, ४२, बालेन्दु ( देखो बालचन्द्र, अभयच- ७०, १०५, १२२, १२४, १२८, न्द्रके शिष्य)
१३७, १३८, १४४, १८७, बाहुबलि (भुजबलि, दोर्बलि,) देखो २२९, ४९१, भू० ८८, ९५, गुम्मट ८५, ३६५.
९७, १५४, १५५, १५६. बाहुबलि चरित भू० २८, ३१. भानुकीर्ति, माघनन्दिके शिष्य, ४९९, बुद्धिल १,१०५ भू० ६२, १२६. भू. १५९. बृहत्कथाकोष (हरिषेणकृत ) भू० ५६. | भानुचन्द्र, त्रिभुवनराजगुरु, सि. च. बेल्गोलदगोम्मटेश्वर चरित भू. ५. ११३, भू० १३७. बोप्पण कवि ८५ भू० २२. भुजबलिचरित ( पञ्चबाणकृत ) भू० बोम्मणकवि ८४, १०१.
२३, २४, १०५. ब्रह्मगुणसागर, अमरचन्द्रके शिष्य, भुजबलि शतक ( दोड्डयकृत) भू० २३, ३३३, भू० १६१.
२६, ३२, ११०. ब्रह्मदेव (टीकाकार) भू० ३२. भुवनकीर्ति देव ३७२ भू० १६०. ब्रह्मधर्मरुचि अभयचन्द्र भ० ३३३ भू० भूतबलि, अहंद्वलिके शिष्य १०५ भू० १६१.
१२९, १३४. ब्रह्मरगसागर ३९४. भ.
| मङ्गराजकवि १०८ भू० ३८. भट्टाकलंक (देखो अकलंक) ५५, | मण्डलाचार्य उ० ५२, ८८, ८९, ११३. १०५, भू० १३४.
| मण्डितटगच्छ ११९ भू० ११९, १३८. भट्टारकदेव, नयकीर्तिके शिष्य, १२२.
मतिसागर, श्रीपालके शिष्य ५४ भू० भद्रबाहु (भद्राचार्य ) १, १७, ४०,
१३९. ५४, ७१,१०५, १०८, भू० १५, २४, ५४-६६, ६९, १२५,
| मयूरग्रामसंघ (देखो नमिलूरसंघ) २७, १२८, १३१, १३८, १४९.
२९ भु० १४७. भद्रबाहु चरित ( रत्ननन्दिकृत) भू० मयूर पिञ्छ १०८, ५८, ६०.
। मलधारि गण्डविमुक्त ४३, १३९.
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मलधारि देव ११३ भू० १३७. | महेन्द्रचन्द्र ५५ भू० १३३. मलधारि देव, श्रीधरदेवके शिष्य ४२, महेश्वर ५४ भू. १३८.... ४३.
माधनन्दि १०५ भू० १३४. मलधारि, नयनन्दिविमुक्तके शिष्य, माघनन्दि, कुमुदचन्द्र के शिष्य १२९. ३०४ भू० १५२.
| माघनन्दि, कुलचन्द्रके शिष्य ४० भू० मलधारि मल्लिषेण, अजितसेनके शिष्य, ११२, १३२. . .
५४, ४९३, ४९५ भू० ११६, माघनन्दि, कुलभूषणके शिष्य ४०, भू. १३७, १४०, १५८.,
१३०. मलधारि रामचन्द्र, अनन्तकीर्तिके शिष्य, माघनन्दि, गुप्तिगुप्तके शिष्य भू० १२८. ४१.
माघनन्दि, चतुर्मुखके शिष्य ५५ भू० मलधारि स्वामी १३८ भू० ९५.
१३३. मलधारि हेमचन्द्र, गोपनन्दिके शिष्य, माघनन्दि, चारुकीर्तिके शिष्य ४१ ५५ भू० १३३.
भू० १३०. मल्लिदेव २५१.
माघनन्दि, नयकीर्तिके शिष्य ४२, मल्लिषेण ४६१ भू० १५८.
१२४, १२८, १३० भू० १५७. मल्लिसेन भट्टारक १४६ भू० ११८, माघनन्दि, श्रीधरदेवके शिष्य ४२. १५२.
माघनन्दि भट्टारक, भानुकीर्तिके शिष्य मल्लिसेन, लक्ष्मीसेनके शिष्य २४७ भू० । ४९९ भू० १५९. १६०.
माघनन्दि व्रती ४९९ भू० १००. महदेव १९३ भू० १५१.
माघनन्दि सि. च. १२९ भू. १५९. महामण्डलाचार्य उ० ४०, ८९, ९६, माघनन्दि सि० दे० ४७१. १२९, १३० १३७, ४७५, ४७९, माणिकनन्दि १०५.
माणिक्यनन्दि, गुणचन्द्र के शिष्य ४२. महावीर १०५ भू० १२८.
माधव, देवकीर्तिके शिष्य ३५, ४० महावीराचार्य ( गणितसार कर्ता) भू० भू० ९६, १५७.
माधवचन्द्र, शुभचन्द्रके शिष्य ४१, महासेन ( देखो मासेन)
१४४ भू० १५५. महिधर १०५ भू० १२८.
मानकव्वे गन्ति ( आर्यिका ) १३९. महेन्द्रकीर्ति, कलधौतनन्दिके शिष्य | मासेन ऋषि ( महासैन ) १६१ भू. ४७, ५०.
१५१.
___
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________________
मुनिचन्द्रदेव, उदयचन्द्रके शिष्य १३७ | मौनीगुरु २, ९ भू० १४९. __ भू. १५९.
मौर्य १०५ भू० १२५. मुनिवंशाभ्युदय (चिदानन्दकृत) भू० २७, ४५, ५९, ६२, १०५. |
| यशोबाहु १०५. मूलसंघ ४०, ४१, ४३, ४५-५०, ५३, ५५, ५६, ५९, ६३, ६४,
यशःकीर्ति, गोपनन्दिके शिष्य ५५ भू० ९०, १०५, १११, १२४, १२९,
११२, १३३, १४३.
यशःपाल भू० १२६, १२७. १३०, १३२, १३७, १३८, १४४,
| यशोबाहु भू० १२६. २२९, ३१७, ३१८-३२०,३२४, ३२७, ३३२, ३६०, ३६८, ३६९,
यशोभद्र भू० १२६, १२७. ४२१, ४२६, ४३०, ४४६, ४७१, ४७३, ४८९, ४९१,४९२,४९४, रत्नकरण्ड श्रावकाचार (समन्तभद्रकृत) ४९९, ५०० भू० १०३, १२९, भू. ७६.
१३१, १३३, १३५, १३६, १४४. रत्ननन्दि, ललितकीर्तिके शिष्य भू.. मेघचन्द्र, गुणचन्द्रके सधर्म, ४२ ५८, ६०. मेघचन्द्र, नयकीर्तिके शिष्य, ४२. रत्नमालिका ( अमोघवर्षकृत)भू० ७६. मेघचन्द्र, बालचन्द्र के शिष्य, ४९६, | रविचन्द्र, कलधौतनन्दिके शिष्य ४२, भू. १५७.
४३, २३१. मेघचन्द्र, माघनन्दिके शिष्य, ५५ भू. | रविचन्द्र ५३ भू० १५५. १३३.
राघवपाण्डवीय (श्रुतकीर्तिकृत ) ४० । मेघचन्द्र, वीरनन्दिके गुरु ४१. । भू० १४३. मेघचन्द्र, सकलचन्द्र के शिष्य ४७,५०, राजकीर्ति ११९ भू० १६१.
५३, ५६, भू० ९१, ९२, ११६, राजावलिकथा ( देवचन्द्रकृत ) भू०
१५४. मेघनन्दि २१५ भू० १००, १५१. राज्ञीमति गन्ति ( आर्यिका ) २०७. मेरुधीर १०५ भू० १२८.
रामचन्द्र, बालचन्द्रके शिष्य ४१ भू० मेल्लगवासगुरु २३ भू० १५१.
१३०. मैत्रेय १०५ भू० १२५.
रामिल्ल भू० ५७. मौण्ड्य १०५ भू० १२५.
राय-चामुण्डराय १३७. मौनियाचारिय ३१ भू० १५१. रूपसिद्धि ( दयापालकृत ) ५४.
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लक्खणदेव २२२. लक्खन्दि, देवकीर्ति पं० दे० के शिष्य
व
वक्रगच्छ ५५, भू० १३३, १४६. वक्रग्रीव ५४, ४९३ भू० १३७, १३८. वज्रनन्दि ५४ भू० १३८.
वडदेव ५५ भू० १३३. वर्धमानदेव ५३ भू० १५५. वर्धमानाचार्य भू० ७५.
१३
३९, ४० भू० ९६, १५७. लक्ष्मीसेन, राजकीर्ति के शिष्य ११९,
भू० १६१.
लक्ष्मीसेनभट्टारक २४७. ललितकीर्ति, अनन्तकीर्तिके शिष्य भू०
३४, ५८.
विनीत १०५ भू० १२८.
लोह ( लोहार्य ) १, १०५, भू० ६२, विमलचन्द्र ५४ भू० १३९.
१२५, १२६, १२७.
वलि १०५.
वसुदेव १०५ भू० १२८.
वसुनन्दि १०५.
वादिकोलाहल ३, ५४, ४९३.
वादिगण १०५.
वादिचतुर्मुख उ० ४०.
वादिराज ४९३, ४९४, ४९५, भू०
८३, ९९, १३७, १५८. वादिराज, मतिसागर के शिष्य ५४, भू०
१३९, १४३.
वादिसिंह उ० भू० १४१. वादीभ कण्ठीरव उ० ५४.
वादीभसिंह ४९३. वायुभूति १०५ भू० १२५. वासवचन्द्र, चतुर्मुख देवके शिष्य, ५५
भू० ८३, १३३, १४३. विजय १०५ भू० १२६. विजयधवल ( ग्रंथ ) ४१३. विद्याधनञ्जय उ० ५४ भू० १३९. विद्यानन्द १०५.
विशाख १, १०५ भू० ५७, ५९, ६१,
६.२, १२६.
विशोक भट्टारक २०३ भू० १५२. विष्णु १०५ भू० ६०, ६२, १२५.. विष्णुदेव १, १२५.
वीर १०५ भू० १२८. वीरनन्दि, मेघचन्द्रके शिष्य, ४१, ५०. वीरनन्दि, महेन्द्रकीर्तिके शिष्य, ४७,
५०.
वीरसेन ४७, ५०.
वृषभगण ४७, ५०.
वृषभनन्दि ३१,५५, १८९ भू० १४९,
१५१.
वृषभप्रवर ९८.
वृषभसेन ४३८. वेट्टेडेगुरु १९.
वैद्यशास्त्र ( पूज्यपादकृत ) भू० १४२.
श
शब्दचतुर्मुख ५४ भू० ८३. शब्दावतारन्यास ( पूज्यपादकृत ) भू० .
१४२.
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शशिमति गन्ति ( आर्यिका) ३५. शुभचन्द्र, गं० वि० म० दे० के शिष्य, शाकटायन सूत्रन्यास भू० १४१. ४३, ४५-४९, ५९, ६३--६५, शान्तकीर्ति, अजितकीर्तिके शिष्य ७२ / ९०, १३९, १४४, ३६०, ४४६, भू० १६२.
४४७, ४८६, ४८९ भू० ४९, शान्तनन्दि २२४.
९१, ९२, १५३, १५५. शान्तराज पं०, भू० १९, २१, ३३. शुभचन्द्र, माघनन्दिके शिष्य, ४७१ शान्तिकीर्ति ११२, ११३ भू० १३७. । भू० ९८, १३०, १५८. शान्तिदेव ५४, ४९३ भू० ८६, १३७, | शुभचन्द्र, म. रामचन्द्रके शिष्य ४१ १४०.
भू. ११२. शान्तिनाथ, अजितसेनके शिष्य, ५४ श्रीकीर्ति १०५. - भू. १४०.
श्रीदेव १४५. शान्तिभट्टारकाचार्य ११३ भू० १३७. श्रीदेवाचार्य २१३ भू० १५२. शान्तिसिंग पं० ४९५ भू. १५८. श्रीधरदेव, दामनन्दिके शिष्य, ४२,४३. शान्तिसेन १७-१८ भू० ५६, १४९. | श्रीनन्याचार्य ४९३ भू० १३७. शान्तिसेनदेव ४९३ भू. १३७. | श्रीपाल ५४, ४९३, ४९५, भू० ८८, शान्तीश, गुणचन्द्र म के गुरुभू० ८२. | ___ ९९, १३७, १३९, १५८. शास्त्रसार ( ग्रंथ ) १२९ भू० १००. | श्रीपूरान्वय ( देखो पूरान्वय ) २२० शिवकोटि, आचार्य, सूरि, समन्त
| भू. १४७. भद्रके गुरु, १०५ भू० १३४, १४१.
