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________________ विन्ध्यगिरि पर्वत पर के शिलालेख स्वस्ति समधिगत पश्च मद्दा-शब्द महा-मण्डलाचार्य्यादिप्रशस्तय- विराजित - चिह्नालङ्कृतरुं विसम्बोधावबोधितरुं सकल - विमल - केवल-ज्ञान- नेत्र-त्रयरु प्रनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य्य. सुखात्मकरु विदितात्म-सद्धम्र्मोद्धार करु एकत्व - भावना - भावितात्मरु उभ-नय- समर्थिसखरु त्रिदण्ड-रहितरु त्रिशल्य - निराकृतरु चतु कषा-विनाशकरुं चतुर्व्विधावुपसर्ग गिरिकन्दरादि- दैरेयसमन्वितरु ं पञ्च-दस-प्रमाद - विनास कत्तु 'गलुं पञ्चाचारवीय्याचार - प्रवीणरु सडुदरुशनद भेदाभेदिगलुं सटु-कर्म सार सप्तनयनिरतरु अष्टाङ्ग - निमित्त कुशलरु अष्ट-विध- ज्ञानाचारसम्पन्नरुं नव-विध-ब्रह्मचरिय-विनिर्मुक्तरुं दश-धर्म-शर्म-शान्तरु मेकादशश्रावकाचारखुपदेशव्रताचार - चारित्ररु द्वादशातपनिरतरु द्वादशाङ्ग - श्रुतप्रविधान- सुधाकररुं त्रयोदशाचार-शीलगुण-धैर्यमं सम्पन्नरुं एम्बत- नालकु-लक्ष- जीव-भेद-प्राणरुं सर्व्वजीव- दया- पररु श्रीमत्काण्डकुन्दान्वय-गगन-मार्त्तण्डरु विदितातण्ड - कुष्ममाण्डरु देशिगण-गजेन्द्र-सिन्धूरमदधारावभासुररु श्री महादेश -गण-पुस्तक- गच्छ काण्ड-कुन्दान्वय श्रीमत् त्रिभुवनराज गुरु-श्रीभानुचन्द्र- सिद्धान्त- चक्रवर्त्तिगलुं श्रीसामचन्द्र- सिद्धान्त चक्रवर्त्तिगलं चतुर्मुखभट्टारक देवरु श्री सिंहनन्दिभट्टाचार्य्यरु श्री शान्तिभट्टारकाचार्य श्रीशान्तिकीर्त्ति... र... भट्टारकदेवरुं... श्रीकनकचन्द्रमलधारिदेवरु श्री नेमिचन्द्र मलधारिदेवरु चतुसङ्घ श्रीस फलगण-साधारण................ ड- देवधामरु कलियुग - गणधर - पश्चासत Jain Education International For Private & Personal Use Only २२५ www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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