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आचार्यों की वशावली
१२७ यह अङ्गधारी आचार्यों की पट्टावली है । नामों के क्रम में जो हेर फेर पाये जाते हैं, उसका कारण यह है कि लेख नं०१०५ हरिवंश पुराण से भिन्न छन्दों में लिखा गया है। कवि को अपने छन्द में नामों का समावेश करने के लिये उनको इधर उधर रखना पड़ा है। इसी कारण कहीं कहीं नामों में भी हेर फेर पाये जाते हैं । लेख में यश:पाल के लिये जयपाल, धर्मसेन के लिए सुधर्म, और यशोभद्र की जगह जयभद्र नाम आये हैं। ध्रुवसेन की जगह जो लेख में द्रुमसेन पाया जाता है, यह सम्भवत: मूल लेख के पढ़ने में भूल हुई है। लेख नं. १ में जो अधूरी परम्परा पाई जाती है उसका कारण यह ज्ञात होता है कि वहाँ लेखक का अभिप्राय पूरी पट्टावलि देने का नहीं था। उन्होंने कुछ नाम देकर आदि लगाकर उस सुप्रसिद्ध परम्परा का उल्लख मात्र किया है। इसी से श्रुतकेवलियों के बीच एक नाम छूट भी गया है। उक्त लेखों में यद्यपि इन प्राचार्यों का समय नहीं बतलाया गया, तथापि इन्द्रनन्दि-कृत श्रुतावतार से जाना जाता है कि महावीर स्वामी के पश्चात् तीन केवली ६२ वर्ष में, पाच श्रुत केवली १०० वर्ष में, ग्यारह दशपूर्वी ५८३ वर्ष में, पाँच एकादशाङ्गो २२० वर्ष में और चार एकाङ्गी ११८ वर्ष में हुए हैं। इस प्रकार महावीर स्वामी की मृत्यु के पश्चात् लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष व्यतीत हुए थे। ___ बहुत से लेखों में आगे के आचार्यों की परम्परा कुन्दकुन्दाचार्य से ली गई है। दुर्भाग्यतः किसी भी लेख में उपर्युक्त
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