श्रोभूषण १०५.
श्रीमति गन्ति ( आर्यिका ) १३९ शुभकीर्ति, चतुर्मुखदेवके शिष्य, ५५
श्रीवर्धदेव ५४ भू० १३८. भू० १३३.
श्रीविजय ५४, ४९३ भु० ७५, १३७, शुभकीर्ति, देवकीर्तिके शिष्य, ४० भू० | १३९. ११६.
श्रीविहार ( उत्सव ) ४३५, ४३६. शुभकीर्ति, देवेन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य, श्रीसंघ २२०. १११ भू० १३६. .
श्रुतकीर्ति, ४०, १०५, १०८ भू० शुभकीर्ति, बालचन्द्रके शिष्य, ५०, |
१३५, १४३. १८८ भू० १५५.
| श्रुतकेवलि ४०, ५४, १०५, १०८. शुभचन्द्र, देवकीर्तिके शिष्य, ४० भू० श्रुतबिन्दु ( चन्द्रकीर्तिकृत) ५४ भू०
१३९. .
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________________
श्रुतमुनि, अभयचन्द्रके शिष्य,
भू० ३८, १०४, १३५. श्रुतमुनि, पण्डितार्य के शिष्य, ५२ भू०
१६०.
श्रुतमुनि, सिद्धान्तयोगी के शिष्य, १०८,
भू० ११६, १३५. श्रुतसागर वर्णि ११६ भू० १६१. श्रुतावतार (इन्द्रनन्दिकृत) भू० १२७,
१२८.
१०५
स
सकलचन्द्र, अभयनन्दिके शिष्य ४७,
५०.
१५
सत्ययुधिष्ठिर ( चामुण्डरायकी उ० · ) भू० ७३.
सन्दिगगण २१ भू० १५०. सन्मतिसागर, चारुकीर्तिके शिष्य ४३५
४३६, ४५५-४५७ भू० १६२. सप्तमहर्षि ४०, ४२, ४३, ४७, ५०,
५४.
समस्त विद्यानिधि उ० भू० १४१. समाधिशतक ( पूज्यपादकृत ) ४० भू०
१४१.
सम्यक्त्वचूडामणि उ० ५३, ५६, ९०,
१०६, १३८, १४४, ३६०, ४२१, ४३०, ४८६, ४९१, ४९२, ४९३, ४९७, ४९९.
सम्यक्त्वरत्नाकर उ० ४३, ४४, ४७. सरसजनचिन्तामणि ( शान्तराजकृत )
• समन्तभद्र ४०, ५४, १०५, १०८,
भू० ५१, ९८, १५८.
४९३ भू० १३१, १३४, १३६, सातनन्दिदेव २२४ भू० १५३.
१३८, १४१.
सायब्बे कान्तियर (आर्यिका ) २२७. सारत्रय ( चारुकीर्तिकृत ) १०८. सिताम्बर = श्वेताम्बर १०५. सिद्धनन्दि ६३. सिद्धान्तयोगी, पंडितके शिष्य १००
भू० १९.
सर्वगुप्त १०५ भू० १२८. सर्वज्ञ १०५ भू० १२८. सर्वज्ञचूडामणि ८१.
सर्वज्ञ भट्टारक १५३ भू० १५१. सर्वनन्दि, चिकुरापदवियके शिष्य १६२
भू० १५१. सर्वार्थसिद्धि ( पूज्यपादकृत ) ४० भू० १४१, १४२.
सन्यसन, सन्यास, सल्लेखना, समाधि
१, ७, ८, १३, १४, २६, २९, ३८, ४४, ४७, ४८, ४९, ५१५४, १०५, १०८, १३९, १५५, १८६, २०७, ४६९, ४७९.
सम्पूर्णचन्द्र = रविचन्द्र, कलधौतनन्दिके
शिष्य ४२, ४३. सरस्वतीगच्छ भू० ६५. सागरनन्दि, शुभचन्द्रके शिष्य ४७१
भू० १३५. सिद्धार्थ १, १०५ भू० ६२, १२६. सिंगणन्दिगुरु, बेहेडेगुरुके शिष्य १९ भू० १५०.
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________________
सिंहनन्दि ५४, ३७४, ४८६, भू० सोमसेनदेव ३७१ भू० १६०. ७१, ७२, १३८.
स्थलपुराण (ग्रंथ) भू० २३, २७. सिंहनन्दिभट्टाचार्य ११३ भू० १३७. । स्थूलवृद्ध भू० ५७. सिंहनन्द्याचार्य ३७४, ४९३, भू० २६ | स्वामी ५४ भू० ८३. १३७, १६०.
स्वास्थ्यशास्त्र (पूर्जपादकृत) ४० भूक सिंहणायं १०५.
१४१. सिंहसंघ १०५, १०८ भू० १४५. सुजनोत्तंस-बोप्पकवि ८५.
हनसोगे शाखा ७० भू० १४६. सुधर्म १०५ भू० १२५-१२७. हरिषेण ( कथाकोषकर्ता) भू० ५६. सुभद्र १०५ भू० १२६.
हलधर १०५ भू० १२८. सुमतिदेव ५४ भू० १३८.
हिरिय नयकीर्ति ८९, ४५४, ४७५. सुमतिशतक (सुमति देवकृत) ५४.
हरिवंशपुराण भू० ३०, १२५, १२७. सुरकीर्ति ४३१ भू. १५८. सेनसंघ १०५, १०८.
हेमचन्द्राचार्य (श्वे० ) भू० ६६. सोमदेव भू० ७७.
हेमचन्द्रकीर्ति, शान्तिकीर्तिके शिष्य सोमचन्द्र ११३ भू० १३७
११२ भू० १६०. सोमश्री (आर्यिका) ११३. | हेमसेन ५४ भू० १३९.
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१७
अनुक्रमणिका २
१०:
,
इस अनुक्रमणिकामें जैन मुनि, आर्यिका कवि व संघादिको छोड़ शेष सब प्रकार के नामोंका समावेश किया गया है । नामके पश्चात् के अंकोंसे लेख- नंबर व भू० के पश्चात् के अंकोंसे भूमिका - पृष्ठका तात्पर्य है ।
इस अनुक्रमणिका में निम्नलिखित संकेताक्षरों का प्रयोग किया गया है ।
उ० = उपाधि | को० न० = कोङ्गाल्व नरेश । गं० न०-गंग नरेश | गं० रा० = गंग राजकुमार | ग्रं०= ग्रंथ । ग्रा० = ग्राम । चं० न० = चंगाल्व नरेश । चा० न०= चालुक्य नरेश । चामु ० = चामुण्डराय । चो० रा० = चोल राजधानी । चो० से०= चोल सेनापति । जा०=जाति । जै० मं०=जैन मंदिर । तृ० = तृतीय । दा० = दार्श - निक । दु०= दुर्ग | द्वि० = द्वितीय | न० = नरेश । नि० सर ० = निडुगल सरदार । नो० न०=नोलम्ब नरेश । पा० सर० पाण्ड्य सरदार | पु० पुरुष । पौ० ऋ० = पौराणिक ऋषि । पौ० न० = पौराणिक नरेश । प्र० = प्रथम | मं० = मंत्री | मै० न०=
1
1
I
1
मैसूर नरेश । मौ० न० = मौर्य नरेश । रा० न० = राष्ट्रकूट नरेश । रा० रा०=राष्ट्रकूट राजकुमार । रा० वं ० = राजवंश | वि० न० = विजयनगर नरेश । शै० न०= शैशुनाग नरेश | सर ० = सरदार | सरो० =सरोवर । से० सेनापति । स्था० =स्थान । हो० न० = होय्सल नरेश ।
अ
अकालवर्ष = कृष्ण द्वि०, रा० न०, भू०
७६.
अक्कनबस्ति = पार्श्वनाथ मंदिर भू० ४३, अडेयार राष्ट्र अदेयरेनाडु २. अण्णय्य पु० १७२ भू० ४८. अणितटाक स्था० ४२.
४४, ९७. अक्कव्वे, चन्द्रमौलि मं० की माता १२४
भू० ९७.
अक्षपाद दा० ५५.
अखण्डवागिल दरवाजा भू० ३८. अगलि, ग्रा० ९.
अगशाजी पु०, भू० ३७.
२
अग्रवाल जा० ३३८, ३४०, ३४६,
३४७ भू० १२०.
अजितादेवी चामु० की भार्या भू० २४.
अतकूर, ग्रा०, भू० १०९. अत्तिमब्बरसि, अत्तिमब्बे, स्त्री ५९,
१२४, १४४, भू० ९०. अदटरादित्य को० न० ४९८, ५००
भू० ११०.
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अदियम चो० से० ५३, ९०, १३८, | अल्ल, सर०, ३८. __३६०, ४८६, ४९३ भू० ९०. अवधदेश, भू० ११९. अध्याडिनायक पु० ७४.
अवरेहाल ग्रा० १२२. अनन्तपुर, जिला, भु० १११.
अशोक, न०, भू० ६८.
अहमदनगर भू० १०१. अन्दमासलु, स्था० २४.
अहितमार्तण्ड, उ० ३८. अन्धासुरचौव दु. ५६.
अंगडि, ग्रा० ३६१ भू० ८३. अन्याय ( एक टैक्स) १२८.
अंगरिक-कालिसेटि, पु० ३६१. अप्रतिमवीर उ० ४३४.
आइने अकबरी ग्रं॰, भू० ६८. अभ्यागते (एक टैक्स) १३७. आगरा नगर, भू० ११९. अमर, हुल्ल मं०के भ्राता १३८ भू० ९५. आचलदेवि, आचले, आचाम्बा, आचिअमोघवर्ष प्र०, रा. न०, भू० ७६. | यक-चन्द्रमौलि मं० की भार्या, अमोघवर्ष तृ० वद्देग, रा० न०, भू० १०७, १२४, ४२६, ४९४ भू० ७४, ७७.
४४, ९७, ९८. अम्मेले, ग्रा० ३६१.
आचलदेवि, हेम्माडिदेवकी भार्या १२४. अव्कनकट्ट, स्था० ५९.
आचाम्बिके, अरसादित्यकी भार्या,३५१. अय्यावोले, ग्रा० ६८.
आत्रेयस गोत्र ४३४. अरकेरे, ग्रा० १२० भू० १०९. आदितीर्थ, कुण्ड, १२३, ४५३. अर्कल्गुद तालुका, भू. १०९. आदिलशाह भु. १०१. अरसादित्य, मं० ३५१.
आनेयगोन्दि, ग्रा० १३६. अरिराय विभाड, उ० १३६. आर्ब, ग्रा० ८९. अरेगलबस्ति भू. ५१.
आलेपोम्मु ( एक टैक्स ) ४३४. अरेयकेरे, सरो० ५१.
आलेसुंक (एक टैक्स ) ४३४. अर्ककीर्ति, न० १०५.
आल्दुरतम्मडिगल, पु० १५५. अर्जुनशीतग्राम, ३८२.
आश्वलायन सूत्र, ग्रं० ४३४. अर्थर वेल्सली साहब भू. १८. | आहवमल,चान०५४ भू०८३, १४०. अहनहल्लि, ग्रा० ८३, ४८६. आहवमल्ल-सोमेश्वर, चा० न०,भू० ८४. अलसकुमार, पु० १७५ भू० ११७. अलाउद्दीन खिलजी भू० ८५. | इच्छादेवी, भुजबलिको रानी, भू० २४. अलियमारिसेहि, ८७.
| इनुङ्गुर, ग्रा० २३.
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इन्डियन एफेमेरिस, ग्रं०, भू०:२९, । राज,गंगराजके पिता (बुधमित्र) ३१.
४४, ४५, ५९, ९०, १४४, इन्दिराकुलगृह-शासनबस्ति ६५, भू० ३६०, ४८६, भू. ८९. १०, ९२.
एच, एचिराज बम्मके पुत्र, से० १४४, इन्द्र, राज, रा० न० ३८, ५७, १०५, भू० ८६, ९१. __ १०९, भू० ७२, ७६-७९. एचण, एचिराज-गंगराजके पुत्र ५९, इम्मडि कृष्णराज वडेयर,मै० न० ४३४. ६६, भू० ९. इरुगप, इरुगेन्द्र, इरुगेश्वर-हरिहर द्वि० एचब्बे, स्त्री. १४४.
