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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १२३ वैयाकरण थे | देवेन्द्र वङ्कापुर के श्राचार्यों के नायक थे । वासवचन्द्र ने अपने वाद-पराक्रम से चालुक्य राजधानी में बालसरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी । यशःकीर्त्ति सैद्धान्तिक सिंहल द्वीप के नरेश द्वारा सम्मानित हुए थे । त्रिमुष्टि मुनीन्द्र बड़े सैद्धान्तिक थे और तीन मुष्टि अन्न का ही आहार करते थे । मलधारि हेमचन्द्र और शुभकीर्त्तिदेव बड़े सदाचारी आचार्य थे । कल्याणकीत्ति शाकिनी आदि भूत प्रेतों को भगाने की विद्या में निपुण थे । बालचन्द्र श्रगम और सिद्धान्त के अच्छे ज्ञाता थे । ] ५६ ( १३२ ) गन्धवारण बस्ति के पूर्व की ओर ( शक सं० २०४५ ) त्रैविद्योत्तम मेघ चन्द्रसुतपः पीयूषवारा शिजः सम्पूर्ण क्षयवृत्तनिर्मलतनुः घुष्यद्बुधानन्दनः । त्रैलोक्य प्रसरद्यशश्शुचिरुचिर्य्यप्रस्तदोषागमः सिद्धान्ताम्बुधिवर्द्धनो विजयते पूर्व्व: प्रभाचन्द्रमाः ॥ १ ॥ श्रीसेोदराम्बुजभवादुदितेोऽत्रिरत्र जातेन्दुपुत्र- बुधपुत्र- पुरूरवस्तः । प्रायुस्ततश्च नहुषो नहुषाद्ययातिः तस्माद्यदुर्यदुकुले बहवा बभूवुः ॥ २ ॥ ख्यातेषु तेषु नृपतिः कथितः कदाचित् कश्चिद्वने मुनिवरेश्व ( ध्व ) - चल : करालं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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