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________________ होयसल वंश ८६ त्रिभुवनमल्ल के साथ-साथ विष्णुवर्द्धन का उल्लेख है जिससे सिद्ध होता है कि विष्णुवद्धन चालुक्यों के आधिपत्य को स्वीकार करते थे । इस लेख में नयकीर्त्ति के स्वर्गवास का भी उल्लेख है । लेख नं० ४५ (१२५), ५-८ (७३ ), ८० (२४० ), १४४ (३८४) ३६० ( २५१ ) तथा ४८६ (३६७) विष्णुवर्द्धन नरेश ही के समय के हैं। इन लेखों में गङ्गराज की वंशावली तथा उनके प्रतापमय व धार्मिक कार्यों का वर्णन पाया जाता है । गङ्गराज का वंशवृक्ष इस प्रकार हैकौण्डिन्य गोत्रीय नागवर्मा - बम्मचमूप 1 मार - माकणब्बे Jain Education International ! एच ( पर नाम बुधमित्र - नृपकाम होय्सल के आश्रित ) - पोचिकब्बे गङ्गराज ( देखा लेख नं० १४४, पृ० २-६६ ) लेख नं० ४४ (११८ ) में गङ्गराज की ये उपाधियाँ पाई जाती हैं— समधिगतपश्च महाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचण्डदण्डनायक, वैरिभयायक, गोत्रपवित्र, बुधजनमित्र, श्री जैनधर्मामृताम्बुधि प्रवर्द्धन सुधाकर, सम्यक्त्वरत्नाकर, आहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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