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चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख
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[ यह लेख शान्तलदेवी के दान का स्मारक है । लेख में यादवकुल की उत्पत्ति ब्रह्मा और चन्द्र से बतलाई है । इस कुल में 'सल' नामक एक राजा हुआ। एक बार वन में किसी साधु ने एक व्याघ्र की ओर संकेत कर इस राजा से कहा 'पाय्सल' ( हे सल, इसे मारो ) । तभी से इस राजा का नाम पाय्सल पड़ गया और उसने सिंह का चिह्न अपने मुकुट पर धारण किया। तब से इस वंश का नाम पाय्सल पड़ गया । लेख में इस वंश के विनयादित्य, एरेयङ्ग और विष्णुवर्द्धन नरेशों के प्रताप का वर्णन है । विष्णुवर्द्धन की पटरानी शान्तलदेवी, जो पातिव्रत, धर्मपरायणता और भक्ति में रुक्मिणी, सत्यभामा, सीता जैसी देवियों के समान थी, ने सवति गन्धवारणबस्ति निर्माण कराकर श्रभिषेक के लिए एक तालाब बनवाया और उसके साथ एक ग्राम का दान मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को कर दिया । ]
[ नाट-लेख की ठीक तारीख़ 'सासिरद नल्वत्तयदनेय' है, परन्तु खोदने वाले की भूल से जब 'नत्वत्त' छूट गया और 'सासिरदयदनेय' खुद गया तब उसने 'सासिरद, के 'द' को ४० में बदलकर जितना अच्छा उससे हो सका उसे शुद्ध कर दिया । यद्यपि पढ़ते समय इससे ठीक अर्थ निकल आता है परन्तु देखने में यह बड़ा विचित्र मालूम होता है । ]
५७ (१३३ )
गन्धवारण वस्ति के उत्तर की ओर स्तम्भ पर । ( शक सं० ६०४ )
( उत्तर मुख )
संसारवनमध्येऽस्मिनृजूंस्तद्गान् जन- द्रुमान् । आलोक्यालोक्य सद्वृत्तान् छिनत्ति यमतक्षकः ॥ १ ॥
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