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________________ १४२ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख सियोलेल्कोटि मुनीन्द्ररं कविलेयं वेदाव्यरं कोन्दुदो. न्दयसं सामुमिदेन्दु सारिदपु वीशैलाक्षरं सन्ततं ॥१५॥ श्लोक ॥ स्वदत्तां परदत्ता वा यो हरेद्वसुन्धरां । षष्टिवष सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ १६ ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरादिभिः । यानि यानि यथा धर्म तानि तानि तथा फलं ॥ १७ ॥ बिरुद-रूवारि-मुखतिलकं वद्ध मानाचारि खण्डरिसिदं । [ यह लेख एक दान का स्मारक है। मार और माकिणब्बे के पुत्र एचिराज हुए ! एचिराज और पोचिकब्बे के पुत्र महाप्रतापी गङ्गराज हुए। ये होयसल नरेश विष्णुवर्द्धन के महादण्डनायक थे। इन्होंने तिगुलों (तैलङ्गों) को परास्त कर गङ्गवाडि देश को बचा लिया तथा चालुक्य-नरेश त्रिभुवनमल्ल पेर्माडिदेव की सेना को जीतकर अपने भारी पराक्रम का परिचय दिया। उनकी स्वामि-भक्ति तथा विजय-शीलता से प्रसन्न होकर विष्णुवद्धन नरेश ने उन्हें पारितोषिक मांगने को कहा। उन्होंने 'परम' नामक ग्राम माँगा । इस ग्राम को पाकर उन्होंने उसे अपनी माता पोचल देवी तथा अपनी भार्या लक्ष्मीदेवी द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिरों की आजीविका के हेतु अर्पण कर दिया। यह लेख इसी दान का स्मारक है । गङ्गराज जैसे पराक्रमी थे वैसे धर्मिष्ट भी थे । इस दान के अतिरिक्त इन्होंने गङ्गवाडि परगने के समस्त जिन-मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, गोम्मट स्वामी का परकोटा बनवाया तथा अनेक स्थलों पर नये-नये जिन-मन्दिर निर्माण कराये । लेख में कहा गया है कि इन कृत्यों से क्या गङ्गराज गङ्गराय (चामुण्ड राय-गोम्मट स्वामी के प्रतिष्ठाकारक) की अपेक्षा सौ गुने अधिक धन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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