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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख ।
जीर्णोद्वार व जिननाथपुर में एक दानशाला का निर्माण कराने वाले महामण्डलाचार्य देवकीर्त्ति पण्डितदेव के स्वर्गवास होने पर यादववंशी नारसिंह नरेश ( प्रथम ) के मंत्री हुलप ने यह निषद्या निर्माण कराई जिसकी प्रतिष्ठा देवकीर्त्ति श्राचार्य के शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेव ने दान सहित की । ]
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उसी मण्डप में ( शक सं० १२३५ )
श्रीमत्स्याद्वादमुद्रातिममलमहीनेन्द्र चक्रेश्व रेड्य जैनीयं शासनं विश्रुतमखिलहितं दोषदूरं गभीरं । जीयात्कारुण्यजन्मावनिरमितगुणैर्व्वयनीक -प्रवेकैः संसेव्यं मुक्तिकन्या-परिचय-करण प्रौढमेतत्त्रिलोक्यां ॥ १ ॥
श्रीसूल सङ्घ- देशीगण पुस्तकगच्छ - कोण्डकुन्दान्वाये । गुरुकुल मिह कथमिति चेद्ब्रवीमि सङ्घ पता भुवने ||२|| यः सेव्यः सर्व्वलोकैः परहितचरितं यं समाराधयन्ते भव्या येन प्रबुद्धं स्वपर मत - महा-शास्त्र-तत्त्वं नितान्तं । यस्मै मुक्ताङ्गना संस्पृहयति दुरितं भीरुतां याति यस्मा - द्यस्याशानास्ति यस्मिंस्त्रिभुवन महिता विद्यते शीलराशिः ॥ ३ ॥
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चार्य देवेन्द्र व देवसूरि हैं, जिनके विषय में प्रभावक - चरित में कहा गया है कि उन्होंने वि० सं० ११८१ में दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को में परास्त किया था । ]
वाद
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