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लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता ६५ होना चाहिये। दिगम्बर पट्टावलियों में महावीर स्वामी के समय से लगाकर शक की उक्त शताब्दियों तक 'भद्रबाहु' नाम के दो प्राचार्यों के उल्लेख मिलते हैं, एक तो अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु और दूसरे वे भद्रबाहु जिनसे सरस्वती गच्छ की नन्दो प्राम्नाय की पट्टावली प्रारम्भ होती है। दूसरे भद्रबाहु का समय ईस्वी पूर्व ५३ वर्ष व शक संवत् से १३१ वर्ष पूर्व पाया जाता है। इनके शिष्य का नाम गुप्तिगुप्त पाया जाता है जो इनके पश्चात् पट्ट के नायक हुए। डा० फ्लीट का मत है कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले ये ही द्वितीय भद्रबाहु हैं और चन्द्रगुप्त उनके शिष्य गुप्तिगुप्त का हो नामान्तर है। पर इस मत के सम्बन्ध में कई शंकाएँ उत्पन्न होती हैं। प्रथम तो गुप्तिगुप्त और चन्द्रगुप्त को एक मानने के लिये कोई प्रमाण नहीं हैं, दूसरे इससे उपर्युक्त प्रमाणों में जो चन्द्रगुप्त नरेश के राज्य त्यागकर भद्रबाहु से दीक्षा लेने का उल्लेख है, उसका कुछ खुलासा नहीं होता और तीसरे जिस द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु ने दक्षिण की यात्रा की थी उम दुर्भिक्ष के द्वितीय भद्रबाहु के समय में पड़ने के कोई प्रमाण नहीं मिलते। इन कारणों से डा० फ्लीट की कल्पना बहुत कमज़ोर है और अन्य कोई विद्वान उसका समर्थन नहीं करते । विद्वानों का अधिक झुकाव अब इसी एकमात्र युक्तिसंगत मत की ओर है कि दक्षिण की यात्रा करनेवाले भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं और उनके
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