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श्रवणबेलगोल के स्मारक
तय हो जाता है। इससे 'आचार्य' का सम्बन्ध भद्रबाहु स्वामी से हो जाता है और लेख का यह अर्थ निकलता है कि भद्रबाहु स्वामी संघ को आगे बढ़ने की आज्ञा देकर भाप प्रभाचन्द्र नामक एक शिष्य सहित कटवप्र पर ठहर गये और उन्होंने वहीं समाधिमरण किया। इससे लेख के पूर्वापर भागों में सामन्जस्य स्थापित हो जाता है और अन्य प्रमाणों से कोई विरोध नहीं रहता । मूल में 'प्रभाचन्द्रोना' 'प्रभाचन्द्रेणाम' भी पढ़ा जा सकता है । इस पाठ में कठिनाई केवल यह आती है कि 'म' अक्षर का कोई अर्थ व सम्बन्ध नहीं रहता । पर इसके परिहार में यह कहा जा सकता है कि लेख को खोदने वाले ने 'प्रभाचन्द्रेणनाम...' की जगह भ्रम से 'प्रभाचन्द्र'खाम' खोद दिया है; वह 'न' को भूल गया । ऐसी भूलें शिलालेखों में बहुधा पाई जाती हैं। प्रभाचन्द्र के भद्रबाहु के शिष्य होने से ऊपर के समस्त प्रमाणों द्वारा यह बात सहज ही समझ में आ जाती है कि प्रभाचन्द्र चन्द्रगुप्त का ही नामान्तर व दीक्षा- नाम होगा ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये भद्रबाहु और चन्द्र-गुप्त कौन थे और कब हुए । शिलालेख नं० १, जिसकी वार्त्ता पर हम ऊपर विचार कर चुके हैं, अपनी लिखावट पर से अपने को लगभग शक संवत् की पाँचवीं-छठी शताब्दि का सिद्ध करता है । अतः उसमें उल्लिखित भद्रबाहु और प्रभाचन्द्र ( चन्द्रगुप्त ) शक की पाँचवीं छठी शताब्दि से पूर्व
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