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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता अपने सोलह स्वप्नों का फल पूछा। इनके फल-कथन में भद्रबाहु ने कहा कि यहाँ द्वादश वर्ष का दुर्भिक्ष पड़नेवाला है। इस पर चन्द्रगुप्त ने उनसे दीक्षा ले ली। फिर भद्रबाहु अपने बारह हजार शिष्यों-सहित 'कर्नाटक' को जाने के लिये दक्षिण को चल दिये। जब वे एक बन में पहुँचे तब अपनी प्रायु पूरी हुई जान उन्होंने विशाखाचार्य को अपने स्थान पर नियुक्त कर उन्हें संघ को आगे ले जाने के लिये कहा और आप चन्द्रगुप्ति-स हित वहीं ठहर गये। संघ चौड देश को चला गया। थोड़े समय पश्चात् भद्रबाहु नं समाधिमरण किया। चन्द्रगुप्ति उनके चरण-चिह्न बनाकर उनकी पूजा करते रहे। विशाखाचार्य जब दक्षिण से लौटे तब चन्द्रगुप्ति मुनि ने उनका
आदर किया। विशाखाचार्य ने भद्रबाहु की समाधि की वन्दना कर कान्यकुब्ज को प्रस्थान किया।
चिदानन्द कवि के मुनिवंशाभ्युदय नामक कन्नड काव्य में भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की कुछ वार्ता प्राई है। यह ग्रन्थ शक सं० १६०२ का बना हुआ है। इसमें कथन है कि "श्रुतकेवली भद्रबाहु बेलगोल को आये और चिक्कवेट्ट ( चन्द्रगिरि) पर ठहरे । कदाचित् एक व्याघ्र ने उन पर धावा किया
और उनका शरीर विदीर्ण कर डाला। उनके चरयाचिह्न अब तक गिरि पर एक गुफा में पूजे जाते हैं........अर्हद्वलि की प्राज्ञा से दक्षिणाचार्य बेलगोल आये । चन्द्रगुप्त भी यहाँ तीर्थयात्रा को प्राये थे। इन्होंने दक्षिणाचार्य से दीक्षा ग्रहण की
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