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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता
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ने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की प्राराधना प्रारम्भ कर दी थी । परिशिष्ट पर्व के अनुसार भद्रबाहु स्वामी इस समय नेपाल की ओर चले गये थे और श्रीसंघ के बुलाने पर भी वे पाटलिपुत्र को नहीं श्राये जिसके कारण श्रीसंघ ने उन्हें संघबाह्य कर देने की भी धमकी दी। उक्त ग्रंथ में चन्द्रगुप्त के समाधि पूर्वक मरण करने का भी उल्लेख है ।
इस प्रकार यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में कई बारीकियों में मतभेद है पर इन भेदों से ही मूल बातों की पुष्टि होती है क्योंकि उनसे यह सिद्ध होता है कि एक मत दूसरे मत की नकल मात्र नहीं है व मूल बातें दोनों के ग्रन्थों में प्राचीनकाल से चली आती हैं।
अब इस विषय पर भिन्न-भिन्न डा० ल्यूमन * और डा० हार्नते । दक्षिण यात्रा को स्वीकार करते हैं टामस साहब अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि "चन्द्रगुप्त जैन समाज के व्यक्ति थे यह जैन ग्रन्थकारों ने एक स्वयंसिद्ध और सर्व प्रसिद्ध बात के रूप से लिखा है जिसके लिये कोई अनुमान प्रमाण देने की आवश्यकता ही नहीं थी । इस विषय में लेखों के प्रमाण बहुत प्राचीन और साधारणतः सन्देह-रहित हैं । मैगस्थनीज
विद्वानों के मत देखिये । श्रुतकेवली भद्रबाहु की
* Vienna Oriental Journal VII, 382.
+ Indian Antiquary XXI, 59-60.
‡ Jainism or the Early Faith of Asoka P, 23.
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