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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख । __३३ (६३) ( लगभग शक सं० ६२२) एडेपरेगीनडे केय्दु तपं सय्यममान्कोलत्तूरसङ्घ ..। वडे कोरेदिन्तुवाल्वुदरिदिनेनगेन्दु समाधि कूडिए । एडे-विडियल्कवडिं कटवप्रवंएरिये निल्लदनन्धन पडेगमोलिप्प......न्दी-सुरलोक-महा-विभवस्थननादं । ["अब मेरे लिये जीवन असम्भव है" ऐसा कहकर कोलत्तूर संघ के......(?) ने समाधि-व्रत लिया और कटवा पर्वत पर से सुरलोक प्राप्त किया। ३४ (८४) ( लगभग शक सं० ६२२) स्वस्ति श्री अनवद्यन्नदि-राष्ट्रदुल्ले प्रथित-यशो...न्दकान्वन्दु..लाम् विनयाचार प्रभावन्तपदिन्नधिकन्चन्द्र-देवाचार्य नामन् उदित-श्री-कल्वप्पिनुल्ले रिषिगिरि-शिले-मेल्नोन्तुतन्देहमिकि निरवद्यन्न रि स्वर्ग शिवनिलेपडेदान्साधुगल्पूज्यमानन् । [नदिराज्य के यशस्त्री, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न चन्द्रदेव प्राचार्य कल्वप्प नामक ऋषिपर्वत पर व्रत पाल स्वर्गगामी हुए।] ३५ (७६) ( लगभग शक सं० ६२२) सिद्धम् नेरेदाद व्रत-शील-नोन्पि-गुणदि स्वाध्याय-सम्पत्तिनिम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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