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________________ २४ श्रवणबेलगोल के स्मारक शताब्दि से लगाकर १८वीं शताब्दि तक के हैं। भुजबलिचरित में वर्णन है कि आदिनाथ के दो पुत्र थे; भरत, रानी यशस्वती से और भुजबलि, रानी सुनन्दा से। भुजबलि का विवाह इच्छा देवी से हुआ था और वे पादनपुर के राजा थे। कुछ मतभेद के कारण दोनों भाइयों में युद्ध हुआ और भरत को पराजय हुई। पर भुजबलि राज्य त्यागकर मुनि हो गये। भरत ने ५२५ मारु* प्रमाण भुजबलि की स्वर्णमूर्ति बनवाकर स्थापित कराई। कुक्कुट सर्पो से व्याप्त हो जाने के कारण केवल देव ही इस मूर्ति के दर्शन कर पाते थे। एक जैनाचार्य जिनसेन दक्षिण मधुरा को गये और उन्होंने इस मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की माता कालल देवी को सुनाया। उसे सुनकर मातश्री ने प्रण किया कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन न कर लँगी, दूध नहीं खाऊँगी। जब अपनी पत्नी अजितादेवी के मुख से यह संवाद चामुण्डराय ने सुना तब वे अपनी माता को लेकर पोदनपुर की यात्रा को निकल पड़े। मार्ग में उन्होंने श्रवणबेलगोल की चन्द्रगुप्त बस्ती में पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन किये और भद्रबाहु के चरणों की वन्दना की। उसी रात्रि को पद्मावती देवी ने उन्हें स्वप्न दिया कि कुक्कुट सर्पो के कारण पोदनपुर की बन्दना तुम्हारे लिये असम्भव है। पर तुम्हारी * दोनों बाहुओं को फैलाने से एक हाथ की अंगुली के अग्रभाग से लगाकर दूसरे हाथ की अंगुली के अग्रभाग तक जितना अन्तर होता है उसे 'मारु' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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