के से०, ८२ भू० १०४. एचलदेवी, हो०रा० ९०, १२४ भू० इरुङ्गोल, नि. सर०, ४२, १३८ भू. ९६. १११.
एचलदेवी, हो• रा० १२४, १३७, इरुवे ब्रह्मदेव मंदिर भू० १४.
१३८, ४९०, ४९३, ४९४ भू० इस्थान पेठ, ग्रा० ३४०.
एचिराज, से०, भू० ९१. उघेरवाल-वघेरवाल जा० ११४. एचिसेट्टि, पु० ८६, ३६१. उच्चङ्गि, उच्छङ्गि, दु०, ३८, ५३, ५६, एडवलगेरे, सरो०, १२९, १३०, ९०, १२४, १३०, ४३१, ४९४ एनूर, स्था०, भू० ३४.
एरग, एरेयङ्ग, हो० न०, ५६, १४४. उज्जैन (नगर) १ भू०५७,५८, ६२. एरडुकट्टे बस्ति, भू०, १०, १३, ९१. उत्तनहल्लि, ग्रा०, ८३.
एरम्बरगे, देश, १३० भू० ९७. उत्तेनहल्लि, ग्रा० ४३४.
एरेगङ्ग (गंगराष्ट्र) भू० ७४. उदयविद्याधर, उ० ६१ भु० ७४. | एरेयङ्गएरग,होन० ५३,५६, १२४, उदयसिंग, पु० ३४८.
१३०, १३७, १३८, १४४, उदयादित्य, हो० न०, १२४, १३७, ४३२, ४९१-४९५. भू० ५३, ४९३, ४९४, भू० ८७.
८३, ८७.
एरेयप्प, गं० न०, भू० ७५. ऋषिगिरि चिकबेट्ट, ३४.
एरेव बेडेङ्ग, उ० ५७, भू० ७९.
एकोटि जिनालय, भू. १०३. ओडेय, पा० सर०, ९०, १२४, १३०. एच, राज, एचिग, एचिगाङ्क, एचि- | ओदेगल बस्ति भू० ४१.
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२०
ओम्मालिगेयहाल, स्था० ५१. कब्बिणदपोम्मु, एक टैक्स ४३४. ओरेयूर, चो• रा० ५००, भू० ११०, कमलपुर, कमुलपुर ११८, ४०५. १११.
कम्पिता, रानी १५२.
| कम्ब राजकुमार, गं० रा०,भू०७८,७९. कग्गेरे, ग्रा० ९० भू० ९६. कम्भय्य, रा०रा० ९९. कञ्चिनदोणे, कुण्ड, भू० १४. कम्मट, टकसाल ३२४. कटकसेसे (एक टैक्स) १३७. कम्ममेन्य लोहित गोत्र ४७०. कटवप्र= चिक्कबेट्ट २७-२९, ३३. करबध, स्था० ३४७. १५२, १५९, १८९ भू० ६३, ।
करहाटक, स्था० ५४ भू० १४१. ६४, ११६.
करिकाल चोल न०, भू० १११. कडवदकोल, कुण्ड १२४.
कर्कराज, रा० न०, भू० ७७, ८१. कडसतवाडि, ग्रा० ४५९, ४६०.
| कर्णाट, कर्णाटक, देश, ८३, १०६, कणाद, दा० ४९३.
___ ४३४, भू० ५९ कत्तले बस्ति भू. ५, १३, ९१.
कर्णाटक कुल ३५१. कदन कर्कश उ० ३८.
कलचुरि नरेश भू० ५०, ९८. कदम्ब, पु०, भू० १४.
कलन्तूर, ग्रा० १५९. कदम्ब, रा. वं० १३८, २८२, भू.
कलपाल, न० ५३, १३८. १०८.
कलले, स्था० ३२८. कदम्बहल्लि, ग्रा०, भू. १०३. कलस, ग्रा० ४३४. कदिक वंश ३२२.
कलिगलोल्ाण्ड, उ० ५७, भू० ७९. कन्खरी, वादित्र ४०७, ४०८.
कलिङ्ग, देश १३८, ४९९. कन्दाचार, सिपाही ९८.
कलिदुर्ग गामुण्ड, पु० २४. कन्नेगाल, स्था०, भू० ८२, ९०,९१.
| कल्कणिनादु, प्रदेश ५३, ५६. कन्ने बसदि, जैनमंदिर ११५.
कल्कि , चतुर्मुख, न०, भू. २९-३१. कन्नौज, नगर,भू० ७६.
कल्बप्पु, कब्बप्पु, काल्बप्पु-चकबेट ३, कपिल, दा० ३९.
२३, २४, ३४, ३५, ४७, १५४, कब्बालु, ग्रा० ४३३, ४३४.
१६०,१६१,१७२, १९०, २००, कबाले, प्रा० ८३ भू० १०७.
२२७, भू. ५५. कब्बप्पुनाडु, प्रदेश, ५१, ४९२. कल्याणि, सरो०, भू० ४८, १०६.
कब्बादुनाथ अरुवण, स्था० १३७. कल्लय्य, पु० ९३ भु. १२१.
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कल्याणी, चो० राजधानी भू० ८१. | कित्तूर कीर्तिपुर ७. कल्लहल्ल, एक नाला ५९.
किराज, जा० ३८. कल्लेह, ग्रा० १३६.
किरियकालन सेहि, पु० ४२४. कवट्ट, ग्रा० ३६.
किरिय चौण्डेय, पु० ८७. कंवाचारि, लेखक ५३.
किल्केरे, स्था० २४. कवि सेट्टि, प्र. ८९ भू. १२०.
कीर्तिनारायण, उ० ५७ भू० ७९. काञ्चीपुर ५४, ९०, १३८, ३६०, | कीर्तिवा , चा० न०, भू. ७५, ८०, ४८६, भू० ७६, १४१.
८१. काञ्चीदेश ४५५.
कुक्कुटसर्प ८५. काडलूर, ग्रा० २४.
कुन्थनाथ जिनालय, भू० १०५. काडारम्भ, एक टैक्स ३५३. कुम्भकोण, स्था० ४३५, ४५६,४५७. कादम्बरी ग्रं०(नागदेवकृत) भू० ११७. | कुम्मट, स्था० १३० भू० ९७. काड्डुवट्टि, पल्लव नरेशोंकी उ० ३८. कुम्बेयनहल्लि, ग्रा० ४९५.। कापुर जिला भू० ८३.
कुरुक्षेत्र ५३, ५६, ५९, ८३, ४८६. कान्यकुब्जनगर कन्नौज भू० ५९. कुर्ग नगर, भू० ८३, ११०. कापालिक ३८.
कुलोत्तुङ्ग चङ्गाल्व भट्टदेव, चं० न० काम, ( देखो नृप काम )
१०३ भू० १११. कामदेव, उच्छङ्गि सर० ४०, ९०, कूगेब्रह्मदेव बस्ति, भू. १२.
१२४, १३० भू० ११२. | कृष्ण (प्र०) रा० न०, भू० ७५. कामलदेवी, नागदेव मं० की पुत्री ४२ / कृष्ण (द्वि०) रा० न०, भू० ७६, ८०. १३०.
कृष्ण (तृ.) राज, राजेन्द्र, रा० न० कारकल, ग्रा०, भू. ३४.
३८, ५४,५७ भू० ७२, ७६-८०. कालत्तूर, स्था०, भू० ११६.
कृष्ण, नृप, 'राज, ओडेयर (प्र.) कालबाडिगे, एक टैक्स ४३४. मै० न० ८३ भू० ४८, १०७. कालब्बे, स्त्री, भू० ५२.
कृष्णराज ओडेयर (तृ०) मै० न० ९८, काललदेवी, चामु० की माता भू० २४. ४३३, ४३४,भु० २०, २१, ३३, कावेरी, नदी, ५९ भू० १०९. । ४७, १०७, १०८. काशी नगर ८४, ४३५, ४३६. कृष्णराज बहादुर वर्तमान मै० न०, भू० काश्यप गोत्र ९८, ११७.
३३, १०८. किकोरि, स्था० ४३३, ४३४. | कृष्णवेण्णा-कृष्णा नदी १३८.
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केतङ्गेरे, सरो० १२४. केतिसेट्टि पु० ९५, १०४,
३६१, भू० १२२.
केदार नाकरस सर० ४० भू० ११२ केहिल, एक नाला १२४. केम्पम्मणि स्त्री भू० ६. केम्बरेयहल, एक नाला १२४. केलियदेवी, केलेयब्बरसि, विनयादित्य हो० न० की रानी, १२४, १३७,
१०३ भू० ३६. कैटभ, एक राक्षस ३८. कोङ्ग जा० ५३, १४४.
कोङ्गनाडु, प्रदेश ११७. कोतराय रायपुर दु० १३८.
२२
कोपणपुर, स्था० ३२१.
१३०, कोयतूर, दु० ५३, ५६, १२४,१३७,
१३८, ४९४, भू० ८७.
केलङ्गेरे, प्रा० ४०, १३७ भु०७५,९६.
ख
केल्लहनहल्लि, ग्रा० ४८६. केशवनाथ, महादेव चं० न० के मं० खचरपति = जीमूतवाहन,
४९७, ४९९, भू० ९०.
कोटिपुर भु० ५६, ६०. कोहर, स्था० ९. कोट्टसा, स्था० ३७९. कोणेयगङ्ग, सर० ६० भू० ७४, ७७. फोपण, कोपल, ग्रा० ४७, १३७,
१४४, भू० ९६.
१३८, १४४.
कोलार, कुवलाल, राजधानी भू० ७१. कोलाल ग्रा० ५६.
कोलिपाके, स्था० ४०८.
कोल्लापुर = कोल्हापुर ४०, ४२२, ४७१. कोवल्ल, स्था० २४. कोविल श्रीरङ्गम् १३६.
कौण्डिन्य गोत्र ४०, ४३, ४५, ५९, ९०, १४४, ३६०, ४८६.
१३८. खण्डलि, वंश १२८, १३०.
खाण (एक टैक्स ) १३७.
कोङ्गलि, प्रा० ५६.
कोङ्गाल्व, रा० ० ५०० भू० ८३, खोटिगदेव, रा० न०, भू० ७७.
१०९.
ग
कोजु, प्रदेश ५६, १२४, १३०, गङ्ग, रा० वं० ३८, ४५, ५४, ५५,
१३७, १४४, ४९१, ४९४,
५९, ८५, १०९, १३७, १३८, १५१, १६३, २३५, ४६९, ४८६, भू० ७०-७५, ८४, १०९ १४२.
गङ्ग, गङ्गण, गङ्गराज, विष्णुवर्धनके से० ४३-४८, ५९, ६३, ६५, ७५, ७६, ९०, १३७, १४४, ३६०, ४४६, ४४७, ४७८, ४८६,
पौ० न०
खामफल, पु० ११९. खुसरो, ईरानका बादशाह भू० ८०. खेरामासा, पु० ३६३-३६५.
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भू० ६, १०, ११, ३६,
४९,
५०, ५४, ८२, ८८-९२, ९५, ९७, १०९.
गङ्गकन्दर्प, उ० ३८.
गङ्गगाङ्गेय, उ० ५७, भू०७९.
गङ्गचूड़ामणि, उ० ३८.
गङ्गडिकार, जा०, भू० ७१.
गङ्गण,
लेखक ५०.
गङ्गवावनी कोल, कु० ४५२. गङ्गमल्डल - गङ्गवाडि ५३, १४४,
गङ्गमण्डलिक, उ० ३८.
गङ्गरराय = चामु० ९०, ३६०. गङ्गरसिंग, उ० ३८.
गङ्गरोल्गण्ड, उ० ३८.
२३
१२४.
गङ्गाचारि, लेखक
४८६. गङ्गायी, स्त्री ३९५.
गडेगलाभरण, उ० ५७.
गङ्गवज्र, उ० ३८, ६०, भू० ७४, गुज्जवे, स्त्री ३६१
४७,
गण्ड नारायण सेट्टि, पु० ४८६. गण्ड भेरुण्ड, पौ० पक्षी ४३४. गण्डमार्तण्ड, उ० ३८.
गण्डराभरण, उ० ५३.
गनीराम, पु० ३४३.
गन्धवर्म, पु० २२०.
गरुड़ केशिराज, सर० ३७, भु० ११२
गर्ग, गोत्र ३४७, भू० १२०. गवरेसेट्टि, पु० १४३. गाडदेरे ( एक टैक्स ) १३८. गिरिदुर्गमल्ल, उ० १२४,४९४, भूळ
७७.
