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________________ १४ श्रवणबेलगोल के स्मारक उससे अनुमान होता है कि वह किसी अरिट्टनेमि नाम के कारीगर की बनाई हुई है । पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि लेख का जितना भाग पढ़ा जाता है उससे केवल इतना ही अर्थ निकलता कि 'गुरु अरिट्टनेमि' ने बनवाया । पर क्या बनवाया यह कुछ स्पष्ट नहीं है । अरिहोनेमि अरिष्टनेमि का अपभ्रंश है। लेख ईसा की नवमी शताब्दि का अनुमान किया जाता है । १७ इरुवे ब्रह्मदेव मन्दिर - जैसा कि ऊपर कह आये हैं, केवल यही एक मन्दिर इस पहाड़ी पर ऐसा है जो घेरे के बाहर है । यह घेरे के उत्तर- दरवाजे के उत्तर में प्रतिष्ठित है । यहाँ ब्रह्मदेव की मूर्ति विराजमान है । सम्मुख एक बृहत् चट्टान है जिस पर जिन - प्रतिमाएँ, हाथी, स्तम्भ आदि खुदे हुए हैं। कहीं-कहीं खादनेवालों के नाम भी दिये हुए हैं। मन्दिर के दरवाजे पर जो लेख (नं० २३५ ) है उसकी लिपि से वह दसवीं शताब्दि के मध्य भाग का अनुमान किया जाता है । १८ कचिन दाणे – इरुवेत्रह्मदेवमन्दिर से वायव्य की और एक चौकोर घेरे के भीतर चट्टान में एक कुण्ड है । यही कञ्चन दोणे कहलाता है। 'दोणे' का अर्थ एक प्राकृतिक कुण्ड होता है और 'कश्विन' का एक धातु जिससे घण्टा आदि बनते हैं । कहा नहीं जा सकता कि इस कुण्ड का यह नाम क्यों पड़ा । यहाँ कई छोटे-छोटे लेख हैं । एक लेख है 'मुरुकलंकदम्ब तर सि' (२८२) अर्थात् कदम्ब की आज्ञा ----- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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