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________________ सल्लखना ११५ लिये प्रथम स्नेह व वैर, संग व परिग्रह का त्याग कर मन को शुद्ध करे व अपने भाई बन्धु व अन्य जनों को प्रिय वचनों द्वारा क्षमा प्रदान करे और उनसे क्षमा करावे । तत्पश्चात् निष्कपट मन से अपने कृत, कारित व अनुमोदित पापों की आलोचना करे और फिर यावज्जोवन के लिये पञ्चमहाव्रतों को धारण करे । शोक, भय, विषाद, स्नेह, रागद्वेषादि परिणति का याग कर शास्त्र-वचनों द्वारा मन को पसन्न और उत्साहित करे। तत्पश्चात् क्रमश: कवलाहार का परित्याग कर दुग्धादि का भोजन करे। फिर दुग्धादि का परित्याग कर कञ्जिकादि शुद्ध पानी ( व गरम जल ) का पान करे। फिर क्रमश: इसे भी त्यागकर शक्तानुसार उपवास करे और पञ्चनमस्कार का चिन्तवन करता हुआ यत्नपूर्वक शरीर का परित्याग करे।" यह सल्लेखना मुनियों के लिये ही नहीं श्रावकों को भी उपादेय कही गई है । आशाधरजी ने अपने धर्मामृत ग्रन्थ में कहा है सम्यक्त वममलममलान्यनुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ।। अर्थात् शुद्ध सम्यक्तव, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन व मरण समय सल्लेखना यह गृहस्थों का सम्पूर्ण धर्म है। कुछ शिलालेखों में जितने दिनों के उपवास के पश्चात् समाधि मरण हुआ उसकी संख्या भी दी है। लेख नं० ३८ (५६) में तीन दिन, नं० १३ (३३ ) में इक्कोस दिन , व नं०८ (२५); ५३ (१४३ ) और ७२ (१६७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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