गङ्गवती, स्था० १०६. गङ्गचाडि = गङ्गमण्डल ४५, ४७, ५३,
५६, ५९, ९०, ११५, ३६०, ४३१, ४८६, ४९६, भु० ७५, ९०, ९४.
गङ्ग विद्याधर, उ० ३८.
गुम्मट, सर० ४०. गुम्मटदेव, पु० १०६. गुम्मटसेट्टि, पु० ३२१.
गङ्गसमुद्र, ग्रा० ५३, ८८, ८९, १४४,
४८६.
गुम्मण्ण, पु० ८४.
गङ्गसमुद्र, सरो० ५६, ९२, १०६, गुम्मसेट्टि, पु० ३५२, ३६१. गुरुकाणिके, एक टैक्स ४३४.
९७. गिरिधरलाल, पु० ३५९. गुजरात = गुर्जरदेश भू० ८१.
५३, ५४,
गुडघटिपुर, स्था० ४०४ भू० ११९ गुणमतियब्बे, स्त्री २१८. गुत्तिय गङ्ग, उ० ३८.
गुम्मटराजा, भू० ११२. गुप्तवंशी राजा भू० ३०.
गुर्जरदेश ३८, १२४, १३०, ४९१
भू० ७८.
गुलबर्गा, राजधानी भू० १०१. गुल्लकायज्जि स्त्री, भू० २६, २७,
३८, ३९.
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गेडेगलाभरण, उ०, भू० ७९. गेरवाल-वघेरवाल ११८, ११९, घट्टकवाट, स्था० १३८. ३८२.
घेरवाल बघेरवाल. गेरसोप्पे, स्था० ९७, ९९, १००
चक्रगोट, दु. ५३, ५६, १३८. १०२, १३४, १३५, ३३४ भू०
चगभक्षण चक्रवर्ती, उ० ३३७ भू०
८१. गेसाजी, पु०, ३८२.
चङ्गनाडु-हुणसूर तालुका, भू० १११. गोग्गि, सर० ३३७.
चङ्गाल्व, रा० ५० १०३, भू० ८४, गोणूर, ग्रा० ३८.
१०९, ११० गोदावरी नदी ५९.
चतुस्समयसमुद्धरण, उ० ५३. गोनासा, पु० ३८२, ३८३, भू० चतुर्मुख कल्कि, न०, भू० ३०. ११९.
चन्दले, चन्दाम्बिके, चन्दब्बे, नागदेगोम्मटपुर, श्रवण बेल्गुल ९२, १२८, वकी भार्या, ४२, १३०. १३७, १३८,४८६.
चन्दाचारिग ( लोहकार ) २८१. गोम्मटसेट्टि, पु० ८१, ३६१, भू० ९९. चन्दिकब्बे-चन्दले ५३. गोम्मटेश्वर मूर्ति भू० १७.
चन्द्रप्रभ बस्ति, भू० ८. गोयिल गोत्र ३४०, ३४४, भू० १२०. चन्द्रमौलि, मं० १०७, १२४, ४२६, गोलकुण्डा, राजधानी, भू० १०१. ४९४, भू० ४४, ९७, ९८. गोल्ल देश ४०, ४७, ५०.
चरेङ्गय्य, पु० १४६, भू. ११८. गोविन्द, पु० ३९५, ४०४.
चलदग्गलि, उ० ५७. गोविन्द ( द्वि० ) रा० न०, भू० ७५. चलदङ्ककार, उ० ५७ भू० ९२. गोविन्द ( तृ. ) रा. ना०, भू. ७६, चलदङ्कराव, उ० १४३, ४९९, भू.
७८, ७९. गोविन्दवाडि, स्था० २४, ५३, ४८९, चलदुत्तरङ्ग, उ०, ३८. भू० ९१.
चलुवै अरसु, पु. ९८. गोविन्दसेट्टि, पु. ९७.
चाकिसेट्टि, पु० ३६१.
चागदकम्ब-त्यागदस्तम्भ ११० भू. गौड, गौल, देश १२४, १३०,
१३८, ४९१, भू० १४२. चागल देवी, नारसिंह प्र०, हो० न० की गौरश्री कन्ति, स्त्री ११३.
रानी १३८.
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चागवे हेग्गडित्ति, स्त्री ३६१. भू० ५, ३३, ४५, ४८, १०६, चामगट्ट, ग्रा० १२४.
१०७. चामराज नगर, भू. ७८.
चिक्कदेवरायकल्याणि, कुण्ड, ४३३. चामराज ओडेयर (९) मै० न० चिक बस्ति १३४ भू० १२२. २४४, २४५, ४३४, भू० १०५, चिकबेट (चन्द्रगिरि) ४११.
चिक्कमदुकन, पु० ८८ भू० १२०. चामराज ओडेयर (६) मै० न० ८४, चिगदेवराजकल्याणि, कुण्ड, ८३. १४०, ४३३.
चित्तूर, ग्रा० २. चामुण्ड व्यापारी ४९.
चेगिरि, दु० ५३,१३८, १४४, ४९३. चामुण्डय्य, पु. ११८.
भू. ९०. चामुण्डराय बस्ति ४४२, ४७७, ४८१, | चेन्दव्वे, स्त्री १२४.
भू० ८, १३, १६, ७३. चेन्नण, चेन्नण्ण (°बस्तिनिर्मापक ), चामुण्डरायकी शिला, भू. १५.
१२३, ४४८-४५३,४६३-४६५, चामुण्डिका देवी ४३४.
४८०. भू० ४०, ४१. चारुदत्त वणिक ५३.
चेन्नण्ण काकुण्ड, भू० ४९. चार्वाक ( दर्शन ) ३९, ४०, ४९२. चेनण्ण बस्ति, भू० ४०. चालुक्य, रा. वं० ३८, ४५, ५४, ५५, चेन्नण्ण, पु० ८४. ५९, १२४, १३७, भू० ७५, चेनपट्टन, भू० १०६.
८०, ८७, ९०, ९१, १४३. चेर देश, ३८, १३८. चालुक्याभरण, उ० १४४, ४९२, चेलिनी रानी ६३. ४९७, भू० ८२.
चैत्यालय १३२, ४३०. चावराज, लेखक ४४, ४७.
चोल देश, ३८, ८१, ९०, १२४, चावुडय्य, पु. ९६.
१३०,३६०,४८६, ४९१,४९९, चावुडिसेट्टि, पु. ९९, १००, १०२.
५००, भू० ५९, ६१, ७१, ८१, चावुण्डय्य, पु० १६४, भू० ११७. चिकण, पु० ८७, १००, ४५३, ४६३,
| ८४, १०९. ४६५.
चोलकटकसूरेकाद, उ० ४९४. चिकूर, ग्रा० १६२.
चोलपेाडि न० ५४. चिक्कण्ण, पु. ८४, १३७, ३५२. चोलेनहल्लि ग्रा० १०७. चिक्कदेव राजेन्द्र ओडेयर, मैन० ४४४, | चौवीसतीर्थकर बस्ति, ११८ भू० ४१.
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________________
जीमूतवाहन, न० ५३. छन्दोम्बुधि, नागवर्मकृत, ग्रं०,भू०११७. | जीवापेट, स्था० ४०४.
| जैनमठ, भू० ४७. जक्कणब्बे, जक्कमब्बे, ( गङ्गराजकी | जैमिनि, दा० ५५, ४९२.
भावज ) ४३, ४४६, ४४७, भू० जोगव्वे, जोगाम्बा, बम्मदेवकी भायां, ५४, ९२.
४४, १३०. जकरसूरु होयसलसेट्टि, पु० ३६१. जविकटे, सरो०, भू. ४९. टाकरी लिपि, भू० ११९. जकिराज, हुल्लके पिता, १३८, भू० ९५. टामस साहब भू० ६७, ६८. जगदेकवीर, उ० ३८, १०९. जगदेव, तेलुगु सर०, भू० १०६. ठक, दे० ५४, भू० १४१. जगद्देव, चो० से. १३८. जत्तल, जत्तुलट ( योधा ) ४३, ५३. | तच्चूरु ग्रा० ४४०. जन्नवुर, ग्रा० १३७, १३८. तञ्जनगरम् , तजपुरी-तोर ४३६, जय, सिंह (प्र. ) चा० न० ५४ भू० ४३७, ४४१. ८३, १३९, १४३.
| तहगेरे, स्था० २४. जातिकूट, एक टैक्स, ४३४. तरिहल्लि, ग्रा० १३८. जातिमणिय, एक टैक्स ४३४. तरेकाडु-तलकाडु, दु. १३. जानकि, मङ्गप से० की भार्या, इरुगपकी तलकाडु, तलवनपुर दु० ४५, ५३, माता ८२, भू० १०४.
५६, ५९, ९०, १२४, १३०, जायसवाल, भू० ६८.
१३७, १३८, १४३, १४४, जिगणेकट्टे, सरो०, भू० ४६.
३६०, ४४५, ४८६, ४९१, जिननाथपुर, ग्रा०, भू० ५०, ५२. __४९३, ४९४, ४९७, भू० ७१, जिनचन्द्र, पु. ७१
७८, ९०. जिनदेव (ण) चामु० के पुत्र ६७, भू० तलेयूर, ग्रा० ५६, ४३१. ९, ७४.
तालीकोटा, युद्धस्थान, भू० १०१. जिननाथपुर, ग्रा० ४०, ८३, १३१, तावरेकेरे, सरो०, भू० ५२.
४६७, ४७८, भु. ८८, ९८. तिगुल तामिल, तिमिल, जा० ४५,५९, जिनवर्म, पु० ४०५.
९०, ३६० भू. ९०. जिननहल्लि, प्रा. ८३.
| तिप्पेसुङ्क, एक टैक्स, १३८.
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________________
२७
तिम्मराज, एनूर मूर्ति प्रतिष्ठापक, भू० ।
| दण्डि, कवि, ५४ भू. १३८. तिरिकुल, परिया जा०, १३६. दधीचि, पौ० ऋ० ४९. तिरुनारायणपुर मेल्कोटे, ग्रा० १३६. | दन्तिदुर्ग, रा० न०, भू० ७५, ८०,८१. तीर्थद बसदि, कलसतवाडिका जै० म० | दशरथ, पौ० न० १३८, भू. ४९३,
४५९, ४६०. तुङ्गबद्रि-तुगभद्रा नदी, १२३. दागोदाजि-जीर्णोद्धार ४३४. तुलुब, देश, ५३, १२४, १३०, | दानचन्द पुरवाल, पु. ३५८. १३७, ४९१, ४९४.
दानमल, पु० ३४५. तेयंगुडि, ग्रा० १८५.
दानशाले बस्ति, भू० ४५. तेरदाल, ग्रा०, भू० ११२
दाम-दामोदर, चो० से० ९०, ३६०, तेरिन बस्ति, बाहुबलि बस्ति, भू० ११, ४८६, भू० ९०, १०९. १३, ८८.
दासोज, मूर्तिकार, ५०, भू० ७. तेरेयूर, ग्रा० ५३, ५६, ४३१. दिण्डिक, दिण्डिराज, १५२, भू. तैल व तैलप, चा० न०, भू० ७७,८१, १११, १४९. ११५.
दिण्डिग गामुण्ड, पु० २४. तोण्ड, देश ५३.
दिलीप, नो० न०, भू० १०९. त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ-चागद,भू०४०. | दिलीप, पौ० न० ४९३. त्रिभुवन चूडामणि-मंगायिबस्ति १३२, | दीनदयाल, पु० ३४०, ३४१. ४३० भू० ४६.
दुर्विनीत, गं० न०, भू० ७२. त्रिभुवनमल्ल, उ० ४५, ५३, ५६, ५९, देमति, देमवति, देमियक-देवमति, स्त्री
६८, ९०, १२४, १३०, १३७, ४६, ४९ भू० ९१. ३६०, ४४५, ४८६, ४९१, देवकोट नगर, भू० ५६. ४९२, ४९७, ४९८, भू० ८२, देवगिरि, भू० ८१. ८९, ११०.
देवण कारीगर, ८५. त्रिभुवनमल्ल देव, पेमडि-विक्रमादित्य | देवणनकेरे, सरो० १२४.
(चतुर्थ ) चा० न० ४५, ५९, | देवर बेलुगुलु १४०. १४४, भू० ८२.
देवरहल्लि, ग्रा० १०७. त्रैलोक्यरञ्जन=बोप्पण चैत्यालय,भू० ९. देवराज प्र०, वि० न०, भू० ४६,. थिट्टगप्पान, स्था० १५७.
१०३.
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________________
देवराट, देवराय, द्वि०, वि० न० १२५, ध्रुव, रा० न०, भू० ७५, ७८, ७९.
भू. १०४, १०५. देवराजै अरसु, मं० ९८.
नकुलार्य, मं० ५००, भू० ११०. देवराय महाराज, भू० ४६, नगर जिनालय १०८, १२९-१३१, देवीरम्मणि, स्त्री भु० ६.
२५२, ४४३, भू० ४५. देशकुलकर्णि, उ०, ११६.
नङ्गलि, दु. ५६, १२४, १३०, १३० दोड कृष्णराज वडेयरैय (प्र. ) मै० १३७, १४४, ४९१,४९४ ४९७. न० ८६.
नजरायपट्टण, ग्रा० १०३, भू० ३६. दोडनकट्टे, ग्रा० १३३.
नदि (राष्ट्र) ३४. दोडदेवराज ओडेयर, मै० न०,भू०४५. नन्द, रा. वं०, भू. ६९. दोरसमुद्र-द्वारावती ९६, ४९१,४९४. नन्नि, नो० न०, भू. १०९. द्रोहघरट्ट, उ० ४४, ५९, ९०, १४४, | नरग, सर० ३८. ३६०, ४७८, ४८६.
| नरसिंग, सिंह वर्म, चो० सर. ९०, द्वारावती, द्वारावतीपुर (दोरसमुद्र) १३८, १४४, ३६०, ४८६, भू.
४५, ५३, ५६, ५९, ८१, ९०, | ९०, १०९. १२४, १३०, १३७, १४४, | नरसिंहाचार रायबहादुर, भू० ६३,७०. ३६०,४८६, ४९१-४९४, ४९७, नविलूर, ग्रा० २४. ४९९, भू० ८१, ८४, ८६. नहुष, पौ० न० ५६.
नाग, “देव, बम्मदेव मं० के पुत्र ४२, धनायी, स्त्री ११९.
१२२, १३०, १३७, ४९०. धरणेन्द्र शास्त्री पु० ४३५. नागकुमार, पौ० न०, भू० ४७. धरमचन्द, पु० ११८, भू० ४१. नागति, स्था० २९१ भू० ११८. धरमासा, पु. ३८६.
नागदेव, मं० बलदेवके पुत्र ५१, भू० धर्मस्तल धर्मस्थल ४३३.
१३, ४५, ९८. धर्मासा, पु० ३६५, ३७९. नागनायक सर० १४, भू. ११२. धवलसर, धवल सरोवर ५४, १०८, नागरनाविले स्था० ३६१. भू० १.
नागले, बूचण मं० की माता ४६, ४९. धारा नगरी ५५, १३८.
नागवर्म, नरसिंह मं० के नाती भू०७५. धूर्जटि ५४, ४९२, भू० १४१, नागवर्म, मूर्तिकार, २७२, भू० ११७, १४२.
११८.
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________________
नागवर्म, योधा २३५.
| नोलम्बराज, सर० १०९. नागवर्म, गंगराजके प्रपितामह व मार | नोलम्बवाडि, प्रदेश ५३, १२४, __ के पिता १४४, भू० ८९.
१३०, १३७, ४९१, ४९४. नागवर्म, से० बलदेवके पिता ५३. न्याय, एक टैक्स १२८. नागसमुद्र, सरो० १२२. नागियक, बलदेवके पुत्र, नागदेवकी | पञ्जाब देश, भू० ११९. भार्या ५१, ५२.
| पट्टणसामि, स्वामि, उ० १३०, ४८६, नामकाणिके, एक टैक्स ४३४.
४९० भू० ४५, ९८. नारसिंह, नृसिंह प्र०,हो. न. ४०,८० | पट्टदेसायिरु, एक टैक्स, ४३४. ९०, १२४, १३०, १३७, १३८, (पट्टिपेरुमाल, सर० ५३. ४९१, ४९३, ४९४, ४९९, भू०पडेवलगेरे, स्था० ८९.
४३, ८४, ८५, ९४-९७. पत्तिगे आय ३५४. नारसिंह द्वि०, हो० न०,भू०९९, १००. पदुमसेटि पंडित, भू० १०६. नारसिंह तृ०, हो० न०, भू० १००. पदुमसेहि, पु० ८१ भू० ९९, १०६. नासिक राजधानी भू. ७६.
पद्मरथ, पौ० न०, भू० ५६, ६०. निडुगल, रा० वं०, भू० १११. पद्मलदेवी, पद्मावती, हुल्लकी भार्या निम्ब, "देव, मं० ४० भू११२. १३७, ४९१ भू. ९६. नीरारम्भ, एक टैक्स ३५३. | पद्मावती बस्ति-कत्तले बस्ति, भू० ५. नील मं० ४२.
पम्पराज, अरसादित्यके पुत्र ३५१. नीलगिरि ५३,५६.
| परवादिमल्ल जिनालय, भू. ९९. नुडिदन्ते गण्ड, उ० ३८, ४४. परम, ग्रा० ४५, ५९ भू० १०, ९१. नूनचण्डिल, न० ४७,५०.
पल्लव, रा. वं. ३८, १२४, १३०, नृपकाम, हो० न०४४,भू० ८३, ८४, | ४९१ भू. ८०.
पल्लवाचारि, लेखक १५८. नेडुबोरे, ग्रा० ६.
| पाटलिपुत्र, नगर ५४ भू० ६०, १४१. नेमिसेटि, पु० ८६, २२९, ३६१ भू० पाण्डु, पौ० न० १३८. १२,८८.
पाण्ड्य, "देश, रा. वं. ३८,५३,५४, नेरिलकेरे, सरो० ५९.
१२४, १३०, १३७,४९१, ४९३, नोलम्ब, रा० ० ३८, भू० १०९. ४९४, ४९९ भू० ६१, ८३, ११२, नोलम्बकुलान्तक, उ० ३८, १७१. । १४०, १४३.
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________________
'पातालमल्ल, सर० ३८, १०९. पोम्बुच्च, पोम्बुर्च, दु० ५३,५६,१४४. पानीपथ ३३८, ३४०, ३४६, ३४७, पोय्सल, रा. वं. ५३, ५४, ५६, ३५८ भू० १२०.
२२९. 'पाभसे, दु. ३८.
पोय्सलसेष्टि, भू० १२, ८८. पार्श्वनाथ बस्ति भू० ४, १६, ६१, पौण्ड्रवर्धन देश, भू० ५६.
पौदनपुर, भू. २४, २६. पाशवारु, एक टैक्स ४३४.
प्रचण्ड दण्ड नायक, उ० ५२, ५३. पिट्ट, पिढग, योधा ५८ भू० ७९. प्रताप चक्रवर्ति, उ० ९०, ९६, १२८, पिरिय दण्ड नायक, उ० ४०.
१३०. पीतला गोत्र ३९३ भू० ११९. प्रताप नारसिंह-नारसिंह प्र०, हो. पु!यसेष्टि, भू० ५.
न० ३१६. पुन्नाट देश, भू. ५७.
प्रतापपुर, प्रा० ४०. पुरवर्ग, एक टैक्स ४३४. पुरवाल, जा० ३५८.
फ्लीट, डॉक्टर भू० ६३, ६५, ७०. पुरस्थान, स्था० ३२२. “पुरुरव, पौ० न० ५६.
बकापुर-चङ्कापुर ३८, ५५, १३७ भू. पुलाकेशी प्र०, चा० न०, भू. ८०. । ७२, ९६. पूर्णय्य, कृष्णराज तृ०, मै० न० के मं० । बङ्गलोर नगर, भू० ७१, ९३. ४३३ भू० १०७.
बडवरबण्ट, उ० २४९, २९८. पेजेरु हेमावती, राजधानी, भू० १११. | बनवसे (बनवासे ) दु०, व प्रान्त ३८, पेनुगुण्डे, ग्रा० ९४.
१२४, १३०, १३७, ४९१, पेरुमाल्कोविल काञ्ची १३६. __ ४९४, ४९६, ४९७. पेगल्वप्पु गिरि २४.
बनिय, बनिया, जा०, ३४७. पेर्जेडि, स्था० १३.
बम्म, देव, से० १४४ भू० ८९, ९२. पेल्वान, कुल २०८.
बम्मदेव मं० ४२, १२२,१२४, १३०. पेमडिचोल, भू० १०९.
बम्मेयनहल्लि, ग्रा० १२४, ४९४ भू० पोचलदेवि, पोचाम्बिका, पोचिकब्बे, | ४४, ९८.
पोचब्बे, गंगराजकी माता ४४, बम्मेय नायक से० १२४,३६१,४९४. ४५, ५९, ६४, ६५, ९०, १४४, बरहालकेरे, सरो०, १३७, १३८.
३६०, ४८६ भू० ६, ९१, ९२. बरार, प्रदेश, भू० १०१.
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________________
बर्बर देश १३८.
बारकनूर, ग्रा० ९४. बलगुल ( बेल्गुल) ४३४. बालकिसनजी, पु. ३३९, ३४०. बलदेव, बल्ल, बल्लण, मं० ५१-५३, बालादित्य, सर० २९६, भू० ११२, ३५१, भू. ३५,९३.
११८. बलि, बलीन्द्र, पौ० न० ५३,१३८. बालूराम, पु० ३४२. बलिपुर ५५, भू० ८२.
बास, पु० २६३, २७९, २९२. बलेयपट्टण, वट्टण, दु. ५६. बाहुबलि, पु० ३६१. बल्ल-बलदेव मं० ५१.
बाहुबलि बस्ति तेरिनबस्ति, भृ० १२. बल्लभ-वल्लभ रा० न० २४.
बाहुबलिसेटि, प्र. ७८, ८६, ३६१. बल्लाल,प्र०, हो० न० १०५, १०८, बिटेयनहल्लि, ग्रा० ३३०.
१२५, १३७, १४४, ४९१, ४९३ बिट्टिदेव-विष्णुवर्धन, हो० न० ५३, भू० ४८, ८४,८७, १००.
३१६. बल्लाल, वीर बल्लाल, द्वि०, हो० न० बिडिति, ग्रा० ३५६. ९०,१२४,१३०,४९४,४९५, भू० बिदर राज्य, भू० १०१. ४४ ४५, ५१, ८४, ८५, ९५, बिदियमसेट्टि, पु. ८६, ३२७. ९६, ९८, ९९.
बिन्दुसार, मौ० न०, भू० ६८. बल्लेय, से० ३१९, ३२०. बिम्बसार श्रेणिक मौ० न०, भू० ६८. बल्लेयकेरे, सरो० १३७, १३८. बिम्बसेट्टिमकेरे, सरो० १३७, १३८ बसदि, एक टैक्स, १३७.
बिरुदरूवारि मुखतिलक, उ० ४३,४४, बसविसेट्टि, पु० ७८, ८६, ८७,३१८, | ४७, ५३, ५९, ४८६.
३२७, ३६१५० ३६,३७, १२१. | बिरुदेन्तेम्बर गण्ड, उ० ४३४. बस्तिहल्लि, ग्रा. १०७.
बिलिकेरे, ग्रा० ९८. बहणिगे, ग्रा० ३६१.
बिल्हण कवि, भू० ८१. बहमनी राज्य भू० १०१.
बीजापुर राज्य भू० ८०, १०१. बागडेगे, ग्रा० ८५.
बीरञ्जन केरे सरो० १३७, १३८. बागणब्बे, स्त्री १४४, २५१. | बीररबीर, उ० ५७. बागियूर, ग्रा० ६१.
बुकण, से० ८२ भू० १०४. बाणारसि ( काशीपुरी) ५३, ५६, बुक्कराय, वि० न० ८२, १३६, भू. ५९, ८३, ११६.
१०१, १०२, १०४. बायिक, योधा ६१.
बुचानन साहब, भू. १८.
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________________
बूचण, बूचिमय्य, बूचिराज, मं० ४०, । बोम्मिसेटि, पु० ८४, १०४, १३७.
४६, ४९, ११५ भू० ९१, ११२. | बोम्यण, मं० ८४, १०३. बेक, प्रा० ९०, १०७, १२४, २१२, बोम्मण, बोम्यप्प कवि ८४ भू० १०५,
४७५, ४७७ भू० ९६, ९७. १०६. बेकनकेरे, सरो० १४४.
बोयिग, योधा ६०. बेगूरु, ग्रा० ३७०, भू० १२२. बौद्ध ३९, ४०, ४९२. बेंडिगे, एक टैक्स, ४३४. बौरिंग साहब, भू० १८. बेडुगनहल्लि, ग्रा० १३७, १३८. ब्रह्मक्षत्रकुल १०९ भू० ७३. बेक बेक, ग्रा० ५९, ४९१. ब्रह्मदेव मंदिर, भू० ४२. बेलगोल, बेलगुल, बेल्गोल, २४, ४४, | ब्रह्मदेव स्तम्भ, भू० ३७.
