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विन्ध्यगिरि उपदेश से चामुण्डवशीय 'तिम्मराज' द्वारा प्रतिष्ठित की गई थी। इन तीनों मूत्तियों की बनावट प्राय: एक सी ही है। वमीठे, सर्प और लताएँ तीनों में एक से ही दिखाये गये हैं।
विन्ध्यगिरि के गोम्मटेश्वर की दोनों बाजुओं पर यक्ष और यक्षिणी की मूर्तियाँ हैं, जिनके एक हाथ में चौरी और दूसरे में कोई फल है। मूत्ति के बायीं ओर एक गोल पाषाण का पात्र है जिसका नाम 'ललितसरोवर' खुदा हुआ है। मूत्ति के अभिषेक का जल इसी में एकत्र होता है। इस पाषाणपात्र के भर जाने पर अभिषेक का जल एक प्रणालो-द्वारा मूर्ति के सम्मुख एक कुएँ में पहुँच जाता है और वहाँ से वह मन्दिर की सरहद के बाहर एक कन्दरा में पहुँचा दिया जाता है। इस कन्दरा का नाम 'गुल्लकायज्जि बागिलु' है। मूति के सम्मुख का मण्डप नव सुन्दर खचित छतों से सजा हुआ है। पाठ छतों पर अष्ट दिक्पालों की मूर्तियाँ हैं और बीच की नवमो छत पर गोम्मटेश के अभिषेक के लिये हाथ में कलश लिये हुए इन्द्र की मूर्ति है। ये छत बड़ी कारीगरी के बने हुए हैं। मध्य की छत पर खुदे हुए शिलालेख (नं० ३५१) से अनुमान होता है कि यह मण्डप बलदेव मन्त्रो ने १२ वीं शताब्दि के प्रारम्भ में किसी समय निर्माण कराया था। शिलालेख नं० ११५ (२६७) से विदित होता है कि सेनापति भरतमय्य ने इस मण्डप का कठघरा (हप्पलिगे) निर्माण कराया था। शिलालेख नै० ७८ (१८२) में कथन है कि नयकीर्तिसिद्धान्त
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