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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । न्दरनेम्बुन्नतिथिं समस्त - भुवन प्रस्तुत्यनादं दिवाकरणन्दि - प्रतिनाथनुज्वलयशो विभ्राजिताशातटं ॥ १४ ॥ विदितव्याकरणद तर्कद सिद्धान्तद विशेषदि त्रैविद्यास्पदरेन्दी - धरेबणिपुटु दिवाकरणन्दिदेवसिद्धान्तिगरं । १५ । वरराद्धान्तिकचक्रवर्त्ति दुरितप्रध्वंसि कन्दर्पसि— न्धुरसिंहं वर - शील-सद्गुण - महाम्भोराशि पङ्कजपुकर- देवेभ-शशाङ्क-सन्निभ-यश-श्री-रूपना हो दिवाकरणन्दिनतिनिर्मदं निरुपमं भूपेन्द्रवृन्दार्चितं ॥ १६ ॥ ( पश्चिममुख ) वर भव्यानन - पद्ममुल्ललरलज्ञानीक नेत्रोत्पलं कोरगल्पापतमस्तमं परयलेत्त जैनमागमिलाम्बरमत्युज्वल मागलें बेलगिता भूभागमं श्रीदिवाकरर्णान्दवतिवादिवाकरकराकारम्बोलुब्बनुतं ॥ १७ ॥ यद्रक्तृचन्द्रविलसद्वचनामृताम्भःपानेनतुष्यतिविनेयचको - Jain Education International जैनेन्द्रशासन सरोवरराजहंसो जीयादसैौभुविदिवाकरणन्दिदेवः || १८ || अवर शिष्यरु || गडविमुक्तदेव मलधारि-मुनीन्द्ररपादपद्ममं कण्डोडसाध्य में नेनेद भव्यजनक्कम कोण्डचण्ड - दण्ड- विरोधि - दण्ड-नृप-दण्ड- पतत्पृथु-वज्रदण्ड-कोदण्ड- कराल-दण्डधर-इण्डभयं पेरपिङ्गि - पागवे ||१६|| For Private & Personal Use Only ४५ रवृन्दः । www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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