________________
श्रवणबेलगोल के स्मारक और उनके बनवाये हुए मन्दिर की तथा भद्रबाहु के चरणचिह्नों की पूजा करते हुए वहाँ रहे। कुछ कालोपरान्त दक्षिणाचार्य ने अपना पद चन्द्रगुप्त को दे दिया ।"
शक सं० १७६१ के बने हुए देवचन्द्रकृत राजावलीकथा नामक कन्नड ग्रन्थ में यह वार्ता प्रायः रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित के समान ही पाई जाती है। पर इस ग्रन्ध में और भी कई छोटी-छोटी बाते दी हुई हैं जो अधिक महत्त्व की नहीं हैं। यहाँ कथन है कि श्रुतकेवली विष्णु, नन्दि मित्र और अपराजित व पाँच सौ शिष्यों के साथ गोवर्धनाचार्य जम्बूस्वामी के समाधिस्थान की वन्दना करने के हेतु कोटिकपुर में आये । राजा पद्मरथ भी सभा में भद्रबाहु ने एक लेख, जिसे अन्य कोई भी विद्वान् नहीं समझ सका था, राजा को समझाया । इससे उनकी विलक्षण बुद्धि का पता चला । कार्तिक की पूर्णमासी की रात्रि को पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त को सोलह स्वप्न हुए। प्रातःकाल यह समाचार पाकर कि भद्रबाहु नगर के उपवन में विराजमान हैं, राजा अपने मन्त्रियों-सहित उनके पास गये। राजा का अन्तिम स्वप्न यह था कि एक बारह फण का सर्प उनकी ओर आ रहा है। इसका फल भद्रबाहु ने यह बतलाया कि वहाँ बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। एक दिन जब भद्रबाहु आहार के लिये नगर में गये तब उन्होंने एक गृह के सामने खड़े होकर सुना कि उस घर में एक झूले में झूलता हुआ बालक जोर-जोर से चिल्ला रहा है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org