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होयसलवंश
८३ जयसिंह नरेश ने ही कराई थी। इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि वासवचन्द्र ने अपने वाद-पराक्रम से चालुक्य राजधानी में बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी। लेख नं. ५४ (६७) में उल्लेख है कि वादिराज ने चालुक्य राजधानी में भारी ख्याति प्राप्त की थी तथा जयसिंह (प्रथम ) ने उनकी सेवा की थो (पद्य ४१, ४२) इसी लेख में यह भी उल्लेख है कि जिन जैनाचार्य को पांड्यनरेश ने स्वामी की उपाधि दी था उन्हें ही आहवमल्ल ( चालुक्यनरेश १०४२१०६८ ई०) ने शब्दचतुर्मुख की उपाधि प्रदान की थो। लेख नं० १२१ ( ३२७) व १३७ (३४५) में होयसल नरेश एरेयङ्ग चालुक्य नरेश की दक्षिण बाहु कहे गये हैं (पद्य नं. ८)।
४ हायसलवश-पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में कादुर जिले के मुगेरे तालुका में 'अंगडि' नाम का एक स्थान है। यही स्थान होयसल नरेशों का उद्गमस्थान है। इसी का प्राचीन नाम शशकपुर है जहाँ पर अब भी वासन्तिका देवी का मन्दिर विद्यमान है। यहाँ पर 'सल' नामक एक सामन्त ने एक व्याघ्र से जैनमुनि की रक्षा करने के कारण पोयसल नाम प्राप्त किया। इस वंश के भावी नरेशों ने अपने को 'मलपरोलगण्ड' अर्थात् 'मलपाओं' ( पहाड़ सामन्तों) में मुख्य कहा है। इसी से सिद्ध होता है कि प्रारम्भ में होयसलवंश पहाड़ी था। इस वंश के एक 'काम' नाम के नृप के कुछ शिलालेख मिले हैं जिनमें उसके कुर्ग के कोङ्गाल्व नरेशों से
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