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विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १८५ श्वरशिष्यनमल निजचित्परिणतनध्यात्मिबालचन्द्रमुनीन्द्रं ॥ २२ ॥ कन्तुकुलान्तकालयमर्जितशासनमं निशिधिकासन्ततियं तटाक सरसीकुलमं नयकोत्ति देवसैद्धान्तिकरोल्परोक्षविनयङ्गलनीतेरदिन्द माल्परारिन्तिरे नोन्तरारेनिसिदं नयकीर्तिनिलाविभागदोल ॥२३॥
[ यह लेख श्रादि से आठवें पद्य तक लेख नं० १६ (७३ ) के पूर्वभाग के समान ही है। केवल इसमें तीसरा पद्य अधिक है। इस लेख में भी विष्णु नरेश के महादण्डनायक गङ्गराज के पराक्रम का अच्छा वर्णन है। उन्होंने तलकाडु पर घेरा डालनेवाले चोल सामन्त अदियम नरसिंह वर्मा, दामोदर व तिगुलदाम को भारी पराजय दी। इस पर विष्णुवर्द्धन ने प्रसन्न होकर उनसे पारितोषक माँगने को कहा। उन्होंने गोम्मटेश्वर की पूजन निमित्त 'गोविन्द वाडि' का दान मांगा। इसे नरेश ने सहर्ष स्वीकार किया।
गङ्गराज कुन्दकुन्दान्वय के कुक्कुटासन मलधारिदेव के शिष्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। उनके तिगुलों को हराकर गङ्गवाडि की रक्षा करने, गङ्गवाडि के गोम्मटेश्वर का परकोटा बनवाने व अनेक जैन बस्तियों का जीर्णोद्धार करने का लेख नं. ५६ के सदृश यहाँ भी उल्लेख है और यहाँ भी वे चामुण्डराय से सौगुणे अधिक धन्य कहे गये हैं। .
पद्य १७ और १८ में गुणचन्द्र देव के तनय नयकीति देव का उल्लेख करके कहा गया है कि नरसिंह नरेश ने दिग्विजय से लौटते हुए गोम्मटेश्वर के दर्शन किये और सदा के लिए पूजनार्थ तीन ग्रामों का दान दिया। इसके पश्चात् नरसिंह नरेश और एचल देवी से उत्पन्न होनेवाले बल्लाल नृप का कामदेव और ओडेय राजाओं को जीतने, उच्चङ्गि
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