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________________ विन्ध्यगिरि १७ । १ गोम्मटेश्वर – यह नम, उत्तर-मुख, खड्गासन मूर्त्ति समस्त संसार की आश्चर्यकारी वस्तुओं में से है । सिर के बाल घुँघराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चौड़ा, विशाल बाहु नीचे को लटकते हुए और कटि किश्चित् क्षीण है । मुख पर पूर्व कान्ति और अगाध शान्ति है । घुटनों से कुछ ऊपर तक मीठे दिखाये गये हैं जिनसे सर्प निकल रहे हैं। दोनो पैरो और बाहुओं से माधवी लता लिपट रही है तिस पर भी मुख पर अटल ध्यान-मुद्रा बिराजमान है। मूर्त्ति क्या है मानो तपस्या का अवतार ही है । दृश्य बड़ा ही भव्य और प्रभावोत्पादक हैं। सिंहासन एक प्रफुल्ल कमल के आकार का बनाया गया है । इस कमल पर बायें चरण के नीचे तीन फुट चार इश्व का माप खुदा हुआ है । कहा जाता है कि इसको अठारह से गुणित करने पर मूर्ति की ऊँचाई निकलती है । जो हो, पर मूर्तिकार ने किसी प्रकार के माप के लिये ही इसे खादा होगा । निस्सन्देह मूर्त्तिकार ने अपने इस अपूर्व प्रयास में अनुपम सफलता प्राप्त की है । एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतल का विचरण कर ग्राइये, गोम्मटेश्वर की तुलना करनेवाली मूर्त्ति आपको कचित् ही दृष्टिगोचर होगी । बड़े-बड़े पश्चिमीय विद्वानों के मस्तिष्क इस मूर्त्ति की कारीगरी पर चक्कर खा गये हैं । इतने भारी और प्रबल पाषाण पर सिद्धहस्त कारीगर ने जिस कौशल से अपनी छैनी चलाई है उससे भारत के मूर्त्तिकारों का मस्तकं सदैव गर्व से ऊँचा उठा रहेगा । यह ख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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