५६, ५९, ६७, आदि. बेलिकुम्ब, स्था० ४७९, भू. ५२. भगदत्त, पौ० न० ५३, २३५, ४९४. बेलुकरे, बेलुकेरे, स्था० ४१, भू० भगवानदास, पु० ३३८. ११२.
भण्डारि बस्ति भव्यचूडामणि १३७, बेलुगुलनाडु प्रदेश, ४८४.
४३५, ४३६, ४४१, ४५७, भू०४२, बेलूर राजधानी, भू० ८४.
४३, ४९, ९४, १०६. बैच, बैचप. से. ८२, १०४. भू. भण्डेवाड, ग्रा० ३६६.. १०४.
| भद्रबाहुकी गुफा, भु. १५, ५५. बैयण, पु. ३७० भू० १२२.
भरत, मय्य, ईश्वर, से० ४०, बैरोज, मूर्तिकार. ४७९, भू. ५२. ११५, ३६८, ३६९ भू० ३५, ३९,, बोकवे हेग्गडिति स्त्री ३६१. बोकिमय्य, लेखक ५३.
भरतेश्वर मूर्ति, भू० १३. बोकिसेट्टि, पु० ७८, ८६, ८७, ३६१. भल्लातकीपुर, भू० १०६. बोगाय्च, सैनिक ६०.
भव्यचूडामणि, उ० १३८. बोगार राज, सर० ४१.
भव्यचूडामणि भण्डारिबस्ति १३८, बोगेय, योधा ६०.
__ भू० ४३, ९५. बोप्प, °देव, से० १४४, भू० ४९. भाट्ट, दर्शन १०५. बोप्पण चैत्यालय त्रैलोक्यरञ्जन ६६, भाद्रपद, स्था०, भू० ५८. __ भू० ९.
| भानुदेव हेग्गडे, पु० ३२५,
९३, ११२
___
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________________
भारगवे, ग्रा० ३७७.
मनचेनहल्लि, ग्रा० १०७. भारतियक, स्त्री १३७.
मनसिज, न० २४. भारवि कवि ५५.
मनेदेरे, एक टैक्स १३८. भाषेगे तप्पुव रायरगण्ड, उ० १३६, मन्नार्कोविल, प्रा० ४३९. भीमादेवी, रानी ४२८ भू. ४६, मरियाने, से० ४०, ११५, भू० ९४, १०३.
११२. भुजबलवीरगङ्ग, उ. १३८, १४३, मरुदेवि माचिकब्बे २२९. __ ४९१, ४९४, ४९७.
मरुदेवी, स्त्री ३६१. भुजबलि ( बाहुबलि, गोम्मट) १०५. | मलनूर ग्रा० ८. भुजबलैय्य, पु०, भू० ५१. मलपर, मलेप, मलपरोल्पण्ड, पहाड़ी भूतराय, गं० न०, भू० १०९.
सर० ४५, ५३, ५६, ५९, १२४, भोज, न० ५५, भू. ३२, ३३, ११२ १३०, १३७, ४९२, ४९४, १४२.
४९७, ४९९, भू० ८३. भौतिक दर्शन ४९२.
मलप्रहारिणी नदी १३८.
मलनय, एक टैक्स १२८, १३७. मगध देश, भू० ६९.
मलयूर, स्था० ४३४, भू. १०७. मगर, राष्ट्र, ८१, ४९९.
मलिककाफूर, से०, भू. ८४. मङ्गप, बुक्कके से० ८२.
मलेगोल, स्था० २९७. मशामिबस्ति १३४ भू० ४६, १०३, मलेराज राज, उ० ४९९. १२२.
मल्लिदेव, नाथ, नागदेव मं० के पुत्र मङ्गलेश, चा० न०, भू० ८०.
४२, १३०. मज्जिगण्ण, पु०, भू० १०.
मल्लिनाथ, लेखक, ५४. मजिगण्ण बस्ति, भू० १०.
मल्लिषेण, पु. ४६१. मण्डलिक त्रिनेत्र, उ० ३८. मल्लिसेटि, पु० ६८, ८६, ८७, १२४, मण्णे मान्यपुर, भू० ७१.
१३०, ४१८, ४८६, भू० ३९, मत्तियकेरे, स्था० ९६.
११७.
महदेव, चं० न० १०३ भू० ३६. मदनेय, ग्रा०, भू० ४५.
महादेव पु० ८६. मधुरा पुरी १५८.
महानवमी मंडप, भू. १३. मधुवय्य, पु०, भू० ११८.
| महाप्रचण्डदण्डनायक, उ० ४३, ४४, मनरवत, एक टैक्स १३७.
४७,५१, १४४, ४४७.
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________________
३४
महासामन्ताधिपति, उ० ४३, ४४, | मारुहल्लि, ग्रा०, भू० ९७.
मारेयनायक, पु० ४९४.
मार्गेडेमल = पिडुग, सर० ५८ भू० ७९, मालव, देश, ५४, १३८, ४९९ भू०
४७, १४४.
महीपाल कन्नौज न०, भू० ७६. माकणब्बे, गंगराजकी मातामह, ४४,
४५, ५९, ९०, ३६०, ४८६ भू० ८९.
माचिकब्बे, पोय्सल सेट्टिकी माता, २२९ मासवाडिनाडु, प्रदेश, १२४. मुण्डा लिपि भू० ११९.
भू० ८८.
माचिकब्बे, शान्तलदेवीकी माता, ५०, मुत्तगदहोन्नहल्लि, ग्रा० १३३. ५३, ५६, भू० १२, ९३. मुदगेरे तालुका, भू० ८३. माचिराज, पु० ३५१, ४९७. माडगढ, माडवगढ, ३८२, ३८६, भू० | मुनिगुण्ड सीमे, प्रदेश, ११६.
मुद्राराक्षस, ग्रं०, भू० ६८, ६९.
११९, १२०.
७६, १४१.
मावन गन्धहस्ति, उ० ५८ भू० ७९.
४८६ भू० ८९. मार, सोवण नायकके पुत्र १२४. मारगौण्डनहल्लि, ग्रा० ८६. मारसिंग, "गय्य, शान्तलदेवी के पिता,
५३, ५६, ३११, भू० ९३, ११७. मारसिंग=गंगवज्र, गं० न०, भू० ७४. मारसिंह, गं० न० ३८, भू० १३, ७२, ७३, ८१, ७७-७९, ११७.
मुल्लूर, ग्रा० ४४, ५४, भू० ९०. मुहम्मद तुगलक, भू० १०१. मूडविद्री, ग्रा०, भू० ४४. मूलभद्र कुल, १२८, १३०. मेरुगिरि कुल ४७४.
माडिगूर, ग्रा० ११६.
माणिक्कदेव, सर० १०५ भू० ११२.
माणिक्य भण्डारि, उ० ४०, १२८. मातूर, वंश, ३८. मानगप, इरुगपके पिता, ८२ भू० मैगस्थनीज़, भू० ६७.
१०४.
मानभ पु०, भू० १५. मान्यखेट, न०, भू० ७६. मार, मारमय्य, गंगराजके पितामह ४४, ४५, ५९, ९०, १४४, ३६०,
मैसूर, मैयिसूर, महिसूर, महीसूर, ८३,
८४, ९८, १४०, ४३४, भू० ७१.
१०५, ११०.
मोट्टेनविले, ग्रा०, ५३, ५६. मोतीचन्द्र, पु० ३३७. मोनेगनकट्टे, ग्रा०, ४९६. मोरयूर, ग्रा० ४०८. मोसले, ग्रा० ८६, ८७, ३६१. मोरिङ्गेरे, स्था० ५१, भू० ९३. मौर्य, रा० वं०, भू० ६९.
य
यक्षराज, हुल्लके पिता, ४०,१३७,४९१.
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यगलिय, ग्रा. ८९.
राचेयनहल्लि, राचनहल्ल, ग्रा० १२९, यदु, पौ० न० ५६, १३७, १३८. ४९२, भू० ५३. यदु, कुल, ४३४, ४९९. राजकीर्ति, पु० ११९. यदुतिलक, उ० ४९३.
राजचूडामणि मार्गेडेमल, रा० न० इन्द्र यवरेगोत्र ११८.
चतुर्थके श्वसुर ५७, ५८ भू० ७९. यशस्वती, भरतकी माता, भू० २४. जमिणी भर यादव, कुल, ४५, ५३, ५६, ५९, | राजमार्तण्ड, उ० ५७, ४९७ भू० ७९.
८१, ९०, १२४, १३०, १३७, राजादित्य, चो० न०, भू० ७७. १३८, १४४, ३६०, ४८६,
राजादित्य, चा० न० ३८, भू० ८१. ४९१-४९५, ४९७, ४९९, भू० राजेन्द्र चोल, न०, भू० १०९. ८१, ११०.
राजेन्द्र चोल को० न०, भू० ११० यिरुगप-इरुगप, ८२.
राजेन्द्र पृथुवी, को० न० ५००. येरुकाणिके, एक टैक्स, ४३४.
राम, पौ० न० ४९९. योगन्धरायण, मं० १३८, भू० ९५.
रामचन्द्र पं०, पु० ३६१.
रामदेवनायक, सोमेश्वरके मंत्री १२८, रक्कसमणि-गंगवज्र ६० भू० ७४, ७७,
__ भू० ९९. ११७. रङ्गय्य, पु०, भू० ४२.
रामराय, वि० न०, भू० १०१. रट्टकन्दर्प, उ० ५७ भू० ७९.
रामानुज, वैष्णवाचार्य १३६, भू० ३४. रणरङ्गभीम उ० ४९४.
रामेश्वर, हिन्दू तीर्थ ८४. रणरङ्गासिंग उ० १०९.
रायपात्रचूडामणि उ० ४३०. रणसिंग, न० १०९.
रायरायपुर, दु. ५३, १२४, १३७. रणावलोक कम्बय्य, रा० न० २४, राष्ट्रकूट, रा० ०, भू० ७५, ८१. . रनचण्डिल, न०, भू० १४२.
रुग्मिणीदेवी, कृष्णकी रानी ५६. रत्नसागर पु. ४०३.
रूपनारायण बसदि-कोल्लापुरका जै० म० राइस साहब, भू० ६३, ६८. राक्षस, म०, भू० ६९.
रूवारि, लेखक ५४. राचनहल्लि, ग्रा० ८३.
रेचिमय्य, बल्लाल द्वि० के से० ४७१, राचमल्ल, देव, गं० न० ८५, १३७, २३९, भू. ९, २८, २९, ३२. भू. ५१, ९८.
| रोद्द, दु० ५३.
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ल
लक्कले, लक्कव्वे, लक्षिदेवि, लक्ष्मीदेवी, = गंगराजकी भार्या, ४५-४९, ५९,
३६
७४.
६३, भू० ११, ९१, ९२. लक्कि, स्त्री भू० १५. लक्किदोणे, कुण्ड, भू० १५.
वत्सराज, न० ५३, १४४, २३५, ४९४, ४९९, भू० ११८.
वनगजमल्ल, उ० ३८.
लक्ष्मण, हुलके भ्राता १३८, भू० ९५. वनवासि - वनवसे, राज्य ३८, १३८.
वरुण, ग्रा०, भू० ८२.
| वर्धमानाचारि, लेखक ४३, ४४, ५९. वलभ गोत्र ४०५.
वल्लभराज = कृष्ण द्वि०, रा० न०, भू० ७६.
लक्ष्मणराय, पु० ३४३. लक्ष्मादेवी, लक्ष्मीदेवी = विष्णुवर्धनकी
रानी १२४, १३७, १३८, ४९४, भू० ९४.
लक्ष्मीधर = लक्ष्मण, रामके भ्राता ५१. लक्ष्मीपण्डित, पु० ४३४.
लड्डू, डाक्टर, भू० ६३.
७
ललितसरोवर ७९ भू० ३५.
लंकापुरी १०९
लाडदेश १२४, १३०,४९१.
वल्लूर, ग्रा० १३८. वसुधैकबान्धव, उ० ४७१. वस्तियग्राम ८३.
वाजि वंश ४०, १३७, १३८ भू० ९५.
लाट= गुजरात, भू० ७६. लोकविद्याधर, पु० ६१, भू० ७४. लोकायत दर्शन ४९२.
वालापि = बदामी, राजधानी भू० ८०. वाराणसी = बनारस १३३, १४०, ४८६. वासन्तिकादेवी १२४, १३०, १३७.
