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होयसलवंश व विष्णुवर्द्धन तक की वंशावलि, विष्णुवर्द्धन की उपाधियों व शान्तल देवी की प्रशंसा व उनके वंश का परिचय पाया जाता है। शान्तलदेवी की उपाधियों में 'उदवृत्तसवतिगन्धवारणे' अर्थात् 'उछ खल सौतों के लिये मत्त हाथी' भी पाया जाता है। शान्तलदेवी की इसी उपाधि पर से बस्ति का उक्त नाम पड़ा। लेख नं० ६२ ( १३१ ) में भी इस मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है। इस लेख में यह भी कहा गया है कि उक्त मन्दिर में शान्तिनाथ की मूर्ति स्थापित की गई थी। लेख नं० ५३ ( १४३ ) ( शक १०५०) में शान्तलदेवी की मृत्यु का उल्लेख है जो 'शिवगङ्ग' में हुई। यह स्थान अब बङ्गलोर से कोई तीस मील की दूरी पर शैवों का तीर्थस्थान है। लेख में शान्तलदेवी के वंश का भी परिचय है। उनके पिता पेगेंडे मारसिङ्गय्य शैव थे पर माता माचिकब्बे जिन भक्त थीं। लेख नं० ५१ ( १४१ ) और ५२ (१४५ ) (शक १०४१) में शान्तलदेवो के मामा के पुत्र बलदेव और उनके मामा सिङ्गिमय्य की मृत्यु का उल्लेख है। बलदेव ने मोरिङ्गरे में समाधिमरण किया तब उनकी माता और भगिनी ने उनकी स्मारक एक पट्टशाला ( वाचनालय ) स्थापित की। सिङ्गिमय्य के समाधिमरण पर उनकी भार्या और भावज ने स्मारक लिखवाया। लेख नं० ३६८ (२६५) और ३६६ ( २६६ ) में दण्डनायक भरतेश्वर द्वारा दो मूर्तियों के स्थापित कराये जाने का उल्लेख है। भरतेश्वर गण्डविमुक्त सिद्धान्त देव के
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