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चन्द्रगिरि से तीन शिलाएँ यहाँ लाई गई। इनमें की दो शिलाएँ अब भी यहाँ विद्यमान हैं और तीसरी शिला टूट-फूट गई है। कुण्ड के भीतर एक स्तम्भ है जिस पर यह लेख है-'मानभ
आनन्द-संवच्छदल्लि कट्टिसिद दोणेयुः (२४४) अर्थात् इस कुण्ड को मानभ ने अानन्द-संवत्सर में बनवाया था। यह संवत् सम्भवतः शक सं० १११६ होगा।
१८ लक्दिोणे-यह दूसरा कुण्ड घेरे से पूर्व की ओर है। सम्भवतः यह किसी लकि नाम की स्त्री-द्वारा निर्माण कराये जाने के कारण लकिदोणं नाम से प्रसिद्ध हुआ है। कुण्ड से पश्चिम की ओर एक चट्टान है जिस पर कोई तीस छोटे-छोटे लेख हैं जिनमें प्राय: यात्रियों के नाम अङ्कित हैं। इनमें कई जैन आचार्यों, कवियों और राजपुरुषों के नाम हैं (नं० २८४-३१४)।
२० भद्रबाहु की गुफा-कहा जाता है कि अन्तिम श्रुत-केवली भद्रबाहु स्वामी ने इसी गुफा में देहोत्सर्ग किया था। उनके चरण इस गुफा में अङ्कित हैं और पूजे जाते हैं। गुफा में एक लेख भी पाया गया था (नं० ७१ (१६६) पर यह लेख अब गुफा में नहीं है। हाल में गुफा के सन्मुख एक भहा सा दरवाजा बनवा दिया गया है।
२१चामुण्डराय की शिला-चन्द्रगिरि पर्वत के नीचे एक चट्टान है जो उक्त नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि चामुण्डराय ने इसी शिला पर खड़े होकर विन्ध्यगिरि पर्वत की
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