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लेख का सुगमता से मिलान किया जा सकता है। नये संस्करण के पाँच लेख यहाँ दो ही लेखों ( ७५, ७६ )में आ गये हैं व लेख नं. ३९४ और ४०१-. ४०६ विशेषोपयोगी न होने के कारण छोड़ दिये गये हैं। इस प्रकार दस लेखों की जो बचत हुई उनके स्थान में एपीग्राफिआ कर्नाटिका भाग ५ में से चुनकर दस लेख सम्मिलित कर दिये गये हैं।
भूमिका का वर्णनात्मक भाग सर्वथा रा० ब० नरसिंहाचार के वर्णन के आधार पर ही लिखा गया है किन्तु ऐतिहासिक व आचार्यों के सम्बन्ध का विवेचन बहुत कुछ स्वतंत्रता से किया गया है। गोम्मटेश्वर मूर्ति की स्थापना का समय निर्णय व शिलालेख नं १ का विवेचन नरसिंहाचारजी के मतसे कुछ भिन्न हुआ है। __ अन्त में हम मैसूर सरकार व उनके पुरातत्त्व विभाग के सुयोग्य अधिकारी भूतपूर्व राइस साहब व रा० ब० नरसिंहाचार के बहुत कृतज्ञ हैं। विना उनकी अपूर्व खोजों और अनुपम प्रयास के जैन इतिहास पर यह भारी प्रकाश पड़ना व इस पुस्तक का प्रकाशित होना दुःसाध्य था।हम माणिकचन्द्र दि जैन ग्रन्थमाला के मंत्री पं० नाथूरामजी प्रेमी के विशेष रूपसे उपकृत हैं। आपके सस्नेह प्रेरण व अपार उत्साह के विना हमसे यह कार्य होना अशक्य था। आपने असाधारण विलम्ब होने पर भी धैर्य रक्खा जिससे ग्रंथ सुचारुरूपसे सम्पादित हो सका । पुस्तक के-विशेषतः कनाड़ी अंशों के-कम्पोजिंग वप्रूफ शोधन में प्रेसवालों को भारी कठिनाई और विलम्ब का साम्हना करना पड़ा है किन्तु उन्होंने योग्यतापूर्वक इस कार्य को निवाहा। इस हेतु इंडियन प्रेस, अलाहाबाद के मैनेजर हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।
भूमिका की अपूर्णताओं और त्रुटियों का ध्यान जितना स्वयं मुझे है उतना कदाचित् हमारे उदार हृदय पाठकों को न होगा; किन्तु विषयकी ओर विद्वानों का लक्ष्य दिलाने के हेतु इन त्रुटियों में पड़ना भी आवश्यक था । यदि इस पुस्तक से जैन ऐतिहासिक प्रश्नों के हल करने में कुछ भी सहायता पहुँची तो मैं अपने को कृतार्थ समझेंगा। यदि पाठकों ने चाहा और भविष्य अनुकूल रहा तो दक्षिण भारत के जैन लेखोंका दूसरा संग्रह भी शीघ्र ही पाठकों की भेंट किया जायगा। किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती, है
हीरालाल फाल्गुन शुक्ला ७, सं० १९८४. "
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