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________________ ५८ श्रवणबेलगोल के स्मारक और भद्राचार्य अपने-अपने संघों सहित सिंधु प्रादि देशों को भेजे गये । स्वयं भद्रबाहु स्वामी उज्जयिनी के 'भाद्रपद' नामक स्थान पर गये और वहाँ उन्होंने कई दिन तक अनशन व्रत कर समाधिमरण किया * जब द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष का प्रन्त हो गया तब विशाखाचार्य संघ सहित दक्षिण से मध्यदेश को लौट आये | दूसरा ग्रंथ, जिसमें उपयुक्त प्रसङ्ग प्राया है, रत्ननन्दिकृत भद्रबाहुचरित है । रत्ननन्दि, अनन्तकीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति के शिष्य थे ! उनका ठीक समय ज्ञात नहीं है पर वे पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दि के लगभग अनुमान किये जाते हैं । इस ग्रन्थ में प्राय: ऊपर के ही समान भद्रबाहु का प्राथमिक वृत्तान्त देकर कहा गया है कि वे जब उज्जयिनी मा गये तत्र वहाँ के राजा 'चन्द्रगुप्त' ने उनकी खूब भक्ति की और उनसे नाम से किया है और कहा है कि वहाँ रक्तमणि ( beryl ) बहुत पाये जाते हैं । यहाँ के राष्ट्रवर्मा श्रादि राजाओं की राजधानी 'कीर्तिपुर' थी । कीर्तिपुर कदाचित् मैसूर जिले के हेग्गड़ वन्कोटे तालुके में पिनी नदी पर के आधुनिक 'कित्तूर' का ही प्राचीन नाम हैं । हरिषेण और जिनसेन कवि अपने को पुन्नाट संघ के कहते हैं । यह संघ सम्भवतः 'कित्तूर' संघ का ही दूसरा नाम है जिसका उल्लेख शिलालेख नं० १६४ ( ८१ ) में श्राया है । * प्राप्य भाद्रपद देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम् । चकारानशनं धीरः स दिनानि बहून्यलम् ॥ समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुदिवं ययैौ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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