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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख (पश्चिममुख) आहारं त्रिजगज्जनाय विभयं भीताय दिव्यौषधं व्याधिव्यापदुपेतदीनमुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमं । एवं देवमतिस्सदैव ददती प्रप्रक्षये स्वायुषा-- महदेवमतिंविधाय विधिना दिव्या वधू प्रोदभू ।। ४ ।। आसीत्परक्षोभकरप्रतापाशेषावनीपालकृतादरस्य । चामुण्डनाम्रो वणिजःप्रियास्त्री मुख्यामती या भुविदे मतीति ॥ ५॥ भूलोक-चैत्यालय-चैत्य-पूजा-व्यापार-कृत्यादरतोऽवतीर्णा स्वर्गात्सुरस्त्रीतिविलोक्यमाना पुण्येनलावण्यगुणेनयात्र ॥६॥ आहारशास्त्राभयभेषजानां दायिन्यलंवर्णचतुष्टयाय । पश्चात्समाधिक्रिययायुरन्ते स्वस्थानवत्स्व: प्रविवेशयोच्चैः॥७॥ सद्धर्मशत्रु कलिकालराज जित्वा व्यवस्थापितधर्मवृत्या । तस्याजयस्तम्भनिभंशिलाया स्तम्भंव्यवस्थापयतिस्म लक्ष्मीः।८। श्रीमूलसङ्घद देशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्र सिद्धान्तदेवर गुड्डि सकवर्ष १०४२ नेय विकारिसंवत्सरदफाल्गुणब ११ बृहवारदन्दु सन्यासन विधियिं देमियक मुडिपिदलु ॥ [इस लेख में चामुण्ड नाम के किसी प्रतिष्ठित और राजसन्मानित वणिक की धर्मवती भार्या 'देमति' व 'देवमति' की प्रशंसा है। इस महिला की माता का नाम 'नागले' व उसके एक भाई और बहिन के नाम क्रमश: बूचिराज और लक्कले थे। दान-पुण्य के कार्यों में जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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