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विन्ध्यगिरि नाम ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर के पुत्र थे। इनका नाम बाहुबलि . या भुजबलि भी था। इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेव के दीक्षा धारण करने के पश्चात् भरत और बाहुबलि दोनों भ्राताओं में राज्य के लिये युद्ध हुआ जिसमें बाहुबलि की विजय हुई। पर संसार की गति से विरक्त हो उन्होंने राज्य अपने ज्येष्ठ भ्राता भरत को दे दिया और आप तपस्या के हेतु वन को चले गये। थोड़े ही काल में घोर तपस्या कर उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया। भरत ने, जो अब चक्रवर्ति राजा हो गये थे, पौदनपुर में उनकी शरीराकृति के अनुरूप ५२५ धनुष की प्रतिमा स्थापित कराई। समयानुसार मूत्ति के आसपास का प्रदेश कुक्कुट-सर्पो से व्याप्त हो गया जिससे उस मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर पड़ गया। धीरे-धोरे वह मूत्ति लुप्त हो गई और उसके दर्शन केवल दीक्षित व्यक्तियों को मंत्रशक्ति से प्राप्य हो गये। चामुण्डराय मंत्री ने इस मूर्ति का वर्णन सुना और उन्हें उसके दर्शन करने की अभिलाषा हुई। पर पोदनपुर की यात्रा अशक्य जान उन्होंने उसी के समान स्वयमूर्ति स्थापित कराने का विचार किया और तदनुसार इस मूर्ति का निर्माण कराया। इस वार्ता के पश्चात् लेख में मूर्ति का वर्णन है। यही वर्णन थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ भुजबलिशतक, भुजबलिचरित, गोम्मटेश्वर-चरित, राजावलिकथा और स्थलपुराण में भी पाया जाता है। इनमें से पहले काव्य को छोड़ शेष सब कनाड़ी भाषा में हैं। ये सब ग्रंथ १६वीं
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