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________________ होयसलवंश ६१ कारण गङ्गराज की लेशमात्र भी हानि नहीं हुई। जब वे कन्नेगल में चालुक्यों को पराजित कर लौटे तब विष्णुवर्द्धन ने प्रसन्न होकर उनसे कोई वरदान माँगने को कहा। उन्होंने परम नामक ग्राम माँगकर उसे अपनी माता तथा भार्या द्वारा निर्माण कराये हुए जिनमन्दिरों के हेतु दान कर दिया । इसी प्रकार उन्होंने गोविन्दवाडि ग्राम प्राप्त कर गोम्मटेश्वर को अर्पण किया। गङ्गराज शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। लेख नं० ५६ ( ७३ ) से विदित होता है कि दण्डनायक एचिराज ने इस परम ग्राम के दान का समर्थन किया था। गङ्गराज से सम्बन्ध रखनेवाले और भी अनेक शिलालेख हैं, यद्यपि उनमें गङ्गराज के समय के नरेश का नाम नहीं पाया। लेख नं० ४६ (१२६ ) गङ्गराज की भार्या लक्ष्मी ने अपने भ्राता बूचन की मृत्यु के स्मरणार्थ लिखवाया था। बूचन शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। लेखनं० ४७ (१२७) जैनाचार्य मेघचन्द्र विद्यदेव की मृत्यु का स्मारक है और इसे गङ्गराज और उनकी भार्या लक्ष्मी ने लिखवाया था। लेख नं. ४६ ( १२६) लक्ष्मीमतिजी ने अपनी भगिनी देमति के स्मरणार्थ लिखवाया था। लेख नं० ६३ (१३० ) से ज्ञात होता है कि शुभचन्द्रदेव की शिष्या लक्ष्मी ने एक जिन मन्दिर निर्माण कराया जो अब ‘एरडुकट्टे बस्ति' के नाम से प्रख्यात है। लेख नं० ६४ (७०) में कहा गया है कि गङ्गराज ने अपनी माता पोचब्बे के हेतु कत्तले बस्ति निर्माण कराई। लेख नं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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