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________________ श्रवणबेलगोल के स्मारक साथ जाने वाले उनके शिष्य चन्द्रगुप्त स्वयं भारत सम्राट चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हैं। यद्यपि वीर निर्वाण के समय का अब तक अन्तिम निर्णय न हो सकने के कारण भद्रबाहु का जो समय जैन पट्टावलियों और ग्रंथों में पाया जाता है तथा चन्द्रगुप्त सम्राट का जो समय आजकल इतिहास सर्व सम्मति में स्वीकार करता है उनका ठीक समीकरण नहीं होता, * तथापि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्र. दाय के ग्रंथों से भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त समसामयिक सिद्ध होते हैं। इन दोन सम्प्रदायों के ग्रंथों में इस विषय पर कई विरोध होने पर भी वे उक्त बात पर एकमत हैं। हेमचन्द्रा. चार्य के 'परिशिष्ठ पर्व' से यह भी सिद्ध होता है कि इस समय बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा था, तथा 'उस भयङ्कर दुष्काल के पड़ने पर जब साधु समुदाय का भिक्षा का अभाव होने लगा तब सब लोग निर्वाह के लिये समुद्र के समीप गाँवों में चले गये। इस समय चतुर्दशपूर्वधर श्रुत केवली श्री भद्रबाहु स्वामी ___* दि० जैन ग्रंथों के अनुसार भद्रबाहु का श्राचार्यपद निर्वाण संवत् १३३ से १६२ तक २६ वर्ष रहा जो प्रवलित निर्वाण संवत् के अनुसार ईस्वीपूर्व ३६४ से ३६५ तक पड़ता है, तथा इतिहासानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य ईस्वीपूर्व ३२१ से २१८ तक माना जाता है। इस प्रकार भद्रबाहु और चन्द्र गुप्त के अन्तकाल में ६७ वर्ष का अन्तर पड़ता है। श्वेताम्बर ग्रंथों के अनुसार भद्रबाहु का समय नि० सं० १५६ से १७० तदनुसार ईस्वी पूर्व ३.१ से १७ तक सिद्ध होता है। इसका चन्द्रगुप्त के समय के साथ प्रायः समीकरण हो जात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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