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५६ . श्रवणबेलगोल के स्मारक लेख लगभग शक सं० ८२२ के हैं। श्रवणबेल्गोल के लगभग शक सं० ५७२ के लेख नं० १७-१८ ( ३१ ) में कहा गया है कि 'जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था उसके किञ्चित् क्षोण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया ।' शक सं० १०५० के लेख नं० ५५ (६७) ( श्लोक ४) में भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का उल्लेख है। ऐसा ही उल्लेख शक सं० १०८५ के लेख नं० ४० (६४) (श्लोक ४-५) में व शक सं० १३५५ के लेख नं० १०८ ( २५८) ( श्लोक ८-८ ) में है। इन उल्लेखों में चन्द्रगुप्त की गुरुभक्ति और तपश्चरण की महिमा गाई गई है।
साहित्य में इस प्रसङ्ग का सबसे प्राचीन उल्लेख हरिषेणकृत 'बृहत्कथाकोष' में पाया जाता है। यह ग्रन्थ शक सं० ८५३ का रचा हुआ है। इसमें भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है-'पौण्डवर्धन देश में देवकोट नाम का नगर था। इस नगर का प्राचीन नाम कोटिपुर था। यहाँ पद्मरथ नाम का राजा राज्य करता था। इनके एक पुरोहित सोमशर्मा और उनकी भार्या सोमश्री के भद्रबाहु नामक पुत्र हुमा। एक दिन अन्य बालकों के साथ नगर में खेलते हुए भद्रबाहु को चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धन ने देखा । उन्होंने देखकर जान लिया कि यही बालक अन्तिम श्रुतकेवली होनेवाला है। अतएव माता-पिता की अनुमति से उन्होंने
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