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________________ अर १ मल्लि २ विन्ध्यगिरि मुनिसुव्रत २ नेमि २ नमि १ पार्श्व ४ Jain Education International वद्धर्मान १ बाहुवलि १ कुष्माण्डनि २ १ ( अज्ञात ) अधिकांश मूत्तियाँ ४ फुट ऊँची हैं । पाँच-छः मूत्तियाँ पाँच फुट, एक छ: फुट व दो-तीन मूतियाँ तीन साढे तीन फुट की हैं । एक चन्द्रप्रभ की व अन्तिम अज्ञात मूर्ति को छोड़कर शेष जिन मूर्तियों पर लेख हैं वे सब नयकीर्त्ति सिद्धान्तदेव और उनके शिष्य बालचन्द्र अध्यात्मि के समय की सिद्ध होती हैं । लेख नं० ७८ ( १८२ ) व ३२७ ( १७ ) से ज्ञात होता है कि नीति के शिष्य बसविसेट्टि ने यहाँ चतुविशति तीर्थकरों की प्रतिष्ठा कराई थी । पर केवल तीन मूर्तियों पर बस विसेट्टि का नाम पाया जाता है ( लेख नं० ३१७, ३१८, ३२७ ) । उपर्युक्त मूतियों में पद्मप्रभ तीर्थ कर की कोई मूत्ति नहीं है । चन्द्रप्रभ की एक मूर्ति पर मारवाड़ी में लेख है कि उसे ( विक्रम ) संवत् १६३५ में सेनवीरमतजी व अन्य सज्जनों ने प्रतिष्ठित कराई थी (३३१) । अज्ञात मूर्त्ति डेढ़ फुट की है । इस पर मारवाड़ी में लेख है कि उसे ( विक्रम ) संवत् १५४८ में गुशाजी जगद... ने प्रतिष्ठित कराई ( ३३२ ) । परकोटे के द्वारे पर दोनों बाजुओं पर छ: छः फुट ऊँचे द्वारपालक हैं । परकोटे के बाहर गोम्मटदेव के ठीक सन्मुख लगभग छ: फुट की ऊँचाई पर ब्रह्मदेवस्तम्भ है । इसमें ब्रह्मदेव की पद्मासन मूर्त्ति है । ऊपर गुम्मट है । स्तम्भ के नीचे कोई ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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