SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० श्रवणबेलगोल के स्मारक साहसतुङ्ग को सुनाया था ( पद्य नं० २१ ), और परवादिमल्ल ने अपने नाम की सार्थकता कृष्णराज को समझाई थी ( पद्य नं० २६)। ये दोनों क्रमशः राष्ट्रकूटनरेश दन्तिदुर्ग और कृष्ण द्वितीय अनुमान किये जाते हैं। ३ चालुक्यवंश-चालुक्यनरेशों की उत्पत्ति राजपुताने के सोलकी राजपूतों में से कही जाती है। दक्षिण में इस राजवश की नीव जमानेवाला एक पुलाकेशी नाम का सामन्त था जो इतिहास में पुलाकेशी प्रथम के नाम से प्रख्यात हुआ है। इसने सन् ५५० ईस्वी के लगभग दक्षिण के बीजापुर जिले के वातापि ( आधुनिक बादामी ) नगर में अपनी राजधानी बनाई और उसके आसपास का कुछ प्रदेश अपने अधीन किया। इसके उत्तराधिकारी कीर्त्तिवर्मा, मङ्गलेश और पुला. केशी द्वितीय हुए जिन्होंने चालुक्यराज्य को क्रमश: खूब फैलाया। पुलाकशी द्वितीय के समय में चालुक्यराज्य दक्षिण भारत में सबसे प्रबल हो गया। इस नरेश ने उत्तर के महाप्रतापी हर्षवर्धन नरेश की भी दक्षिण की ओर प्रगति रोक दी। इस राजा की कीर्ति विदेशों में भी फैली और ईरान के बादशाह खुसरो (द्वितीय) ने अपना राजदूत चालुक्य राजदरबार में भेजा। पुलाकशी द्वितीय ने सन् ६०८ से ६४२ ईस्वी तक राज्य किया। पर उसके अन्तिम समय में पल्लव नरेशों ने चालुक्यराज्य की नींव हिला दी। उसके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम के समय में इस वश की एक शाखा ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy