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________________ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org २४ चारुकीत्ति देव ५५ कनकनन्दि ५६ वर्धमानदेव २७ रविचन्द्रदेव | २८ गण्ड विमुक्त सि० देव नयकीर्त्ति ५६ X X X Xx x X X X X मू० दे० पु० X X ६० कल्याणकीत्ति ६१ | भानुकीर्तिदेव X ६२ माधवचन्द्रदेव शुभचन्द सि० देव मू० दे० पु० ६३ नीतिदेव (म०म० (हिरिय ) ६४ | नयकीर्ति देव ( चिक्क ) ६५ | शुभकीर्तिदेव XXX x सवति गन्ध १०५० | उसके निर्माण कराये हुए वारण मन्दिर के लिये इन्हें ग्राम आदि के दान दिये गये थे । "" ३६८ लेख के लेखक बोकिमय्य के गुरु । १०४३ ये मुल्लर निवासी थे (मुल्लूर कुर्ग में है)। नृपकाम पोटल के श्राश्रित एचिगाङ्क के गुरु थे । १०५० इनकी और प्रभाचन्द्र सि० देव की साक्षी से शान्तलदेवी की माता ने संन्यास लिया था । १०५० इनके शिष्य दण्डनायक भरतेश्वर ने भुज२४१ अ०१०७० बलि स्वामी का पादपीठ निर्माण कराया । १०५० विष्णुवर्धन नरेश के राज्यकाल में नयकीर्त्ति का स्वर्गवास हो जाने पर कल्याणकीर्ति को जिनालय बनवाने व पूजनादि के हेतु भूमि का दान दिया गया । ४६७ " ४४ ५३ १४४ श्र० १०५७ ,, "" ४५४ ०१०६५ १८८०१०६७ ( १५५ )
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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