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________________ १५८ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख ७७ (१८४) पद्मासन पर ( लगभग शक सं० १०७२) स्वस्ति समस्तदैत्यदिविजाधिप-किन्नर-पन्नगानमन्मस्तक-रत्ननिर्गत-गभस्तिशतावृत-पाद......। प्रास्त-समस्त-मस्तक-तमः-पटलं जिनधर्मशासनम् विस्तरमागेनिल्के धरे-वारुधि-सूर्यशशाङ्कल्लिनं ॥ १ ॥ [जैनशासन सदा जयवन्त हो।] ७८ (१८२) वाम हस्त की ओर बमीठे पर (लगभग शक सं० ११२२ ) श्रीनयकीर्तिसिद्धान्तचक्रवर्तिगल गुडु श्रोबसविसेट्टियरु सुत्तालयद भित्तिय माडिसि चव्वीसतीर्थकर माडिसिदरु मत्त श्री बसविसेट्टियर सुपुत्ररु नम्बिदेवसेट्टि बोकि सेट्टि जिन्निसेट्टि बाहुबलि-सेट्टि तम्मय्य माडिसिद तीर्थकर मुन्दण जालान्दरवं माडिसिदरु ॥ [नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य बसविसेट्टि ने परकोटे की दीवाल बनवाई और चौबीस तीर्थंकरों को प्रतिष्ठित कराया व उनके पुत्र नम्बिदेव सेटि, बोकिसेहि, जिनिसेष्टि और बाहुबलि सेट्टि ने तीर्थ करों के सन्मुख जालीदार वातायन बनवाया।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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