लोकाम्बिका, हुलकी माता ४०, १३७, विक्रमाङ्कदेव चरित, ग्रं०, भू० ८१.
विक्रमादित्य, चा० न० ४९४ भू० ८०,
१३८, ४९१, भु० ९५.
लोकगुण्ड, ग्रा० ५३, १३०, १४४.
ल्यूमन साहब, भू० ६७.
व
वङ्कापुर = बङ्कापुर ५५.
वडिव, को० न०, भू० ११०.
वडव्यवहारि, उ० ८६, ३६१. वड्डेग, रा० न० अमोघवर्ष तृ० ६०, भू०
वज्जल, न० ३८.
वज्वलदेव, वज्विलदेव, चा०न० १०९
भू० ७८.
८१.
विजयनगर, भू० १०१. विजयमल, पु० ३५९. विनयादित्य, हो० न० ५४, ५६, १२४,
१३०, १३७, १३८, १४४, ४९१-४९५ भू० ८४-८७, ९४, ९८, १४०. विनेयादित्य-विनयादित्य, हो०न० ५३
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________________
विन्ध्यगिरि ३८.
वैशेषिक, दर्शन ३९. विराट पौ० न० १३८.
वैष्णव, सम्प्रदाय १३६, ४९२, भू० विलसनकट्ट, सरो० ५३, ५६.
१०२. विशाला ( राज्य ?) १. विशालाक्ष पंडित, मं०, भू. ३३. शकराजा, भू. ३०. विष्णु, वर्धन, होन०३३-४५, ४७, शङ्कर नायक, सर० ७३, १२०, २४९,
५०, ५२, ५३, ५६, ५९, ६२, भू. १०९. ९०, १२४, १३०, १३७, १३८,
| शत्रुभयंकर न० ५४. १४४, ३६०, ४४५, ४७८, ४८६,
शनिवार सिद्धि उ० १२४, ४९४, ४९१-४९५, ४९७ भू० ६, १०-१२, ३४, ३६, ४९, ५०, शबर, जा० ३८.
८२-९५, १००, १११. शम्भुदेव, चन्द्रमौलि मं०के पिता १२४ विष्णुभट्ट, भू० १४२.
भू. ९७.
शम्भुनाथ, पु० ३४४. वीरगङ्ग, उ० ४५, ५३, ५६, ५९,
'शरच्चन्द्र घोषाल, प्रो०, भू० २९. ___ ९०, १२४, १३०, १३७, ३६०, शशपुर-अंगडि, ग्रा० ५६, ४९९,भू० ४४५, ४८६, ४९३.
८३, ८४. वीर नारसिंह (द्वि० ) हो० न० ८१. शान्त-दण्डराज ४९९ भू० ९९. वीर नारसिंह ( तृ० ) हो. न. ९६. | शान्तवर्णि, पु०, भू. ३३. वीर पल्लवराय १२० भु० १०९. शान्तल देवी, बूचिराजकी भार्या ११५ वीर पाण्डय, कारकल मूर्तिके प्रतिष्ठा
भू० ९४. पक, भू० ३४.
शान्तला, शान्तलदेवी, विष्णुवर्धनकी वीर बल्लाल (द्वि०) हो० न० ९०, १०७, रानी ५०, ५३, ५६, ६२ भू.
१२४, १२८, १३०, ४९१, ११, ९२, ९३. ४९९.
शान्तिकब्बे, नेमिसेट्टिकी माता २२९ वीर राजेन्द्र पेटे, ग्रा० ४६८. ___ भू० १२, ८८. वेगूर, ग्रा० १५३.
शान्तिनाथ बस्ति भू. ७, ५०, ५१. वेल्गोल बेल्गोल १७-१८.
शान्तीश्वर बस्ति भू०१२, ४१, १०३. वेल्माद, ग्रा. ७.
शासनबस्ति-इन्दिराकुल गृह भू० १०, वैदिश, नगर० ५४.
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शाह कपूरचन्द पु० ३३७. । ४९२, ४९७. शाह हरखचन्द पु० ३३६. | सन्तोषराय, पु० ३४०, ३५०, शिकारपुर ग्रा०, भू० ८२.
समधिगतपञ्च महाशब्द, उ० ४३, ४४, शिबि, पौ० न० १३८.
४७, ५६, ९०, ११३, १२४, शिवगङ्ग, स्था० ५३ भू. ९३.
१३०, १३७, १४४, ३६०, शिवमार (द्वि०) गं० न० २५६ भू० ८, ४९२, ४९४, ४९७, भू० ८२, ७४, ७८.
११०, ११८. शिवमारन बसदि भू० ७४. समयाचार, एक टैक्स, ४३४. शिशुपाल, पौ० न० ३८.
सरावगी, जा० ३४०, ३५०, भू० शुभतुङ्ग, कृष्ण (द्वि०) रा०न०, भू०७६ १२०. शूद्रक, पौ० न० ४९४.
सर्पचूडामणि, पु. १३७. शैशुनाग, रा. वं०, भू० ६९. सर्वणन्दि, पु. १६२. श्रवण बेल्गुल ४३३, ४३४.
सल, हो० न० ४९४, ४९५, भू० ८३, श्रियादेवी, सिंगिमय्यकी भार्या, ५३. । ८५. श्रीकरणद हेग्गडे, उ०, ४०. सल्य, ग्रा० ५९, ४९३, ४९५, भू० श्रीकरण रेचिमय्य, मं० ४७१. श्रीधरवोज, मूर्तिकार, २४१, भू० सवणेरु, ग्रा० ८०, ९०, १३७, १३८, ११८.
३६१, भू० ९५, ९६. श्रीनिलय-नगर जिनालय, भू० ४५. सवतिगंधवारण बस्ति, ५३, ५६, श्रीपुरुष, गं० न०, भू० ८, ७१. __ भू० ११, ९२, ९३. श्रीपृथ्वीवल्लभ उ०, भू० ७६. सागर, ग्रा० १२४. श्रेणिक, न० ४३८.
साणेनहल्लि, ग्रा०, भू. ४९, ५४.
सावन्त बसदि, कोल्लापुरका जै० म० षड्दर्शनस्थापनाचार्य, उ०, ८४. ४७१. षड्धर्मचक्रेश्वर, उ० १४०. साविमले, गिरि, ५३.
साहस तुङ्ग (दन्तिदुर्ग, रा० न० ?) सगर, पौ० न० १२४.
__ ५४, भू० ७९, ८०, १३९. संग्राम जत्तलट्ट, उ० ४७, ५३, १४४. सिङ्गिमय्य, पु०, भू० ९३. सत्यमंगल, ग्रा० ९८.
सिद्धरबस्ति, भू० ३८, १०६. सत्याश्रयकुलतिलक, उ०, १४४, ( सिद्धरगुण्डु-सिद्धशिला, भू० ३९.
८८.
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५७.
सिद्धान्त बस्ति, भू० ४४.
हरदिसेटि, पु० ८६. सिरियादेवी, ५२.
हरिदेव, मं० ३५१. सिवमारन बसदि, भू० ८.
हरिय गौड, पु० १०६. सिवेय नायक, सर०, १२४. हरियण, पु० ८६. सिंगण, सिंगिमय्य, बलदेव मं० के पुत्र | हरियण, सर० १०५, भू. ११२. ५१-५३.
हरियमसेट्टि, पु. ३६१. सिंग्यप नायक, सर०४७७, भू० ११२.. हरिहर द्वि०वि०न० १२६, भू० १०१, सिंधु, देश, ५४ भू० १४१.
१०३, १०४. सिंहल, देश, ५५.
हर्विसेट्टि, पु० १३६. सिंहल नरेश, भू० ११२, १४३. हर्षवर्धन, न०, भू० ८०. सिंहसेन, चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र,भू०६१. हलसूर, ग्रा० ९५, भू० १२२. सुनन्दा, भुजबलिकी माता, भू० २४. | हलेबेल्गोल, ग्रा०, भू० ५३. सुपार्श्वनाथ बस्ति, भू० ८. हाडुवरहल्लि, ग्रा० १३७. सुप्रभा, चन्द्रगुप्त मौर्यकी रानी, भू० हाडोनहल्लि, ग्रा० १०७.
हानुङ्गल, दु० ५३, १२४, १३०, सेठ राजाराम, पु० ३४४.
१३६, ४९१, ४९७. सेनवीरमतजी, पु०, भू० ३७.
हाविसेट्टि, पु० ८७. सेरिंगपट्टम, भू० ५५,६२,१०६.
हारुवसेटि, पु० ८६, ३६१. सेवुण, न०, ४९९.
हानले साहब, भू० ६७. सोम, चन्द्रमौलि मं० के पुत्र, १२४.
हालज, पु० ४०६. सोमनाथपुर, ग्रा० ११७.
हामसा, पु० ३६६. सोमशर्मा, पुरोहित, भू० ५६. हिमशीतल, न० ५४, भू० ११२, सोमश्री स्त्री, भु० ५६.
__१३९. सोमेश्वर, सर० १२८.
हिरियण्ण, पु० ११७. सोमेश्वर-आहवमल्ल, चा०न०,भू०८४.
हिरिय जकियब्बेयकेरे, सरो० १२४, सोमेश्वर देव, हो० न० ४९९, भू० ९९, १००.
हिरिय दण्डनायक, उ० १४३, ४७८.
हिरिय भण्डारि, उ० ८०, ९०, १३८. हत्तिपोम्मु, एक टैक्स, ४३४. हिरिय माणिक्य भण्डारि, उ० १२८. हप्पलिगे कठघटा, ११५.
हिरिसालि ग्रा० १२१, भू० ४२.
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________________
हीरासा, पु० ३६४, ३६६, ३८२ | होनाल्लि, ग्रा० ४८४. ३८६, ३९३.
होनिसेट्टि, पु० ८७, ३६१. हुलिगेरे, ग्रा० १३१.
होनेनहल्लि, ग्रा० १०७. हुल्ल, राज, बल्लाल द्वि० के से०, ४०, होनेय, पु० ८७.
४२, ८०, ९०, १२४, १३७, होय्सल, रा. वं. ४४, ४७, १२४, १३८, ३१६, ४९१, भू० ४३, १२९, १३०, १३७, १३८,४९१, ७५, ९४-९७.
४९२, ४९४,४९५, ४९७,४९९, हुल्लघट्ट, ग्रा० १२४.
भू० ८१-८३, १०१. हुल्लुहण, एक टैक्स, ४३४. होय्सल सेष्टि, पु. ८६, ३६१. हुल्लेय, पु० ८७.
होयसलाचारि, लेखक, ४४. हेजेरु, ग्रा० ५३.
होल्लिसेहि, पु. ८६. हेडेजीय, पु. १४३.
होल्लेसेट्टि, पु० ३६१. हेमवती नदी, भू० १०९.
होसगेरे, सरो० ५९. हेम्माडिदेव, सर०, १२४,
होसपट्टण, ग्रा० १३६. हेगडेकण्न, पु०, भू० ४०.
होसवोललु, ग्रा. ८४. होनचगेरे, ग्रा० ९६.
होसहल्लि, ग्रा० ८३, ८४, ४३४.
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माणिकचन्द - दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाका सूचीपत्र
केवल संस्कृत - प्राकृत के ग्रन्थ ।
[ इस ग्रन्थमालाके तमाम ग्रन्थ लागत मूल्यपर बेचे जाते हैं, अतएव इसके सभी ग्रन्थ बहुत सस्ते हैं । ]
अनन्त
१ लघीयस्त्रयादिसंग्रह - ( १ भट्टाकलंक देवकृत लघीयस्त्रय कीर्तिकृत तात्पर्यवृत्तिसहित २ भट्टाकलंक देवकृत स्वरूपसम्बोधन, ३-४ अनन्तकीर्तिकृत लघु और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ) पृष्ठसंख्या २२४ | मूल्य | = )
,
२ सागारधर्मामृत - पं० आशाधरकृत, स्वोपज्ञभव्यकुमुदचन्द्रिका टीकासहित । पृष्ठसंख्या २६० ।
-
३ विक्रान्तकौरवीय नाटक - कवि हस्तिमल्लकृत | पृ० १७६ | मू0 17) ४ पार्श्वनाथचरित — श्रीवादिराजसूरिप्रणीत । पृ० २१६ । मू० ॥) ५ मैथिलीकल्याण – कविवर हस्तिमलकृत नाटक | पृ० १०४ । मू०|) ६ आराधनासार - आचार्य देवसेनकृत मूल प्राकृत और पण्डिताचार्य रत्नकीर्तिदेवकृत संस्कृतटीका । पृष्ठसंख्या १३२ । मू० । ) ॥
७ जिनदत्तचरित - श्रीगुणभद्राचार्यकृत काव्य । पृ० १०० । मू० ॥ ॥ ८ प्रद्युम्नचरित - परमार राजा सिन्धुलके दरबारी और महामहत्तर श्रीपपटके गुरु आचार्य महासेनकृत काव्य । पृ० २३६ ॥ मू० ॥ )
९ चारित्रसार - श्रीचामुण्डराय महाराजरचित | पृ० १०८ | मू० 17 ) १० प्रमाणनिर्णय श्रीवादिराजसूरिकृत न्याय । पृ० ८४ । मू० ।-) ११ आचारसार - श्रीवीरनन्दि आचार्यप्रणीत यतिधर्मशास्त्र । इसमें मुनियोंके आचारका वर्णन है । पृ० १०४ । मूल्य 17 )
१२ त्रिलोकसार - श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथा और माधवचन्द त्रैविद्यदेवकृत संस्कृतटीका । पृ० ४४० | मू० १ || )
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१३ तत्त्वानुशासनादिसंग्रह-(१ श्रीनागसेनमुनिकृत तत्त्वानुशासन, २ श्रीपूज्यपादस्वामीकृत इष्टोपदेश पं० आशाधरकृत संस्कृतटीकासहित, ३ श्रीइन्द्रनन्दिकृत नीतिसार, ४ मोक्षपंचाशिका, ५ श्रीइन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार, ६ श्रीसोमदेवप्रणीत अध्यात्मतरंगिणी, ७ श्रीविद्यानन्दस्वामिप्रणीत बृहत्पंचनमस्कार या पात्रकेसरीस्तोत्र सटीक, ८ श्रीवादिराजप्रणीत अध्यात्माष्टक, ९ श्रीअमितगतिसूरिकृत द्वात्रिंशतिका, १० श्रीचन्द्रकृत वैराग्यमणिमाला, ११ श्रीदेवसेनकृत तत्त्वसार (प्राकृत), १२ ब्रह्महेमचन्द्रकृत श्रुतस्कन्ध, १३ ढाढसी गाथा (प्राकृत), १४ पद्मसिंहमुनिकृत ज्ञानसार संस्कृतच्छायासहित।) पृष्ठसंख्या १८४ । मू० % )
१४ अनगारधर्मामृत-पं० आशाधरकृत स्वोपज्ञ भव्यकुमुदचन्दिकाटीकासहित । यह भी मुनिधर्मका ग्रन्थ है। पृष्ठसंख्या ६९६ । मूल्य ३॥)
१५ युक्त्यनुशासन-श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिकृत मूल और विद्यानन्दस्वामिकृत संस्कृतटीका । पृ० १९६ । मू० ॥-)
१६ नयचक्रसंग्रह-(१ श्रीदेवसेनसूरिकृत नयचक्र, २ आलापपद्धति और ३ माइल धवलकृत द्रव्य-गुणस्वभाव प्रकाशक नयचक्र) पृष्ठसंख्या १९४ । मू०॥)
१७ षट्प्राभृतादिसंग्रह-(१ श्रीमत्कुदकुन्दस्वामीकृत मूल षट्पाहुड और उसकी श्रुतसागरसूरिकृत संस्कृतटीका, २ श्रीकुन्दकुन्दकृत लिंगप्रामृत, ३ शीलप्राभृत, ४ रयणसार और ५ द्वादशानुप्रेक्षा संस्कृतछायासहित ।) पृष्ठसंख्या ४९२ । मू० ३)
१८ प्रायश्चित्तसंग्रह-( १ इन्दनन्दियोगीन्द्रकृत छेदपिण्ड प्राकृत छायासहित, २ नवतिवृत्तिसहित छेदशास्त्र, ३ श्रीगुरुदासकृत प्रायश्चित्तचूलिका, श्रीनन्दिगुरुकृतटीकासहित, ४ अकलंककृत प्रायश्चित्त ) पृष्ठ २०० । मू. १०)
१९ मुलाचार-(पूर्वार्ध), श्रीवट्टकेरस्वामीकृत मूल प्राकृत, श्रीवसुनन्दिश्रमणकृत आचारवृत्तिसहित । पृ० ५२० । मू० २॥)
२० भावसंग्रहादि-(१ श्रीदेवसेनसूरिकृत प्राकृत भावसंग्रह, छायासहित, २ श्रीवामदेवपण्डितकृत संस्कृत भावसंग्रह, श्रीश्रुतमुनिकृत भावत्रिभंगी और ४ आस्रवत्रिभंगी) पृ० ३२८ । मू ।)
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२१ सिद्धान्तसारादिसंग्रह - ( १ श्रीजिनचन्द्राचार्यकृत सिद्धान्तसार प्राकृत, श्रीज्ञानभूषणकृत भाष्यसहित, श्री योगीन्द्रकृत योगसार प्राकृत, ३ अमृताशीति संस्कृत, ४ निजात्माष्टक प्राकृत, ५ अजितब्रह्मकृत कल्याणालोयणा प्राकृत, ६ श्रीशिवकोटिकृत रत्नमाला, ७ श्रीमाघनन्दिकृत शास्त्रसारसमुच्चय, ८ श्रीप्रभाचन्द्रकृत अर्हत्प्रवचन, ९ आप्तस्वरूप, १० वादिराज श्रेष्ठी प्रणीत ज्ञानलोचनस्तोत्र, ११ श्रीविष्णुसेनरचित समवसरणस्तोत्र, १२ श्रीजयानन्दसूरिकृत सर्वज्ञस्तवन सटीक, १३ पार्श्वनाथसमस्यास्तोत्र, १४ श्रीगुणभद्रकृत चित्रबन्धस्तोत्र, १५ महर्षिस्तोत्र १६ श्रीपद्मप्रभदेवकृत पार्श्वनाथस्तोत्र, १७ नेमिनाथस्तोत्र, १८ श्रीमानुकीर्तिकृत शंखदेवाष्टक, १९ श्रीअमितगतिकृत सामायिकपाठ, २० श्रीपद्मनन्दिरचित धम्मरसायण प्राकृत, २१ श्रीकुलभद्रकृत सारसमुच्चय, २२ श्रीशुभचन्द्रकृत अंगपण्णत्ति प्राकृत, २३ विबुधश्रीधरकृत श्रुतावतार, २४ शलाकाविवरण, २५ पं० आशाधरकृत कल्याणमाला ) पृष्ठसंख्या ३६५ । मू १॥ )
२२ नीतिवाक्यामृत - श्रीसोमदेवसूरिकृत मूल और किसी अज्ञातपण्डित - कृत संस्कृतटीका । विस्तृत भूमिका । पृ० सं० ४६४ | मू० १ || )
२३ मूलाचार - ( उत्तरार्ध) श्रीवट्टकेरस्वामीकृत मूल प्राकृत और श्रीवसुनन्दि आचार्यकृत आचारवृत्ति । पृ० ३४० । मू० १॥ )
२४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार — श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्रकृत मूल और आचार्य प्रभाचन्द्रकृत संस्कृतटीका, साथ ही लगभग ३०० पृष्ठकी विस्तृत भूमिका ( हिन्दी में ) है, जिसमें स्वामी समन्तभद्रका जीवनचरित और मूल तथा टीकाग्रन्थकी निष्पक्ष तथा मार्मिक समालोचना की गई है । भूमिकालेखक बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार हैं जो इतिहासके विशेषज्ञ हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थकी पृष्ठसंख्या ४५० मू० २)
२५ पंचसंग्रह – माथुरसंघके आचार्य श्रीअमितगतिसूरिकृत । इसमें गोम्मटसारका सम्पूर्ण विषय संस्कृतमें श्लोकबद्ध लिखा गया है । प्राकृत नहीं जाननेवालोंके लिए बहुत उपयोगी है । पृष्ठसंख्या २४० । मूल्य || - )
२६ लाटीसंहिता — ग्रन्थराज पंचाध्यायी के कर्त्ता महान् पण्डित राजमलजी -- कृत श्रावकाचारका अपूर्व ग्रन्थ । पृष्ठसंख्या १३२ । मूल्य ।।)
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२७ पुरुदेवचम्पू-महापण्डित आशाधरके शिष्य कविवर्य अर्हद्दासकृत चम्पू ग्रन्थ । पं० जिनदासशास्त्रीकृत टिप्पणसहित । पृष्ठसंख्या २१२ । मू०॥)
२८ जैन-शिलालेखसंग्रह-श्रवणबेल्गोल (जैनबद्री) के तमाम शिलालेखोंका अपूर्व संग्रह, जो ४२८ पृष्ठोंमें समाया हुआ है। इसका सम्पादन अमरावतीके किंग एडवर्ड कालेजके प्रोफेसर बाबू हीरालालजी जैन, एम० ए० एल० एल० बी० ने किया है । प्रत्येक लेखका सारांश हिन्दीमें दे दिया गया है । भूमिका १६२ पृष्ठकी है जो बहुत ही विद्वत्तापूर्ण और कामकी है। सम्पूर्ण ग्रन्थ ६०० पृष्ठोंसे ऊपरका है। मूल्य २॥)
२९-३०-३१ पद्मचरित-(पद्मपुराण) आचार्य रविषेणकृत विशाल कथाग्रन्थ । यह तीन खण्डोंमें समाप्त होगा। पहला खण्ड प्रकाशित हो चुका है। मूल्य प्रत्येक खण्डका १॥)
सूचना-आगे अनेक बड़े बड़े और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंके छपानेका प्रबन्ध हो
रहा है।
नोट-यह ग्रन्थमाला स्वर्गीय दानवीर सेठ मणिकचन्द हीराचन्दजी जे० पी० के स्मरणार्थ निकाली गई है। इसके फण्डमें लगभग १२-१३ हजार रुपयेका चन्दा हुआ था जो कि प्रायः खर्च हो चुका है। इसकी सहायता करना प्रत्येक जैनी भाईका कर्तव्य है। जो सज्जन यों सहायता न कर सकें उन्हें इसके प्रकाशित हुए ग्रन्थ ही खरीद कर अपने घर और मंदिर में रखना चाहिए। यह भी एक तरहकी सहायता ही है। हमारे प्राचीन आचार्योंके बनाये हुए हजारों ग्रन्थ भंडारोंमें पड़े पडे सड़ रहे हैं। यह ग्रन्थमाला उन ग्रन्थोंका उद्धार करके सबके लिए सुलभ कर देती है, इस लिये इसको सहायता पहुँचाना जिनवाणी माताका उद्धार करना और जैनधर्मकी प्रभावना करना है। जो महाशय एक ग्रन्थके छपाने लायक या उससे भी आधा रुपया देते हैं, उनका फोटू ग्रन्थके भीतर लगवा दिया जाता है। नीचे लिखे पतेपर पत्रव्यवहार करना चाहिए।
नाथूराम प्रेमी, मंत्री, माणिकचन्द जैन-ग्रन्थमाला,
हीराबाग, गिरगाँव, बम्बई ।
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________________ पूर्व प्रकाशित ग्रन्थोंकी सूची [प्रत्येक गर लागत मात्र मूल्य पर बेचा जाता है / ] १लवीयवादसंग न्याय)।) 15 गुक्त्यरशासन (न्याय) 10-) गरधर्मामृता ) 16 नयना संग्रह ) 2 विकान्त-कौरवीय (नाटक)) 17 षट्प्रास्ता दिला. 3) 4 पार्श्वनाथचरित ( काव्य) // ) 18 प्रायश्चित्तसंग्रह 5 मैथिली-कल्याण (नाटक) / ) 11 मूलाचार सटीक (पूर्वाध)२॥) 6 आराधनासार // 20 गाव ग्रहादि 7 जिनकाव्य)॥ 21 सिताराम 8 प्रा.लि नामृत 10) 9 चारित्रसार र सटी 1.) 10 प्राणानिया ) २.नक डरपीक 15 संग्रह 11 25 लाटीसंहिता 12 त्रिलोक समीक१ // ) देवचम्पू 13 तत्त्वानु२. सादिसंग ) 28 प्राचीन शिलालेखसंग्रह 2) 14 अनगारपात 3 // ) 29 पद्मपुराण (प्रथमखंड) 1 // ) 21) 1 // ) 1. नोट-आगे और बड़े बड़े महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंके छपानेक' 5. रहा है। प्रत्येक को इसके ग्रन्थ मँगाकर सहागता लाहि / 100) सौ रुपाकर सहायता देनेवालों को सब ग्रन्थ में हैं। वेदक - नाराम प्रेसी, मंत्री, P , पो० गिरगाँव, बम्बई / Favale & Personal use only