SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता ६३ श्रवणबेलगोल के लेख नं० १७-१८, ४०, ५४ तथा १०८ भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दोनों का चन्द्रगिरि से सम्बन्ध स्थापित करते हैं । पर जैसा कि ऊपर के वृत्तान्त से विदित होगा, शिलालेख नं० १ की वार्ता इन सबसे विलक्षण है । उसके अनुसार त्रिकालदर्शी भद्रबाहु ने दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की, जैन संघ दक्षिणापथ को गया व कटवप्र पर प्रभाचन्द्र ने जैन संघ को आगे भेजकर एक शिष्य सहित समाधि- प्राराधना की । यह वार्ता स्वयं लेख के पूर्व और अपर भागों में वैषम्य उपस्थित करने के अतिरिक्त ऊपर उल्लिखित समस्त प्रमाणों के विरुद्ध पड़ती हैं। भद्रबाहु दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करके कहाँ चले गये, प्रभाचन्द्र आचार्य कौन थे, उन्हें जैन संघ का नायकत्व कब और कहाँ से प्राप्त हो गया इत्यादि प्रश्नों का लेख में कोई उत्तर नहीं मिलता । इस उलझन को सुलझाने के लिये हमने लेख के मूल की सूक्ष्म रीति से जाँच की । इस जाँच से हमें ज्ञात हुआ कि उपर्युक्त सारा बखेड़ा लेख की छठी पंक्ति में 'आचार्य: प्रभाचन्द्रोनामानितल... 'इत्यादि पाठ से । खड़ा होता है । यह पाठ डा० फ्लीट और रायबहादुर नरसिंहाचार का है | श्रवणबेलगोल शिलालेखों के प्रथम संग्रह के रचयिता राइस साहब ने 'प्रभाचन्द्रोना.. ' की जगह 'प्रभाचन्द्रेण .. ...' पाठ दिया है । डा० टी० के० लड्डू भी राइस साहब के पाठ को ठीक समझते हैं । जगह 'प्रभाचन्द्रेण' होने से उपर्युक्त सारा बखेड़ा सहज ही 'प्रभाचन्द्रो' की Jain Education International ...... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy