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________________ ६६ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख कलधौतनन्दि के पुत्र महेन्द्रकीर्त्ति हुए जिनकी आचार्य परम्परा में क्रम से वीरनन्दि, गोलाचार्य, त्रैकाल्ययोगी, अभयनन्दि और सकलचन्द्र मुनि हुए । लेख में इन श्राचार्यों के तप और प्रभाव का अच्छा वर्णन है । त्रैकाल्ययोगी के विषय में कहा गया है कि तप के प्रभाव से एक ब्रह्मराक्षस उनका शिष्य होगया था । उनके स्मरणमात्र से बड़े बड़े भूत भागते थे, उनके प्रताप से करञ्ज का तैल घृत में परिवर्तित होगया था । सकलचन्द्रमुनि के शिष्य मेवचन्द्र त्रैविद्य हुए जो सिद्धान्त में वीरसेन, तर्क में प्रकलङ्क और व्याकरण में पूज्यपाद के समान विद्वान् थे । शक सं० १०३७ मार्गसिर सुदि १४ बृहस्पतिवार को उन्होंने सद्ध्यानसहित शरीर त्याग किया | उनके प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्त देव ने महाप्रधान दण्डनायक गङ्गराज द्वारा उनकी निषद्या निर्माण कराई | लेख चावराज का लिखा हुआ है । ] ४८ (१२८ ) उसी मण्डप में तृतीय स्तम्भ पर ( शक सं० १०४४ ) श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयास्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ १ ॥ जयतु दुरितदूर: क्षीरकूपारहारः प्रथित पृथुल कीर्त्ति श्री शुभेन्दुव्रतीशः । गुणमणिगण सिन्धुः शिष्टलेोकैकबन्धुः विबुध- मधुप फुल फुलबाणादि-सलः ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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