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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख शेषाशेषगुणं गुणैकशरणं श्रीबूचणोऽत्याहितं सत्यं सत्यगुणीकरोति कुरुते किं वा न चातुर्य्यभाक् ॥ ४ ॥ यो वीर्ये गजवैरिभूयमतुले दानक्रमे बूचणो यस्साक्षात्सुरभूजभूयमवनौ गम्भीरताया विधौ । यो रत्नाकरभूयमुन्नति-गुणे यो मेरुभूयं गतस्सोऽन्ते सान्तमना मनीषिलषितं गीर्वाणभूयंगतः ॥ ५ ॥ माराकारइति प्रसिद्धतरइत्यत्यूजित-श्रीरिति . प्राप्तस्वर्गपतिप्रभुत्वगुणइत्युच्चैर्मनीषीति च । श्रीमद्गङ्गचमूपते प्रियतमा लक्ष्मीसहक्षा शिला-- स्तम्भं स्थापयतिस्म बूचणगुणप्रख्यातिवृद्धि प्रति ।। ६ ॥ धरे लघुवायतु विश्रुतविनेयनिकायमनाथमायतुवाक्तरुणियुमीगली जगदोलार्गमनादरणीयेयादलेन्दिरदे विषादमादमोदवुत्तिरे भव्यजनान्त [रङ्ग] दोलु निरुपमनेयदिदं नेगई बूचियणं दिविजेन्द्रलोकमं ॥७॥ श्री मूलसङ्घद देसिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तदेवर गुड्डं बूचणन निशिधिगे ।। [इस लेख में 'नागले' माता के सुपुत्र 'बूचिराज' व बूचण के सौन्दर्य, शौर्य और सद्गुणों का उल्लेख है। यह तेजस्वी और धर्मिष्ट पुरुष शक सं० १०३७ वैशाख सुदि १० रविवार को सर्व-परिग्रह का त्यागकर स्वर्गगामी हपा । उनके. स्मरणार्थ सेनापति गङ्ग ने एक पाषाणस्तम्भ आरोपित कराया। बूचिराज के गुरु मूल संघ, देशीगण पुस्तक गच्छ के शुभचन्द्र . सिद्धान्त देव थे।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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