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________________ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख १०० ( २२५) उसी स्तम्भ के दक्षिण मुख पर (शक सं० १४५८) तत्संवत्सरदलु गेरसोप्पेय चौडिसेट्टिरिगे दोडदेवप्पगल मग चिकनु कोट्ट धर्मसाधन नमगे अनुमत्य बरलागि नीवु नवगे परिहरिसि कोट्टदक्के १ तण्डक्के आहार दानवनु प्राचन्द्रा. कस्थायि यागि नडसि बहेवु मङ्गलमहा श्री श्री श्री श्री श्री ॥ [ दोड देवप्प के पुत्र चिकण ने यह 'धर्म साधन' चौडि सेट्टि को दिया कि 'आपने हमारे कष्ट का परिहार किया है इसके उपलक्ष्य में मैं सदैव एक संघ (तण्ड ) को आहार दूंगा।] १०१ ( २२६) नं० १०० के नीचे (शक सं० १४५८) तत्संवत्सरदलु गेरसोप्पेय चावुडिसेट्टरिंगे कविगल मग बोम्मणनु कोट धर्मसाधन नमधि अनुपत्य बरलागि नीवु नवगे परिहरिसि कोट्ट दक्के वर्ष १ के प्रारतिङ्गलु पर्य्यन्त १ तण्डके आहारदानवनु प्राचन्द्रार्कस्थायियागि नडसि बहेवु मङ्गलमहा श्री श्री श्री श्री॥ [ 'कवि, के पुत्र बोम्मण ने चबुडि सेट्टि को यह 'धर्म-साधन' दिया कि 'आपने हमारी प्रापद् का परिहार किया है इसके उपलक्ष्य में मैं सदव वर्ष में छह मास एक संघ (तण्ड ) को अहार दूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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