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________________ ४१० प्रासपास के प्रामों के प्रवशिष्ट लेख यमेन्दु कन्नेवसदिय माडिसि देवरष्टविधार्चनेगं प्राहारदानक हिरियकेरेय गाडियहल्लिगद्दे सल्लगे एरडु कोलग हत्तु अल्लिं तेङ्क बिट्टि सेट्टियकेरेयुं अदर केलद बंदते सलग एरडुवं सर्वबाधा परिहारमागि बिट्ट दत्ति ।। (स्वदत्तां परदत्तां आदि श्लोक) श्रीमन्महाप्रधानं सर्वाधिकारि तन्त्राधिष्ठायकं कम्मटद माचय्य माव बल्लय्यनुं देवर नन्दादीविगेगे गाणद सुङ्कवं बिट्टरु ।। कण्डच्चनायकन मदवलिगे राचवेनायकितिय मग कुन्दाडहेग्गडे नयचक्रदेवर बेसदिं माडिसिद बसदि । स्वस्ति ओमन्महाप्रधान सर्वाधिकारि हिरियभण्डारि हुल्लयङ्गल मेटदुन प्रश्वाध्यक्षद हेग्गडे हरियण्ण कुम्बेयनहल्लिय देवर माडिसि कोट्ट॥ श्रोपाल विद्यदेवर शिष्यरु पदद शान्तिसिङ्ग पण्डित गर्गेयुअवर पुत्र परवादिमल्लपण्डितर्गेयुं अवर तम्म उमेयाण्डगं आतन तम्म वादिराजदेवङ्ग वादिराजदेवरु धारापूर्वकं माडि कोट्टरु ॥ [चन्नरायपट्टन ११७] [ इस लेख में पूर्ववत् बल्लालदेव तक होय्सल वंश के वर्णन के पश्चात् वादिराज मल्लिषेण मलधारि की कीर्ति का वर्णन है और फिर षड्दर्शन के अध्येता श्रीपाल योगीन्द्र का उल्लेख है। इनके शिष्य वादिराजदेव ने अपने गुरु के स्वर्गवास होने पर 'परवादिमल्ल जिनालय' निर्माण कराया और उसकी अष्टविध पूजन तथा आहार-दान के लिये कुछ भूमि का दान दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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